मनुष्य
ने मानसिक चेतना को विकास के दौर में पा लिया है, पर वह चेतना के विकास की
मूलभूत प्रक्रिया को विश्लेषण और हृदयंगम न कर पाने के कारण जानता ही नहीं
कि मानसिक चेतना के आगे क्या है ?
हर जीवन-पदार्थ पर चेतना की विजय
का एक चरण है... यह तब तक चलता रहेगा, जब तक पदार्थ को अनुशासित करके चेतना
उसे पूर्ण आत्मा की अभिव्यक्ति का सीधा साधन और माध्यम नहीं बना देती..
मस्तिष्क मनुष्य के लिए सबसे बड़ी शक्ति है, पर अग्रिम विकास में वही सबसे बड़ी बाधा भी है कैसे ?
क्योंकि हमारा मानस यंत्र शरीर या भौतिक जगत और अतिमानसिक सत्ता के बीच
सेतु नहीं बन सकता ? मस्तिष्क न तो ज्ञान का समुच्चय है और न उसका उत्पादक
संयंत्र ही... यह तो मात्र ज्ञान को ढूंढ़ने का औजार है..सापेक्ष्य विचारों
के रूप में जो कुछ भी यह पाता है उसका कुछ खास क्रियाओं में उपयोग भर करता
रहता है....
मस्तिष्क की अपनी आदतें हैं .... वह हमारे शरीर के
भीतर बेड़ियों में जकड़े शासक की तरह स्थित है... वह अदृश्य विराट को समुच्चय
को कभी समझ नहीं सकता !!इसलिए वह खंडश: टुकड़े-टुकड़े करके, रूपाकार प्रदान
करके चीजों को अलग-अलग करके समझने और समझाने की कोशिश करता है !!मानों यह
चीजें अलग-अलग और खंडश: बिना आधार के भी विद्यमान हो सकती हैं, उसकी ये
सीमाएं स्पष्ट हैं.........
मस्तिष्क कभी भी अनन्त को अधिकृत नहीं
करता,वह अनन्त के द्वारा भुक्त और अधिकृत ही हो सकता है, बहुत कोशिश करके
वह अधिक से अधिक अपनी पहुंच के परे ही सत्ता के लोगों को जो ज्योतिमय सत
छाया है, उसके नीचे असहाय सा पड़ा रह सकता है,अतिमानस लोकों में, उनके स्तर
पर आरोहण के बिना अनन्त पर अधिकार नहीं हो सकता और इस आरोहण के लिए अति
मानसिक संदेशों के प्रति मस्तिष्क को निस्पंद बनाकर समर्पित कर देने के
अलावा कोई रास्ता नहीं है...............
हर जीवन-पदार्थ पर चेतना की विजय का एक चरण है... यह तब तक चलता रहेगा, जब तक पदार्थ को अनुशासित करके चेतना उसे पूर्ण आत्मा की अभिव्यक्ति का सीधा साधन और माध्यम नहीं बना देती..
मस्तिष्क मनुष्य के लिए सबसे बड़ी शक्ति है, पर अग्रिम विकास में वही सबसे बड़ी बाधा भी है कैसे ?
क्योंकि हमारा मानस यंत्र शरीर या भौतिक जगत और अतिमानसिक सत्ता के बीच सेतु नहीं बन सकता ? मस्तिष्क न तो ज्ञान का समुच्चय है और न उसका उत्पादक संयंत्र ही... यह तो मात्र ज्ञान को ढूंढ़ने का औजार है..सापेक्ष्य विचारों के रूप में जो कुछ भी यह पाता है उसका कुछ खास क्रियाओं में उपयोग भर करता रहता है....
मस्तिष्क की अपनी आदतें हैं .... वह हमारे शरीर के भीतर बेड़ियों में जकड़े शासक की तरह स्थित है... वह अदृश्य विराट को समुच्चय को कभी समझ नहीं सकता !!इसलिए वह खंडश: टुकड़े-टुकड़े करके, रूपाकार प्रदान करके चीजों को अलग-अलग करके समझने और समझाने की कोशिश करता है !!मानों यह चीजें अलग-अलग और खंडश: बिना आधार के भी विद्यमान हो सकती हैं, उसकी ये सीमाएं स्पष्ट हैं.........
मस्तिष्क कभी भी अनन्त को अधिकृत नहीं करता,वह अनन्त के द्वारा भुक्त और अधिकृत ही हो सकता है, बहुत कोशिश करके वह अधिक से अधिक अपनी पहुंच के परे ही सत्ता के लोगों को जो ज्योतिमय सत छाया है, उसके नीचे असहाय सा पड़ा रह सकता है,अतिमानस लोकों में, उनके स्तर पर आरोहण के बिना अनन्त पर अधिकार नहीं हो सकता और इस आरोहण के लिए अति मानसिक संदेशों के प्रति मस्तिष्क को निस्पंद बनाकर समर्पित कर देने के अलावा कोई रास्ता नहीं है...............
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें