सोमवार, 24 सितंबर 2012

श्रृष्टि संरचना , श्रृष्टि चक्र........??

संरचना बिधान मे प्रत्येक संरचना का प्राण केंद्र यानि न्यूक्लियस का होना अनिवार्यता है अर्थात प्राण केंद्र विहीन किसी संरचना की हम कल्पना नहीं कर सकते हैं..प्रत्येक संरचना के प्राण केंद्र की धुरी से आबद्ध होकर उस संरचना का अंश इलेक्ट्रान - प्रोटान अथवा उपग्रह के रूप मे निरन्तर उसकी परिक्रमा करता रहता है ! परमाणु श्रृष्टि की सबसे छोटी संरचना है ! पदार्थ पर चारो ओर से पड़ने वाला वायु मंडलीय दबाव उसके भीतर एक प्राण केंद्र , जो  पदार्थ की संरचना की स्थिरता बनाये रखने हेतु वायु मंडलीय दबाव के बराबर बहिर्मुखी दबाव देने का कार्य करता है , को उत्पन्न करता है ! इलेक्ट्रान व प्रोटान इस संरचना के अंश के रूप मे परमाणु के प्राण केंद्र की परिक्रमा करते रहते हैं !पृथ्वी समस्त परमाणुओं का समेकित स्वरूप है और चन्द्रमा पृथ्वी के प्राण केंद्र से आबद्ध होकर इसकी परिक्रमा करता है!सौर मंडल मे सूर्य की प्राण केन्द्रीय स्थिति है और सारे ग्रह व उपग्रह सूर्य की परिक्रमा कर रहे होते हैं ! महा सौर मंडल मे महा सूर्य की प्राण केन्द्रीय स्थिति है और अनेकानेक सौर मंडल महा  सूर्य की ग्रहों की भाति परिक्रमा कर रहे होते हैं!सी प्रकार महा महा सौर मंडल मे महा महा सूर्य की प्राण केन्द्रीय स्थिति है और अनेकानेक महा सौर मंडल ग्रहों की भाति इस महा महा सौर मंडल की परिक्रमा कर रहे होते हैं !इसी प्रकार महानतम सौर मंडल मे महानतम सूर्य की प्राण केन्द्रीय स्थिति है! अनेकानेक  महा महा सौर मंडल और  ब्रह्माण्ड की समस्त संरचनाये इस परम प्राण केंद्र की परिक्रमा कर रही होती हैं ....
     इस परम प्राण केंद्र की तरंग दैर्घ्य ( बेब लेंथ ) ब्रह्माण्ड की हरेक संरचना तक होने के कारण यह सर्ब व्याप्त है ! सर्बाधिक तरंग दैर्घ्य वाली यह शक्ति ब्रह्माण्ड की समस्त संरचनाओं को परिचालित , संचालित एवं नियंत्रित करने वाली होने के कारण यह सर्ब शक्तिमान है !यही परम प्राण केंद्र ब्रह्माण्ड की समस्त संरचनाओं को शक्ति प्रदान करता है और उनकी गत्यात्मकता को नियंत्रित करता है !इस प्रकार सर्ब व्यापकता , सर्ब शक्ति मानता और सर्ब नियंता होना इसका प्रमुख गुण है................
       सर्ब नियंता , सर्ब व्यापकता एवं सर्ब शक्तिमानता इस परम प्राण केंद्र अथवा परम सिद्धांत के गुण बोध मात्र को स्पष्ट करता है , पर इससे इस सत्ता के स्वरूप का आभास नहीं होता, सापेक्ष जगत मे समस्त सीधी रेखा लगने वाली समस्त तरंगें वस्तुतः सीधी रेखाएं न होकर किसी बड़े बृत की त्रिज्याएँ मात्र होती हैं, केवल अनंत तरंग दैर्घ्य वाली त्रिज्या  ही सीधी रेखा मे हो सकती है, इस प्रकार यह परम प्राण केंद्र , परम सिद्धांत एक सीधी रेखा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, इस प्रकार निरपेक्ष तरंग दर्घ्य वाली सत्ता ही सीधी रेखा मे हो सकती है , अब प्रश्न उठता है कि सीधी रेखा मे क्या हो सकता  है ? कोई भी भौतिक , मानसिक सापेक्ष संरचना सीधी रेखा मे नहीं हो सकती , सीधी रेखा मे केवल संचेतना अथवा पुरुष ही हो सकता है , अतयव इस अनंत शक्ति सत्ता को हम परम पुरुष अथवा ईश्वर का नाम  दे सकते हैं...........
त बिना किसी परम कारक तत्व के कार्य नहीं कर सकता है ....सत-राज-तम की त्रिगुणात्मकता शक्ति स्वरूपा प्रकृति ही वह परम कारक व परम परिचालक के रूप मे पुरुष को शक्ति प्रदान करते हुए संचालित करती है ,यह प्रकृति अपने त्रिगुणात्मक स्पन्दंयुक्त कार्य विधान द्वारा सदैव क्रियाशील रहती है!  प्रारंभ मे प्रकृति के आन्तरिक त्रिगुणात्मक स्पंदन के बावजूद परम पुरुष अप्रतिहत रहता है! यह प्रकृति की निष्क्रियता की वह स्थिति है , जहाँ परम पुरुष से अलग प्रकृति का कोई अलग तथा उद्भासित अस्तित्व नहीं होता है ! दूसरे शब्दों मे परम पुरुष की देह मे प्रकृति सुषुप्ति की स्थिति मे विद्यमान रहती है ! यहाँ प्रकृति और परम पुरुष की स्थिति कागज के दो पृष्ठों या सिक्के के दोनों भाग की तरह संपृक्त होती है और जिसका बिलगाव नहीं होता ! इसे निर्गुण ब्रह्म की स्थिति कही जा सकती है जो श्रृष्टि स्पंदन के ठहराव की स्थिति है ..............
       परम पुरुष की इच्छा जागने पर प्रकृति का त्रिगुणात्मक स्पंदन सक्रिय हो उठता है और तरंग सायुज्य की प्रक्रिया द्वारा परम पुरुष सगुण रूप धारण करना प्रारंभ करता है !सर्बप्रथम परम पुरुष प्रकृति के सत गुण स्पंदन से सायुज्य करके सगुण ब्रह्म का स्वरूप धारण करेगा ! बाद में रज गुण और अंत में तम गुण सायुज्य स्थापित करेगा ! यह भूमा मन की स्थिति होगी जो सगुण ब्रह्म की सूक्ष्म तम स्थिति होगी! इसके उपरांत तमो गुण का प्रभाव निरंतर बढ़ता जाता है और शेष दोनों गुण उत्तरोतर सुसुप्त होते जाते हैं ! इस स्थूलीकरण की प्रक्रिया में सर्बप्रथम आकाश तत्व (ध्वनी स्पंदन ) वायु तत्व (स्पर्श स्पंदन ) ,अग्नि तत्व (दृश्य स्पंदन ) ,जल तत्व (घ्राण स्पंदन )तथा छिति तत्व (स्वाद स्पंदन )अतिरिक्त रूप मे स्थान पाते हैं .. परम सिद्धांत ( परम पुरुष )पर परम कारक (प्रकृति )के परम स्थूलीकरणकी अंतिम स्थिति छिति तत्व की है ............
         इस परम सूक्ष्म से स्थूल तक की यात्रा की अंतिम परिणति छिति तत्व है , जिस पर चारो ओर से वायु मंडलीय दबाव पड़ता है जो पृथ्वी के भीतर एक बिंदु पर प्रतिफलित होकर प्राण केंद्र यानि न्यूक्लियस का निर्माण करता है जो पृथ्वी के ढांचागत स्थायित्व के लिए वायु मंडलीय दबाव के बराबर बहिर्मुखी दबाव उत्पन्न करता है.तभी एक पदार्थ का ढांचागत स्थायित्व बना रहना संभव होता है..एक अन्य स्थिति की परिकल्पना कीजिये ,जहाँ पदार्थ के प्राण केंद्र का बहिर्मुखी दबाव वायु मंडल  के अंतर्मुखी दबाव से अधिक है..ऐसी स्थिति मे पदार्थ का संरचनात्मक अस्तित्व बनाये रखने के उद्देश्य से उक्त पदार्थ का एक अंश अलग होकर इतना दूर चला जाता है ,जहाँ उसके पहुचने से पदार्थ के संरचनात्मक संतुलन मे सामंजस्य स्थापित हो जाताहै ... पदार्थ का उक्त अंश पदार्थ के प्राण केंद्र से ही आबद्ध होकर उसी पदार्थ के उपग्रह व ग्रह के रूप मे उसकी परिक्रमा करने लगता है ... इस प्रक्रिया को जदास्फोत कहते  हैं और विखंडन की इसी प्रक्रिया से श्रृष्टि मे विकास और  गुणन प्रभाव देखने को मिलता है . एक से अनेक होने की यह प्रक्रिया ब्रह्माण्ड मे निरन्तर चलती रहती है...... !
     अब एक ऐसी स्थिति की परिकल्पना कीजिये ,जहाँ वायु मंडलीय दबाव पदार्थ के प्राण केंद्र के बहिर्मुखी दबाव से काफी अधिक है ऐसी स्थिति मे पदार्थ के संकुचन की प्रक्रिया मे अणुकर्षण व अणुसंघात की स्थिति उत्पन्न होगी .... जिसके फलस्वरूप पहले छिति चूर्ण तत्पश्चात छिति तत्व मे अवस्थित पांच महाभूतो का सुप्त स्पंदन जागृत हो उठेगा और उपयुक्त संयोजन के फलस्वरूप जीव उत्पन्न होने की सम्भावना होगी , सर्बप्रथम प्रकृति के तम गुण से सायुज्य होगा  तत्पश्चात जड़ संघात के फलस्वरूप एककोशीय अमीबा बहुकोशीय होकर जैविक विकास का मार्ग प्रशस्त्र करेगा ,जीव विकास की इस प्रक्रिया मे पहले वनस्पति फिर जलचर फिर पशु और सबसे बाद मे मनुष्य उत्पन्न होगा, यही जैविक विकास की प्रक्रिया और क्रम है,,,,,
      इस जड़ संघात की प्रक्रिया के पश्चात् मनस संघात की परिस्थितियां उत्पन्न होंगी, मनस संघात की इस प्रक्रिया मे सर्बप्रथम वनस्पति मन फिर पशु मन फिर मानव मन उत्पन्न होगा,कालांतर मे विकसित बुद्धि का मानव बोधि और आध्यात्म का आलंबन लेकर सापेक्षिकता के बंधन से मुक्त होकर ब्रह्म लींन हो जायेगा ,यह पूर्ण स्थूल से परम सूक्ष्म (पुरुष) तक की आरोही यात्रा का क्रम है,...........
    निर्गुण ब्रह्म की स्थिति ठहराव (pause) की स्थिति है ! इस क्रिया विहीनता की स्थिति मे ही शक्ति संचयन होता है ! इसके पश्चात् चरम बिंदु से चरम स्थूल छिति तत्व की अवरोही क्रम और छिति तत्व के स्थूलीकरण से ब्रह्मलीन होने की आरोही क्रम की यात्रा चलती रहती है ! इसे ही श्रृष्टि चक्र या ब्रहास्पंदन समझ सकते हैं..........             

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें