!! अरविन्द केजरीवाल जी के नाम एक पत्र ...असीम त्रिवेदी जी का !!
अरविन्द
केजरीवाल को राजनितिक पार्टी बनाने के फैसले पर लताड़ते हुए और अपना विरोध
दर्ज करवाते हुए असीम त्रिवेदी का पत्र जो कि अरविन्द केजरीवाल को लिखा गया
था उनके हाल ही में पार्टी बनाने का फैसला करने के बाद , एक बारी पढ़ें
जरूर ,काफी चीजें बताता है यह पत्र -
अरविन्द केजरीवाल को अन्ना आन्दोलनकारी असीम त्रिवेदी का जवाबी पत्र
अरविन्द केजरीवाल जी के नाम एक पत्र
नमस्कार अरविन्द जी,
यह पत्र मैं हाल ही में समर्थकों के नाम लिखे गए आपके पत्र के जवाब के रूप
में लिख रहा हूँ, कोशिश है कि इसके माध्यम से अपना और उन सभी लोगों का
पक्ष आपके सामने रख सकूंगा जो राजनीतिक दल बनने के आपके निर्णय से असहमत
हैं और आंदोलन को पहले की तरह ही जारी रखने के पक्षधर हैं. स्पष्ट करना
चाहूँगा कि यहाँ जो कुछ भी लिख रहा हूँ वो सिर्फ मेरे नहीं बल्कि
उन
तमाम लोगों के विचार हैं जिनसे अनशन के दस दिनों के दौरान जंतर मंतर पर
हमारी बात हुई. कोशिश कर रहा हूँ कि उन सभी बातों को आपके सामने रखूँ जो
राजनीतिक विकल्प देने के निर्णय के बाद हुईं बहस और चर्चाओं में हमारे
सामने आयीं.
अरविन्द जी सबसे पहले हम ये कहना चाहेंगे कि जिस
एसएमएस पोल को आप बहुमत का आधार मान रहे हैं उसमें ऐसे तमाम असंतुष्ट लोगों
ने हिस्सा ही नहीं लिया था, जो इस निर्णय से अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर
रहे थे. वो लोग भी इस वोटिंग में जरूर हिस्सा लेते अगर मंच से घोषणा करने
से पहले ये एसएमएस वोट लिया गया होता. और अगर ये मान भी लें कि बहुमत
राजनीतिक विकल्प के साथ था तो भी सिर्फ इस अनियमित बहुमत के आधार पर यह
निर्णय लेना गलत होगा क्योंकि यह निर्णय आंदोलन की मूल भावना के ही खिलाफ
है. हम शुरू से कहते थे कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन एक आंदोलन है, एक अभियान
है ये कोई एनजीओ या सामाजिक संस्था नहीं है. और यह बात आन्दोलन के
प्रिएम्बल के सामान थी. इसलिए एक आकस्मिक और अनियमित बहुमत के आधार पर कोई
छोटा मोटा एमेंडमेंट तो किया जा सकता है परन्तु मूल भावना से ही यू टर्न
लेने का ये कदम कतई लोकतांत्रिक नहीं माना जा सकता.
जैसा कि आपने
कहा, किसी भी निर्णय से सौ फीसदी लोग सहमत नहीं हो सकते. जब हमने जंतर मंतर
पर इस बारे में अपना विरोध दर्ज किया था तो भी हमें ऐसा ही उत्तर मिला था
कि कुछ लोग जायेंगे तो कुछ नए लोग आयेंगे. हम इस बात को कतई ठीक नहीं समझते
कि जो लोग पिछले डेढ़ साल से अपनी जॉब, अपनी पढाई और अपने परिवार की सुख
सुविधाओं को ताक पर रखकर इस आंदोलन के लिए काम कर रहे हैं वो चले जाएँ और
चुनाव लड़कर मलाई खाने की इच्छा रखने वाले नए लोग आ जाएँ. क्योंकि तमाम लोग
ऐसे भी हैं जिनके लिए वापसी का रास्ता भी उतना आसान नहीं रह गया है. कुछ
अपनी पढाई से हाथ धो चुके हैं तो कुछ अपनी जॉब से. किसी के ऊपर कुछ मुक़दमे
दर्ज हैं तो किसी के ऊपर परिवारी जनों का विरोध और स्थानीय भ्रस्टाचारियों
की दुश्मनी. और जहां तक रही नए लोगों के आने की बात तो चुनाव लड़ने और
सत्ता का स्वाद चखने की मंशा रखने वाले ऐसे नए लोग तो हर राजनीतिक पार्टी
के साथ हैं फिर एक और विकल्प की ज़रूरत ही क्या है.
टीम के तमाम
लोग ये तर्क देते नज़र आ रहे थे कि रामदेव जी अपनी पार्टी बनाने की घोषणा
करने वाले हैं. ऐसे में अगर हमने अपनी पार्टी नहीं बनाई तो हमारे सारे
समर्थक रामदेव का वोट बैंक बन जायेंगे क्योंकि साधारण लोग अन्ना और बाबा को
एक ही समझते हैं. इस पूरे तर्क पर ही हमारी घोर आपत्तियाँ हैं. पहली तो ये
कि अगर हमारे समर्थक किसी का वोटबैंक बन भी जायें तो इससे हमें क्या फर्क
पड़ता है. हम कोई राजनीतिक पार्टी तो हैं नहीं जो इससे हमारे वोटबैंक के
समीकरण गड्बडा जायेंगे. और अगर बात ये है कि हमें रामदेव से कोई विशेष
आपत्ति है तो हम उनके साथ बार बार मंच साझा करने को क्यों तैयार हो जाते
हैं. और जैसा कि अब लग रहा है, संभव है कि रामदेव अभी राजनीतिक पार्टी
बनाने की घोषणा न करें. तो अब हमारे प्रीकॉशनरी स्टेप के क्या अंजाम होंगे.
और क्या होगा जब रामदेव जी हमारी आधी छोड़ी हुई लड़ाई को लेकर आगे बढ़
जायेंगे और सरकार से 'कैसा भी' लोकपाल पास करवाने की जिद पर अड जायेंगे. तो
क्या इस तरह से हमारा उद्देश्य पूरा हो पायेगा और देश को एक मुकम्मल
क़ानून मिल पायेगा.
एक और बड़ी गलती जो हम लगातार करते जा रहे
हैं, वो है भीड़ की भक्ति. गांधी के साथ सिर्फ ७८ लोग थे दांडी मार्च में.
पर कम भीड़ से उनकी लड़ाई छोटी नहीं हो गयी. जब हम भीड़ को आदर्श बनायेंगे
तो ज़ाहिर है कि हमें भीड़ लाने के लिए तमाम तरह के उचित अनुचित कदम उठाने
होंगे. अभी जंतर मंतर पर भी हमने देखा कि अपने साथ लंबी भीड़ ला रहे लोगों
को विशेष महत्व और सम्मान दिया गया बिना इस बात पर ध्यान दिए कि उनका
वास्तविक उद्देश्य क्या है. अब राजनीतिक दल बनने के प्रयास में हमने अनजाने
ही भीड़ के महत्व को बढ़ा दिया है. क्रान्ति और आंदोलनों में देश की सारी
जनता भाग नहीं लेती. आंदोलन महज मुठ्ठी भर लोगों के समर्पण और कुर्बानी से
कामयाब होते हैं. न कि किसी स्थान पर इकठ्ठा भीड़ की तादाद से.
आज
हमने भी बाकी दलों की तरह ही अपने नायकों के अंधभक्त पैदा कर दिए हैं.
अंधभक्त चाहे भगवान के हों या शैतान के, बराबर खतरनाक होते हैं. शैतान के
इसलिए क्योंकि उसकी शैतानी को कई गुना कर देते हैं और भगवान के इसलिए
क्योंकि वो भगवान को भगवान रहने नहीं देते. हमने जंतर मंतर पर जब राजनीतिक
विकल्प बनाने के निर्णय का विरोध किया तो हमारा उद्देश्य था अन्ना जी तक
अपना अनुरोध पहुचाना कि वो अपने इस निर्णय को वापस लेकर आंदोलन के रास्ते
पर ही चलते रहें. लेकिन वहाँ मौजूद वालंटियर्स के एक विशेष ग्रुप ने इसे
किसी और ही निगाह से देखा और हमसे हाथापाई और धक्का मुक्की करने में भी
संकोच नहीं किया. हमारे बोर्ड जिन पर हम पिछली पच्चीस तारीख से एंटी करप्शन
कार्टून्स बना रहे थे, तोड़ दिए गए. हमारे पोस्टर्स फाड़ दिए गए. हमारा
साथ दे रहे लोगों से बदसलूकी की गयी. कहा गया कि हम एनएसयूआई के लोग हैं,
हमने सरकार से पैसे खा लिए हैं. अरविन्द जी, हमारा प्रश्न है कि इन
अंधभक्तों को साथ लेकर हम किस दिशा में जा रहे हैं. ऐसा ही तो होता है जब
कोई राहुल गांधी की सभा में उनके खिलाफ आवाज़ उठाता है. जब कोई मुलायम सिंह
के किसी फैसले का विरोध करता है. तो फिर उनमें और हम में क्या फर्क रहा.
हमारे विरोधियों और दुश्मनों के लिए इससे ज्यादा खुशी की बात क्या होगी कि
हम भी उनके जैसे हो जायें.
हम शुरू से गांधी के तरीकों पर भरोसा
करते आये हैं. आप भी गांधी की हिंद स्वराज से खासे प्रभावित लगते हैं. फिर
भला हम हिंद स्वराज में कई बार दुहराई गयी गांधी की इस सीख का उल्लंघन कैसे
कर सकते हैं कि हमें कुर्सी पर बैठे चेहरों को नहीं व्यवस्था को बदलना
होगा. आसान शब्दों में कहें तो खिलाड़ियों को नहीं खेल के तरीकों को बदलना
होगा. आज देश में कहीं भी चुनाव भ्रस्टाचार के मुद्दे पर नहीं लड़े जाते.
जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा जैसे सैकड़ों मुद्दे असली मुद्दों पर भारी हैं.
भारी लालू प्रसाद फूडर स्कैम के खुलासे के बाद भी चुनाव जीतते जा रहे हैं
तो इसका मतलब है कि लोगों के लिए भ्रस्टाचार उतना महत्वपूर्ण मुद्दा है ही
नहीं. हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम लोगों को जागरूक करें जिससे चुनाव
भ्रस्टाचार और विकास के मुद्दों पर लड़े जायें न कि जाति, धर्म, भाषा और
क्षेत्र के मुद्दों पर. क्योंकि अगर हम लोगों का रुझान बदले बिना ही चुनाव
में उतर जायेंगे तो जीतने के लिए हमें भी इन्ही समीकरणों का सहारा लेना
पडेगा. देखना पडेगा कि कहाँ पर दलित वोट ज्यादा है, कहाँ पर सवर्ण वोट.
कहाँ पर हिन्दू वोट निर्णायक है, कहाँ पर मुस्लिम वोट. और ऐसे में हमारे
मुद्दे, हमारी प्राथमिकताएं भी बदल जायेंगी और सच कहें तो अब हमारा पार्टी
बनाना बेमायने हो जाएगा. क्योंकि अब हम भी उसी सड़ी गली परम्परा को आगे
बढ़ा रहे होंगे. नए विकल्प की बात तब तक बेईमानी है जब तक हम चुनाव के
तरीके न बदल पाएं. हमने इलेक्टोरल रिफोर्म्स की बात कही थी. उसकी ज़रूरत थी
अभी. हम राईट टू रिजेक्ट लाने की कोशिश करते. और फिर देखते कि कोई दागी
संसद भवन में न पहुच पाए. हम देश भर में विभिन्न पार्टियों से लड़ रहे दागी
प्रत्याशियों के खिलाफ अभियान चलाते. और उनकी जीत की राह में सब मिलकर
रोडे अटकाते.
चुनावी राजनीति में उतरकर हम अपनी राह को लंबा बना
रहे हैं और अपने कद को छोटा. ये एक ऐसा कदम है जिससे हम खुद अपने हाथों ही
अपनी सीमाओं को संकुचित कर लेंगे. आज जो लोग भ्रस्टाचार के विरोध में हैं,
वो हमारे साथ हैं. कल मामला इतना सीधा, इतना ब्लैक एंड व्हाईट नहीं रह
जाएगा. कल वोट लेने के लिए हमें लोगों को अपनी आर्थिक नीतियों से भी सहमत
करना होगा. विदेश नीति पर भी अपना स्टैंड क्लिअर करना होगा. सामाजिक न्याय,
समानता, शिक्षा और आरक्षण जैसे विषयों पर भी आम सहमति बनानी होगी. और शायद
जो इनमे से किसी एक पर भी हमसे सहमत नहीं हो पायेगा उसके पास पर्याप्त
कारण होंगे हमें वोट न करने के.
और फिर हमारे पास अभी कोई ढांचा
नहीं है, कोई तैयारी नहीं हैं, क्षेत्रीय मुद्दोंपर पकड़ नहीं है, स्थानीय
स्तर पर कोई संगठन नहीं है. ऐसे में हम बहुमत ले आयेंगे ये कहना तो
दिवास्वप्न को मान्यता देने जैसा ही होगा. तो फिर जब हम दस बीस सीटें जीत
भी लेंगे. तो हम अपनी शक्ति को कई गुना कम कर लेंगे. क्या तब भी हम ये कह
पायेंगे कि हमारे पीछे एक सौ पच्चीस करोड भारतीय हैं. क्या तब भी हम सरकार
पर इतना ही दबाव बना पायेंगे. क्या तब भी मीडिया हमें इतनी तवज्जो देगा.
मुझे नहीं लगता कि मीडिया किसी छोटे राजनीतिक दल को वो वेटेज देता है जो
हमें मिलती आयी है. एक जन आंदोलन की ताकत एक राजनीतिक दल की अपेक्षा कहीं
ज्यादा होती हैं. जन आंदोलन व्यापक होता है, जन आंदोलन पवित्र होता है.
आन्दोलनों से राजनीतिक दल बनने का और उनके नायकों के राजनेता बनने का
सिलसिला बहुत पुराना है. और जनता को इस राह पर हमेशा धोखा ही मिला है.
कांग्रेस भी एक आंदोलन के लिए ही बनी थी. आज के दौर के कई बड़े नेता जेपी
आंदोलन से निकले हैं. पर क्या ये सब देश की राजनीति को एक बेहतर विकल्प दे
पाए. हमें याद रखना होगा कि ये सारे राजनीतिक दल जब बने थे तो इसी वादे के
साथ कि वो देश को एक बेहतर विकल्प देंगे और ऐसा भी नहीं है कि सबकी मंशा ही
खराब थी पर इस खराब सिस्टम में उतरकर गंदा हो जाना ही उनकी नियति थी, उनकी
मजबूरी थी.
इस बारे में एक बात और बहुत महत्वपूर्ण है कि हमारे
आंदोलन में मंच की ऊंचाई बढ़ती ही जा रही है. ऊपर बैठे हमारे नायक नीचे
जमीन पर बैठे समर्थकों से मिलना भी पसंद नहीं करते. जंतर मंतर पर कितने लोग
नीचे उतरकर आये और आंदोलन के आम समर्थकों से मिले. इस अनशन के दौरान हमारे
कुछ नायक जहां एक भी रात जंतर मंतर पर नहीं रुके तो कुछ लोग एसी कारों में
खिड़कियों पर भीतर से अखबार लगाकर सोते रहे और मंच से लोगों की देशभक्ति
को जागाने वाले नारे लगाते रहे. क्या इन नायकों ने उन लोगों के साथ खड़े
होने की कोशिश की जो रोज सुबह से शाम तक वही खटते थे और रात को वहीं जमीन
पर सो जाते थे. वालंटियर्स की लंबी कतारों से घिरी कारों में बैठकर सीधे
मंच तक जाने वाले इन नायकों से हम कौन सी उम्मीद रखें जो जनता के बीच से
अपने क़दमों से गुजरना भी पसंद नहीं करते. हमारे सांसदों से भी हम नहीं मिल
पाते और ये जन नायक भी हमारी पहुच के बाहर हैं. और वो भी तब जब ये कोई
चुनाव नहीं जीते हैं, गाड़ियों पर लाल बत्ती नहीं लगी हैं. फिर भला चुनाव
जीतने पर और सत्ता में आ जाने पर ये कैसे हमारी पहुच में होंगे ये समझना
मुश्किल है. ऐसे में ये राजनीतिक दल सत्ता में आने पर भी कोई बेहतर विकल्प
दे पाएगा इसमें हमें गंभीर संदेह हैं.
और जहां तक आंदोलन से निराश
होने की बात है. हमें मानना होगा कि यह आंदोलन शुरू हुए अभी डेढ़ साल भी
नहीं हुए और हमने पूरे देश में चेतना की लहर देखी. लोगों में उम्मीद की
किरण देखी. इतने कम समय में इतनी सफलता मिलना हमारे देश का सौभाग्य ही था.
ज़रूरत थी धैर्य रखकर इसीतरह चलते रहने की. आज़ादी की लड़ाई को भी मुकम्मल
अंजाम तक पहुचने में सौ साल लगे थे. ऐसे में डेढ़ साल में निराश होना और
विकल्प तलाशना बेहद जल्दबाजी भरा कदम था. क्या बेहतर नहीं होता अगर हम
राजनीतिक दल बनाने की बजाय अपने आंदोलन को गाँव और कस्बों तक ले जाते. हर
जगह छोटी छोटी स्थानीय टीमें बनाते. जो वहाँ हो रहे भ्रस्टाचार के मामलों
के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करती. आरटीआई का इस्तेमाल कर सिस्टम पर दबाव
बनाती और ज़रूरत पड़ने पर लोगों को संगठित कर अनशन, सत्याग्रह और सविनय
अवज्ञा का सहारा लेकर स्थानीय स्तर पर क्रान्ति की बुनियाद रख पाती. और
ज़रूरत पड़ने पर एक केन्द्रीय टीम उनकी सहायता के लिए पहुच जाती. अरविन्द
जी, आप शुरू से कहते थे कि जब कोई तुमसे कहे कि मेरा राशन कार्ड नहीं बन
रहा है तो उससे कहो कि लोकपाल पास करवाओ, राशन कार्ड अपने आप बन जाएगा.
क्या आपको नही लगता कि अब हमें ढंग बदलने की ज़रूरत थी. अब हम पहले राशन
कार्ड बनवाते, लोगों की समस्याओं को दूर करते और फिर उनसे उम्मीद करते कि
वो लोकपाल और दुसरे मुद्दों पर हमारे साथ कंधा मिलाकर खड़े हों. ऐसे में हम
अपने संघर्ष का लाभ सीधे आम जनता तक पहुचा पाते. अब हम किस हक से चुनावी
अखाड़े में कदम रखने जा रहे हैं. हमें सोचना होगा कि हमारी उपलब्धियां ही
क्या हैं. जन्लोकपाल, जिसे हम पास नहीं करा पाए, राईट टू रीकॉल एंड रिजेक्ट
जिसकी हमने बात करना भी बंद कर दिया. प्रश्न है कि क्या हमारे अचीवमेंट्स
लोगों को भरोसा दिलाने के लिए काफी हैं. आप ही तो कहते थे कि हम मालिक हैं
और हम सेवक क्यों बनें. आप ही तो कहते थे कि क्या अच्छे इलाज़ के लिए हमें
खुद डॉक्टर बनना पडेगा, अच्छी शिक्षा के लिए क्या हमें खुद टीचर बनना होगा,
अच्छे प्रशासन के लिए हमें खुद अधिकारी बनना होगा. तो फिर हम भला क्या
क्या बनेंगे ? नेता, अधिकारी, डॉक्टर, टीचर, लॉयर और पता नहीं क्या क्या ?
फिर तो देश की सफाई बड़ी मुश्किल हो जायेगी और शायद नामुमकिन भी. इसलिए
बेहतर होगा कि हम ये सब कुछ बनने की बजाय सिविल सोसाइटी बने रहें और इन
सबको मजबूर करें अपना काम बेहतर ढंग से करने के लिए.
अरविन्द जी,
हम सभी आप पर विश्वास करते हैं और समूचा देश आपके प्रति कृतज्ञता की भावना
से देखता है कि आपने लोगों को संगठित कर इस बड़े आंदोलन को मूर्त रूप देने
में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है. ऐसे में आपसे हम लोगों की आशा होना बेहद
लाजिमी है कि आप आंदोलन को गलत राह पर नहीं जाने देंगे. इस चेतना की नदी पर
बाँध नहीं बनने देंगे. क्योंकि अगर ये आंदोलन यहाँ खत्म हुआ तो लोग आने
वाले समय में कभी सिविक सोसाइटी के आन्दोलनों पर भरोसा नहीं कर पायेंगे.
हमने अपनी उम्र में पहली बार देखा कि सिविल सोसाइटी का एक आंदोलन कैसे
शहरों के ड्राइंग रूम तक, मॉर्निंग वाकर्स असोसिएशन तक, पान की गुमटी तक और
गाँव की चौपाल तक पहुच गया. भैंस के चट्टों और नाई की दुकानों पर एक
क़ानून की बारीकियों के बारे में बहस होने लगी. अगर जाने अनजाने हमने लोगों
का भरोसा तोड़ा तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा. फिर शायद ये मुमकिन नहीं
होगा कि लोग एक आंदोलन पर इतना भरोसा करेंगे कि उस पर अपना सब कुछ कुर्बान
करने को तैयार हो जायें.
इसलिए अरविन्द जी, आप से हमारा बस इतना
ही अनुरोध है कि राजनीतिक दल बनाने के अपने निर्णय को वापस ले लें और अगर
राजनीतिक दल बनाने का निर्णय बदला नहीं भी जा सकता हो, तो भी ये आंदोलन
स्वतंत्र रूप से चलता रहे, और इसका किसी भी राजनीतिक दल से कोई सम्बन्ध न
रहे. जिन लोगों को राजनीति में हिस्सा लेना है, चुनाव लड़ना है, वो
पोलिटिकल पार्टी का हिस्सा बन जायें और जो लोग इस निर्णय से सहमत नहीं हैं
वो पहले की तरह ही इस आंदोलन को लेकर आगे बढते रहें. आप ये सुनिश्चित करें
कि इसका नेतृत्व पोलिटिकल पार्टी के नेतृत्व से अलग हो. जिससे ये आंदोलन और
राजनीतिक दल एक ही सिक्के के दो पहलू न बन जाएँ. हमें तय करना होगा कि
आन्दोलन और पार्टी की स्थिति संघ और भाजपा जैसी न हो जाए कि लोग हमारे
आंदोलन को निरपेक्ष दृष्टि से देखना ही बंद कर दें. ये आंदोलन न तो किसी
पार्टी के साथ हो और ना किसी के खिलाफ. 'पाप से घृणा करो, पापी से नहीं' के
सिद्धांत पर चलकर इस आंदोलन के सिपाही राजनीति और समाज की सफाई में लगे
रहें. और ज़रूरत पड़ने पर आंदोलन से निकले राजनीतिक दल के खिलाफ आवाज़
उठाने से भी गुरेज़ न करें.
अंत में आपसे बस इतना कहना चाहूँगा कि
हमारे विरोध और आपत्तियों का मकसद इस आंदोलन की बेहतरी है ना कि महज़
बौद्धिक विलास. और हमारी इन आपत्तियों पर उस तरह रिएक्ट न किया जाये जैसे
सरकार अपनी आलोचनाओं पर करती है. हमें विरोध और असहमति के कारणों को समझना
होगा और ये भी तय करना होगा कि किसी निर्णय के खिलाफ विरोध के स्वर मुखर
करने वालों को हाथापाई और बदसलूकी का शिकार न होना पड़े.
इस आंदोलन का एक छोटा सा सिपाही,
असीम त्रिवेदी.
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