बुधवार, 2 मई 2012

!! गोमांस महोत्सव और मांसाहार का सच !!

बुद्धिजीवियों का गढ़ माने जाने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रावासों के मेनू में गोमांस शामिल करने को लेकर लंबे समय से विचार-विमर्श जारी है कि इसी बीच हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय ने गोमांस महोत्सव का आयोजन कर डाला। अगर व्यक्तिगत रुचि और स्वाद को देखें तो भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में सभी को अपनी मर्जी के मुताबिक आहार ग्रहण करने की छूट है। लेकिन जहां तक मांसाहार का सवाल है तो उसके भयावह दुष्परिणामों के कारण है कि पूरी दुनिया में  शाकाहारियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। भले ही लोग स्वास्थ्यगत कारणों से शाकाहार अपना रहे हों, लेकिन गहराई से देखा जाए तो दुनिया भर में फैली भुखमरी-कुपोषण, खाद्य पदार्थों की महंगाई, नई महामारियों, वैश्विक तापवृद्धि और जलवायु परिवर्तन आदि का मांसाहार के बढ़ते चलन से सीधा संबंध है।
मांसाहार पर विचार-विमर्श करने के क्रम में इतिहास के पन्नों में झांकना प्रासंगिक होगा। देखा जाए तो मांस केंद्रित आहार-संस्कृति का आगाज आधुनिक औद्योगीकरण के साथ हुआ। जैसे-जैसे विकास और रहन-सहन के पश्चिमी मॉडल का फैलाव हुआ वैसे-वैसे मांसाहारियों की संख्या में इजाफा हुआ। आगे चल कर पूरी दुनिया में मांसाहार को ‘स्टेटस सिंबल’ से जोड़ दिया गया जिससे इसकी खपत तेजी से बढ़ी।  गौरतलब है कि 1961 में जहां दुनिया में मांस की कुल खपत 7.1 करोड़ टन थी वहीं 2008 में यह बढ़ कर 28.4 करोड़ टन हो गई। इस दौरान प्रति व्यक्ति खपत बढ़ कर दोगुनी हो गई। विकासशील देशों में यह अधिक तेजी से बढ़ी और महज बीस वर्षों में ही खपत दोगुनी से अधिक हो गई।गोमांस महोत्सव और मांसाहार का सच
मांस की बढ़ती खपत में अनाज आधारित मशीनीकृत मांस उत्पादक प्रणालियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। पहले घरेलू स्तर पर पशुपालन किया जाता था जिससे मांग की तुलना में आपूर्ति कम थी और मांस महंगा पड़ता था। लेकिन आगे चल कर अनाज आधारित पशुपालन का प्रचलन शुरू हुआ जिससे बड़े पैमाने पर मांस का उत्पादन होने लगा और वह सस्ता पड़ने लगा। लेकिन
पशुओं को मक्का, गेहूं, सोयाबीन खिलाने का परिणाम दुनिया में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या में बढ़ोतरी के रूप में सामने आया। आज विश्व में पैदा होने वाला एक-तिहाई अनाज जानवरों को खिलाया जा रहा है, जबकि नब्बे करोड़ से अधिक लोग भूखे सोने को अभिशप्त हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक दुनिया की मांस खपत में महज दस फीसद की कटौती प्रतिदिन भुखमरी से मरने वाले अठारह हजार बच्चों और छह हजार वयस्कों का जीवन बचा सकती है। फिर आधुनिक ढंग के पशुपालन से जहां मानव श्रम की भूमिका घटी वहीं दवाओं, उर्वरकों, रसायनों, कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ा। दूसरी ओर पशु अपशिष्टों का निपटान एक समस्या बन गया।
मांस उत्पादन में खाद्य पदार्थों की बड़े पैमाने पर बरबादी भी होती है। एक किलो मांस पैदा करने में सात किलो अनाज की जरूरत पड़ती है। अनाज के मांस में बदलने की प्रक्रिया में नब्बे फीसद प्रोटीन, निन्यानबे फीसद कार्बोहाइड्रेट और सौ फीसद रेशा नष्ट हो जाता है। फिर स्टार्च बहुल खाद्यान्नों को महंगे पशु उत्पादों में तब्दील किए जाने के फलस्वरूप मूल चारे की तुलना में अंतत: कम ऊर्जा और प्रोटीन की प्राप्ति होती है। मांसाहार से पानी की भी बरबादी भी होती है। जहां एक किलो आलू पैदा करने में  पांच सौ लीटर पानी की खपत होती है वहीं इतने ही मांस के लिए दस हजार लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। फिर पशुआहार की खेती के लिए दुनिया भर में वनभूमि को चरागाह में बदला जा रहा है जिससे बड़ी मात्रा में कार्बन उत्सर्जित हो रही है। मांस उत्पादन से जंगल की कटाई के अतिरिक्त मांस का स्थानांतरण और उसे पकाने के लिए इस्तेमाल होने वाले र्इंधन से भी ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन होता है। इतना ही नहीं, जानवरों के मांस से भी कई प्रकार की ग्रीनहाउस गैसें पैदा होती हैं जो वातावरण में घुल कर उसके तापमान को बढ़ाती हैं। ऐसे में गोमांस महोत्सव अथवा मांसाहारी संस्कृति को बढ़ाने का प्रयास आत्मघाती ही है।


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