भारत में चरण स्पर्श की अतिप्राचीन परंपरा है, व्यक्ति स्वयं से आयु में या रिश्ते-नाते में ब़डे व्यक्ति के चरण स्पर्श करता है पार आज के यूवा वर्ग में यह परम्परा कम होती जा रही है ,आज हम सभी भी सिर्फ हाथ मिला कर या हाय - हल्लो करके इतिश्री कर लेते है ! जबकि आज भी कुछ ग्रामीण क्षेत्रो में महिलाएं अपने से ब़डी महिलाओं के चरण स्पर्श कर उन पर हल्का दबाव (पदचापन) डालती है और जिस बुजुर्ग महिला के पद दबाये जा रहे होते हैं, वह निरंतर दुआएँ, आशीर्वाद, आशीष, सदवचन बोलती रहती हैं, जिससे चरण स्पर्श, पदचापन और आशीर्वचन का परस्पर लेन-देन हो जाता है ! यह एक अनुभूत प्रयोग है कि कोई व्यक्ति कितना ही मलिन स्वभाव का हो, कितना ही दुश्चरित्र हो, कितना ही अपवित्र और दूषित विचारों का हो, यदि उसके भी चरण स्पर्श किए जाते हैं तो उसके मुख से आशीर्वाद, दुआ, सद्वचन ही निकलता है अथवा यदि वह ऎसा नहीं करता है तो अपने चरण स्पर्श के दौरान मौन रह जाता है, कुछ भी नहीं बोलता। व्यक्ति का मौन हो जाना, उसकी अंतर्मुखता को दर्शाता है ! अंतर्मन से सामान्यत: व्यक्ति सकारात्मक ही सोचता है, नकारात्मक नहीं! मौन धारण करने वाले ब्यक्ति के हाव-भाव, अंग-प्रत्यंग सब स्थिर हो जाते हैं, केवल \"मौन\" व्याप्त हो जाता है।व्यक्ति का \"मौन\" कभी घातक, नकारात्मक और दूषित नहीं होता, अपितु सकारात्मक ऊर्जा सृजित करता है! जगत व्यवहार में भी कहा जाता है \"मौनं स्वीकृति लक्षणम् Silence implies consentÓ अर्थात् मौन व्यक्ति आपके प्रति अपने पक्षपात की स्वीकृति मौन द्वारा ही दे देता है! किसी शायर ने भी कहा है कि: \"जो ब़डे ही होते हैं, वे ब़डे ही रहते हैं! ये बात और है कि वे खामोश ख़डे रहते हैं! \" अर्थात् मौन में व्यक्ति महान् बन जाता है, कुछ देने का इच्छुक रहता है, अपने अहंकार को भस्मीभूत कर रहा होता है ! इसलिए चरण स्पर्श, चरणवंदन, चरण स्तुति, चरण पूजा, चरण स्मृति कभी भी व्यर्थ नहीं जाते, इनके सुपरिणाम अवश्य मिलते हैं ! जिसे हम चरण स्पर्श करके ब़डा बनाते हैं, वह ब़डा ही रहता है, छोटे विचार मन में नहीं ला सकता, चाहे आशीर्वाद बोलकर दे या मौन रह जाए ! यदि चरण स्पर्श को विज्ञान की नजरो में देखा जाए तो न्यूटन ने एक नियम का उल्लेख किया है कि इस भौतिक संसार में सभी वस्तुएँ \"गुरूत्वाकर्षण\" के नियम से बंधी हैं और गुरूत्व भार सदैव आकषात करने वाले की तरफ जाता है ! हमारे शरीर में भी यही नियम है! सिर को उत्तरी ध्रुव और पैरों को दक्षिणी ध्रुव माना जाता है अर्थात् गुरूत्व ऊर्जा या चुंबकीय ऊर्जा या विद्युत चुंबकीय ऊर्जा (grantational force, magnetice or eleobomognetic force) सदैव उत्तरी ध्रुव से प्रवेश कर दक्षिणी ध्रुव की ओर प्रवाहित होकर अपना चक्र (cycle) पूरा करती है! इसका आशय यह हुआ कि मनुष्य के शरीर में उत्तरी ध्रुव (सिर) से सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश कर दक्षिणी ध्रुव (पैरों) की ओर प्रवाहित होती है और दक्षिणी ध्रुव पर यह ऊर्जा असीमित मात्रा मे स्थिर हो जाती है, यहाँ ऊर्जा का केंद्र बन जाता है, यही कारण है कि व्यक्ति हजारों मील चलने के पश्चात् भी चलने की इच्छा रखता है! पैरों में संग्रहित इस ऊर्जा के कारण ही ऎसा हो पाता है! शरीर क्रिया विज्ञानियों ने यह सिद्ध कर लिया है कि हाथों और पैरों की अंगुलियों और अंगूठों के पोरों (अंतिम सिरा) में यह ऊर्जा सर्वाधिक रूप से विद्यमान रहती है तथा यहीं से आपूर्ति और मांग की प्रक्रिया पूर्ण होती है! पैरों से हाथों द्वारा इस ऊर्जा के ग्रहण करने की प्रक्रिया को ही हम \"चरण स्पर्श\" करना कहते हैं! यहां एक और महत्वपूर्ण प्राचीन परंपरा की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करता हु , कि प्राचीनकाल में जब ऋषि, मुनि, योगी या संतजन किसी राज दरबार में आते थे तो राजा पहले शुद्ध जल से उनके चरण धोता (चरण पखारना) था, तत्पश्चात् चरण स्पर्श की परंपरा पूर्ण करता था! चरण स्पर्श से पहले चरण धोने के पीछे संभवत: यह वैज्ञानिक कारण रहा होगा कि चरणों में एकत्रित विद्युत-चुंबकीय ऊर्जा चलकर आने से अत्यधिक तीव्रता से प्रवाहित है और गर्म है, धोने से यह सामान्य अवस्था में आ जाती है और जो व्यक्ति चलकर आता है, उसकी मानसिक और शारीरिक थकान/बेचैनी के कारण वह एकाएक शुभाशीषर्वाद देने की स्थिति में नहीं होता है, जल से उसका संपर्क आने से वह भी सामान्य स्थिति में आ जाता है, अब चरण स्पर्श पूर्णत: सकारात्मक स्थिति में होगा! इन प्रयोगों को आज भी यदि किसी प्रकार से किया जाए तो व्यावहारिक परिणाम मिलते हैं, देखा जा सकता है ! आज भी इस परंपरा (चरण धोना और चरण स्पर्श करना) का निर्वाह पूर्ण श्रद्धा के साथ कही -कही किया जाता है ! यहां एक और भी वैज्ञानिक पहलू का उल्लेख करना उचित होगा कि यदि स्त्री पात्र, स्त्री का और पुरूष पात्र, पुरूष का चरण स्पर्श या चरण पखवारे तो परिणाम और भी अनुकूल मिलते हैं। लिंग भेद के इस रहस्य की विशद व्याख्या की आवश्यकता नहीं है, यह विज्ञान का ही नियम है कि xyy = y2 तथा yxy = y2 परंतु xxy = x2y हो जाता है! ऊर्जा का द्विगुणित होना महत्वपूर्ण बात है अत: चरण स्पर्श की इस वैज्ञानिकता को परंपरा या रूढि़वादिता, अंध-विश्वास कहकर नकार देने मात्र से हमारा भला नहीं हो सकता और ना ही चरण स्पर्श का महत्व कम हो सकता है ! चरण स्पर्श की इस प्रक्रिया का उल्लेख करना भी समीचीन होगा ! चरण स्पर्श करते समय यदि बायें हाथ से बायें पैर और दायें हाथ से दायें पैर का स्पर्श किया जाए तो सजातीय ऊर्जा का प्रवेश, सजातीय अंग से तेजी से और पूर्णरूप से होता है जबकि इसके विपरीत करने से ऊर्जा प्रवाह अवरोध या रूकावट के साथ होता है! एक और पहलू यह है कि जब व्यक्ति चरण स्पर्श करता है तो जिस व्यक्ति के चरण स्पर्श किए जाते हैं, उसके हाथ सहज ही चरण स्पर्श करने वाले व्यक्ति के सिर पर जाते हैं और उसके सहस्रार चक्र से स्पर्श होते हैं ! सहस्रार चक्र में सक्रियता उत्पन्न होती है जिससे ज्ञान, बुद्धि और विवेक का विकास सहज ही होने लगता है! अभिवादन की परंपराओं में नमस्कार से अधिक चरण स्पर्श मानी जाती है ! मैंने \"चरणोदक\" या \"चरणामृत\" का स्वाद चखा है! प्रत्येक मंदिर में चरणामृत प्रसाद के रूप में मिलता है जिसका आशय है कि अप्रत्यक्ष रूप से आपने परम पिता परमात्मा के चरण स्पर्श कर लिए हैं, उनके चरणों से नि:सृज जल आपके शरीर में चला गया है ! चरण सेवा, चरण वंदना, चरण पखारन, चरण स्मृति का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है कि प्रत्येक भारतीय चरणामृत पूर्ण श्रद्धा के साथ ग्रहण करता है!चरणों से निकले या धोए हुए जल को अमृत की संज्ञा दी जाती है! अमृत वह तत्व है जो ऊर्जा, उत्साह, शक्ति और दीर्घायु प्रदान करता है! चरणामृत की चर्चा के अंतर्गत यह भी प्रासंगिक होगा!चरणामृत को \"अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशमन्\" कहा गया है ! इस चरणामृत में तुलसी पत्र, केशर, चंदन, कस्तूरी, गंगाजल आदि को मिलाकर ताम्रपात्र में रखा जाता है ! ये सभी वस्तुएँ एवं ताम्रपात्र व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत आवश्यक हैं, कई अधिव्याधियों का नाश करती हैं अत: चरणामृत हमारे लिए अमृत का कार्य करता है! इन सभी कारणों से चरण स्पर्श की महिमा का मंडन हुआ है, भारत में रची-बसी परंपरा है, और इस परम्परा का निर्वाहन हम सभी को करना चाहिए और अपने बच्चो को भी प्रेरित करना चाहिए !
!! चरण स्पर्श करना वैज्ञानिक है !!
वैज्ञानिक न्यूटन के नियम के अनुसार इस संसार में सभी वस्तुएँ
"गुरूत्वाकर्षण" के नियम से बंधी हैं और गुरूत्व भार सदैव आकर्षित करने
वाले की तरफ जाता है, हमारे शरीर में भी यही नियम है। सिर को उत्तरी ध्रुव ...
और पैरों को दक्षिणी ध्रुव माना जाता है अर्थात् गुरूत्व ऊर्जा या चुंबकीय
ऊर्जा या विद्युत चुंबकीय ऊर्जा सदैव उत्तरी ध्रुव से प्रवेश कर दक्षिणी
ध्रुव की ओर प्रवाहित होकर अपना चक्र (cycle) पूरा करती है....
इसका आशय यह हुआ कि मनुष्य के शरीर में उत्तरी ध्रुव (सिर) से सकारात्मक
ऊर्जा प्रवेश कर दक्षिणी ध्रुव (पैरों) की ओर प्रवाहित होती है और दक्षिणी
ध्रुव पर यह ऊर्जा असीमित मात्रा मे स्थिर हो जाती है ..यहाँ ऊर्जा का
केंद्र बन जाता है, यही कारण है कि व्यक्ति सैकड़ो मील चलने के पश्चात् भी
मनुष्य भी जड़ नहीं होता वो आगे चलने की हिम्मत रख सकता है... ऐसा
पैरों में संग्रहित इस ऊर्जा के कारण ही पाता है. शरीर क्रिया विज्ञानियों
ने यह सिद्ध कर लिया है कि हाथों और पैरों की अंगुलियों और अंगूठों के
पोरों (अंतिम सिरा) में यह ऊर्जा सर्वाधिक रूप से विद्यमान रहती है तथा
यहीं से आपूर्ति और मांग की प्रक्रिया पूर्ण होती है..पैरों से हाथों
द्वारा इस ऊर्जा के ग्रहण करने की प्रक्रिया को ही हम "चरण स्पर्श" करना
कहते हैं...
आपने देखा होगा की चरण स्पर्श करने से पहले पैर धोते
हैं , इसका वैज्ञनिक कारण संभवत: ये होगा की अधिक चल कर आने से पैरो मैं
विधुतीय -चुम्बकीय उर्जा तीव्रता से प्रभावित होती है जिस कारण पैर गर्म
हो जाते हैं ! पैरो को पानी मैं धोने के कारण ये सामान्य अवस्था मैं आ जाती
है और व्यक्ति थकान , तनाव मुक्त होके और सकारात्मक स्थिति मैं आ के
आशीर्वाद दे सके.....
कई धर्मो में हाथो या पैरो को चूम के अविवादन किया जाता है जो की अविवादन का एक गलत तरीका हो सकता है...
चूम के अविवादन करना कई संक्रमक बीमारीओं का कारण हो सकता है, जिससे
व्यक्ति को कई प्रकार की बिमारिओं से ग्रसित होने की सम्भावना अधिक रहती है
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