चुनाव लड़ने का खर्च राजकोष से मिले, यह बहुत पुरानी मांग है, जिसका अब ठोस स्वरूप उभरने की संभावना बन रही है। प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाले एक मंत्रिसमूह ने कानून मंत्रालय से इस बारे में संवैधानिक एवं कानूनी संशोधनों के "ठोस प्रस्ताव" तैयार करने को कहा है। यहां दो पहलू गौरतलब हैं। संबंधित मंत्रिसमूह भ्रष्टाचार से निपटने के लिए बना है, जिस मुद्दे पर यूपीए सरकार अभी घिरी हुई है।
दूसरा यह कि मानसून सत्र में लोकसभा में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने चुनावी खर्च सरकार द्वारा उठाए जाने की वकालत की थी। इसलिए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यूपीए सरकार इस प्रस्ताव पर गंभीर होगी और अब तक विचारणीय रहा यह मुद्दा ठोस कानूनी भाषा में सामने आएगा।
मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी समेत अनेक प्रमुख सोचते हैं और मेरी भी ब्याक्तिगत सोच यही है कि यह उपाय चुनावों में काले धन के बढ़ते असर को रोकने में प्रभावी नहीं होगा। आखिर सरकार सिर्फ उसी सीमा तक खर्च उठाएगी, जो कानूनी रूप से मान्य है, जबकि वास्तव में आज उम्मीदवार उससे कई गुना ज्यादा रुपए खर्च करते हैं। अत: यह सोच अपनी जगह सही है, मगर इसका एक दूसरा पक्ष भी है। आज यह आम शिकायत है कि ईमानदार और जनता से जुड़े बहुत से लोग इसलिए चुनाव नहीं लड़ पाते, क्योंकि उनके पास पैसा नहीं है।
पार्टियां इसी कारण उन्हें टिकट देने पर विचार ही नहीं करतीं। अगर न्यूनतम खर्च सरकार से मिलेगा, तो उनकी यह ‘अयोग्यता’ शायद बाधक नहीं बने। गलत रुझानों को हतोत्साहित करने के साथ-साथ अच्छाई को प्रोत्साहित करना भी समस्या का हल होता है। उस बिंदु पर इस कदम की एक खास भूमिका हो सकती है।
अभी इस सवाल पर राजनीतिक सहमति बननी है। बहस में बहुत से अहम मुद्दे सामने आएंगे। इसलिए शुरुआत में ही एक अच्छी सोच को खारिज नहीं किया जा सकता, बल्कि उसे हकीकत बनाने के लिए जरूरी प्रयास किए जाने चाहिए, ताकि लोकशाही को पूंजीशाही में बदलने से रोका जा सके।आप सभी की क्या राय है ?
दूसरा यह कि मानसून सत्र में लोकसभा में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने चुनावी खर्च सरकार द्वारा उठाए जाने की वकालत की थी। इसलिए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यूपीए सरकार इस प्रस्ताव पर गंभीर होगी और अब तक विचारणीय रहा यह मुद्दा ठोस कानूनी भाषा में सामने आएगा।
मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी समेत अनेक प्रमुख सोचते हैं और मेरी भी ब्याक्तिगत सोच यही है कि यह उपाय चुनावों में काले धन के बढ़ते असर को रोकने में प्रभावी नहीं होगा। आखिर सरकार सिर्फ उसी सीमा तक खर्च उठाएगी, जो कानूनी रूप से मान्य है, जबकि वास्तव में आज उम्मीदवार उससे कई गुना ज्यादा रुपए खर्च करते हैं। अत: यह सोच अपनी जगह सही है, मगर इसका एक दूसरा पक्ष भी है। आज यह आम शिकायत है कि ईमानदार और जनता से जुड़े बहुत से लोग इसलिए चुनाव नहीं लड़ पाते, क्योंकि उनके पास पैसा नहीं है।
पार्टियां इसी कारण उन्हें टिकट देने पर विचार ही नहीं करतीं। अगर न्यूनतम खर्च सरकार से मिलेगा, तो उनकी यह ‘अयोग्यता’ शायद बाधक नहीं बने। गलत रुझानों को हतोत्साहित करने के साथ-साथ अच्छाई को प्रोत्साहित करना भी समस्या का हल होता है। उस बिंदु पर इस कदम की एक खास भूमिका हो सकती है।
अभी इस सवाल पर राजनीतिक सहमति बननी है। बहस में बहुत से अहम मुद्दे सामने आएंगे। इसलिए शुरुआत में ही एक अच्छी सोच को खारिज नहीं किया जा सकता, बल्कि उसे हकीकत बनाने के लिए जरूरी प्रयास किए जाने चाहिए, ताकि लोकशाही को पूंजीशाही में बदलने से रोका जा सके।आप सभी की क्या राय है ?
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