आप को कांशीराम और मायावती द्वारा कभी उछाला गया एक नारा शायद आज भी भूला ना हो। “तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार।” याद आया ना? यह वो समय था जब मा0 कांशीराम और आदरणीय मायावती हाशिए पर थे। किस्मत के धनी अवश्य थे पर उस समय तक किस्मत के दरवाजे खुल नहीं पाए थे। वक्त कब करवट बदल ले कौन जानता है। और आया भी वो दिन जब वक्त ने इन्हे सिकंदर भी बना दिया, और फिर मगरूर, अब बारी है पतन की।
दुनिया का विकास ही बताता है कि हम आगे तभी जा सकते हैं जब किसी को उसके अधिकारों से वंचित कर दें और उन्हे हड़प लें। सब ने यही किया है सिवाय कुछ महापुरुषों को छोड़ कर। अब भला माया नाम होने से क्या माया मिल जाएगी और यदि वक्त मेहरबान हो गया और माया मिल गई तो क्या उससे वो संस्कार खरीदे जा सकेंगे जो महामानवों के होते हैं? माया को तो वैसे भी ॠषियों मुनियों ने ठगिनी बताया है।
मेरा मकसद अध्यात्म नहीं, बस प्रसंगवश लिख दिया, असली बात है कि किस तरह लोग अपना ध्येय भूल जाते हैं और जिसके विरोध से वे आगे बढ़ते हैं बाद में उसी का अनुसरण करने लगते हैं। मायावती जी भी गरीबों और दलितों का दुख बाँट्ने आईं थी मगर आज उनके दुख का वे खुद कारण है। अपने लिए ऐशोआराम की चीजों को जुटाना और फिर कुतर्क देना कि दलित कि बेटी को क्या यह हक़ नहीं है? किस तरह से उचित हो सकता है? अगर यह हक़ एक को है तो दूसरे को क्यों नहीं? क्या माया जी ने कभी अपनी जमात के लिए कुछ सोचा? आज समाज की समरसता को बिगाड़ने वाली बातें ही ज्यादा हो रही हैं।
मनु ने तो कर्म के आधार पर जाति बनाई थी क्या मायावती उस स्वच्छ परंपरा को लागू कर पाएँगी या फिर ब्राह्मणों से पैर छुलवाकर अपने को धन्य मानती रहेंगी। जब एक सरकारी अधिकारी से पैर की धूल झड़वाना उनके लिए गलत नहीं है तो फिर उन्हे हक़ नहीं कि वो किसी को दोष दें या मनुवाद की बात करें। एक परिवार से एक को आरक्षण लागू करें और सभी को फटाफट आरक्षण दिलाएँ मगर माया ने ऐसा कर दिया तो भला तपती धूप में कौन इनकी जैकार करेगा।
ये सब राजनीतिज्ञ हैं, जनता का खून पीनेवाले पिशाच इनसे बच गए तो ठीक वरना इनकी हवस की आग सब ख़ाक कर देगी।
दुनिया का विकास ही बताता है कि हम आगे तभी जा सकते हैं जब किसी को उसके अधिकारों से वंचित कर दें और उन्हे हड़प लें। सब ने यही किया है सिवाय कुछ महापुरुषों को छोड़ कर। अब भला माया नाम होने से क्या माया मिल जाएगी और यदि वक्त मेहरबान हो गया और माया मिल गई तो क्या उससे वो संस्कार खरीदे जा सकेंगे जो महामानवों के होते हैं? माया को तो वैसे भी ॠषियों मुनियों ने ठगिनी बताया है।
मेरा मकसद अध्यात्म नहीं, बस प्रसंगवश लिख दिया, असली बात है कि किस तरह लोग अपना ध्येय भूल जाते हैं और जिसके विरोध से वे आगे बढ़ते हैं बाद में उसी का अनुसरण करने लगते हैं। मायावती जी भी गरीबों और दलितों का दुख बाँट्ने आईं थी मगर आज उनके दुख का वे खुद कारण है। अपने लिए ऐशोआराम की चीजों को जुटाना और फिर कुतर्क देना कि दलित कि बेटी को क्या यह हक़ नहीं है? किस तरह से उचित हो सकता है? अगर यह हक़ एक को है तो दूसरे को क्यों नहीं? क्या माया जी ने कभी अपनी जमात के लिए कुछ सोचा? आज समाज की समरसता को बिगाड़ने वाली बातें ही ज्यादा हो रही हैं।
मनु ने तो कर्म के आधार पर जाति बनाई थी क्या मायावती उस स्वच्छ परंपरा को लागू कर पाएँगी या फिर ब्राह्मणों से पैर छुलवाकर अपने को धन्य मानती रहेंगी। जब एक सरकारी अधिकारी से पैर की धूल झड़वाना उनके लिए गलत नहीं है तो फिर उन्हे हक़ नहीं कि वो किसी को दोष दें या मनुवाद की बात करें। एक परिवार से एक को आरक्षण लागू करें और सभी को फटाफट आरक्षण दिलाएँ मगर माया ने ऐसा कर दिया तो भला तपती धूप में कौन इनकी जैकार करेगा।
ये सब राजनीतिज्ञ हैं, जनता का खून पीनेवाले पिशाच इनसे बच गए तो ठीक वरना इनकी हवस की आग सब ख़ाक कर देगी।
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