मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

स्वार्थो के लिए अलापते है मनुवाद का राग


जो लोग मनुस्मृत की आलोचना करते है उन्होंने इसे पढ़ा ही नहीं और यदि पढ़ा है तो समझा ही नहीं । बाबा साहेब ने बिरोध किया बस उन्ही के बिरोध को आधार मनाकर बिरोध करना क्या तर्कसंगत है ?
मनु कहते हैं- जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते। अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं। वर्तमान दौर में ‘मनुवाद’ शब्द को नकारात्मक अर्थों में लिया जा रहा है। ब्राह्मणवाद को भी मनुवाद के ही पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है। वास्तविकता में तो मनुवाद की रट लगाने वाले लोग मनु अथवा मनुस्मृति के बारे में जानते ही नहीं है या फिर अपने निहित स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग अलापते रहते हैं। दरअसल, जिस जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को दोषी ठहराया जाता है, उसमें जातिवाद का उल्लेख तक नहीं है।
क्या है मनुवाद : जब हम बार-बार मनुवाद शब्द सुनते हैं तो हमारे मन में भी सवाल कौंधता है कि आखिर यह मनुवाद है क्या? महर्षि मनु मानव संविधान के प्रथम प्रवक्ता और आदि शासक माने जाते हैं। मनु की संतान होने के कारण ही मनुष्यों को मानव या मनुष्य कहा जाता है। अर्थात मनु की संतान ही मनुष्य है। सृष्टि के सभी प्राणियों में एकमात्र मनुष्य ही है जिसे विचारशक्ति प्राप्त है। मनु ने मनुस्मृ‍ति में समाज संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उसे ही सकारात्मक अर्थों में मनुवाद कहा जा सकता है।

मनुस्मृति : समाज के संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उन सबका संग्रह मनुस्मृति में है। अर्थात मनुस्मृति मानव समाज का प्रथम संविधान है, न्याय व्यवस्था का शास्त्र है। यह वेदों के अनुकूल है। वेद की कानून व्यवस्था अथवा न्याय व्यवस्था को कर्तव्य व्यवस्था भी कहा गया है। उसी के आधार पर मनु ने सरल भाषा में मनुस्मृति का निर्माण किया। वैदिक दर्शन में संविधान या कानून का नाम ही धर्मशास्त्र है। महर्षि मनु कहते है- धर्मो रक्षति रक्षित:। अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। यदि वर्तमान संदर्भ में कहें तो जो कानून की रक्षा करता है कानून उसकी रक्षा करता है। कानून सबके लिए अनिवार्य तथा समान होता है।
जिन्हें हम वर्तमान समय में धर्म कहते हैं दरअसल वे संप्रदाय हैं। धर्म का अर्थ है जिसको धारण किया जाता है और मनुष्य का धारक तत्व है मनुष्यता, मानवता। मानवता ही मनुष्य का एकमात्र धर्म है। हिन्दू मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, सिख आदि धर्म नहीं मत हैं, संप्रदाय हैं। संस्कृत के धर्म शब्द का पर्यायवाची संसार की अन्य किसी भाषा में नहीं है। भ्रांतिवश अंग्रेजी के ‘रिलीजन’ शब्द को ही धर्म मान लिया गया है, जो कि नितांत गलत है। इसका सही अर्थ संप्रदाय है। धर्म के निकट यदि अंग्रेजी का कोई शब्द लिया जाए तो वह ‘ड्यूटी’ हो सकता है। कानून ड्‍यूटी यानी कर्तव्य की बात करता है।
मनु ने भी कर्तव्य पालन पर सर्वाधिक बल दिया है। उसी कर्तव्यशास्त्र का नाम मानव धर्मशास्त्र या मनुस्मृति है। आजकल अधिकारों की बात ज्यादा की जाती है, कर्तव्यों की बात कोई नहीं करता। इसीलिए समाज में विसंगतियां देखने को मिलती हैं। मनुस्मृति के आधार पर ही आगे चलकर महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी धर्मशास्त्र का निर्माण किया जिसे याज्ञवल्क्य स्मृति के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी काल में भी भारत की कानून व्यवस्था का मूल आधार मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति रहा है। कानून के विद्यार्थी इसे भली-भांति जानते हैं। राजस्थान हाईकोर्ट में मनु की प्रतिमा भी स्थापित है।
मनुस्मृति में दलित विरोध : मनुस्मृति न तो दलित विरोधी है और न ही ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देती है। यह सिर्फ मानवता की बात करती है और मानवीय कर्तव्यों की बात करती है। मनु किसी को दलित नहीं मानते। दलित संबंधी व्यवस्थाएं तो अंग्रेजों और आधुनिकवादियों की देन हैं। दलित शब्द प्राचीन संस्कृति में है ही नहीं। चार वर्ण जाति न होकर मनुष्य की चार श्रेणियां हैं, जो पूरी तरह उसकी योग्यता पर आधारित है। प्रथम ब्राह्मण, द्वितीय क्षत्रिय, तृतीय वैश्य और चतुर्थ शूद्र। वर्तमान संदर्भ में भी यदि हम देखें तो शासन-प्रशासन को संचालन के लिए लोगों को चार श्रेणियों- प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ श्रेणी में बांटा गया है। मनु की व्यवस्था के अनुसार हम प्रथम श्रेणी को ब्राह्मण, द्वितीय को क्षत्रिय, तृतीय को वैश्य और चतुर्थ को शूद्र की श्रेणी में रख सकते हैं। जन्म के आधार पर फिर उसकी जाति कोई भी हो सकती है। मनुस्मृति एक ही मनुष्य जाति को मानती है। उस मनुष्य जाति के दो भेद हैं। वे हैं पुरुष और स्त्री।
मनु कहते हैं- ‘जन्मना जायते शूद्र:’ अर्थात जन्म से तो सभी मनुष्य शूद्र के रूप में ही पैदा होते हैं। बाद में योग्यता के आधार पर ही व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र बनता है। मनु की व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण की संतान यदि अयोग्य है तो वह अपनी योग्यता के अनुसार चतुर्थ श्रेणी या शूद्र बन जाती है। ऐसे ही चतुर्थ श्रेणी अथवा शूद्र की संतान योग्यता के आधार पर प्रथम श्रेणी अथवा ब्राह्मण बन सकती है। हमारे प्राचीन समाज में ऐसे कई उदाहरण है, जब व्यक्ति शूद्र से ब्राह्मण बना। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुरु वशिष्ठ महाशूद्र चांडाल की संतान थे, लेकिन अपनी योग्यता के बल पर वे ब्रह्मर्षि बने। एक मछुआ (निषाद) मां की संतान व्यास महर्षि व्यास बने। आज भी कथा-भागवत शुरू होने से पहले व्यास पीठ पूजन की परंपरा है। विश्वामित्र अपनी योग्यता से क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि बने। ऐसे और भी कई उदाहरण हमारे ग्रंथों में मौजूद हैं, जिनसे इन आरोपों का स्वत: ही खंडन होता है कि मनु दलित विरोधी थे।
ब्राह्मणोsस्य मुखमासीद्‍ बाहु राजन्य कृत:।
उरु तदस्य यद्वैश्य: पद्मयां शूद्रो अजायत। (ऋग्वेद)
अर्थात ब्राह्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा पांवों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। दरअसल, कुछ अंग्रेजों या अन्य लोगों के गलत भाष्य के कारण शूद्रों को पैरों से उत्पन्न बताने के कारण निकृष्ट मान लिया गया, जबकि हकीकत में पांव श्रम का प्रतीक हैं। ब्रह्मा के मुख से पैदा होने से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति या समूह से है जिसका कार्य बुद्धि से संबंधित है अर्थात अध्ययन और अध्यापन। आज के बुद्धिजीवी वर्ग को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं। भुजा से उत्पन्न क्षत्रिय वर्ण अर्थात आज का रक्षक वर्ग या सुरक्षाबलों में कार्यरत व्यक्ति। उदर से पैदा हुआ वैश्य अर्थात उत्पादक या व्यापारी वर्ग। अंत में चरणों से उत्पन्न शूद्र वर्ग।
यहां यह देखने और समझने की जरूरत है कि पांवों से उत्पन्न होने के कारण इस वर्ग को अपवित्र या निकृष्ट बताने की साजिश की गई है, जबकि मनु के अनुसार यह ऐसा वर्ग है जो न तो बुद्धि का उपयोग कर सकता है, न ही उसके शरीर में पर्याप्त बल है और व्यापार कर्म करने में भी वह सक्षम नहीं है। ऐसे में वह सेवा कार्य अथवा श्रमिक के रूप में कार्य कर समाज में अपने योगदान दे सकता है। आज का श्रमिक वर्ग अथवा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी मनु की व्यवस्था के अनुसार शूद्र ही है। चाहे वह फिर किसी भी जाति या वर्ण का क्यों न हो।
वर्ण विभाजन को शरीर के अंगों को माध्यम से समझाने का उद्देश्य उसकी उपयोगिता या महत्व बताना है न कि किसी एक को श्रेष्ठ अथवा दूसरे को निकृष्ट। क्योंकि शरीर का हर अंग एक दूसरे पर आश्रित है। पैरों को शरीर से अलग कर क्या एक स्वस्थ शरीर की कल्पना की जा सकती है? इसी तरह चतुर्वण के बिना स्वस्थ समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
ब्राह्मणवाद की हकीकत : ब्राह्मणवाद मनु की देन नहीं है। इसके लिए कुछ निहित स्वार्थी तत्व ही जिम्मेदार हैं। प्राचीन काल में भी ऐसे लोग रहे होंगे जिन्होंने अपनी अयोग्य संतानों को अपने जैसा बनाए रखने अथवा उन्हें आगे बढ़ाने के लिए लिए अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल किया होगा। वर्तमान संदर्भ में व्यापम घोटाला इसका सटीक उदाहरण हो सकता है। क्योंकि कुछ लोगों ने भ्रष्टाचार के माध्यम से अपनी अयोग्य संतानों को भी डॉक्टर बना दिया। हमारे संविधान में कहीं नहीं लिखा भ्रष्ट तरीके अपनाकर अपनी अयोग्य संतानों को आगे बढाएं। इसके लिए तत्कालीन समाज या फिर व्यक्ति ही दोषी हैं। उदाहरण के लिए संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान में आरक्षण की व्यवस्था 10 साल के लिए की थी, लेकिन बाद में राजनीतिक स्वार्थों के चलते इसे आगे बढ़ाया जाता रहा। ऐसे में बाबा साहेब का क्या दोष?
मनु तो सबके लिए शिक्षा की व्यवस्था अनिवार्य करते हैं। बिना पढ़े लिखे को विवाह का अधिकार भी नहीं देते, जबकि वर्तमान में आजादी के 70 साल बाद भी देश का एक वर्ग आज भी अनपढ़ है। मनुस्मृति को नहीं समझ पाने का सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों ने उसके शब्दश: भाष्य किए। जिससे अर्थ का अनर्थ हुआ। पाश्चात्य लोगों और वामपंथियों ने धर्मग्रंथों को लेकर लोगों में भ्रांतियां भी फैलाईं। इसीलिए मनुवाद या ब्राह्मणवाद का हल्ला ज्यादा मचा।
मनुस्मृति या भारतीय धर्मग्रंथों को मौलिक रूप में और उसके सही भाव को समझकर पढ़ना चाहिए। विद्वानों को भी सही और मौलिक बातों को सामने लाना चाहिए। तभी लोगों की धारणा बदलेगी। दाराशिकोह उपनिषद पढ़कर भारतीय धर्मग्रंथों का भक्त बन गया था। इतिहास में उसका नाम उदार बादशाह के नाम से दर्ज है। फ्रेंच विद्वान जैकालियट ने अपनी पुस्तक ‘बाइबिल इन इंडिया’ में भारतीय ज्ञान विज्ञान की खुलकर प्रशंसा की है।
पंडित, पुजारी बनने के ब्राह्मण होना जरूरी है : पंडित और पुजारी तो ब्राह्मण ही बनेगा, लेकिन उसका जन्मगत ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है। यहां ब्राह्मण से मतलब श्रेष्ठ व्यक्ति से न कि जातिगत। आज भी सेना में धर्मगुरु पद के लिए जातिगत रूप से ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है बल्कि योग्य होना आवश्यक है। ऋषि दयानंद की संस्था आर्यसमाज में हजारों विद्वान हैं जो जन्म से ब्राह्मण नहीं हैं। इनमें सैकड़ों पूरोहित जन्म से दलित वर्ग से आते हैं।
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। (10/65)
महर्षि मनु कहते हैं कि कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं। विद्या और योग्यता के अनुसार सभी वर्णों की संतानें अन्य वर्ण में जा सकती हैं।

क्या हम सकारत्मक है ?

by Nageshwar Singh Baghela on Tuesday, December 13, 2011 at 8:43am FB नोट्स
व्यक्ति का जीवन भावों के आधार पर चलता है। भाव ही जीवन का स्वरूप तय करते हैं, जीवन को गति प्रदान करते हैं और विश्व में व्यक्ति की प्रतिष्ठा भी करते हैं। भाव मन की इच्छा के साथ चलते हैं, इन पर व्यक्ति का नियंत्रण नहीं होता। व्यक्ति चाहे कि वह किसी इच्छा को पैदा ही न होने दे अथवा किसी विशेष प्रकार की इच्छा ही पैदा हो, यह सम्भव नहीं है। इच्छा को मन का “रेत” कहते हैं। “रेत” शब्द यहां बीज रूप में प्रयोग किया गया है। इच्छा मन की स्वाभाविक गति है। व्यक्ति के हाथ में है इच्छा का आकलन करके निर्णय करना कि इच्छा को पूरी करे अथवा न करे। कब पूरी करे, कैसे पूरी करे, यह निर्णय व्यक्ति के भावों पर आधारित होता है।
जब व्यक्ति अपने जीवन का उद्देश्य तय कर लेता है तथा जब वह एक लक्ष्य बनाकर कार्य करता है तो उसके भाव भी उसी के अनुरूप ढलने लगते हैं। व्यक्ति उसी प्रकार के भावों का अभ्यस्त होने लग जाता है। मन में उठने वाली इच्छा को वह अपने भावों के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करता है।
जिस व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य नहीं बन पाता, उसके लिए इच्छा का महžव ही नहीं होता। वह इच्छा का जीवन-विकास में सदुपयोग नहीं कर सकता। प्रतिबिम्बित मन च†चल होता है। वह दिन में अनेक बार बदलता है, मरता है, नया पैदा होता है, हर इच्छा के साथ। वातावरण मन को बदलने में सहायक होता है। वातावरण के अनुरूप ही इच्छा का स्वरूप बन जाता है। व्यक्ति हवा के झोंके के साथ इधर-उधर डोलता है। एक दिशा में नहीं चल सकता। इसके अलावा, जीवन परिवर्तनशील भी होता है। परिवर्तन सृष्टि का अंग है। सृष्टि स्वयं परिवर्तनशील है। इसी के साथ उसके मन में परिवर्तन आते हैं। जीवनचर्या में परिवर्तन आते हैं। कामकाज के ढंग में परिवर्तन आते हैं। आज तो परिवर्तन की गति इतनी बढ़ गई है कि व्यक्ति स्वयं को इस गति से बदलने में असहाय पाता है। इस बात का भय हो गया है कि यदि समय के साथ नहीं बदल पाया तो क्या होगा।
हर परिस्थिति में व्यक्ति की भावभूमि ही निर्णायक सिद्ध होती है। उसी के अनुरूप बुद्धि कार्य करती है, शरीर चलता है और कार्यो का निष्पादन होता है। भावभूमि के दो मुख्य पहलू हैं सकारात्मक और नकारात्मक। भाव हमारे चिन्तन का आधार है। हमें अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त हो और अप्रिय वस्तु से छुटकारा प्राप्त कर सकें, इसी ऊहापोह में व्यक्ति लगा रहता है। उसके चिन्तन का भी यही आधार होता है। प्रिय वस्तु हाथ से छूटे नहीं, यह भी चिन्ता रहती है। व्यवहार में सब कुछ असम्भव है। प्रिय हो अथवा अप्रिय, सदा उसका योग बना ही रहे, यह सम्भव नहीं है। सब संयोग से चलता है। हम प्रिय के जाने से भी दु:खी होते हैं और अप्रिय के आने से भी।
इसी प्रकार, अनेक स्थितियां हमारे चिन्तन एवं कर्म को प्रभावित करती रहती हैं। इन स्थितियों में यदि हम सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं तो अलग चित्र बनता है और नकारात्मक दृष्टिकोण से अलग बनता है। सकारात्मक भाव कल्याण-सूचक होते हैं, मैत्री, करूणा, दया, आनन्द आदि भावों से युक्त होते हैं। आशावाद से जुड़े होते हैं। नकारात्मक भावों में राग, द्वेष, ईष्र्या, लोभ, अहंकार आदि का प्रभाव विशेष होता है। निराशा का भाव बलशाली होता है। मन अनेक आशंकाओं से घिरा रहता है।
प्रकृति, आकृति और अहंकृति एक साथ ही उत्पन्न होती हैं। एक-दूसरी के अनुरूप होती हैं। व्यक्ति की शिक्षा का उद्देश्य होता है इनको समझना और उसी के अनुरूप चिन्तन करना। इनमें जो ग्राह्य हो, उन्हें विकसित करना और जो अवांछनीय हों, उन्हें त्याग देना। जीवन को दिशा देने का कार्य यहीं से शुरू हो जाता है। एक बार भाव-क्रिया समझ में आ जाए और एक दिशा तय हो जाए तो बुद्धि और शरीर वैसे ही कार्य करने लगते हैं। शुद्ध सकारात्मक भाव वाले व्यक्ति का चेहरा चमकता हुआ दिखाई पड़ता है। तेजस्वी लगता है। उसका सान्निध्य सुख देता है। नकारात्मक भावभूमि से चेहरे पर कालिमा छा जाती है, आकृति क्रूर दिखाई पड़ती है। भय प्रतीत होता है।
हम कार्य कुछ भी करें, किसी भी स्तर का जीवनयापन करें, भावों की सकारात्मकता से ही हमें सुख की अनुभूति हो सकती है। सकारात्मकता की एक विशेषता यह भी है कि इसमें व्यापकता का भाव होता है। संकुचन भाव नहीं होता, स्वार्थ भाव भी नगण्य होता है। विश्व-मैत्री अथवा प्राणि-मात्र के प्रति करूणा का भाव विकसित हो जाता है। इसका लाभ यह होता है कि व्यक्ति प्रतिक्रिया से मुक्त हो जाता है। प्रतिक्रिया अनेक तनावों को जन्म देती है। व्यक्ति अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प में उलझा रहता है। वास्तविकता से दूर भी हो जाता है। क्रिया हो और प्रतिक्रिया न हो तो यह तनाव से मुक्ति ही है। मैत्रीपूर्ण भाव व्यक्ति को सृष्टि के साथ जोड़े रखता है। वह स्वयं को कभी अकेला महसूस नहीं करता। सदा अप्रमत्त रहता है। प्रतिक्रिया न होने से शान्त होने लगता है। वह धीरे-धीरे मितभाषी और मिताहारी बन जाता है। शक्ति-संचय करता है। शक्ति का उपयोग जनकल्याण में करता है। उसके उत्थान का मार्ग सदा प्रशस्त रहता है।
सकारात्मक भाव का एक लाभ यह भी है कि व्यक्ति वर्तमान में जीना सीख लेता है। न उसे स्मृति के जाल में अटकना पड़ता है और न ही कल्पना लोक के स्वप्न आते हैं। हर कठिन कार्य सरलता से हो जाता है। नकारात्मक भाव अहितकारी भी होते हैं और हिंसकवृत्ति वाले भी। व्यक्ति करने से पूर्व भी चिन्तित रहता है, करते समय भी चिन्तित रहता है और करने के बाद भी चिन्ता-मुक्त नहीं हो पाता। नकारात्मक भाव व्यक्ति को आशंकाओं से इतने ग्रस्त रखते हैं कि वह कुछ शुरू करने से पहले ही ठिठक जाता है। न सफलता, न सुख। अत: यदि नकारात्मक भाव आ भी जाएं तो उन पर विचार किए बिना दूसरे विषय को पकड़ लेना चाहिए। नकारात्मक भावों का कभी पोषण नहीं करना चाहिए। कोई भी कार्य, जिसमें ऎसे भावों का पोषण हो, त्याग देना चाहिए। आज टेलीविजन पर आने वाले अपराध भाव तथा सिनेमा से प्रसारित नकारात्मक भावों से समाज त्रस्त है। निरन्तर इनका पोषण हो रहा है। अखबार भी धीरे-धीरे इस ओर अग्रसर हैं। किसी को इसका आभास ही नहीं है कि धीमे जहर की तरह इस नकारात्मकता का प्रभाव मानवता पर कितना पड़ेगा! ये नकारात्मक भाव ही तो हैं, जो आगे चलकर शरीर में विभिन्न प्रकार की व्याधियों को जन्म देते हैं।