आज इस्लाम इंग्लैंड में दूसरा सबसे बड़ा धर्म बन गया है।
यों तो अब भी इंग्लैंड में मुस्लिमों की आबादी कुल आबादी का 5 प्रतिशत है, लेकिन लंदन में मुस्लिमों की आबादी 12 प्रतिशत से अधिक है। लंदन बोरो के कई सबर्ब्स, ब्लैकबर्न, ब्रैडफ़र्ड जैसे इलाक़ों में यह आंकड़ा तो 25 से 35 प्रतिशत तक चला गया है। यह बहुत बहुत बड़ा नम्बर है। और ये नम्बर्स तेज़ी से बढ़ते जा रहे हैं।
बर्मिंघम में 21, लेस्टर में 19 प्रतिशत, मैनचेस्टर में 16 प्रतिशत, वेस्टमिंस्टर में 18 प्रतिशत मुस्लिम आबादी हो चुकी है। आज लंदन का मेयर ख़ुद एक मुस्लिम है। और अब फ़िरंगियों को महसूस होने लगा है कि गंगा जमुनी का क्या मतलब होता है।
आज इंग्लैंड में 130 से ज़्यादा शरीया कोर्ट संचालित हो रही हैं ये मुस्लिम आर्बिट्रेशन ट्रायब्यूनल कहलाती हैं। इंग्लैंड के मुस्लिम अपने मामलात का निपटारा करने इन शरीया अदालतों में जाते हैं।
यूनिवर्सल सिविल कोड की ऐसी की तैसी! हम अपना ख़ुद का क़ानून चलाएंगे!
साल 2011 में यूके के मुस्लिमों ने मांग की थी कि जिन इलाक़ों में मुस्लिम आबादी अधिक हो गई है, वहां ब्रिटिश कॉमन लॉ को समाप्त कर शरीया लागू किया जाए और अनेक मुस्लिम बस्तियों में इस आशय के पोस्टर लगा दिए गए थे कि "अब आप शरीया द्वारा नियंत्रित क्षेत्र में हैं!" दूसरे शब्दों में अगर कोई ब्रिटिश महिला भूल से इन इलाक़ों में हिजाब पहने बिना घुस जाए तो उसकी ख़ैर नहीं। जबकि वो उसका ही मुल्क़ है!
आज से बीस साल बाद अगर इंग्लैंड में एक छोटा-मोटा पाकिस्तान बंटवारे की मांग कर ले तो लॉर्ड माउंटबेटन की रूह को क़ब्र में बहुत बेचैनी महसूस होनी चाहिए, है ना?
लंदन ग्लोबल सिटी है। एक ज़माने में पूरी दुनिया लंदन से चलती थी। लेकिन आज वहां शरीयत, बुर्क़ा, इस्लामिक अदालतें, और सघन मुस्लिम बस्तियां। मैनेचेस्टर से इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन की शुरुआत हुई। वहां भी यही आलम।
अब यूके में फ़र्नाज़ एयरलाइंस की शुरुआत की गई है। मुस्लिमों के लिए विशेष उड़ानें, जिसमें पोर्क और शराब पर बैन और एयरहोस्टेस हिजाब पहनेंगी!
सेप्रेटिज़्म। अलगाववाद। जहां भी जाएं, वहां अलग-थलग। जैसे पानी की सतह पर तेल की परत तैरती है। शकर की तरह पानी में घुलती नहीं। इस बीमारी का कोई क्या इलाज करे?
दुनिया के बहुसंख्य मुस्लिम जहां भी, जिस भी सिस्टम के तहत रह रहे हैं, उन्हें वह मंज़ूर नहीं है, उन्हें अपने लिए शरीया चाहिए।
और शरीया क्या है? शरीया में हुदूद का कॉन्सेप्ट क्या है? यह हमारे आलिम लिबरल दोस्तों से पूछा जाना चाहिए। हुदूद यानी इस्लामिक दंडविधान। चोरी करने पर हाथ काट देना, व्यभिचार करने पर पत्थर मारकर मार डालना, इतना ही नहीं, धर्म बदल लेने पर सिर काट देना, यह बाक़ायदा हुदूद के अंदर लिखा गया है।
क्या बर्तानवी हुक़ूमत ने इतनी तरक़्क़ी यही दिन देखने के लिए की थी? जिस एम्पायर का सूरज दुनिया में कहीं डूबता नहीं था, आज उसके अपने घर में अंधकार व्याप्त हो रहा है।
सभ्यता के व्यतिक्रम की वैसी स्थिति केवल दो ही मौक़ों पर निर्मित हो सकती है-
1) जनसांख्यिकीय असंतुलन, जिसके चलते आबादी में मुस्लिमों का प्रतिशत बढ़ता है।
2) लिबरल विचारधारा, जो बहुलता और समावेश के नाम पर शरीया को स्वीकार करती है।
तो सभ्यता की रक्षा का तरीक़ा क्या होगा? इसका ठीक उल्टा।
1) जनसांख्यिकी पर नियंत्रण।
2) लिबरल विचारधारा में निहित बहुसांस्कृतिक छल का निषेध।
ब्रिटेन आज लिबरलिज़्म की क़ीमत चुका रहा है।
इसके सामने जापान का उदाहरण लीजिए, जो आप अपने संरक्षणवाद यानी प्रोटेक्शनिज़्म के कारण सुखी है। आज जापान में मुस्लिम आबादी नगण्य है, दो लाख से भी कम। और जब मुस्लिम शरणार्थियों को स्वीकार करने की बात आती है तो जापान इससे सौ प्रतिशत इनकार कर देता है। इस संरक्षणवाद ने जापान की रक्षा की है।
चीन में पंद्रह से बीस लाख से अधिक मुस्लिम नहीं हैं। इनमें भी बड़ी तादाद शिनशियांग में रहने वाले उइगरों (तुर्क मुस्लिमों की एक नस्ल) की है, जो कि चीनी मुख्यधारा का हिस्सा नहीं हैं। शिनशियांग एक ऑटोनोमस रीजन है। और कितनी ख़ूबसूरत बात है कि शिनशियांग के मुस्लिमों को लम्बी दाढ़ी रखने, हिजाब पहनने और यहां तक कि रोज़ा रखने की भी मनाही है। गुड! वेलडन, चाइना!
आपको लगता है कि चीन में कम्युनिस्ट हुक़ूमत है, फिर भी वो ऐसा क्यूं कर रही है, तो आपको बता दूं कि कम्युनिस्ट हुक़ूमतें अपने मुल्क में मज़हबों के साथ ऐसा ही सलूक़ करती हैं, दूसरों मुल्क़ों को लेकर उनकी चाहे जो पॉलिसी हो।
चीन उन्नीस है, तो क्यूबा इक्कीस है! चीन से बड़ा वाला कम्युनिस्ट! तो सुनिए, आज क्यूबा में मुस्लिमों की तादाद दस हज़ार से भी कम है और एक भी मस्जिद क्यूबा में नहीं है। जब तुर्की के रिलीजियस अफ़ेयर्स फ़ाउंडेशन द्वारा क्यूबा में मस्जिद खुलवाने की चेष्टा की गई तो उसे हुक़ूमत द्वारा ख़ारिज़ कर दिया गया।
लिबरलों को नींद से जाग जाना चाहिए कि उनके प्रिय कम्युनिस्ट मुल्क़ "मल्टीकल्चरलिज़्म" की कैसी बारह बजा रहे हैं।
अफ्रीका में एक ख़ूबसूरत मुल्क है अंगोला। ख़ूबसूरत इसलिए कि अंगोला में इस्लाम पर ही पाबंदी है! वहां पर इस्लाम को क़ानूनी मान्यता ही नहीं प्रदान की गई है। इसके बावजूद अंगोला में कोई 90 हज़ार मुस्लिम रह रहे हैं, लेकिन मस्जिद और मदरसे के बिना।
अगर अंगोला में जी सकते हैं तो पूरी दुनिया में भी जी सकते हैं!
चेक गणराज्य का भी मुस्लिमों के प्रति यही रुख़ है। पोलैंड के 16 राज्यों से शरीया समाप्त करने के लिए क़ानून बनाए जा रहे हैं। नीदरलैंड्स में सांसदगण मस्जिदों पर बैन लगवाने की बात कर रहे हैं। डेनमार्क में बुर्क़ों पर बैन लगा ही दिया गया है। इधर नॉर्वे ने भी एक अनूठा प्रयोग किया। अपराधों में बढ़ोतरी दर्ज किए जाने के बाद जब उसने इसकी जड़ में जाने की कोशिश की तो पाया कि समस्या कहां पर है। उसने कोई दो हज़ार मुस्लिमों को डिपोर्ट कर दिया। नतीजा, अपराधों की दर में 72 फ़ीसदी की गिरावट आ गई। माशाअल्ला!
म्यांमार में रोहिंग्याओं के साथ क्या हुआ, सभी जानते हैं। लेकिन जो हुआ, वैसा क्यों हुआ, इसकी तफ़सीलें जानने की कोशिश करेंगे तो बहुत रोचक नतीजे सामने आएंगे। लेकिन उन कारणों में किनकी दिलचस्पी है? हिंदुस्तान की तो यक़ीनन नहीं, जिसने रोहिंग्याओं को शरण दी है। और ब्रिटेन को भी हरगिज़ नहीं, जो बहुत आला दर्जे का लिबरल मुल्क़ है। तो फिर साहब, भुगतिये!
"इस्लाम बनाम अन्य" की थ्योरी के मूल में यही है।
यह कि हम तो चाहते हैं कि आप हमारे साथ मिल-जुलकर रहें और सभ्य तरीक़े से रहें। लेकिन अगर आप ही ऐसा नहीं चाहते तो फिर हम आपके ख़िलाफ़ एकजुट होकर रहेंगे। क्योंकि मानवीय सभ्यता की रक्षा बहुत ज़रूरी है।
सुनामी से मर जाएं, इबोला से मर जाएं, उल्कापिंड के टकराने से मर जाएं, ग्लोबल वॉर्मिंग से मर जाएं, देखा जाएगा।
लेकिन इस्लाम को यह इजाज़त नहीं दी जाएगी कि मनुष्यता का अंत कर दे।
हरगिज़ नही।।
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