मंगलवार, 31 अक्टूबर 2017

बाघेल युगीन रीवा की साहित्य परंपरा

  1.                               
  2. हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने हिन्दी साहित्य की लगभग सहस्त्र वर्षों की दीर्घ कालीन परम्परा तीन काल में विभाजित किया है- आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल।1 तदानुसार (1) आदिकाल 1000-1500 र्इ0 (2) मध्यकाल 1500-1800र्इ0  (3) आधुनिक काल1800 र्इ0 से प्रारंभ।2 विषयान्तर्गत अनुशीलन पर तथ्य उजागर होता है कि उक्त परंपरा का प्रारंभिक है मध्यकाल और रचना है 'दुर्गादास महापात्र —ति अजीत फते नायक रयसा। रचना काल —ति में उधृत नहीं है। आंकलन है
  3. (क) रायसा रासो का संक्षिप्त संस्करण एवं शैली के रूप में दुर्गादास महापात्र व्दारा मूल घटना के कुछ दिनो बाद लिखा गया। इसका प्रकाशन और भी बाद में हुआ।(3)
  4. (ख)....इससे जान पड़ता है कि ग्रंथ रचनाकाल युद्ध के दो साल के हेर फेर का है।4
  5. (ग) उक्त युद्ध 4 दिसम्बर सन 1796 में हुआ था जो नैकहार्इ युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है।5
  6. कवि दुर्गादास ने 'अजीत फते नायक रायसा की रचना हिरान्या वंश के राजाराम की आज्ञा से की। दृष्टव्य है उक्त ग्रंथ के छंद 40, 43 एवं 44।
  7.  ग्रंथालोचन - बीर रस प्रधान रासों परम्परा से भिन्न इस ग्रंथ में डिंगल तथा ब्रज मिश्रित राजस्थानी भाषा का प्रयोग किया है, किन्तु क्रियापद बृज भाषा के हैं। अजीत फतेह का स्थार्इ भाव उत्साह है। रौद्र वीभत्स, अदभुत, भयानक का चित्रण, क्रोध, भय, विस्मय,  गुप्सा जैसे स्थार्इ भाव परिपुष्ट रूप में मिलते हैं तथा अपुष्ट वीर रस का परिपोषण भी करते हैं।  एक बात छूटी जा रही थी, वजह महत्वपूर्ण रचनाओं का प्रभाव ही हो सकता है। राजा रामचन्द्र बाघेला  (1555-92 र्इ0) जो गहोरा का गौरव बढ़ा रहे थे 1563 र्इ0 में बांधवगढ़ आये, इसे राजधानी बनाकर इसी नाम से रियासत कायम की। 1555 र्इ0से 1562 र्इ0 तक ख्यात कलाकार तानसेन उनके दरबार में रहेे। उन्ही के दरबार में कवि माधव उरव्य भी रहे जिन्होने (1556 र्इ0) प्रशस्यात्मक महाकाव्य 'वीर भानूदय की रचना की। रामचन्द्र के पुत्र ने सन 1591 में इस ग्रंथ की प्रतिलिपि करार्इ थी।
  8. रायल एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता की पाण्डुलिपि क्र0 3109,'रामचन्द्रयश:प्रबन्ध को जतीन्द्र विमल चौधरी ने सन 1946 को प्रकाशित किया। अकबर से कालिदास की उपाधि पाने वाले कवि गोविन्द भÍ ने यह प्रशसित राजा रामचन्द्र को लक्षित कर लिखी है। इन्हे शाही कवि 'अक्कबरीय कालीदास गोविन्द भÍ कहा जाता है। इन्होने 'वीरभद्र चम्पू भी लिखा है।( प्रो0 अख्तर हुसैन निज़ामी : अजीत फते नायक रायसा बघेलखण्ड का आल्हा पृ.227)  ख्यात कवि विश्वनाथ जी की चौथी पुस्त में कवि नरहरि महापात्र जी हुये जो अकबर के दरबार में रहे किन्हीं कारणों से बांधवगढ़ आये थे जो अमरकंटक चले गये उनके पुत्र हरिनाथ तत्कालीन राजा रामचन्द्र के दरबार में आये और यह छन्द कहा :
  9. काहू के करम उमरार्इ पातसार्इ रर्इ, काहू के करम राज राजनसो हेत है।
  10. काहू के करम हय हांथी पर गने पुर, काहू के करम हेम हरिन सों नेत है।।
  11. हरिनाथ जोर्इ जाहि के लिलार लीक, लीक, सोर्इ सोर्इ यहि दरबार आनि लेत है।
  12. महाराज बांधव नरेश राम सिंह तेरे, कर के भरोसे करतारौ लिख देत है। 6 
  13. राजा रामचन्द्र के पुत्र वीरभद्र देव हुये (सन1554) सन 1577 में इन्होने काम शास्त्र पर 'कन्दर्पचूड़ामणि ग्रंथ की रचना की। इसे सन 1908 में महाराज व्यंकटरमण सिंह ने प्रकाशित कराया जिसका सम्पादन  'रीवा राज्य दर्पण के लेखक जीतन सिंह ने किया। पं0 सूर्यप्रसाद ने इसकी हिन्दी टीका(वेंकट रहस्य) लिखी। सन 1926 में यह संस्—त-पुस्तकालय लाहौर द्वारा भी प्रकाशित किया गया। वीरभद्र का राज्यकाल अल्प समय का था। इनकी अन्य रचना 'दशकुमार-पूर्वकथा-सार पाण्डुलिपि कलकत्ता में(क्र.जी.9368) सुरक्षित है। पधनाभ मिश्र —त 'वीरभद्रदेव चम्पू पधनाभ मिश्र द्वारा सन 1577 में रची गर्इ।(डा0 राजीवलोचन अग्नीहोत्री)  सन 1668 में कवि रूपणि मिश्र ने महाराजा भाव सिंह की आज्ञा से 'बघेलवंश वर्णनम रचना जो सोमदेव भÍ के कथा सरित्सागर की पाण्डुलिपि से प्राप्त की गयी थी, शुद्ध प्रति तैयार की। कवि रूपणि मिश्र ने महाराजा भाव सिंह की प्रशसित में 100 श्लोक स्वयं रच कर ग्रंथ के अन्त में जोड़ दिए। इस ग्रंथ की प्रतिलिपि कलकत्ता में (क्र. 5398) सुरक्षित है।
  14. कवि हरिनाथ की छठवीं पीढ़ी में कवि शिवनाथ राम हुये। ये गंगा तट असनी नामक गाँव में निवास करते थे, रीवा आये। महाराजा अजीत सिंह ने इन्हें अपने दरबार में राज कवि बनाया और सिलपरी गाँव दिया। संभव है कि इनके वंश परम्परा के दुर्गादास महापात्र हैं, क्योंकि नरहरि दास जी के पितामह महाकवि धीरधर महापात्र जिन्हें महापात्र की पदवी आलाउद्दीन से मिली थी।7 धीरधर संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रंथ 'साहित्य दर्पण के रचयिता थे। इनके वंशज ही सिलपरी ग्राम के पवार्इदार हुए और 'महापात्र या 'भÍ कुल नाम से जाने जाते हैं।
  15. शिवनाथ राम जी के पुत्र अजबेश राम महापात्र हुये और वे महाराजा विश्वनाथ सिंह तथा महाराजा रघुराज सिंह के दरबार में रहे। संस्—त हो या हिन्दी साहित्य रीवा का योगदान पुष्कल और महान है। वैसे देखा जाये तो महाराजा जयसिंह से राजवंश की साहित्य परम्परा चलती है। महाराजा जयसिंह ने स्वयं बीस पुस्तकों की रचना की।8 इनमें 'हरिचरित चंदि्रका, तथा 'कृष्ण तरंगिनी सुन्दर कृतियाँ है और उस भकित उन्मेष से लिखी गर्इ हंै जो भकितकाल की प्रबल प्रवृति रही है।9
  16. हिन्दी के प्रथम नाटक का मान 'आनन्द रघुनन्दन को मिला। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और कुँवर सूर्यबली सिंह ने तमाम सिथतियाँ स्पष्ट की है कि यह हिन्दी का प्रथम नाटक है। आंनन्द रघुनन्दन के रचयिता है महाराज विश्वनाथ सिंह इनका 1833 र्इ0 से 1854 र्इ0 तक राजकाल रहा। विश्वनाथ सिंह समन्वयवादी उन कवियों के श्रेणी में आते हैं जिनके मूर्धन्य कवि गोस्वामी तुलसीदास है।10 इनके द्वारा रचित निम्नलिखित ग्रंथ कहे जाते हैं - अष्टयाम आàकि, गीता रघुनन्दन शतिका, आनन्द रघुनन्दन (नाटक), उत्तम काव्य प्रकाश, रामायण, गीता रघुनन्दन प्रमाणिक, सर्व संग्रह, कबीर के बीजक की टीका, विनय पत्रिका की टीका, रामचन्द्र की सवारी, भजन, पदार्थ, धनुर्विध, परमतत्व प्रकाश, आनन्द रामायण, पर धर्म निर्णय, शानित शतक, वेदान्त पंचक शतिका, गीतावली पूर्वाध, ध्रुवाष्ठक, उत्तम नीति चंदि्रका, अबोध नीति, पाखण्ड खणिडनी, आदि मंगल, बसंत, चौतीसी, चौरासी रैमनी, ककहरा, शब्द, विश्व भोजन प्रसाद, ध्यान मंजरी, विश्वनाथ प्रकाश, परम तत्व, संगीत रघुनन्दन।11 इनका अधिकांश सहित्य उपदेशात्मक और वर्णनात्मक है।
  17. मध्य युगीन हिन्दी सहित्य के प्रवाह में महाराजा विश्वनाथ सिंह नही बहें, उन्होने नाटक आनन्द रघुनन्दन की रचना की। कुँवर सूर्यबली सिंह ''यदि यह रचना काल के अनितम भाग मे न लिखा गया होता तो मध्यकाल रसात्मक अभिव्यकित की एक सश्क्त सरणि - श्रव्य काव्य से वंचित रह जाता, उसकी संपन्नता बाधित हो जाती। अत: विश्वनाथ सिंह ने मध्यकालीन साहित्य को अनुपम अद्वितीय रचना से संवारा है। 'आन्नद रघुनन्दन का रचना काल ग्रन्थ में अंकित नही है। विन्ध्य प्रादेशिक सहित्य सम्मेलन रीवा द्वारा प्रकाशित पत्रिका के सम्पदिकीय मे निर्माण तिथि का निर्धारण हुआ है,- 'आनन्द रघुनन्दन नाटक की रचना सम्वत 1800 से 1911 के मध्य कभी हुर्इ है। एक सौ ग्यारह वर्षो का अन्तराल मन को उद्वेलित किये रहा। खोज-बीन करते जानकारी मिली आनंद रघुनंदन हस्तलिखित पाण्डुलिपि से - इति श्री महाराज कुमार श्री बाबू साहब विश्वनाथ सिंह जूदेव कृति आनन्द रघुनंदन नाटक सम्पूर्ण समाप्त शुभमस्तु श्री राम, सुदि सुक्रे वौ संवत 1888 (सन 1831) को मुकाम बिजौरी बैठ लिखों।12 तदानुसार इस बात की पुषिट होती है कि विश्वनाथ सिंह ने आनंद रघुनंदन अपने राजकुमार काल में कभी लिखा जिसकी प्रतिलिपि 1831 र्इ0 में किसी ने किया। उनका जन्मकाल है  तिथि बैशाख शुक्ल 14 विक्रम संवत 1848 (1789 र्इ0) अत: 'आनन्द रघुनन्दन का रचना काल र्इ0 1831 के आस-पास होना विदित होता है। 'आनंद रघुनन्दन नाटक हिन्दी एवं संस्—त दोनो सूचियों में प्राप्त होता है किन्तु यह सत्य है कि पहले हिन्दी में ततपश्चात संस्—त अनुवाद हुआ। महाराजा विश्वनाथ सिंह ने सगुण और निगर्ुण की एक वाक्यता प्रतिपादित की ।''13
  18. विश्वनाथ युग में सूफी संत शाह नज़फ अली खाँ का जि़क्र आता है, रायबरेली के पास सलोन गाँव में जन्म लिया जहाँ के 'पदमावत रचनाकार मलिक मोहम्मद जायसी हैं। खाँ साहब फारसी के ज्ञाता थे और फारसी की एक रचना रीवा की तुरकहटी में बैठ कर लिखी थी 'प्रेम चिंगारी। 14
  19. महाराज जय सिंह —ष्णोंपासक थे और पुत्र महाराज विश्वनाथ सिंह रामोपासक हुए। महाराज रघुराज सिंह कृष्णोंपासक सिद्ध होते हैं। महाराज रघुराज सिंह का जन्म सन 1823 र्इ0 कार्तिक कृष्णपक्ष चार दिन गुरुवार को हुआ। कवि युगलेश ने कहा है ''जस प्रताप मंदिर कियो, विश्वनाथ महाराज, तापर कलसा ताहिको धरयो भूप रघुराज। हालाँकि नींव तो महाराज जय सिंह ने ही रखी और माहौल का भी प्रभाव पड़ा, क्योंकि राज दरबार में कर्इ विद्वान कवि आश्रय पाते थे। इनकी रचनाओं को देखा जाय और देखिये कि कितना विशिष्ट, वृहत और विशद है। समीक्षा आचार्य कुँवर सूर्यबली सिंह ने कहा कि ''महाराज रघुराज सिंह ने जिस मनोयोग से 'रामस्वयंबर में राम कथा गार्इ है उसी उन्मेष में 'रुकिमणी परिणय और 'आन्दाम्बुनिधि में —ष्ण कथा कही है। इस प्रकार उन्होने सिद्धांत और व्यवहार को एक कर दिया है जो मध्यकालीन कवियों में शायद ही कोर्इ कर सका हो।
  20. 'आनन्दाम्बुनिधी के बारे में बघेली गधकार रविरंजन सिंह ने लिखा है-''इस ग्रंथ से हिन्दी की एक बड़ी छतिपूर्ति हुर्इ है। इसके पूर्व हिन्दी प्रेमी श्रीमदभागवत की कविता का रसास्वादन करने से वंचित रह जाते थे। महाराज रघुराज सिंह रीतिकालीन प्रवाह में नहीं बहे। देखा जाय तो महाराज रघुराज सिंह मध्यकाल में शुरुआत से अन्त तक छाये रहे। सूरदास एवं तुलसीदास ऐसे दो चार कवि ही होंगे जिनके लिये काव्य साधन और साध्य दोनो था। रघुराज सिंह भी इन्ही में आते हैं, ये भक्त भी हैं और साहित्यकार भी। इनकी रचनायें कुछ एक को छोड़ कर, शुद्ध धार्मिक है। 'गंगा अष्टोत्तर शतक साहितियक स्त्रोत है और इसके जोड़ की एक ही रचना है-पदमाकर की ख्याति को उजागर करने वाली 'गंगालहरी।15
  21. प्राप्त सूचियों के अनुसार महाराज रघुराज सिंह के सर्व ग्रंथों की संख्या 56 तक पहँुचती है। विद्वानों के मत से वह 28 से अधिक नहीं कही जाती है। 'रघुराज विलास लोक साहित्य का अच्छा उदाहरण है। तुलसीदास जी के 'रामलला नहछू और 'जानकी मंगल आदि का जो स्थान है लोक साहित्य में, वही स्थान है 'रघुराज विलास का। उनके बनरा, बधार्इ, होली आदि के पद गाँवों में आज भी सुनार्इ देते हैं।
  22. महाराज रघुराज सिंह के राजकवि अजबेस राम जी रहे, जो फारसी और ब्रज के अच्छे ज्ञाता रहे। कवि अजवेश मध्यकाल को वीर काव्य देने वाले प्रसिद्ध कवियों में से थे। कवि अजवेश भÍ (महापात्र) ने बान्धव गद्दी के महाराजाओं की वंशावली लिखी है। इनके रचे छन्द -
  23.                      संगर समत्थ सजो भूप विश्वनाथ सिंह वीरता को रूप खूब आनन लखात है।
  24.     मारु बजे बाजे गाजे द्विरद दतारे भारे सुभट समूह सावधान दरसात है।।
  25.    विक्रम विहद्द हिंदुवान हद्द अजबेश जय सिंह के नंद के अनंद अधिकात हैं।
  26.   तरकात जात बंधु करकत जात फौज फरकत बाहु बाजी थरकत जात है।।
  27. कवि अजबेश के पुत्र कवि सुखराम जी ब्रज एवं संस्—त के ज्ञाता थे और व्याकरण शास्त्र के पूर्ण पणिडत। ये महाराज रघुराज सिंह के दरबार में रहे। ये ब्रज भाषा में सुन्दर रचना करते थे और कविता में अपना नाम अन्य कवियों की तरह नहीं रखते थे। -
  28.                     आज महाराज की शरण आय अपनी विपत अंगरेजन हू भाखी है।
  29.                    नर नरनाहन सदा ही पातसाहन को विपति परै पै पति बाँधौपति राखी है।।
  30. द्विवेदी युगीन कवि-त्रयी हंै मैथिली शरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्यय 'हरिऔध और ठा0 गोपाल शरण सिंह। रीवा के नर्इगढ़ी इलाकेदार ठा0 गोपाल शरण सिंह का सन 1891 में जन्म हुआ। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की —पा से आपने साहित्य में विशेष स्थान बनाया। खड़ी बोली को सजीव, मधुर और सशक्त बनाने वालों में आपका विशेष स्थान है। राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलनों में आपने अनेक स्थानों पर अध्यक्षता की। आपने उच्चकोटि का साहित्य सृजन किया है - माधवी, कादमिबनी, ज्योतिष्मती, संचिता, सुमना, सागरिका, ग्रामिका, आधुनिक कवि, विश्वगीत, पे्रमान्जली, शानित-गीत, मीरा और जगदालोक जो पुरष्—त हुर्इ। 'माधवी घनाक्षरी छन्दों में सरस व माधुर्य गुणों से भरपूर रचनाओं का संग्रह है। आपकी कविताओं में सामाजिक समस्याओं का निरूपण एवं जन जागरण का स्पष्ट स्वर है जो काव्य में अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
  31. रीवा की धरती सदा साहित्यकार प्रसूता रही है और यहाँ के राजाओं द्वारा पोषित। सन 1880-81 में उर्दू लेखक मौलवी रहमान अली ने 'तवारिख-ए-बघेलखण्ड लेखन की शुरुआत की।16 महाराजा व्यंकटरमण सिंह ने हिन्दी को विशेष महत्व दिया और सन 1895 में हिन्दी को राज्य भाषा घोषित किया। महाराजा व्यंकटरमण सिंह के समय इस क्षेत्र (आज का मध्य प्रदेश) का प्रथम स्वतंत्र राष्टी्रय पत्र 'भारत भ्राता सन1914 के बाद महाराजा व्यंकटरमण सिंह के समय में निकला। जिसके सम्पादक श्री बलदेव सिंह थे।17 पणिडत मदन मोहन मालवीय ने इस पत्र की राष्टी्रय भावना और निर्भीकता की बहुत प्रशंसा की लेकिन अंग्रेज सरकार ने पत्र की प्रतियाँ और पे्रस जब्त कर लिया। सन
  32. 1918, श्री ब्रजरत्न भÍाचार्य के सम्पादन में 'शुभचिन्तक(सप्ताहिक) प्रकाशित होने लगा। सन 1920-21 के 'रीजेन्सी काल में सारे पत्रों का प्रकाशन बंद करा दिया गया। सन 1930 से 'प्रकाश महाराजा गुलाब सिंह की पे्ररणा से प्रकाशित होना प्रारंभ हुआ इसके सम्पादक रहे श्री नरसिंह राम शुक्ल, म0 अर्जुन सिंह, केशव प्रसाद चतुर्वेदी। गुलाब सिंह के सत्ता से हटने के बाद यह अनियमित रहा। श्री बलवन्त सिंह की प्रेरणा से कुँवर सूर्यबली सिंह एवं यादवेन्द्र सिंह के सम्पादकत्व में साहितियक मासिक पत्रिका 'बान्धव प्रकाशित हुर्इ लेकिन शुद्ध साहितियक होने की वजह से अल्प जीवी रही। श्री जगमोहन निगम भी इस पत्रिका से जुड़े हुए थे। इस क्षेत्र की पत्रिकाओं में कुँवर सूर्यबली सिंह ने सम्पादकीय लेखन और साहितियक समीक्षा की शुरुआत की।
  33. कवि सुखराम जी के पुत्र महापात्र सीतल प्रसाद 'शीतलेश महाराज व्यंकटरमण सिंह एवं महाराजा गुलाब सिंह के दरबार के राजकवि रहे। आप ब्रज भाषा साहित्य के पणिडत थे और उन्होने 'गुलाब गौरव ग्रंथ लिखा जिसे 'गुलाब प्रकाश' भी कहा जाता है।
  34. 'शीतलेश जी के पुत्र ब्रजेश जी ने साहित्य शास्त्र का गहन अध्ययन किया। आपका जन्म सन 1871, सिलपरी ग्राम रीवा में हुआ। आपकी गणना ब्रज के आचार्य कवियों में की जाती है। आपके द्वारा रचित ग्रंथों में 'रमेश रत्नाकर, माधव विलास, विरह-वाटिका, सोरठ शतक, अलंकार निर्णय, रस रसांग-निर्णय, शान्त शतक, श्रृंगार-शिरोमणि, मोहन चरित्र माला, विश्वनाथ शरण भूषण, ब्रजेश विनोद हैं।
  35. बख्शी हनुमान प्रसाद जी का जन्म 1872 र्इ0 में हुआ। आपने 'साहित्य सरोज नामक एक अलंकार ग्रंथ की रचना की। आप हिन्दी के अलावा उदर्ू और फारसी के ज्ञाता थे। बघेलखण्ड की धरती साहित्यकारों से अलं—त रही है, मेरा दुर्भाग्य है कि अध्ययन के दौरान स्वतंत्रता पूर्व के कर्इ कवियों के नाम जानकारी में आए लेकिन उनके साहित्य के पुण्य प्रसाद से वंचित रहा।
  36. श्री गोविंद प्रसाद पाण्डेय :जन्म सन 1874। आप संस्—त, उदर्ू और फारसी के ज्ञाता थे। श्री भगवत प्रसाद, कवि राधिकेश जी, कवि मधुर जी, श्री हरिवंश प्रसाद श्रीवास्तव। कवि रामाधीन लालजी खरे : रीतिकाल की परंपरा के सफल कवि थे और प्रचुर मात्रा में साहित्य सृजन किया, लगभग 40 ग्रंथों की। स्वतंत्रता पूर्व काल मेें आप बहुत चर्चित व प्रतिषिठत साहित्य सृजक रहे। आप अपनी काव्य प्रतिभा के कारण ओरछा राजा के राजकवि हुए। इसी क्रम में अभी और साहित्यकार हैं जैसे आचार्य केशव के वंशज श्री श्याम सेवक मिश्र, कप्तान सम्पत कुमार सिंह, श्री बज्रपाणि सिंह 'पविपाणि, कप्तान यादवेन्द्र सिंह, कवि मनोहर सिंह, लाल महावीर सिंह बघेल, सरदार शत्रुसूदन सिंह, कवि हरशरण शर्मा 'शिव, श्री रामभद्र गौड़, श्री माधव प्रसाद और पणिडत चन्द्रशेखर शर्मा। पणिडत चन्द्रशेखर शर्मा का जन्म सन 1894 को रायपुर कचर्ुलियान रीवा में हुआ। आपकी रचनायें कर्इ बार पुरस्—त हुर्इं। कवि शेषमणि शर्मा 'मणि रायपुरी आपके पुत्र हैं। कवि लाल महाबली सिंह बघेल की 'गांधी गौरव रचना प्रकाशित हुर्इ है। कवि परशुराम जी पाण्डेय काफी प्रसिद्ध हैं। आपका बांधव झण्डागान रीवा राज्य के सभी पाठशालाओं में गाया जाता था और 'वह शकित हमें दो दयानिधे कर्तव्य मार्ग पर डट जावें...,इन्ही की रचना मानी जाती रही है लेकिन 'आजकल पत्रिका अंक नवंबर 2010 में इस कविता के कवि मुरारीलाल शर्मा 'बालबंधु का उल्लेख है। इनकी 'हरिकीर्तन, 'साकेत पथ एवं 'काव्य कलिका है। कवि अमिबका प्रसाद भÍ 'अमिबकेश : आपकी कविताओं में वीर रस और राष्ट्रप्रेम का स्वर प्रधान है। सन1941 में कविता संग्रह 'ज्योति प्रकाशित हुर्इ। श्री लखनप्रताप सिंह 'उरगेश':सन 1916 में जन्म हुआ, 'उल्कापात, 'आभा, 'प्रसाद,'अभिनयशाला एवं 'मानस परिचय आपकी रचनायें हैं। श्री भारत सिंह बघेल : जन्म सन 1905 ग्राम महसुआ रीवा में हुआ। आपकी 'विन्ध्य वैभव, 'बान्धव गान, 'देवतालाब महात्म्य, और 'विन्ध्य के प्राचीन ग्रंथ आदि हैं।
  37. हिन्दी जगत में 'मिश्रबंधु समान रीवा में मान्य रहे हैं गधकार बंधुत्रय लाल —ष्णवंश सिंह, लाल भानु सिंह और लाल दयावान सिंह, साहित्य की हर विधाओं में पारंगत रहे हैं। समीक्षा विधा की पहचान बनाने वाले रहे हैं कुँवर सूर्यबली सिंह। इन्होने गध साहित्य को विभिन्न पाठयक्रमों तक पंहुचाया है।
  38. कुँवर सूर्यबली सिंह परिहार का जन्म सन 1906 ग्राम रायपुर कचर्ुलियान, रीवा में हुआ। प्रो0 आदित्यप्रताप सिंह ने' हंस की उड़ान में लिखा है ''सूर्यबली सिंह ने न तो विश्वनाथ सिंह, रघुराज सिंह, ठा0 गोपाल शरण सिंह को बुर्जुआ कहकर खारिज किया है न दिनकर न अज्ञेय और न मुकितबोध की ही उपेक्षा की है - यहाँ तक कि गध लेखकों और आंचलिक कवियों पर भी मौखिक और लिखित रूप में साहितियक अनुशीलन वे करते रहे हैं।...आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और सूर्यबली सिंह की दृषिट और समीक्षा सृषिट ऐसी निर्जीवता से ग्रस्त नहीं है।...निसंदेह वे आचार्य शुक्ल के उत्तराधिकारियों में से एक हैं, उनका दोष केवल यह है कि वे काशी छोड़ रीवा चले आये। आपने आचार्य लाला भगवान दीन, पणिडत अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और आचार्य केशव प्रसाद मिश्र जैसे दिग्गजों से शिक्षा प्राप्त की। सन 1936 में बनारस हिन्दू विश्वविधालय से स्नातकोत्तर किया।
  39. कुँवर सूर्यबली सिंह की प्रकाशित एवं प्रशंसित रचनायें : 'हिन्दी की प्रचीन एवं नवीन काव्य धारा (सन1936) वि0 प्रा0 हिन्दी साहित्य सम्मेलन रीवा से पुरस्—त, 'जीवन ज्योति, 'राजनीति परिचय, 'हिन्दी कविता, 'आधुनिक मराठी साहित्य, 'विधापति एवं 'सुभाषित। आचार्य शुक्ल —पण रहे हैं किसी लेखक की प्रशंसा करने में किन्तु सूर्यबली सिंह की —ति 'हिन्दी की प्रचीन एवं नवीन काव्य धारा में उन्होने  —पणता का त्याग करते लिखा है ''हिन्दी की प्रचीन एवं नवीन काव्य धारा में सूर्यबली सिंह एम ए ने दोनो धाराओं की विभिन्नता प्रकट करने वाली बहुत सी  विशेषताओं का अच्छा उदघाटन किया है। उन विशेषताओं की ओर ध्यान देने से दोनो प्रकार की कविताओं के स्वरूप का परिचय और वर्तमान कविता की भिन्न-भिन्न शाखाओं का आभास मिल जाता है। हमारे काव्य क्षेत्र में ज्यों ज्यों अनेक रूपता का विकास होता जायेगा त्यों त्यों ऐसी पुस्तकों की आवश्यकता बढ़ती जायेगी। उक्त पुस्तक में लेखक ने विभाव पक्ष, भाव पक्ष, कला तथा भाषा के आधार पर हिन्दी कविता का अध्ययन प्रस्तुत किया है। आप संगठन वादी कविता के पक्षधर नहीं है।
  40. कुँवर सूर्यबली सिंह सन 1936-37 साहित्य समीक्षा संघ बनारस,  सन 1936-45 रघुराज साहित्य परिषद के प्रधान मंत्री, बांधव मासिक पत्रिका रीवा (सन 1942-44) के सम्पादक और स्वतंत्रता आन्दोलन (सन1942-44) में जेल यात्रा की। अध्ययन, लेखन एवं अध्यापन जीवन पर्यन्त रहा।
  41. पदमभूषण शिवमंगल सिंह सुमन की बड़ी बहन कीर्ति कुँवरि का विवाह सन 1907 को महाराज व्यंकटरमण सिंह से हुआ, लेकिन सन 1918 को महाराज का देहान्त हो गया। महारानी ने अपना वैधव्य —ष्ण भकित और साहित्य को दिया। आपने कर्इ ग्रंथो का सृजन किया : 'श्री राधा—ष्ण विनोद भजनावली, 'भक्त प्रभाकर, 'कीर्ति रमण,'ज्ञानदीप,'कीर्ति सुधा,'श्री जगदीश कीर्ति शतक,'कीर्ति लता,'कीर्ति अष्टक,'कीर्ति शिरोमणि,'कीर्ति बहार,'कीर्ति निधि','कीर्ति त्रिवेणी,'श्रीबद्रीश, 'कीर्ति चिन्तामणि,'कीर्ति कौमुदी, 'कीर्ति जया,'कीर्ति किरण,'कीर्ति माधुरी, 'कीर्ति भाष्कर, 'कीर्ति गोविन्द,'कीर्ति प्रकाश,'कीर्ति गंगे,'कीर्ति पुष्पन्जली,'ज्ञानमाला,'कीर्ति प्रमोद,। आपकी रचनायें भ्कितरस प्रधान हैं। कुछ पंकितयाँ :
  42. ''यह कीर्ति अधीर पुकार रही सुनि लेहु —पा करि हे बनवारी,
  43. आपन जान दया करिये हम तो निशिवासर शरण तुम्हारी।
  44. ''जब से उल्फत ने सताया जी कहीं लगता नहीं
  45.  क्या करुँ उनके बिना बैचेन हूँ निशि याम री।
  46. बघेलकाल राज्य विलियन सन 1948 तक के रीवा राज्य में साहित्य के प्रसिद्ध और भी हस्ताक्षर हैं। हिन्दी, उदर्ू, फारसी और अंग्रेजी के ज्ञाता, इतिहासकार प्रो0 अख्तर हुसैन निज़ामी जिन्होने इतिहास के धुंधलाये आइनों को साफ किया है। सन 1919 में 'रीवा राज्य दर्पण के लेखक श्री जीतन सिंह, 'रीवा राज्य का सैनिक इतिहास (सन 1937) लेखक- लाल जनार्दन सिंह और गुरू रामप्यारे अगिनहोत्री 'रीवा राज्य का इतिहास एवं प्रकाशित काव्य ग्रंथ 'प्रलाप।
  47. महाराज व्यंकटरमण सिंह के दरबार में झुरवा अहीर मौजा देवखर त्यौंथर तहसील रीवा ने 'नैकहार्इ केर बिरहा सुनाया था जो शायद लिखित तो नहीं पर बहुत चर्चित हुआ।18 गध साहित्य में संख्या कुछ कम नहीं थी, श्री सिद्धविनायक द्विवेदी(उपन्यासकार), कथा साहित्य के शिल्पी रहे हैं लाल यादवेन्द्र सिंह माड़ौ रीवा। कवि कुँवर सोमेश्वर सिंह : जन्म सन 1910, आपके काव्य ग्रंथ हैं-'रत्ना, 'दृगजल, 'सरोज और ख्ुासरो। कवि सोमेश्वर सिंह सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि ठा0गोपालशरण सिंह के सुपुत्र हैं।
  48. बैजनाथ प्रसाद 'बैजू : जन्म सन 1910 को हुआ। आपका रचना काल सन 1935 से प्रारंभ होता है। सूकितयों का एक संग्रह 'बैजू की सूकितयाँ के नाम से सन 1940 को प्रकाशित हुआ। कुँवर सूर्यबली सिंह ने बैजू को उन गिने चुने कवियों में माना है ''जो सामान्य भाषा को अपना कर अपनी आवाज सर्व सामान्य तक पंहुचाने वाले हैं। रिमहीं (बघेली) की यह रचना भाषा की सशक्तता और छन्द चयन के कारण विशेष है। कवि ने अपने अनुभवों को व्यक्त करने का अनूठा तरीका अपनाया है। बड़ी खूबसूरती से प्रचलित देशीय मुहावरों का प्रयोग हुआ है। कुल मिलाकर आप रिमहीं के जनप्रिय कवि हैं।
  49.  आइए अब कवि शेषमणि शर्मा 'मणि की बात करें। इनका जन्म रायपुर कचर्ुलियान में सन 1916 को हुआ। इन्हे सन 1953 में विन्ध्य प्रदेश शासन से प्रबंध —ति 'कैकेयी पर व्यास पुरस्कार प्रदान किया गया था। अन्य रचनायें :'मणिकिरण, 'द्वितीया,'बागी की डायरी,'अन्तध्र्वनि,'क्रानित की चिनगारियाँ और 'जग-जीवन है।
  50. अवधी को जायसी और तुलसी मिले। बघेली को बैजू और सैफू आदि।19 पूरा नाम सैफुद्दीन सिद्दकी 'सैफू : जन्म 1 जुलार्इ 1924, प्रकाशित काव्य संकलन 'दिया बरी भा अजोर, 'भारत केर माटी की जानकारी मिली है। डा0 भगवती प्रसाद शुक्ल के शब्दों में ''सैफू सच्चे अर्थों में बघेली के समर्थ और प्राणवान कवि हैं।      ''बिन पखना मेंड़राय सरग मा, रहय लपेटे सूत।
  51.                सैफू कहँय बताबा ककऊ, कउन आय इया भूत।20
  52.  यहाँ की धरती बाणभÍ की कार्यस्थली है। क्या राजा क्या आम जन, हिन्दी, संस्—त, उदर्ू, फारसी, 'अउ बघेली में सृजन करने वाले कम नहीं थे, न हैं, न होंगे। 000      
  53. ----- संदर्भ ------
  54. 1.कुँवर सूर्यबली सिंह :मध्य युगीन साहित्य को रीवा की देन ।
  55. 2.डा0 धीरेन्द्र वर्मा : हिन्दी भाषा का इतिहास।  
  56. 3. प्रो0 आदित्य प्रताप सिंहरविरंजन सिंह :अजीत फतेह बघेलखण्ड का आल्हा की साहितियक पृष्ठ भूमि से।
  57. 4. अजीत फते रायसा : पं. रामभद्र गौड़।
  58. 5. रविरंजन सिंह : 'रीवा तब अउर अब' पृ.21।
  59. 6. महाकवि ब्रजेश : प्रो0 —ष्ण चन्द्र वर्मा पृ. 11-12।
  60. 7. बिपिन बिहारी मिश्र :विशाल भारत,फरवरी1946 ।
  61. 8.हिन्दी नाटक उदभव और विकास पृ. 166।
  62. 9-10-.कुँवर सूर्यबली सिंह :मध्य युगीन साहित्य को रीवा की देन।
  63. 11. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-हिन्दी साहित्य का इतिहास।
  64. 12. असद खान :बघेलख्ण्ड की स्थापत्य कला।
  65. 13. कुँवर सूर्यबली सिंह :मध्य युगीन साहित्य को रीवा की देन।
  66. 14. रविरंजन सिंह : प्रो0 अख्तर हुसैन निज़ामी की डायरी।
  67. 15.कुँवर सूर्यबली सिंह :मध्य युगीन साहित्य को रीवा की देन।
  68. 16. डा0 दिवाकर सिंह :बघेल राजपूत की पाण्डुलिपि।
  69. 17.श्रीमती स्नेहलता तिवारी :बघेलखण्ड की पत्र पत्रिकायें
  70. 18. प्रो0 अख्तर हुसैन निज़ामी : अजीत फते नायक रायसा बघेलखण्ड का आल्हा पृ.221।
  71. 19. डा0 सूर्यभान सिंह :बघेली व्याकरण
  72. 20.उत्तर- पतंग

मंगलवार, 17 अक्टूबर 2017

अदृश्य स्याही वाली प्राचीन कला की अनसुलझी पहेली...

Note--: निम्नलिखित लेख श्री सुरेश चिपलूनकर जी के पोर्टल desiCNN से लिया गया है ! नीचे पोर्टल की लिंक दी गई है ! अद्भुत जानकारी के लिए इस पोर्टल में जरूर जाएँ !  

प्राचीन  भारत में ऋषि-मुनियों को जैसा अदभुत ज्ञान था, उसके बारे में जब हम जानते हैं, पढ़ते हैं तो अचंभित रह जाते हैं. रसायन और रंग विज्ञान ने भले ही आजकल इतनी उन्नति कर ली हो, परन्तु आज से 2000 वर्ष पहले भूर्ज-पत्रों पर लिखे गए "अग्र-भागवत" का यह रहस्य आज भी अनसुलझा ही है.
जानिये इसके बारे में कि आखिर यह "अग्र-भागवत इतना विशिष्ट क्यों है? अदृश्य स्याही से सम्बन्धित क्या है वह पहेली, जो वैज्ञानिक आज भी नहीं सुलझा पाए हैं.
आमगांव… यह महाराष्ट्र के गोंदिया जिले की एक छोटी सी तहसील, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की सीमा से जुडी हुई. इस गांव के ‘रामगोपाल अग्रवाल’, सराफा व्यापारी हैं. घर से ही सोना, चाँदी का व्यापार करते हैं. रामगोपाल जी, ‘बेदिल’ नाम से जाने जाते हैं. एक दिन अचानक उनके मन में आया, ‘असम के दक्षिण में स्थित ‘ब्रम्हकुंड’ में स्नान करने जाना है. अब उनके मन में ‘ब्रम्हकुंड’ ही क्यूँ आया, इसका कोई कारण उनके पास नहीं था. यह ब्रम्हकुंड (ब्रह्मा सरोवर), ‘परशुराम कुंड’ के नाम से भी जाना जाता हैं. असम सीमा पर स्थित यह कुंड, प्रशासनिक दृष्टि से अरुणाचल प्रदेश के लोहित जिले में आता हैं. मकर संक्रांति के दिन यहाँ भव्य मेला लगता है.
‘ब्रम्ह्कुंड’ नामक स्थान अग्रवाल समाज के आदि पुरुष/प्रथम पुरुष भगवान अग्रसेन महाराज की ससुराल माना जाता है. भगवान अग्रसेन महाराज की पत्नी, माधवी देवी इस नागलोक की राजकन्या थी. उनका विवाह अग्रसेन महाराज जी के साथ इसी ब्रम्ह्कुंड के तट पर हुआ था, ऐसा बताया जाता है. हो सकता हैं, इसी कारण से रामगोपाल जी अग्रवाल ‘बेदिल’ को इच्छा हुई होगी ब्रम्ह्कुंड दर्शन की..! वे अपने ४–५ मित्र–सहयोगियों के साथ ब्रम्ह्कुंड पहुंच गए. दुसरे दिन कुंड पर स्नान करने जाना निश्चित हुआ. रात को अग्रवाल जी को सपने में दिखा कि, ‘ब्रम्ह्सरोवर के तट पर एक वटवृक्ष हैं, उसकी छाया में एक साधू बैठे हैं. इन्ही साधू के पास, अग्रवाल जी को जो चाहिये वह मिल जायेगा..!  दूसरे दिन सुबह-सुबह रामगोपाल जी ब्रम्ह्सरोवर के तट पर गये, तो उनको एक बड़ा सा वटवृक्ष दिखाई दिया और साथ ही दिखाई दिए, लंबी दाढ़ी और जटाओं वाले वो साधू महाराज भी. रामगोपाल जी ने उन्हें प्रणाम किया तो साधू महाराज जी ने अच्छे से कपडे में लिपटी हुई एक चीज उन्हें दी और कहा, “जाओं, इसे ले जाओं, कल्याण होगा तुम्हारा.” वह दिन था, ९ अगस्त, १९९१.
आप सोच रहे होंगे कि ये कौन सी "कहानी" और चमत्कारों वाली बात सुनाई जा रही है, लेकिन दो मिनट और आगे पढ़िए तो सही... असल में दिखने में बहुत बड़ी, पर वजन में हलकी वह पोटली जैसी वस्तु लेकर, रामगोपाल जी अपने स्थान पर आए, जहां वे रुके थे. उन्होंने वो पोटली खोलकर देखी, तो अंदर साफ़–सुथरे ‘भूर्जपत्र’ अच्छे सलीके से बांधकर रखे थे. इन पर कुछ भी नहीं लिखा था. एकदम कोरे..! इन लंबे-लंबे पत्तों को भूर्जपत्र कहते हैं, इसकी रामगोपाल जी को जानकारी भी नहीं थी. अब इसका क्या करे..? उनको कुछ समझ नहीं आ रहा था. लेकिन साधू महाराज का प्रसाद मानकर वह उसे अपने गांव, आमगांव, लेकर आये. लगभग ३० ग्राम वजन की उस पोटली में ४३१ खाली (कोरे) भूर्जपत्र थे. बालाघाट के पास ‘गुलालपुरा’ गांव में रामगोपाल जी के गुरु रहते थे. रामगोपाल जी ने अपने गुरु को वह पोटली दिखायी और पूछा, “अब मैं इसका क्या करू..?” गुरु ने जवाब दिया, “तुम्हे ये पोटली और उसके अंदर के ये भूर्जपत्र काम के नहीं लगते हों, तो उन्हें पानी में विसर्जित कर दो.” अब रामगोपाल जी पेशोपेश में पड गए. रख भी नहीं सकते और फेंक भी नहीं सकते..! उन्होंने उन भुर्जपत्रों को अपने पूजाघर में रख दिया.
कुछ दिन बीत गए. एक दिन पूजा करते समय सबसे ऊपर रखे भूर्जपत्र पर पानी के कुछ छींटे गिरे, और क्या आश्चर्य..! जहां पर पानी गिरा था, वहां पर कुछ अक्षर उभरकर आये. रामगोपाल जी ने उत्सुकतावश एक भूर्जपत्र पूरा पानी में डुबोकर कुछ देर तक रखा और वह आश्चर्य से देखते ही रह गये..! उस भूर्जपत्र पर लिखा हुआ साफ़ दिखने लगा. अष्टगंध जैसे केसरिया रंग में, स्वच्छ अक्षरों से कुछ लिखा था. कुछ समय बाद जैसे ही पानी सूख गया, अक्षर भी गायब हो गए. अब रामगोपाल जी ने सभी ४३१ भुर्जपत्रों को पानी में भिगोकर, सुखने से पहले उन पर दिख रहे अक्षरों को लिखने का प्रयास किया. यह लेखन देवनागरी लिपि में और संस्कृत भाषा में लिखा था. यह काम कुछ वर्षों तक चला. जब इस साहित्य को संस्कृत के विशेषज्ञों को दिखाया गया, तब समझ में आया, की भूर्जपत्र पर अदृश्य स्याही से लिखा हुआ यह ग्रंथ, अग्रसेन महाराज जी का ‘अग्र भागवत’ नाम का चरित्र हैं. लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व जैमिनी ऋषि ने ‘जयभारत’ नाम का एक बड़ा ग्रंथ लिखा था. उसका एक हिस्सा था, यह ‘अग्र भागवत’ ग्रंथ. पांडव वंश में परीक्षित राजा का बेटा था, जनमेजय. इस जनमेजय को लोक साधना, धर्म आदि विषयों में जानकारी देने हेतू जैमिनी ऋषि ने इस ग्रंथ का लेखन किया था, ऐसा माना जाता हैं.
रामगोपाल जी को मिले हुए इस ‘अग्र भागवत’ ग्रंथ की अग्रवाल समाज में बहुत चर्चा हुई. इस ग्रंथ का अच्छा स्वागत हुआ. ग्रंथ के भूर्जपत्र अनेकों बार पानी में डुबोकर उस पर लिखे गए श्लोक, लोगों को दिखाए गए. इस ग्रंथ की जानकारी इतनी फैली की इंग्लैंड के प्रख्यात उद्योगपति लक्ष्मी मित्तल जी ने कुछ करोड़ रुपयों में यह ग्रंथ खरीदने की बात की. यह सुनकर / देखकर अग्रवाल समाज के कुछ लोग साथ आये और उन्होंने नागपुर के जाने माने संस्कृत पंडित रामभाऊ पुजारी जी के सहयोग से एक ट्रस्ट स्थापित किया. इससे ग्रंथ की सुरक्षा तो हो गयी. आज यह ग्रंथ, नागपुर में ‘अग्रविश्व ट्रस्ट’ में सुरक्षित रखा गया हैं. लगभग १८ भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद भी प्रकाशित हुआ हैं. रामभाऊ पुजारी जी की सलाह से जब उन भुर्जपत्रों की ‘कार्बन डेटिंग’ की गयी, तो वह भूर्जपत्र लगभग दो हजार वर्ष पुराने निकले.
यदि हम इसे काल्पनिक कहानी मानें, बेदिल जी को आया स्वप्न, वो साधू महाराज, यह सब ‘श्रध्दा’ के विषय अगर ना भी मानें... तो भी कुछ प्रश्न तो मन को कुरेदते ही हैं. जैसे, कि हजारों वर्ष पूर्व भुर्जपत्रों पर अदृश्य स्याही से लिखने की तकनीक किसकी थी..? इसका उपयोग कैसे किया जाता था..? कहां उपयोग होता था, इस तकनीक का..? भारत में लिखित साहित्य की परंपरा अति प्राचीन हैं. ताम्रपत्र, चर्मपत्र, ताडपत्र, भूर्जपत्र... आदि लेखन में उपयोगी साधन थे.
मराठी विश्वकोष में भूर्जपत्र की जानकारी दी गयी हैं, जो इस प्रकार है – “भूर्जपत्र यह ‘भूर्ज’ नाम के पेड़ की छाल से बनाया जाता था. यह वुक्ष ‘बेट्युला’ प्रजाति के हैं और हिमालय में, विशेषतः काश्मीर के हिमालय में, पाए जाते हैं. इस वृक्ष के छाल का गुदा निकालकर, उसे सुखाकर, फिर उसे तेल लगा कर उसे चिकना बनाया जाता था. उसके लंबे रोल बनाकर, उनको समान आकार का बनाया जाता था. उस पर विशेष स्याही से लिखा जाता था. फिर उसको छेद कर के, एक मजबूत धागे से बांधकर, उसकी पुस्तक / ग्रंथ बनाया जाता था. यह भूर्जपत्र, उनकी गुणवत्ता के आधार पर दो – ढाई हजार वर्षों तक अच्छे रहते थे. भूर्जपत्र पर लिखने के लिये प्राचीन काल से स्याही का उपयोग किया जाता था. भारत में, ईसा के पूर्व, लगभग ढाई हजार वर्षों से स्याही का प्रयोग किया जाता था, इसके अनेक प्रमाण मिले हैं. लेकिन यह कब से प्रयोग में आयी, यह अज्ञात ही हैं. भारत पर हुए अनेक आक्रमणों के चलते यहाँ का ज्ञान बड़े पैमाने पर नष्ट हुआ है. परन्तु स्याही तैयार करने के प्राचीन तरीके थे, कुछ पध्दतियां थी, जिनकी जानकारी मिली हैं. आम तौर पर ‘काली स्याही’ का ही प्रयोग सब दूर होता था. चीन में मिले प्रमाण भी ‘काली स्याही’ की ओर ही इंगित करते हैं. केवल कुछ ग्रंथों में गेरू से बनायी गयी केसरियां रंग की स्याही का उल्लेख आता हैं.
मराठी विश्वकोष में स्याही की जानकारी देते हुए लिखा हैं – ‘भारत में दो प्रकार के स्याही का उपयोग किया जाता था. कच्चे स्याही से व्यापार का आय-व्यय, हिसाब लिखा जाता था तो पक्की स्याही से ग्रंथ लिखे जाते थे. पीपल के पेड़ से निकाले हुए गोंद को पीसकर, उबालकर रखा जाता था. फिर तिल के तेल का काजल तैयार कर उस काजल को कपडे में लपेटकर, इस गोंद के पानी में उस कपडे को बहुत देर तक घुमाते थे. और वह गोंद, स्याही बन जाता था, काले रंग की..’ भूर्जपत्र पर लिखने वाली स्याही अलग प्रकार की रहती थी. बादाम के छिलके और जलाये हुए चावल को इकठ्ठा कर के गोमूत्र में उबालते थे. काले स्याही से लिखा हुआ, सबसे पुराना उपलब्ध साहित्य तीसरे शताब्दी का है. आश्चर्य इस बात का हैं, की जो भी स्याही बनाने की विधि उपलब्ध हैं, उन सब से पानी में घुलने वाली स्याही बनती हैं. जब की इस ‘अग्र भागवत’ की स्याही, भूर्जपत्र पर पानी डालने से दिखती हैं. पानी से मिटती नहीं. उलटें, पानी सूखने पर स्याही भी अदृश्य हो जाती हैं. इस का अर्थ यह हुआ, की कम से कम दो – ढाई हजार वर्ष पूर्व हमारे देश में अदृश्य स्याही से लिखने का तंत्र विकसित था. यह तंत्र विकसित करते समय अनेक अनुसंधान हुए होंगे. अनेक प्रकार के रसायनों का इसमें उपयोग किया गया होगा. इसके लिए अनेक प्रकार के परीक्षण करने पड़े होंगे. लेकिन दुर्भाग्य से इसकी कोई भी जानकारी आज उपलब्ध नहीं हैं. उपलब्ध हैं, तो अदृश्य स्याही से लिखा हुआ ‘अग्र भागवत’ यह ग्रंथ. लिखावट के उन्नत आविष्कार का जीता जागता प्रमाण..!
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ‘विज्ञान, या यूं कहे, "आजकल का शास्त्रशुध्द विज्ञान, पाश्चिमात्य देशों में ही निर्माण हुआ" इस मिथक को मानने वालों के लिए, ‘अग्र भागवत’ यह अत्यंत आश्चर्य का विषय है. स्वाभाविक है कि किसी प्राचीन समय इस देश में अत्यधिक प्रगत लेखन शास्त्र विकसित था, और अपने पास के विशाल ज्ञान भंडार को, पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करने की क्षमता इस लेखन शास्त्र में थी, यह अब सिध्द हो चुका है..! दुर्भाग्य यह है कि अब यह ज्ञान लुप्त हो चुका है. यदि भारत में समुचित शोध किया जाए एवं पश्चिमी तथा चीन की लाईब्रेरियों की ख़ाक छानी जाए, तो निश्चित ही कुछ न कुछ ऐसा मिल सकता है जिससे ऐसे कई रहस्यों से पर्दा उठ सके. !
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शनिवार, 14 अक्टूबर 2017

तैमूर को किसने हराया ?


हिन्दू समाज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे जातिवाद से ऊपर उठ कर सोच ही नहीं सकते। यही पिछले 1200 वर्षों से हो रही उनकी हार का मुख्य कारण है। इतिहास में कुछ प्रेरणादायक घटनाएं मिलती है। जब जातिवाद से ऊपर उठकर हिन्दू समाज ने एकजुट होकर अक्रान्तायों का न केवल सामना किया अपितु अपने प्राणों की बाजी लगाकर उन्हें यमलोक भेज दिया। तैमूर लंग के नाम से सभी भारतीय परिचित है। तैमूर के अत्याचारों से हमारे देश की भूमि रक्तरंजित हो गई। उसके अत्याचारों की कोई सीमा नहीं थी।
तैमूर लंग ने मार्च सन् 1398 ई० में भारत पर 92000 घुड़सवारों की सेना से तूफानी आक्रमण कर दिया। तैमूर के सार्वजनिक कत्लेआम, लूट खसोट और सर्वनाशी अत्याचारों की सूचना मिलने पर संवत् 1455 (सन् 1398 ई०) कार्तिक बदी 5 को देवपाल राजा (जिसका जन्म निरपड़ा गांव जि० मेरठ में एक जाट घराने में हुआ था) की अध्यक्षता में हरयाणा सर्वखाप पंचायत का अधिवेशन जि० मेरठ के गाँव टीकरी, निरपड़ा, दोगट और दाहा के मध्य जंगलों में हुआ।
सर्वसम्मति से निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किये गये - (1) सब गांवों को खाली कर दो। (2) बूढे पुरुष-स्त्रियों तथा बालकों को सुरक्षित स्थान पर रखो। (3) प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति सर्वखाप पंचायत की सेना में भर्ती हो जाये। (4) युवतियाँ भी पुरुषों की भांति शस्त्र उठायें। (5) दिल्ली से हरद्वार की ओर बढ़ती हुई तैमूर की सेना का छापामार युद्ध शैली से मुकाबला किया जाये तथा उनके पानी में विष मिला दो। (6) 500 घुड़सवार युवक तैमूर की सेना की गतिविधियों को देखें और पता लगाकर पंचायती सेना को सूचना देते रहें।
पंचायती सेना - पंचायती झण्डे के नीचे 80,000 मल्ल योद्धा सैनिक और 40,000 युवा महिलायें शस्त्र लेकर एकत्र हो गये। इन वीरांगनाओं ने युद्ध के अतिरिक्त खाद्य सामग्री का प्रबन्ध भी सम्भाला। दिल्ली के सौ-सौ कोस चारों ओर के क्षेत्र के वीर योद्धा देश रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने रणभूमि में आ गये। सारे क्षेत्र में युवा तथा युवतियां सशस्त्र हो गये। इस सेना को एकत्र करने में धर्मपालदेव जाट योद्धा जिसकी आयु 95 वर्ष की थी, ने बड़ा सहयोग दिया था। उसने घोड़े पर चढ़कर दिन रात दूर-दूर तक जाकर नर-नारियों को उत्साहित करके इस सेना को एकत्र किया। उसने तथा उसके भाई करणपाल ने इस सेना के लिए अन्न, धन तथा वस्त्र आदि का प्रबन्ध किया।
प्रधान सेनापति, उप-प्रधान सेनापति तथा सेनापतियों की नियुक्ति
सर्वखाप पंचायत के इस अधिवेशन में सर्वसम्मति से वीर योद्धा जोगराजसिंह गुर्जर को प्रधान सेनापति बनाया गया। यह खूबड़ परमार वंश का योद्धा था जो हरद्वार के पास एक गाँव कुंजा सुन्हटी का निवासी था। बाद में यह गाँव मुगलों ने उजाड़ दिया था। वीर जोगराजसिंह के वंशज उस गांव से भागकर लंढोरा (जिला सहारनपुर) में आकर आबाद हो गये जिन्होंने लंढोरा गुर्जर राज्य की स्थापना की। जोगराजसिंह बालब्रह्मचारी एवं विख्यात पहलवान था। उसका कद 7 फुट 9 इंच और वजन 8 मन था। उसकी दैनिक खुराक चार सेर अन्न, 5 सेर सब्जी-फल, एक सेर गऊ का घी और 20 सेर गऊ का दूध।
महिलाएं वीरांगनाओं की सेनापति चुनी गईं उनके नाम इस प्रकार हैं - (1) रामप्यारी गुर्जर युवति (2) हरदेई जाट युवति (3) देवीकौर राजपूत युवति (4) चन्द्रो ब्राह्मण युवति (5) रामदेई त्यागी युवति। इन सब ने देशरक्षा के लिए शत्रु से लड़कर प्राण देने की प्रतिज्ञा की।
उपप्रधान सेनापति - (1) धूला भंगी (बालमीकी) (2) हरबीर गुलिया जाट चुने गये। धूला भंगी जि० हिसार के हांसी गांव (हिसार के निकट) का निवासी था। यह महाबलवान्, निर्भय योद्धा, गोरीला (छापामार) युद्ध का महान् विजयी धाड़ी (बड़ा महान् डाकू) था जिसका वजन 53 धड़ी था। उपप्रधान सेनापति चुना जाने पर इसने भाषण दिया कि - “मैंने अपनी सारी आयु में अनेक धाड़े मारे हैं। आपके सम्मान देने से मेरा खूब उबल उठा है। मैं वीरों के सम्मुख प्रण करता हूं कि देश की रक्षा के लिए अपना खून बहा दूंगा तथा सर्वखाप के पवित्र झण्डे को नीचे नहीं होने दूंगा। मैंने अनेक युद्धों में भाग लिया है तथा इस युद्ध में अपने प्राणों का बलिदान दे दूंगा।” यह कहकर उसने अपनी जांघ से खून निकालकर प्रधान सेनापति के चरणों में उसने खून के छींटे दिये। उसने म्यान से बाहर अपनी तलवार निकालकर कहा “यह शत्रु का खून पीयेगी और म्यान में नहीं जायेगी।” इस वीर योद्धा धूला के भाषण से पंचायती सेना दल में जोश एवं साहस की लहर दौड़ गई और सबने जोर-जोर से मातृभूमि के नारे लगाये।
दूसरा उपप्रधान सेनापति हरबीरसिंह जाट था जिसका गोत्र गुलिया था। यह हरयाणा के जि० रोहतक गांव बादली का रहने वाला था। इसकी आयु 22 वर्ष की थी और इसका वजन 56 धड़ी (7 मन) था। यह निडर एवं शक्तिशाली वीर योद्धा था।
सेनापतियों का निर्वाचन - उनके नाम इस प्रकार हैं - (1) गजेसिंह जाट गठवाला (2) तुहीराम राजपूत (3) मेदा रवा (4) सरजू ब्राह्मण (5) उमरा तगा (त्यागी) (6) दुर्जनपाल अहीर।
जो उपसेनापति चुने गये - (1) कुन्दन जाट (2) धारी गडरिया जो धाड़ी था (3) भौन्दू सैनी (4) हुल्ला नाई (5) भाना जुलाहा (हरिजन) (6) अमनसिंह पुंडीर राजपुत्र (7) नत्थू पार्डर राजपुत्र (8) दुल्ला (धाड़ी) जाट जो हिसार, दादरी से मुलतान तक धाड़े मारता था। (9) मामचन्द गुर्जर (10) फलवा कहार।
सहायक सेनापति - भिन्न-भिन्न जातियों के 20 सहायक सेनापति चुने गये।
वीर कवि - प्रचण्ड विद्वान् चन्द्रदत्त भट्ट (भाट) को वीर कवि नियुक्त किया गया जिसने तैमूर के साथ युद्धों की घटनाओं का आंखों देखा इतिहास लिखा था।
प्रधान सेनापति जोगराजसिंह गुर्जर के ओजस्वी भाषण के कुछ अंश -
“वीरो! भगवान् कृष्ण ने गीता में अर्जुन को जो उपदेश दिया था उस पर अमल करो। हमारे लिए स्वर्ग (मोक्ष) का द्वार खुला है। ऋषि मुनि योग साधना से जो मोक्ष पद प्राप्त करते हैं, उसी पद को वीर योद्धा रणभूमि में बलिदान देकर प्राप्त कर लेता है। भारत माता की रक्षा हेतु तैयार हो जाओ। देश को बचाओ अथवा बलिदान हो जाओ, संसार तुम्हारा यशोगान करेगा। आपने मुझे नेता चुना है, प्राण रहते-रहते पग पीछे नहीं हटाऊंगा। पंचायत को प्रणाम करता हूँ तथा प्रतिज्ञा करता हूँ कि अन्तिम श्वास तक भारत भूमि की रक्षा करूंगा। हमारा देश तैमूर के आक्रमणों तथा अत्याचारों से तिलमिला उठा है। वीरो! उठो, अब देर मत करो। शत्रु सेना से युद्ध करके देश से बाहर निकाल दो।”
यह भाषण सुनकर वीरता की लहर दौड़ गई। 80,000 वीरों तथा 40,000 वीरांगनाओं ने अपनी तलवारों को चूमकर प्रण किया कि हे सेनापति! हम प्राण रहते-रहते आपकी आज्ञाओं का पालन करके देश रक्षा हेतु बलिदान हो जायेंगे।
मेरठ युद्ध - तैमूर ने अपनी बड़ी संख्यक एवं शक्तिशाली सेना, जिसके पास आधुनिक शस्त्र थे, के साथ दिल्ली से मेरठ की ओर कूच किया। इस क्षेत्र में तैमूरी सेना को पंचायती सेना ने दम नहीं लेने दिया। दिन भर युद्ध होते रहते थे। रात्रि को जहां तैमूरी सेना ठहरती थी वहीं पर पंचायती सेना धावा बोलकर उनको उखाड़ देती थी। वीर देवियां अपने सैनिकों को खाद्य सामग्री एवं युद्ध सामग्री बड़े उत्साह से स्थान-स्थान पर पहुंचाती थीं। शत्रु की रसद को ये वीरांगनाएं छापा मारकर लूटतीं थीं। आपसी मिलाप रखवाने तथा सूचना पहुंचाने के लिए 500 घुड़सवार अपने कर्त्तव्य का पालन करते थे। रसद न पहुंचने से तैमूरी सेना भूखी मरने लगी। उसके मार्ग में जो गांव आता उसी को नष्ट करती जाती थी। तंग आकर तैमूर हरद्वार की ओर बढ़ा।
हरद्वार युद्ध - मेरठ से आगे मुजफ्फरनगर तथा सहारनपुर तक पंचायती सेनाओं ने तैमूरी सेना से भयंकर युद्ध किए तथा इस क्षेत्र में तैमूरी सेना के पांव न जमने दिये। प्रधान एवं उपप्रधान और प्रत्येक सेनापति अपनी सेना का सुचारू रूप से संचालन करते रहे। हरद्वार से 5 कोस दक्षिण में तुगलुकपुर-पथरीगढ़ में तैमूरी सेना पहुंच गई। इस क्षेत्र में पंचायती सेना ने तैमूरी सेना के साथ तीन घमासान युद्ध किए।
उप-प्रधानसेनापति हरबीरसिंह गुलिया ने अपने पंचायती सेना के 25,000 वीर योद्धा सैनिकों के साथ तैमूर के घुड़सवारों के बड़े दल पर भयंकर धावा बोल दिया जहां पर तीरों* तथा भालों से घमासान युद्ध हुआ। इसी घुड़सवार सेना में तैमूर भी था। हरबीरसिंह गुलिया ने आगे बढ़कर शेर की तरह दहाड़ कर तैमूर की छाती में भाला मारा जिससे वह घोड़े से नीचे गिरने ही वाला था कि उसके एक सरदार खिज़र ने उसे सम्भालकर घोड़े से अलग कर लिया। (तैमूर इसी भाले के घाव से ही अपने देश समरकन्द में पहुंचकर मर गया)। वीर योद्धा हरबीरसिंह गुलिया पर शत्रु के 60 भाले तथा तलवारें एकदम टूट पड़ीं जिनकी मार से यह योद्धा अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ा।
(1) उसी समय प्रधान सेनापति जोगराजसिंह गुर्जर ने अपने 22000 मल्ल योद्धाओं के साथ शत्रु की सेना पर धावा बोलकर उनके 5000 घुड़सवारों को काट डाला। जोगराजसिंह ने स्वयं अपने हाथों से अचेत हरबीरसिंह को उठाकर यथास्थान पहुंचाया। परन्तु कुछ घण्टे बाद यह वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गया। जोगराजसिंह को इस योद्धा की वीरगति से बड़ा धक्का लगा।
(2) हरद्वार के जंगलों में तैमूरी सेना के 2805 सैनिकों के रक्षादल पर भंगी कुल के उपप्रधान सेनापति धूला धाड़ी वीर योद्धा ने अपने 190 सैनिकों के साथ धावा बोल दिया। शत्रु के काफी सैनिकों को मारकर ये सभी 190 सैनिक एवं धूला धाड़ी अपने देश की रक्षा हेतु वीरगती को प्राप्त हो गये।

(3) तीसरे युद्ध में प्रधान सेनापति जोगराजसिंह ने अपने वीर योद्धाओं के साथ तैमूरी सेना पर भयंकर धावा करके उसे अम्बाला की ओर भागने पर मजबूर कर दिया। इस युद्ध में वीर योद्धा जोगराजसिंह को 45 घाव आये परन्तु वह वीर होश में रहा। पंचायती सेना के वीर सैनिकों ने तैमूर एवं उसके सैनिकों को हरद्वार के पवित्र गंगा घाट (हर की पौड़ी) तक नहीं जाने दिया। तैमूर हरद्वार से पहाड़ी क्षेत्र के रास्ते अम्बाला की ओर भागा। उस भागती हुई तैमूरी सेना का पंचायती वीर सैनिकों ने अम्बाला तक पीछा करके उसे अपने देश हरयाणा से बाहर खदेड़ दिया।
वीर सेनापति दुर्जनपाल अहीर मेरठ युद्ध में अपने 200 वीर सैनिकों के साथ दिल्ली दरवाज़े के निकट स्वर्ग लोक को प्राप्त हुये।
इन युद्धों में बीच-बीच में घायल होने एवं मरने वाले सेनापति बदलते रहे थे। कच्छवाहे गोत्र के एक वीर राजपूत ने उपप्रधान सेनापति का पद सम्भाला था। तंवर गोत्र के एक जाट योद्धा ने प्रधान सेनापति के पद को सम्भाला था। एक रवा तथा सैनी वीर ने सेनापति पद सम्भाले थे। इस युद्ध में केवल 5 सेनापति बचे थे तथा अन्य सब देशरक्षा के लिए वीरगति को प्राप्त हुये।
इन युद्धों में तैमूर के ढ़ाई लाख सैनिकों में से हमारे वीर योद्धाओं ने 1,60,000 को मौत के घाट उतार दिया था और तैमूर की आशाओं पर पानी फेर दिया।
हमारी पंचायती सेना के वीर एवं वीरांगनाएं 35,000, देश के लिये वीरगति को प्राप्त हुए थे।
प्रधान सेनापति की वीरगति - वीर योद्धा प्रधान सेनापति जोगराजसिंह गुर्जर युद्ध के पश्चात् ऋषिकेश के जंगल में स्वर्गवासी हुये थे।
(सन्दर्भ-जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-३७९-३८३ )
ध्यान दीजिये। एक सवर्ण सेना का उपसेनापति वाल्मीकि था। अहीर, गुर्जर से लेकर 36 बिरादरी उसके महत्वपूर्ण अंग थे। तैमूर को हराने वाली सेना को हराने वाली कौन थे? क्या वो जाट थे? क्या वो राजपूत थे? क्या वो अहीर थे? क्या वो गुर्जर थे? क्या वो बनिए थे? क्या वो भंगी या वाल्मीकि थे? क्या वो जातिवादी थे?
नहीं वो सबसे पहले देशभक्त थे। धर्मरक्षक थे। श्री राम और श्री कृष्ण की संतान थे? गौ, वेद , जनेऊ और यज्ञ के रक्षक थे।
आज भी हमारा देश उसी संकट में आ खड़ा हुआ है। आज भी विधर्मी हमारी जड़ों को काट रहे है। आज भी हमें फिर से जातिवाद से ऊपर उठ कर एकजुट होकर अपने धर्म, अपनी संस्कृति और अपनी मातृभूमि की रक्षा का व्रत लेना हैं। यह तभी सम्भव है जब हम अपनी संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर सोचना आरम्भ करेंगे। आप में से कौन कौन मेरे साथ है