मंगलवार, 8 जुलाई 2014

दुनियाभर में क्यों भिड़े हैं शिया और सुन्नी ?

इराक़ में जारी संघर्ष ने एक बार फिर सुन्नी और शियाओं के बीच मतभेदों को उजागर कर दिया है. सीरिया में भी जारी संघर्ष में शिया-सुन्नी विवाद की गूंज सुनाई देती है लेकिन इस मतभेद के बुनियादी कारण क्या हैं, जानते हैं । 

शिया और सुन्नियों में अंतर----:

मुसलमान मुख्य रूप से दो समुदायों में बंटे हैं- शिया और सुन्नी. पैगंबर मोहम्मद साहब  की मृत्यु के तुरंत बाद ही इस बात पर विवाद से विभाजन पैदा हो गया कि मुसलमानों का नेतृत्व कौन होगा.

मुस्लिम आबादी में बहुसंख्य सुन्नी हैं और अनुमानित आंकड़ों के अनुसार, इनकी संख्या 85 से 90 प्रतिशत के बीच है.
दोनों समुदाय के लोग सदियों से एक साथ रहते आए हैं और उनके अधिकांश धार्मिक आस्थाएं और रीति रिवाज एक जैसे हैं.
इराक़ के शहरी इलाक़ों में हाल तक सुन्नी और शियाओं के बीच शादी बहुत आम बात हुआ करती थीं.
इनमें अंतर है तो सिद्धांत, परम्परा, क़ानून, धर्मशास्त्र और धार्मिक संगठन का. उनके नेताओं में भी प्रतिद्वंद्विता देखने को मिलती है.
लेबनान से सीरिया और इराक़ से पाकिस्तान तक अधिकांश हालिया संघर्ष ने साम्प्रदायिक विभाजन को बढ़ाया है और दोनों समुदायों को अलग-अलग कर दिया है.

सुन्नी कौन हैं ?

सुन्नी मुसलमान ख़ुद को इस्लाम की सबसे धर्मनिष्ठ और पारंपरिक शाखा से मानते हैं. सुन्नी शब्द 'अहल अल-सुन्ना' से बना है जिसका मतलब है परम्परा को मानने वाले लोग. इस मामले में परम्परा का संदर्भ ऐसी रिवाजों से है जो पैग़ंबर मोहम्मद और उनके क़रीबियों के व्यवहार या दृष्टांत पर आधारित हो. सुन्नी उन सभी पैगंबरों को मानते हैं जिनका ज़िक्र क़ुरान में किया गया है लेकिन अंतिम पैग़ंबर मोहम्मद ही थे. इनके बाद हुए सभी मुस्लिम नेताओं को सांसारिक शख़्सियत के रूप में देखा जाता है. शियाओं की अपेक्षा, सुन्नी धार्मिक शिक्षक और नेता ऐतिहासिक रूप से सरकारी नियंत्रण में रहे हैं.

शिया कौन हैं?

शुरुआती इस्लामी इतिहास में शिया एक राजनीतिक समूह के रूप में थे- 'शियत अली' यानी अली की पार्टी. शियाओं का दावा है कि मुसलमानों का नेतृत्व करने का अधिकार अली और उनके वंशजों का ही है. अली पैग़ंबर मोहम्मद के दामाद थे. मुसलमानों का नेता या ख़लीफ़ा कौन होगा, इसे लेकर हुए एक संघर्ष में अली मारे गए थे. उनके बेटे हुसैन और हसन ने भी ख़लीफ़ा होने के लिए संघर्ष किया था. हुसैन की मौत युद्ध क्षेत्र में हुई, जबकि माना जाता है कि हसन को ज़हर दिया गया था. इन घटनाओं के कारण शियाओं में शहादत और मातम मनाने को इतना महत्व दिया जाता है. अनुमान के अनुसार, शियाओं की संख्या मुस्लिम आबादी की 10 प्रतिशत यानी 12 करोड़ से 17 करोड़ के बीच है. ईरान, इराक़, बहरीन, अज़रबैजान और कुछ आंकड़ों के अनुसार यमन में शियाओं का बहुमत है. इसके अलावा, अफ़ग़ानिस्तान, भारत, कुवैत, लेबनान, पाकिस्तान, क़तर, सीरिया, तुर्की, सउदी अरब और यूनाइडेट अरब ऑफ़ अमीरात में भी इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है.

हिंसा के लिए कौन ज़िम्मेदार ?

उन देशों में, जहां सुन्नियों की सरकारें है, वहाँ शिया ग़रीब आबादी में गिने जाते हैं. अक्सर वे खुद को भेदभाव और दमन के शिकार मानते हैं. कुछ चरमपंथी सुन्नी सिद्धांतों ने शियाओं के ख़िलाफ़ घृणा को बढ़ावा दिया गया है. वर्ष 1979 की ईरानी क्रांति से उग्र शिया इस्लामी एजेंडे की शुरुआत हुई. इसे सुन्नी सरकारों के लिए चुनौती के रूप में माना गया, ख़ासकर खाड़ी के देशों के लिए. ईरान ने अपनी सीमाओं के बाहर शिया लड़ाकों और पार्टियों को समर्थन दिया जिसे खाड़ी के देशों ने चुनौती के रूप में लिया. खाड़ी देशों ने भी सुन्नी संगठनों को इसी तरह मजबूत किया जिससे सुन्नी सरकारों और विदेशों में सुन्नी आंदोलन से उनसे संपर्क और मज़बूत हुए. लेबनान में गृहयुद्ध के दौरान शियाओं ने हिज़बुल्ला की सैन्य कार्रवाईयों के कारण राजनीतिक रूप में मजबूती हासिल कर ली.
पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में तालिबान जैसे कट्टरपंथी सुन्नी संगठन अक्सर शियाओं के धार्मिक स्थानों को निशाना बनाते रहे हैं.
इराक़ और सीरिया में जारी वर्तमान संघर्ष ने भी दोनों समुदायों के बीच एक बड़ी दीवार खड़ा कर दी है. दोनों ही देशों में सुन्नी युवा विद्रोही गुटों में शामिल हो गए हैं. इनमें से ज़्यादातर अल-क़ायदा की कट्टर विचारधारा को मानते हैं. इस बीच, शिया समुदाय के अधिकांश कट्टर युवा सरकारी सेना के साथ मिलकर इनसे लड़ते रहे हैं.। 

 

 


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें