हमें सबसे ज्यादा घृणा उस आदमी से है जो तर्क छोड़ कर ''सोटा'' उठा लेता है । बेचारे
केजरीवाल, नन्हीं-सी जान।आखिर खता क्या है उनकी ?
बदलाव की बात ही तो कर रहे हैं। ईमानदारी का परचम फहराने में जुटे हैं लेकिन जिसे देखिए वही थप्पड़-घूंसा चला रहा है।
क्यों भई क्यों?
आज थप्पड़ चला। कल लात चलेगी। परसों लाठी और इसके बाद तो कोई सीमा ही नहीं। लेकिन एक सवाल हमारे मन में बार-बार उठता है कि ऎसा क्या है जो लोग केजरीवाल से इतने नाराज हैं।
राजनीति में नाराजगी चलती रहती है। यहां जब एक दल वाले ही परस्पर राजी नहीं रहते तो विपक्ष वालों से उम्मीद करना बेकार है। हमें तो नाराजगी का एकमात्र कारण नजर आता है उम्मीदों का टूटना। नेतागण जनता के सामने वादों की इतनी बड़ी पोटली रख देते हैं कि वह बावली हो जाती है। लेकिन जब पोटली खोलने पर चीथड़े और फटे पुराने गाबे निकलते हैं तो आदमी मायूस हो जाता है। अरविन्द भाई के मामले में भी यही नजर आ रहा है। एक बात और, कभी भी अपने विरोधी को पिटता देख तालियां नहीं बजानी चाहिए। हमें याद है कि अन्ना हजारे के नेतृत्व में जब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चल रहा था तो एक सिरफिरे ने शरद पवार के तमाचा जड़ दिया था और तब यह खबर सुनते ही केजरीवाल के गुरू अन्ना हजारे ने तुरंत कहा था कि क्या एक ही तमाचा मारा।
इस तमाचे पर केजरीवाल ने प्रतिक्रिया की थी कि यह जनता के असंतोष की अभिव्यक्ति है। भाई जब पवार के गाल पर पड़ा तमाचा किसी का असंतोष हो सकता है तो फिर केजरीवाल के गाल पर पड़ा थप्पड़ भी ऎसा ही कुछ हो सकता है। आप हमारे इस तर्क से यह न मान लेना कि हम अरविन्द भाई के गाल पर पड़े तमाचे को जायज मान रहे हैं। कदापि नहीं। भगवान ने आदमी को दिमाग दिया है, तर्कशक्ति दी है। लोकतंत्र संवाद और विचार से चलता है। मारपीट करके हम बेवजह अपनी डेमोक्रेसी को दबंगई की तरफ धकेल रहे हैं। इतनी अर्ज नेताओं से जरूर करेंगे कि भैया उतने ही वादे उछालो जो पूरे कर सको । और यह बात सभी नेताओ पर लागू होती है ।
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