कल
पूरा देश गणतंत्र दिवस उल्लास के साथ मनाने जा रहा हैं । 26 जनवरी, 1950
को हमने अपने देश का संविधान लागू किया था । जनता के द्वारा, जनता के
लिये, जनता के शासन की व्यवस्था इस संविधान में की गयी थीं । समस्त कार्यों
के सुचारु रूप से संचालन के लिये कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के
साथ-साथ पारदर्शी प्रशासन के मूल उद्देश्य से प्रेस को चौथे स्तंभ के रूप
में मान्यता दी गयी थी ।
संविधान में सभी स्तंभों के कार्यक्षेत्र का स्पष्ट विवरण दिया गया हैं। लेकिन कई बार ऐसे मौके भी आये जब इनमें यह होड़ मच गयी कि कौन सर्वोच्च हैं? ऐसे अवसर भी आये जब कभी विधायिका और न्यायपालिका आमने सामने दिखी तो कभी कार्यपालिका और विधायिका में टकराहट के स्वर सुनायी दिये तो कभी प्रेस पर स्वच्छंदता के आरोप लगे। ऐसे दौर में कुछ ऐसे अप्रिय वाकये भी हुये जो कि निदंनीय रहे।
‘गण’ को शिक्षित कर जागृत करने के अभियान को गति देने के प्रयास किये गये। लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में इतने अधिक प्रयोग किये गये कि यह लक्ष्य हमसे आज साठ साल भी दूर ही दिखायी दे रहा हैं। वर्तमान में सरकार शिक्षा की गारंटी देने के उसी प्रकार प्रयास कर रही है जैसा कि रोजगार गारंटी योजना के तहत रोजगार की गारंटी दी गयी हैं। शिक्षा को प्रोत्साहन देकर जागृति लाने की महती आवश्यकता आज भी महसूस की जा रही हैं। ताकि ‘गण’ चुस्त हो सके।
‘तंत्र’ को नियंत्रित रखना अत्यंत आवयक हैं। ‘तंत्र’ यदि निरंकुश हो जाये तो ‘गण’ के अधिकारो को सुरक्षित रख पाना एक दुष्कर कार्य हो जाता हैं। एक समस्या यह भी हैं कि यदि देश में कोई ईमानदार हैं तो वो बाकी पूरे देश को बेइमान मानने लगता हैं। ऐसी घारणा हैं कि तंत्र को नियंत्रित रखने के लिये पारदर्शी प्रशासन होना अत्यंत आवश्यक हैं। इस दिशा में सरकार द्वारा लागू किया गया सूचना का अधिकार कानून कारगर साबित हो सकता हैं। लेकिन कानूनी बारिकियों और प्रशासनिक अमले की हठधर्मिता कई मामलों में आड़े आते दिखायी दे रही हैं। राजनेता भी तंत्र से राजनैतिक काम लेकर उन्हें नियंत्रित करने में असहाय दिख रहें हैं। जिससे तंत्र अनियंत्रित ही दिखायी दे रहा हैं।
‘गण’ यदि सुस्त हो और ‘तंत्र’ अनियंत्रित हो भला ‘गणतंत्र’ कैसे सफल हो पायेगा ?
गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हमारी यही कामना हैं कि ‘गण’ जागृत हो, ‘तंत्र’ नियंत्रित हो और राजनेता इस दुष्कर कार्य को कर सकें ताकि ‘गणतंत्र’ सफल हो सके।
संविधान में सभी स्तंभों के कार्यक्षेत्र का स्पष्ट विवरण दिया गया हैं। लेकिन कई बार ऐसे मौके भी आये जब इनमें यह होड़ मच गयी कि कौन सर्वोच्च हैं? ऐसे अवसर भी आये जब कभी विधायिका और न्यायपालिका आमने सामने दिखी तो कभी कार्यपालिका और विधायिका में टकराहट के स्वर सुनायी दिये तो कभी प्रेस पर स्वच्छंदता के आरोप लगे। ऐसे दौर में कुछ ऐसे अप्रिय वाकये भी हुये जो कि निदंनीय रहे।
‘गण’ को शिक्षित कर जागृत करने के अभियान को गति देने के प्रयास किये गये। लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में इतने अधिक प्रयोग किये गये कि यह लक्ष्य हमसे आज साठ साल भी दूर ही दिखायी दे रहा हैं। वर्तमान में सरकार शिक्षा की गारंटी देने के उसी प्रकार प्रयास कर रही है जैसा कि रोजगार गारंटी योजना के तहत रोजगार की गारंटी दी गयी हैं। शिक्षा को प्रोत्साहन देकर जागृति लाने की महती आवश्यकता आज भी महसूस की जा रही हैं। ताकि ‘गण’ चुस्त हो सके।
‘तंत्र’ को नियंत्रित रखना अत्यंत आवयक हैं। ‘तंत्र’ यदि निरंकुश हो जाये तो ‘गण’ के अधिकारो को सुरक्षित रख पाना एक दुष्कर कार्य हो जाता हैं। एक समस्या यह भी हैं कि यदि देश में कोई ईमानदार हैं तो वो बाकी पूरे देश को बेइमान मानने लगता हैं। ऐसी घारणा हैं कि तंत्र को नियंत्रित रखने के लिये पारदर्शी प्रशासन होना अत्यंत आवश्यक हैं। इस दिशा में सरकार द्वारा लागू किया गया सूचना का अधिकार कानून कारगर साबित हो सकता हैं। लेकिन कानूनी बारिकियों और प्रशासनिक अमले की हठधर्मिता कई मामलों में आड़े आते दिखायी दे रही हैं। राजनेता भी तंत्र से राजनैतिक काम लेकर उन्हें नियंत्रित करने में असहाय दिख रहें हैं। जिससे तंत्र अनियंत्रित ही दिखायी दे रहा हैं।
‘गण’ यदि सुस्त हो और ‘तंत्र’ अनियंत्रित हो भला ‘गणतंत्र’ कैसे सफल हो पायेगा ?
गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हमारी यही कामना हैं कि ‘गण’ जागृत हो, ‘तंत्र’ नियंत्रित हो और राजनेता इस दुष्कर कार्य को कर सकें ताकि ‘गणतंत्र’ सफल हो सके।
बड़ी कठिन राह है यह।
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