कांग्रेश ने केजरीवाल सरकार बनवाकर उसने मोदी को ब्रेक लगाये हैं ?
लोकपाल बिल पास कराने का दांव हो या कुकिंग गैस के सब्सिडी वाले सिलेंडरों की संख्या 9 से बढ़ाकर 12 करने पर विचार का मामला कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार दिन-ब-दिन अलोकप्रिय होती जा रही है। भाजपा ने जब से मोदी को पीएम पद का प्रत्याशी घोषित किया है, तब से कांग्रेस की मुसीबतें और बढ़ती जा रही हैं। कांग्रेस कशमकश में है कि वह मोदी के जवाब में राहुल को अपनी ओर से पीएम पद का कैंडिडेट बनाये या ना बनाये। सियासत की दीवार पर लिखा सच तो यह है कि अब देश की जनता का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस से भ्रष्टाचार और महंगाई की वजह से नफ़रत करने लगा है और उसने मोदी को पीएम बनाकर एक मौका देने का मन लगभग बना लिया है।
अल्पसंख्यकों खासतौर पर मुसलमानों को अगर छोड़ भी दिया जाये तो हिंदुओं का वह सेक्यूलर और सहिष्णु वर्ग जो भाजपा की कट्टर हिंदुत्ववादी और मोदी की 2002 के दंगों को लेकर बनी अलगाववादी दंगाई छवि को पसंद नहीं करता था, धीरे-धीरे कांग्रेस ही नहीं भ्रष्ट और जनविरोधी क्षेत्रीय दलों से भी किनारा करता नज़र आ रहा है। मिसाल के तौर पर यूपी में कांग्रेस ना केवल संसदीय चुनाव में साफ़ हो जायेगी, बल्कि सपा और बसपा भी हाफ हो सकती हैं और बीजेपी पहले के मुकाबले दो तीन गुना सीट जीत सकती है। जनवरी 2013 में इंडिया टुडे-नीलसन के मूड ऑफ द नेशन सर्वे में ही संकेत मिल गया था कि चुनाव में एनडीए यूपीए पर भारी पड़ेगा। मई आते आते सर्वे कहने लगे कि चुनाव में कांग्रेस हारने जा रही है।
इसके बाद भी यह दावे से नहीं कहा गया कि भाजपा सत्ता में आ जायेगी लेकिन जुलाई में सीएसडीएस के सर्वे में तस्वीर और साफ हुयी कि देश के 10 अहम राज्यों में से कांग्रेस 8 में पिछड़ रही है। यूपी की 80, महाराष्ट्र 48, बंगाल 42, बिहार 40, कर्नाटक 28, गुजरात 26, राजस्थान 25, ओडिशा 21, केरल 20, असम 14, झारखंड 14, पंजाब 13, छत्तीसगढ़ 11 और हरियाणा 10 सीट हैं। इन दस राज्यों की कुल 399 सीटों में से 2009 में कांग्रेस ने 164 जीतीं थीं लेकिन इस बार वह 83 पर सिमट सकती है। इसकी एक और वजह भी है। एक साल के अंदर यूपीए के दो महत्वपूर्ण घटक डीएमके और तृणमूल कांग्रेस ने उसका साथ नाराज़ होकर छोड़ा है जिससे उनकी वापसी के आसार कम हैं।
प्रणब मुखर्जी को प्रेसीडेंट बनाकर कांग्रेस ने बंगाल में अपना आधार बढ़ाने की बजाये कम ही किया है, क्योंकि बंगाली मानुष उनको पीएम पद का सही हक़दार मानता था जो उनको ना देकर वंशवाद के कारण अयोग्य और अक्षम राहुल को दिया जा रहा है। फिलहाल कांग्रेस के पास बड़े घटकों में एनसीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ही बचे हैं जबकि 33 सीटें जिताने वाला आंध्र तेलंगाना बनाकर वह खोने जा रही है। वाईएसआर के बेटे जगनमोहन से पंगा लेकर कांग्रेस ने वहां अपनी क़ब्र राजीव गांधी के ज़माने में एनटी रामाराव के उभार की तरह खुद ही खोद ली है। उधर बिहार में कांग्रेस पहले नीतीश कुमार की जदयू के करीब बढ़ रही थी लेकिन जेल से बाहर आते ही सहानुभूति वोट की आस में वह फिर बदनाम लालू यादव की गोद में ही अपनी जगह तलाश रही है, लेकिन पासवान ने अपना रास्ता अलग बनाने की बात कहकर गठबंधन की हवा निकाल दी है।
2004 के चुनाव में इस गठबंधन को 29 सीट मिलीं थीं तो 2009 में अलग अलग लड़ने पर कांग्रेस को मात्र दो सीटों पर संतोष करना पड़ा था। ऐसे ही यूपीए गठबंधन को झारखंड में पहले 8 तो अकेले लड़ने पर बाद में मात्र एक सीट मिली थी। विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस की हालत इतनी पतली हो गयी कि उसे 243 में से सिर्फ 4 सीट मिली। अकेले चुनाव लड़ने का लाभ कांग्रेस को यूपी में हुआ था, जहां सपा के भाजपा के पूर्व सीएम कल्याण सिंह से गठबंधन करने पर उसने मुसलमानों का रूख़ भांपकर 22 सीटें जीत लीं थीं लेकिन इस बार ऐसा संभव नहीं है। यूपी में कांग्रेस सपा की बजाये बसपा से जुड़ना चाहती है लेकिन मायावती का कहना है कि कांग्रेस के पास कोई वोटबैंक तो बचा ही नहीं है, इसलिये वह दलित वोट वापस उसकी झोली में नहीं डालेगी।
अजीब बात यह है कि जिस लोकदल से कांग्रेस का पैक्ट है, उसका एकमात्र जाट मतदाता अजीत के बजाये इस बार मुज़फ्फरनगर दंगा होने से पूरी तरह भाजपा के साथ खड़ा नज़र आ रहा है। ले-देकर कांग्रेस कर्नाटक में इस बार अपनी स्थिति सुधर सकती थी लेकिन वहां भाजपा का येदियुरप्पा के 18 फीसदी लिंगायत वोट साथ लेने को तालमेल बन जाने से यह उम्मीद भी कमज़ोर पड़ गयी है। कांग्रेस में इस बात पर चिंता जताई जा रही है कि पार्टी के वोट बैंक में लगातार सेंध लग रही है और पार्टी सत्ता में होने के बावजूद उसको रोक नहीं पा रही है। यह एक तरह से बिल्कुल उल्टी स्थिति है क्योंकि जो दल भी सरकार चलाता है उसके पास जनहित की योजनायें चलाकर लोगों का दिल जीतने की संभावनायें और अवसर अधिक होते हैं ।ऐसा नहीं है कि कांग्रेस की यूपीए सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून और भूमि अधिगृहण कानून जैसे जनहिति के काम नहीं किये हैं, लकिन घोटालों से उसकी बदनामी सब कामों पर भारी पड़ रही है। कांग्रेस ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी को बिना मांगे सपोर्ट देकर केजरीवाल की सरकार बनवाकर एक तीर से दो शिकार किये हैं। उसने मोदी की विजययात्रा को ब्रेक लगाया है। साथ ही उसने अपने प्रति बढ़ रहा लोगों का आक्रोश कुछ कम करने का प्रयास भी किया है लेकिन यह सच है कि आप अगर तीन सौ सीटों पर भी लोकसभा का चुनाव लड़ती है तो कांग्रेस का तो सफाया करेगी ही साथ ही चार में से तीन राज्यों का भारी भरकम बहुमत से चुनाव जीती भाजपा को भी वोटों का समीकरण बिगाड़कर खुद जीते या ना जीते, लेकिन भाजपा की 50 सीट दिल्ली की तरह कम ज़रूर कर देगी क्योंकि येदियुरप्पा को पार्टी में लेकर और उदारवादी पूंजीवादी नीतियां अपनाकर व कारपोरेट सैक्टर की पैरवी कर के बीजेपी ने आप को अपने खिलाफ प्रचार का बहुत बड़ा हथियार थमा दिया है ।
खुद ही को कर बुलंद इतना कि हर तदबीर से पहले ।
खुदा बंदे से यह पूछे कि बता तेरी रज़ा क्या है ॥
साभार --- : इक़बाल हिंदुस्तानी
लोकपाल बिल पास कराने का दांव हो या कुकिंग गैस के सब्सिडी वाले सिलेंडरों की संख्या 9 से बढ़ाकर 12 करने पर विचार का मामला कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार दिन-ब-दिन अलोकप्रिय होती जा रही है। भाजपा ने जब से मोदी को पीएम पद का प्रत्याशी घोषित किया है, तब से कांग्रेस की मुसीबतें और बढ़ती जा रही हैं। कांग्रेस कशमकश में है कि वह मोदी के जवाब में राहुल को अपनी ओर से पीएम पद का कैंडिडेट बनाये या ना बनाये। सियासत की दीवार पर लिखा सच तो यह है कि अब देश की जनता का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस से भ्रष्टाचार और महंगाई की वजह से नफ़रत करने लगा है और उसने मोदी को पीएम बनाकर एक मौका देने का मन लगभग बना लिया है।
अल्पसंख्यकों खासतौर पर मुसलमानों को अगर छोड़ भी दिया जाये तो हिंदुओं का वह सेक्यूलर और सहिष्णु वर्ग जो भाजपा की कट्टर हिंदुत्ववादी और मोदी की 2002 के दंगों को लेकर बनी अलगाववादी दंगाई छवि को पसंद नहीं करता था, धीरे-धीरे कांग्रेस ही नहीं भ्रष्ट और जनविरोधी क्षेत्रीय दलों से भी किनारा करता नज़र आ रहा है। मिसाल के तौर पर यूपी में कांग्रेस ना केवल संसदीय चुनाव में साफ़ हो जायेगी, बल्कि सपा और बसपा भी हाफ हो सकती हैं और बीजेपी पहले के मुकाबले दो तीन गुना सीट जीत सकती है। जनवरी 2013 में इंडिया टुडे-नीलसन के मूड ऑफ द नेशन सर्वे में ही संकेत मिल गया था कि चुनाव में एनडीए यूपीए पर भारी पड़ेगा। मई आते आते सर्वे कहने लगे कि चुनाव में कांग्रेस हारने जा रही है।
इसके बाद भी यह दावे से नहीं कहा गया कि भाजपा सत्ता में आ जायेगी लेकिन जुलाई में सीएसडीएस के सर्वे में तस्वीर और साफ हुयी कि देश के 10 अहम राज्यों में से कांग्रेस 8 में पिछड़ रही है। यूपी की 80, महाराष्ट्र 48, बंगाल 42, बिहार 40, कर्नाटक 28, गुजरात 26, राजस्थान 25, ओडिशा 21, केरल 20, असम 14, झारखंड 14, पंजाब 13, छत्तीसगढ़ 11 और हरियाणा 10 सीट हैं। इन दस राज्यों की कुल 399 सीटों में से 2009 में कांग्रेस ने 164 जीतीं थीं लेकिन इस बार वह 83 पर सिमट सकती है। इसकी एक और वजह भी है। एक साल के अंदर यूपीए के दो महत्वपूर्ण घटक डीएमके और तृणमूल कांग्रेस ने उसका साथ नाराज़ होकर छोड़ा है जिससे उनकी वापसी के आसार कम हैं।
प्रणब मुखर्जी को प्रेसीडेंट बनाकर कांग्रेस ने बंगाल में अपना आधार बढ़ाने की बजाये कम ही किया है, क्योंकि बंगाली मानुष उनको पीएम पद का सही हक़दार मानता था जो उनको ना देकर वंशवाद के कारण अयोग्य और अक्षम राहुल को दिया जा रहा है। फिलहाल कांग्रेस के पास बड़े घटकों में एनसीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ही बचे हैं जबकि 33 सीटें जिताने वाला आंध्र तेलंगाना बनाकर वह खोने जा रही है। वाईएसआर के बेटे जगनमोहन से पंगा लेकर कांग्रेस ने वहां अपनी क़ब्र राजीव गांधी के ज़माने में एनटी रामाराव के उभार की तरह खुद ही खोद ली है। उधर बिहार में कांग्रेस पहले नीतीश कुमार की जदयू के करीब बढ़ रही थी लेकिन जेल से बाहर आते ही सहानुभूति वोट की आस में वह फिर बदनाम लालू यादव की गोद में ही अपनी जगह तलाश रही है, लेकिन पासवान ने अपना रास्ता अलग बनाने की बात कहकर गठबंधन की हवा निकाल दी है।
2004 के चुनाव में इस गठबंधन को 29 सीट मिलीं थीं तो 2009 में अलग अलग लड़ने पर कांग्रेस को मात्र दो सीटों पर संतोष करना पड़ा था। ऐसे ही यूपीए गठबंधन को झारखंड में पहले 8 तो अकेले लड़ने पर बाद में मात्र एक सीट मिली थी। विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस की हालत इतनी पतली हो गयी कि उसे 243 में से सिर्फ 4 सीट मिली। अकेले चुनाव लड़ने का लाभ कांग्रेस को यूपी में हुआ था, जहां सपा के भाजपा के पूर्व सीएम कल्याण सिंह से गठबंधन करने पर उसने मुसलमानों का रूख़ भांपकर 22 सीटें जीत लीं थीं लेकिन इस बार ऐसा संभव नहीं है। यूपी में कांग्रेस सपा की बजाये बसपा से जुड़ना चाहती है लेकिन मायावती का कहना है कि कांग्रेस के पास कोई वोटबैंक तो बचा ही नहीं है, इसलिये वह दलित वोट वापस उसकी झोली में नहीं डालेगी।
अजीब बात यह है कि जिस लोकदल से कांग्रेस का पैक्ट है, उसका एकमात्र जाट मतदाता अजीत के बजाये इस बार मुज़फ्फरनगर दंगा होने से पूरी तरह भाजपा के साथ खड़ा नज़र आ रहा है। ले-देकर कांग्रेस कर्नाटक में इस बार अपनी स्थिति सुधर सकती थी लेकिन वहां भाजपा का येदियुरप्पा के 18 फीसदी लिंगायत वोट साथ लेने को तालमेल बन जाने से यह उम्मीद भी कमज़ोर पड़ गयी है। कांग्रेस में इस बात पर चिंता जताई जा रही है कि पार्टी के वोट बैंक में लगातार सेंध लग रही है और पार्टी सत्ता में होने के बावजूद उसको रोक नहीं पा रही है। यह एक तरह से बिल्कुल उल्टी स्थिति है क्योंकि जो दल भी सरकार चलाता है उसके पास जनहित की योजनायें चलाकर लोगों का दिल जीतने की संभावनायें और अवसर अधिक होते हैं ।ऐसा नहीं है कि कांग्रेस की यूपीए सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून और भूमि अधिगृहण कानून जैसे जनहिति के काम नहीं किये हैं, लकिन घोटालों से उसकी बदनामी सब कामों पर भारी पड़ रही है। कांग्रेस ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी को बिना मांगे सपोर्ट देकर केजरीवाल की सरकार बनवाकर एक तीर से दो शिकार किये हैं। उसने मोदी की विजययात्रा को ब्रेक लगाया है। साथ ही उसने अपने प्रति बढ़ रहा लोगों का आक्रोश कुछ कम करने का प्रयास भी किया है लेकिन यह सच है कि आप अगर तीन सौ सीटों पर भी लोकसभा का चुनाव लड़ती है तो कांग्रेस का तो सफाया करेगी ही साथ ही चार में से तीन राज्यों का भारी भरकम बहुमत से चुनाव जीती भाजपा को भी वोटों का समीकरण बिगाड़कर खुद जीते या ना जीते, लेकिन भाजपा की 50 सीट दिल्ली की तरह कम ज़रूर कर देगी क्योंकि येदियुरप्पा को पार्टी में लेकर और उदारवादी पूंजीवादी नीतियां अपनाकर व कारपोरेट सैक्टर की पैरवी कर के बीजेपी ने आप को अपने खिलाफ प्रचार का बहुत बड़ा हथियार थमा दिया है ।
खुद ही को कर बुलंद इतना कि हर तदबीर से पहले ।
खुदा बंदे से यह पूछे कि बता तेरी रज़ा क्या है ॥
साभार --- : इक़बाल हिंदुस्तानी
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