मैं फेस बुक में कई महीनो से देख रहा हु ,पढ़ रहा हु , मेरे मित्रो के मुह से सुन भी रहा हु की नरेन्द्र मोदी प्रधान मंत्री बन जायेगे तो" ये " कर देगे "ओ" कर देगे (ये ,ओ, क्या है मत पूछिये अपनी - अपनी समझ है ) पर मैं एक बात खरी खरी कह रहा हु की नरेन्द्र मोदी के हाथ में कोई जादुई चिराग नहीं है , बल्कि जादुई चिराग तो आप सभी के हाथो में है ।
आज लगभग ९ सालो से कांग्रेश का शासन है और हम इस शासन को हम सरकार को बहुत कोसते हैं । क्या उस सरकार में हमारी कोई हिस्सेदारी नहीं है ? अगर नहीं है, तो हम उस सरकार के विरोधी हुए… विरोध की भाषा जरूरी नहीं कि वो देश की भाषा भी हो… तो कोई भी आंदोलन का राष्ट्रीय स्वरूप क्या होगा ? जहां सारे विरोधी एक स्वर में बोलें और सरकारी कर्मचारियों की हिस्सेदारी (गुप्त) हो… मूलत: सरकारी गैर-सरकारी कर्मचारी ही देश की आम जनता है और अभी तक वो किसी भी आंदोलन से दूर है । क्यों ?
हम आंदोलन इसलिए करते हैं कि बेहतर व्यवस्था हो सके, पर सरकार व्यवस्था नहीं बदलती वो सिर्फ नीतियों को बनाने और लागू करने का आदेश देती है । अब फिर व्यवस्था घूम-फिर कर हमारे पास आ गयी, तो, अभी की सरकार की व्यवस्था तो अभी भी हमारे पास ही है… तो हम उसका इस्तेमाल क्यूं नहीं करते ? ये तो अब खुद सोचना पड़ेगा कि व्यवस्था है क्या और इसका इस्तेमाल कैसे करें । व्यवस्था का हम सही इस्तेमाल शायद इसलिए नहीं कर पाते क्यूंकि हमारे लिए “देश” तो है, पर “कैसा” देश हो ये बिल्कुल स्पष्ट नहीं है… ये बिलकुल वैसा है जैसे “अंधों का हाथी”।
चार क्षेत्र हैं । दक्षिण कहता है मुझे कमजोर न समझना, तो पूर्व कहता है मैं तुम्हारी वाट लगा दूंगा, पश्चिम कहता है मुझे तो कोई पसंद ही नहीं, तो उत्तर कहता है कोई बात नहीं मुझे तो राज करना है, जिसे आना है आओ… और सारी बातों का “उत्तर” दिये बगैर उत्तर चुप रहता है । वो जानता है कि उसे सिर्फ सरकार चलानी है… देश नहीं बदलना है, न ही वो बदल सकते हैं । क्योंकि देश सिर्फ जनता बदल सकती है अपने कर्तब्य परायण ,इमानदारी से (जैसे सरकारें देश नहीं बदल सकती, वैसे ही, राजनीतिक आंदोलन सिर्फ सरकारें बदल सकते हैं, देश नहीं) । तो देश की जनता कौन है और? कहां है…? दक्षिण, पूरब, पश्चिम, उत्तर, हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, अगड़ी जाति, पिछड़ी जाति, अति-पिछड़ी जाति… कहां तक जाएं ? टुकड़ों में बंटी जनता को, देश नही, सुख चाहिए अपने देश में सुख की कल्पना गलत तो नहीं है, ये अधिकार है हमारा ।
पर हमारा “कर्तव्य” ?
हमारा कर्तव्य, दूसरे के अधिकार की पूर्ति करता है । तो कर्तव्य करो इमानदारी से अधिकार अपने आप मिल जायेगे ,देश का विकास हो जाएगा ।
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