प्राचीन समय में भारत कृषि योग्य भूमि की बहुतायत के कारण कृषि प्रधान देश था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस शस्य श्यामला धरती पर गड्ढों की फसल लहलहाने लगी और यह गड्ढा प्रधान देश में तब्दील हो गया।
आज यहां हर क्षेत्र गड्ढों से समृद्ध है। सरकारी क्षेत्र हो या गैर सरकारी, गड्ढे हर जगह बहुतायत से सेवा प्रदान कर रहे हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, सड़क से लेकर संसद तक सभी क्षेत्र में नाना प्रकार के गड्ढे पाए जाते हैं। ज्यादातर नजर आ जाते हैं, कुछ गड्ढे सिर्फ महसूस किए जा सकते हैं। विभिन्न क्षेत्रों में गड्ढों को अलग-अलग नामों से जाना जाता है। कुछ लोग इन्हें साहब का खास तो कुछ दाहिना हाथ, नाक का बाल आदि नाम से जानते हैं जबकि कुछ विरोधी इन्हें मैनेजर, दलाल या चमचा तक कह डालते हैं। नाम चाहे कुछ भी हो पर यह अटल सत्य है कि जटिल या उलझे काम सिर्फ और सिर्फ गड्ढा ही करवा सकता है। किसी सामान्यजन में वह कूव्वत नहीं होती, जो गड्ढे में कूट-कूट कर भरी होती हैं। आमजन को सहजता से उपलब्ध रहते हैं।
अफसर कैबिन के अंदर मक्खियां मारता रहता है, जबकि गड्ढे बाहर गप्पे लड़ाते, धुआं उड़ाते, खैनी मलते, पान की पीक से दीवार पर कलाकृति बनाते, गुमटी पर चाय सुकड़ते हुए आसानी से मिल जाते हैं। सामान्य जन से गड्ढे बनने की प्रक्रिया अत्यंत जटिल होती है। इसमें काफी समय लगता है। इस दौरान उसे अनेक अग्नि परीक्षाओं में से होकर गुजरना पड़ता है, तब जाकर एक सच्चे उपजाऊ गड्ढे का निर्माण होता है। बाद में यही छोटा सा गड्ढा विशालकाय हो जाता है, जिसकी छत्रछाया में अनेक सह गड्ढे सुख पाते हैं। सड़क के गड्ढों का चरित्र दफ्तर के गड्ढों से अलग होता है।
सड़क के गड्ढे में उलझ वाहन के टायर, पुर्जे मरम्मत मांगते हैं। इस प्रकार वह मैकेनिक का पेट भरता है। दचकों से वाहन पर सवार लोगों के शरीर की हड्डी-पसली बराबर हो जाती है, इससे डॉक्टर का घर चलता है। ठेकेदार भी गड्ढे की ही रोटी खाते हैं। अफसरों के कमीशन की नाव भी इनके सहारे ही तैरती हैं। गड्ढा जीवन की सीधी-सपाट सड़क की नीरसता में रंग भरता है। दचके लगने से सहयात्रियों में स्पर्श सुख से रोमांस के अवसर पनपते हैं। अपने जीवन की सुख- समृद्धि से संतुष्ट होकर गड्ढे यही दुआ करते हैं कि अगले जन्म मोहे गड्ढा ही कीजो ।
आज यहां हर क्षेत्र गड्ढों से समृद्ध है। सरकारी क्षेत्र हो या गैर सरकारी, गड्ढे हर जगह बहुतायत से सेवा प्रदान कर रहे हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, सड़क से लेकर संसद तक सभी क्षेत्र में नाना प्रकार के गड्ढे पाए जाते हैं। ज्यादातर नजर आ जाते हैं, कुछ गड्ढे सिर्फ महसूस किए जा सकते हैं। विभिन्न क्षेत्रों में गड्ढों को अलग-अलग नामों से जाना जाता है। कुछ लोग इन्हें साहब का खास तो कुछ दाहिना हाथ, नाक का बाल आदि नाम से जानते हैं जबकि कुछ विरोधी इन्हें मैनेजर, दलाल या चमचा तक कह डालते हैं। नाम चाहे कुछ भी हो पर यह अटल सत्य है कि जटिल या उलझे काम सिर्फ और सिर्फ गड्ढा ही करवा सकता है। किसी सामान्यजन में वह कूव्वत नहीं होती, जो गड्ढे में कूट-कूट कर भरी होती हैं। आमजन को सहजता से उपलब्ध रहते हैं।
अफसर कैबिन के अंदर मक्खियां मारता रहता है, जबकि गड्ढे बाहर गप्पे लड़ाते, धुआं उड़ाते, खैनी मलते, पान की पीक से दीवार पर कलाकृति बनाते, गुमटी पर चाय सुकड़ते हुए आसानी से मिल जाते हैं। सामान्य जन से गड्ढे बनने की प्रक्रिया अत्यंत जटिल होती है। इसमें काफी समय लगता है। इस दौरान उसे अनेक अग्नि परीक्षाओं में से होकर गुजरना पड़ता है, तब जाकर एक सच्चे उपजाऊ गड्ढे का निर्माण होता है। बाद में यही छोटा सा गड्ढा विशालकाय हो जाता है, जिसकी छत्रछाया में अनेक सह गड्ढे सुख पाते हैं। सड़क के गड्ढों का चरित्र दफ्तर के गड्ढों से अलग होता है।
सड़क के गड्ढे में उलझ वाहन के टायर, पुर्जे मरम्मत मांगते हैं। इस प्रकार वह मैकेनिक का पेट भरता है। दचकों से वाहन पर सवार लोगों के शरीर की हड्डी-पसली बराबर हो जाती है, इससे डॉक्टर का घर चलता है। ठेकेदार भी गड्ढे की ही रोटी खाते हैं। अफसरों के कमीशन की नाव भी इनके सहारे ही तैरती हैं। गड्ढा जीवन की सीधी-सपाट सड़क की नीरसता में रंग भरता है। दचके लगने से सहयात्रियों में स्पर्श सुख से रोमांस के अवसर पनपते हैं। अपने जीवन की सुख- समृद्धि से संतुष्ट होकर गड्ढे यही दुआ करते हैं कि अगले जन्म मोहे गड्ढा ही कीजो ।
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