!! भारत की प्राचीन विमानन वैमानिक कला !!
ब्रिटेन,
अमेरिका नहीं भारत में हुआ था पहले विमान का आविष्कार अतीत के बिम्ब- राइट
बंधुओं के विमान के आविष्कार के लगभग दस वर्ष पूर्व 1865 ई. में श्री
शिवकर बापू जी तलपदे ऋग्वेद में वर्णित ‘मरुत सखा’ तथा वाल्मीकि रामायण में
वर्णित ‘पुष्पक विमान’ के विवरणों के आधार पर वायुयान का एक मॉडल तैयार
किया था। श्री तलपदे उन दिनों बॉम्बे स्कूल ऑफ आर्ट्स में अध्यापक थे।
उन्होंने उपलब्ध वैदिक साहित्य मुख्यतः ऋग्वेद का विमानों में संदर्भ में
विशेष अध्ययन किया था और उसी आधार पर विमान, जिसका नाम उन्होंने ‘मरुत सखा’
था, का निर्माण भी किया था। इस आधुनिक ‘मरुत सखा’ का प्रदर्शन उन्होंने
1865 ई. में बंबई (अब मुम्बई) चौपाटी के मैदान में तत्कालीन बड़ौदा नरेश
महाराजा सर सयाजी राव गायकवाड़, श्री लाल जी नारायण और मुम्बई के अन्य
गणमान्य नागरिकों के सम्मुख किया था। यह विमान बिना किसी चालक के 15 फीट
ऊँचाई तक उड़ा था और फिर स्वतः धरती पर वापस आ गया था। उसमें एक निश्चित
ऊँचाई तक पहुँचकर नीचे उतर आने का एक यंत्र लगाया गया था। मात्र वाल्मीकि
रामायण की तथा मुनि भरद्वाज के विमान शास्त्र की जानकारी से विमान का
निर्माण, विमान-निर्माण के प्राचीन ग्रंथों में भारद्वाज कृत ‘विमान
शास्त्र’,‘अगस्त संहिता’, समरांगण सूत्रधार आदि ग्रंथ चर्चित हैं। आवश्यकता
है उनमें निहित वैज्ञानिक तथ्यों के सूक्ष्म विवेचन की। भारत की प्राचीन
वैमानिक कला के नष्ट होने का एक प्रमुख कारण है, इस विधा से सम्बन्धित
पांडुलिपियों के नष्ट हो जाने के कारण उनकी दुर्लभता तथा उपलब्ध
पांडुलिपियों में मिश्रित किए गए प्रक्षिप्त अंशों के कारण, तथ्यपरकता का
अभाव। परन्तु इसके उपरान्त प्राचीन काल की वैमानिक विधा असंदिग्ध है। लेखक
की प्रकाशित ‘वैज्ञानिक पुराकथाएँ’ नामक संग्रह की विमान संबन्धित त्रिपुर,
अंतरिक्ष में तीन नगर, मनचालित विमान-सौभ, हिरण्यनगर नामक कथाएँ, इसके
पुराकालीन अस्तित्व की साक्षी है।
भारतीय सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं मे से एक है। अन्य
सभ्यताओंकी तरह इस सभ्यता से भी ज्ञान, विज्ञानका एक निर्बाध प्रवाह
प्रारंभ हुआ था।विदेशी आक्रान्ताओं तथा औपनिवेश शासनकाल मे इस सभ्यता के
चिन्ह धूमिल हो गये। औपनिवेश शासकों के 'सरकारी' काम को चलाने के लिये
भारतीय शिक्षा पद्दति मे भारी परिवर्तन किये गये जिससे उनके लिये बाबू वर्ग
तैयार हो सके। पाश्चात्य संस्कारों की तुलना मे भारतीय मूल्य व ज्ञान
विज्ञान पिछडापन के रूप मे चित्रित किया गया। एक ज्ञान-विशिष्ठ सभ्यता, एक
पिछ्डी, अंधविश्वासी समाज बन गयी। प्राचीन भारतीय विज्ञान के चिन्ह धूमिल
होते जा रहे है। आवश्यक्ता है आम समाज को उस विज्ञान से परिचित कराने की।
इससे न केवल भारत के विज्ञान का विश्व से परिचय होगा बल्कि मिथ्या धारणाये,
तथाअंधविश्वास भी खंडित होगा।
मानव इतिहास के 10 लाख सालों में एक ही समय पर इतना सारे महान
वैज्ञानिक कैसे पैदा हो गए..न इससे पहले न इसके बाद कोई नया मौलिक सूत्र या
नया नियम नहीं आया !!
ऐसा लगता है जैसे उस समय ब्रिटिश, पड़ोसी व मित्र देशों में विज्ञान की
लौटरी लग गई हो!! ये सवाल तो कोई हिन्दुस्तानी ही उठा सकता है...
समझदारलोग अपने ऊपर गर्व करें ..बाकी पुरातन भारत का इतिहास पढ़े ...कुछ
प्रारंभिक तथ्य प्रस्तुत है -
जिस समय न्यूटन के पूर्वज जंगली लोग थे, उस समय महर्षि भाष्कराचार्य ने
पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था किन्तु आज
हमें सिखाया जाता है कि ब्रिटेन के उसवैज्ञानिक ने ये बनाया जरमनी के उस
वैज्ञानिक ने वो बनाया ....जबकि सच ये है कि भारत से चुरा कर ले जाए ग्रन्थ इन लोगो के हाथ लग गए
थे..और ये उन पर टूट पड़े थे ..हमारे विज्ञान में कोई पेटेंट कराने की
जरूरत नहीं थी क्यूंकि तब ब्रहम्मांड के रहस्य हम ही जानते थे किन्तु चोर
ने जब चोरी कर ली ...तो चोरी के माल को अपना बताने के लिए वो कागजी
रजिस्ट्रेशन का सहारा लेने लगा ...!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें