कई लोगो के मुह से सुन चुका हु की नाग सधुओ को अस्त्र -शश्त्र की क्या जरुरत है ..तो मैं आपको बताना चाहता हु की ये नगा साधू ..सनातन के रक्षक है इन्होने समय समय पर सनातन के लिए अपने प्राणों की आहुति दिया था ....हो सकता है एकता नाग ने कभी मर्यादा का उलंघन किया ही तो इसका मतलब ये तो नहीं की प्यूरी नगा पंथ ही दोषी हो गए ? कुम्भ के दौरान गंगा, यमुना व अदृश्य
सरस्वती के संगम में नागा साधू-संतों की मंडली से अलग नागा संन्यासियों की टोली
बरबस ही लोग अपनी ओर आकर्षित करती है। बड़ी-बड़ी जटा जूट वाले शैवपंथी नागा
अपने निर्वस्त्र शरीर पर भभूत लपेटे हाथों में चिलम लिए और गांजे का कश
लगाते हुए अन्य लोगों से अजीब दिखते हैं।
भगवान शिव से जुड़ी मान्यताओं मे जिस तरह
से उनके गणों का वर्णन है ठीक उन्हीं की तरह दिखने वाले इन संन्यासियों को
देख कर आम आदमी एक बारगी हैरत और से भर उठता है। इसीलिए जब-जब कुम्भ मेले
पड़तें हैं तब-तब नागा सन्यासी की रहस्यमय जीवन शैली लोगों के आकर्षण का
केन्द्र होती है। नागाओं की रहस्यमय जीवन शैली और दर्शन को जानने के लिए
विदेशी श्रद्धालु ज्यादा उत्सुक रहते हैं। इतना ही नही कुम्भ के सबसे
पवित्र शाही स्नान मे सब से पहले स्नान का अधिकार इन्हीं नागाओं को मिलता
है।
वर्षों कड़ी तपस्या और वैरागी जीवन जीने
के बाद ही कोई व्यक्ति नागाओं की श्रेणी में आता है। इस दौरान इन्हें कई
तरह की अग्नि परिक्षाओं से गुजरना पड़ता है। इसमें तप, ब्रहमचर्य, वैराग्य,
ध्यान, सन्यास और धर्म का अनुशासन तथा निस्ठा आदि शामिल है। ये नागा लोग
अपने ही हाथों अपना ही श्राद्ध और पिंड दान करते हैं, जब की हिन्दू धर्म
में श्राद्ध आदि का कार्य मरणोंपरांत होता है, अपना श्राद्ध और पिंड दान
करने के बाद ही साधू बनते है और सन्यासी जीवन की उच्चतम परकास्ट्ठा तथा
अत्यंत विकट परंपरा मे शामिल होने का गौरव प्राप्त होता है।बताया जाता है कि सन्यासियों की इस परंपरा
मे शामिल होना बड़ा कठिन होता है। सभी परिक्षाओं में पारांगत होने के बाद
गुरु मंत्र लेकर इन्हें सन्यास धर्म में दीक्षित किया जाता है जिसके बाद
इनका जीवन अखाड़ों, संत परम्पराओं और समाज के लिए समर्पित हो जाता है। कहते
हैं की नागा जीवन एक इतर जीवन का साक्षात ब्यौरा है और नश्वरता को समझ
लेने की एक प्रकट झांकी है। नागा साधुओं के बारे मे ये भी कहा जाता है की
वे पूरी तरह निर्वस्त्र रह कर गुफाओं, कन्दराओं मे कठोर ताप करते हैं।धूनी मल कर, नग्न रह कर और गुफाओं मे तप
करने वाले नागा साधुओं का उल्लेख पौराणिक ग्रन्थों मे मिलता है। नागा नग्न
अवस्था मे रहते थे, इन्हे त्रिशूल, भाला, तलवार, मल्ल और छापा मार युद्ध
में प्रशिक्षित किया जाता था। इतिहास में भी इस तरह का उल्लेख है कि जब
औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध नागाओं ने छत्रपति शिवाजी का साथ बड़ी बहादुरी से
दिया था।आज संतो के तेरह अखाड़ों मे सात सन्यासी
अखाड़े (शैव) अपने-अपने नागा साधू बनाते हैं। इनमें जूना, महानिर्वणी,
निरंजनी, अटल, अग्नि, आनंद और आवाहन आखाडा शामिल हैं।
जूना के अखाड़े के नागा संतो द्वारा तीनों
योगों- ध्यान योग, क्रिया योग, और मंत्र योग का पालन किया जाता है यही
कारण है की नागा साधू हिमालय के ऊंचे शिखरों पर शून्य से काफी नीचे के
तापमान पर भी जीवित रह लेते हैं, इनके जीवन का मूल मंत्र है आत्मनियंत्रण,
चाहे वह भोजन में हो या फिर विचारों में। इस बीच अगर नागा के धर्म मे
दीक्षित होने के बाद कठोरता से अनुसासन और वैराग्य का पालन करना होता है,
यदि कोई दोषी पाया गया तो उसके खिलाफ कारवाही की जाती है और दुबारा ग्रहस्थ
आश्रम मे भेज दिया जाता है।वहीं दूसरी तरफ वैष्णव अखाड़े की परंपरा के
अनुसार जब भी नवागत व्यक्ति संन्यास ग्रहण करता है तो तीन साल की संतोषजनक
सेवा 'टहल' करने के बाद उसे 'मुरेटिया' की पदवी प्राप्त होती है। इसके बाद
तीन साल में वह संन्यासी 'टहलू' पद ग्रहण कर लेता है। 'टहलू' पद पर रहते
हुए वह संत एवं महंतों की सेवा करता है। कई वर्ष के बाद आपसी सहमति से उसे
'नागा' पद मिलता है।एक नागा के ऊपर अखाड़े से संबंधित
महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां होती हैं। इन जिम्मेदारियों में खरा उतरने के बाद
बाद उसे 'नागा अतीत' की पदवी से नवाजा जाता है। नागा अतीत के बाद 'पुजारी'
का पद हासिल होता है। पुजारी पद मिलने के बाद किसी मंदिर, अखाड़ा, क्षेत्र
या आश्रम का काम सौंपे जाने की स्थिति में आगे चलकर ये 'महंत' कहलाते हैं।
बात 1857 की है। पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल बज चुका था। यहां
पर तो क्रांति की ज्वाला की पहली लपट 57 के 13 साल पहले 6 जून को मऊ कस्बे
में छह अंग्रेज अफसरों के खून से आहुति ले चुकी थी।
एक अप्रैल 1858 को मप्र के रीवा जिले की मनकेहरी रियासत के जागीरदार ''ठाकुर रणमत सिंह बाघेल'' ने लगभग तीन सौ साथियों को लेकर नागौद में अंग्रेजों की छावनी में आक्रमण कर दिया। मेजर केलिस को मारने के साथ वहां पर कब्जा जमा लिया। इसके बाद 23 मई को सीधे अंग्रेजों की तत्कालीन बड़ी छावनी नौगांव का रुख किया। पर मेजर कर्क की तगड़ी व्यूह रचना के कारण यहां पर वे सफल न हो सके। रानी लक्ष्मीबाई की सहायता को झांसी जाना चाहते थे पर उन्हें चित्रकूट का रुख करना पड़ा। यहां पर पिंडरा के जागीरदार ठाकुर दलगंजन सिंह ने भी अपनी 1500 सिपाहियों की सेना को लेकर 11 जून को 1958 को दो अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर उनका सामान लूटकर चित्रकूट का रुख किया। यहां के हनुमान धारा के पहाड़ पर उन्होंने डेरा डाल रखा था, जहां उनकी सहायता नागा साधु-संत कर रहे थे। लगभग तीन सौ से ज्यादा नागा साधु क्रांतिकारियों के साथ अगली रणनीति पर काम कर रहे थे। तभी नौगांव से वापसी करती ठाकुर रणमत सिंह बाघेल भी अपनी सेना लेकर आ गये। इसी समय पन्ना और अजयगढ़ के नरेशों ने अंग्रेजों की फौज के साथ हनुमान धारा पर आक्रमण कर दिया। तत्कालीन रियासतदारों ने भी अंग्रेजों की मदद की। सैकड़ों साधुओं ने क्रांतिकारियों के साथ अंग्रेजों से लोहा लिया। तीन दिनों तक चले इस युद्ध में क्रांतिकारियों को मुंह की खानी पड़ी। ठाकुर दलगंजन सिंह यहां पर वीरगति को प्राप्त हुये जबकि ठाकुर रणमत सिंह गंभीर रूप से घायल हो गये। करीब तीन सौ साधुओं के साथ क्रांतिकारियों के खून से हनुमानधारा का पहाड़ लाल हो गया।
महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय में
इतिहास विभाग के अधिष्ठाता डा. कमलेश थापक कहते हैं कि वास्तव में चित्रकूट
में हुई क्रांति असफल क्रांति थी। यहां पर तीन सौ से ज्यादा साधु शहीद हो
गये थे। साक्ष्यों में जहां ठाकुर रणमतिसह बाघेल के साथ ही ठाकुर दलगंजन सिंह
के अलावा वीर सिंह, राम प्रताप सिंह, श्याम शाह, भवानी सिंह बाघेल (भगवान् सिंह बाघेल ), सहामत खां,
लाला लोचन सिंह, भोला बारी, कामता लोहार, तालिब बेग आदि के नामों को उल्लेख
मिलता है वहीं साधुओं की मूल पहचान उनके निवास स्थान के नाम से अलग हो
जाने के कारण मिलती नहीं है। उन्होंने कहा कि वैसे इस घटना का पूरा जिक्र
आनंद पुस्तक भवन कोठी से विक्रमी संवत 1914 में राम प्यारे अग्निहोत्री
द्वारा लिखी गई पुस्तक 'ठाकुर रणमत सिंह' में मिलता है। एक अप्रैल 1858 को मप्र के रीवा जिले की मनकेहरी रियासत के जागीरदार ''ठाकुर रणमत सिंह बाघेल'' ने लगभग तीन सौ साथियों को लेकर नागौद में अंग्रेजों की छावनी में आक्रमण कर दिया। मेजर केलिस को मारने के साथ वहां पर कब्जा जमा लिया। इसके बाद 23 मई को सीधे अंग्रेजों की तत्कालीन बड़ी छावनी नौगांव का रुख किया। पर मेजर कर्क की तगड़ी व्यूह रचना के कारण यहां पर वे सफल न हो सके। रानी लक्ष्मीबाई की सहायता को झांसी जाना चाहते थे पर उन्हें चित्रकूट का रुख करना पड़ा। यहां पर पिंडरा के जागीरदार ठाकुर दलगंजन सिंह ने भी अपनी 1500 सिपाहियों की सेना को लेकर 11 जून को 1958 को दो अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर उनका सामान लूटकर चित्रकूट का रुख किया। यहां के हनुमान धारा के पहाड़ पर उन्होंने डेरा डाल रखा था, जहां उनकी सहायता नागा साधु-संत कर रहे थे। लगभग तीन सौ से ज्यादा नागा साधु क्रांतिकारियों के साथ अगली रणनीति पर काम कर रहे थे। तभी नौगांव से वापसी करती ठाकुर रणमत सिंह बाघेल भी अपनी सेना लेकर आ गये। इसी समय पन्ना और अजयगढ़ के नरेशों ने अंग्रेजों की फौज के साथ हनुमान धारा पर आक्रमण कर दिया। तत्कालीन रियासतदारों ने भी अंग्रेजों की मदद की। सैकड़ों साधुओं ने क्रांतिकारियों के साथ अंग्रेजों से लोहा लिया। तीन दिनों तक चले इस युद्ध में क्रांतिकारियों को मुंह की खानी पड़ी। ठाकुर दलगंजन सिंह यहां पर वीरगति को प्राप्त हुये जबकि ठाकुर रणमत सिंह गंभीर रूप से घायल हो गये। करीब तीन सौ साधुओं के साथ क्रांतिकारियों के खून से हनुमानधारा का पहाड़ लाल हो गया।
इस प्रकार मैं दावे के साथ कह सकता हु की नागा साधू सनातन के साथ साथ देश रक्षा के लिए भी अपने प्राणों की आहुति देते आये है और समय आने पर फिर से देश और धर्म के लिए अपने प्राणों की आहुति दे सकते है ...पर कुछ पुराव्ग्राही बन्धुओ को नागाओ का यह त्याग और बलिदान क्यों नहीं दिखाई देता है ?
नोट---: मैं यहाँ यह बताना चाहता हु कि भवानी सिंह बाघेल (भगवान् सिंह बाघेल ) मेरे परदादा जी थे ।
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