!! तीसरा मोर्चा और मुलायम जी के सपने ...!!
‘‘किसी युवा से कभी यह मत कहिए कि यह काम असंभव है ! हो सकता है कि ईश्वर
शताब्दियों से किसी ऐसे ही व्यक्ति की प्रतीक्षा कर रहा हो जो इस काम के
असंभव होने की बात तक से इतना अनजान हो कि उसे संभव ही कर दिखाए..’’ -जॉन
एंड्रयू होम्स, अमेरिकी लेखक ‘मैंने सीज़र को इसलिए नहीं मारा क्योंकि मैं
उनसे कम प्यार करता था, बल्कि इसलिए मारा क्योंकि मैं अपने देश से ज्यादा
प्यार करता हूं !’ - मार्क ब्रूटस, जूलियस सीज़र के निकटतम मित्रों में एक
‘महत्वाकांक्षा’ के आरोप लगाकर उन्हीं की हत्या करने के बाद ! राष्ट्रीय
राजनीति में अचानक अनेक महत्वाकांक्षाएं धधकने लगी हैं ! ममता बनर्जी की
इच्छा, आम आदमी का सर्वाधिक विश्वसनीय पक्षधर बनकर उभरने की है! जैसे कि
1999 में जयललिता उभरी थीं। न वो आश्चर्य था न ही यह नई बात ! हां, ऐसे
निर्णयों से राजनीति का परिदृश्य अवश्य रोचक, रोमांचक और विवादास्पद हो उठा
है। यकायक नई-नई शत्रुता-मित्रता दिखने-मिटने लगेगी.. जैसे ममता के हटते ही
मुलायम सिंह यादव ने तीसरे मोर्चे की मानो घोषणा ही कर डाली...फिर नजाकत
देख, पलट भी गए... एक ही मुद्दे पर, दूरी बनाए हुए ही सही, लेफ्ट और राइट
दोनों सड़क पर नारे लगाते, भाषण देते दिखे...अचरज पैदा कर सकती हैं कुछ
बातें ! सरकार के जिन फैसलों के विरुद्ध ममता ने इतना बड़ा कदम उठाया, उसी
के विरोध प्रदर्शन में शामिल होने से इनकार कर दिया... कारण- वे भाजपा के साथ
दिखना नहीं चाहतीं और माकपा के साथ दिख नहीं सकतीं... ऐसे ही 1999 में जिन
मुलायम सिंह ने सोनिया गांधी को ‘‘हमें पूर्ण बहुमत यानी 272 सांसदों का
समर्थन है’’ कहने पर अपना हाथ हटाकर बुरी तरह झटका दिया था, वहीं मुलायम
2008 में जब ‘अविश्वास’ चरम पर था, सोनिया संरक्षित सरकार को बचाने के लिए
जी-जान से जुटे नजर आए ! अब भाजपा की बात और अलग..तीसरे मोर्चे को
‘इतिहास’करार देकर खारिज करने वाली इस पार्टी के नेता, निरंतर इसी तरह के
गैर-कांग्रेसी, गैर-भाजपा विपक्षी मोर्चे से प्रताड़ित या प्रभावित होते
रहे हैं... जो लोग डीज़ल -रिटेल विरोधी प्रदर्शन में भाजपा-भाकपा-तीसरे मोर्चे
‘जैसे’ दलों को एक साथ सड़क पर देखकर विस्मय व्यक्त कर रहे हैं, वे क्यों
कर भूल रहे हैं कि यह तो सामान्य, सहज बात थी जिसका कोई भी ‘स्वाभाविक’
विरोध करेगा...जैसे कि हर तरह की हिंसा की सभी दल भत्र्सना ही तो करते
दिखेंगे... हर नेता, यहां तक कि हांफ रहे, लड़खड़ा रहे नेता भी यही कहते रहे
हैं कि वे किसी दौड़ में नहीं हैं !बाद में वे कुछ बने भी तो ‘राष्ट्रहित’
में.. कम से कम हमें तो उन्होंने यही बताया... जूलियस सीजर के जमाने से आज तक
राजनीति में गलत-सही ‘राष्ट्रहित में ही तो किया जा रहा है..’ बहरहाल,
लेफ्ट-राइट-सेंटर के एक होने का सबसे बड़ा उदाहरण तो विश्वनाथ प्रतापसिंह
को प्रधानमंत्री बनाना रहा.. सारे पुराने समाजवादी इकठ्ठे.. सारे पूर्व
कांग्रेसी जमा.. दक्षिणपंथी और वामपंथी भी एकजुट..सम्मानजनक या कि अपमानजनक
जैसी भी हो दूरी बनाए रखी..बाहर से समर्थन दिया..इसलिए व्यर्थ है सारा
विलाप ! कहीं कोई आश्चर्य नहीं,,जिस समय जिसकी जैसी महत्वाकांक्षा जगी- वह
दौड़ में दिखलाई पड़ा,, हर चुनाव के पहले तलाक, राजनीतिक गठबंधन, बेमेल
विवाह और अलग-अलग रहने के सभी दलों के ढेरों उदाहरण,, तीसरे मोर्चो की भी
अपनी अलग गाथा,,जितनी भी बार ऐसे मोर्चे बने, हर बार ऐसा तभी हुआ जब
कांग्रेस कमजोर पड़ी,,यानी हर तीसरा मोर्चा कमजोर पड़ी कांग्रेस के गर्भ से
निकला,,आपातकाल के कलुषित अध्याय के बाद 1977 में ‘‘हारे, हारे और हारते
चले गए.. ’’ कांग्रेसियों के सत्ता में रहते पथभ्रष्ट होने के कारण मोरारजी
देसाई के प्रधानमंत्रित्व वाली जनता सरकार हो या 1989 में वीपी सिंह वाले
जनमोर्चे की सरकार ?? यानी कांग्रेस कमजोर तो मोर्चा बना..ठीक इसके उलट.. हर
ऐसा मोर्चा कांग्रेस के समर्थन से बना रहा ! कांग्रेस रणनीतियों से लड़कर,
उलझकर बिखरता...गुट, घटक, धड़े बनते टूटते.. फिर उनमें से एक, कांग्रेस की
कृपा से ‘बना रहता, बढ़ जाता’..फिर स्वाभाविक है- कांग्रेस उसे तबाह कर
देती। 1979 में चौधरी चरण सिंह की सरकार गिराई..1990 में युवा से वरिष्ठ
‘तुर्क’ बने चंद्रशेखर की गद्दी खींची.. सबकुछ नाटकीय..सोचो तो असंभव..जानो
तो सरल, सहज ! यही क्यों, 1996 में देवेगौड़ा सरकार !‘निद्रा में लीन रहने
वाले नेता’ के रूप में प्रचारित किए गए इस प्रथम दक्षिणी प्रधानमंत्री को
गिराकर जगाने वाली कांग्रेस ने उतनी ही सफाई से इंद्र कुमार गुजराल को 1997
में अपदस्थ कर दिखाया ! सब कुछ संभव...राजनीति ने यह एकमात्र सकारात्मक पाठ
खुलकर पढ़ाया है..सवा सौ करोड़ नागरिकों के इस महान देश की महानतम
लोकतांत्रिक परम्पराएं हैं, किन्तु ‘‘संसार ऐसे ही चलता है’’ जैसी
नैराश्यपूर्ण किन्तु शक्तिशाली पंक्ति को मिटाते हुए भारतीय राजनीति को देश
के बुद्धिमान मतदाता ने हमेशा ‘पुरातन परम्पराओं’ को तोड़ने और हरपल कुछ
‘नया, ज्यादा और अलग’ करने पर विवश किया है ! 13 दिन के प्रधानमंत्री हमने
देखे..फिर 13 माह भी पाए.. हमने ही दिए.. छह महीने पहले अतिआत्मविश्वास से
भरकर ‘इंडिया शाइनिंग’ से स्वयं अंधेरे में चले गए..यहां प्रधानमंत्री दो
सिपाहियों के नाम पर गिराए गए..चंद्रशेखर तो क्या, स्वयं उन सिपाहियों तक
को न पता चला कि उन्होंने ‘इतना बड़ा कुछ’ कर दिया है.. राष्ट्र के निर्माण
में ऐसे अच्छे-बुरे उदाहरण अत्यधिक सामान्य बात है, अनिवार्य भी है.. 2014
राहुल विरुद्ध मोदी विरुद्ध मुलायम, होगा या नहीं; बहस सहज है.. रसप्रद.भी..
ममता तब क्या कांग्रेस से इतनी ही दूर रहेंगी-?? क्योंकि लेफ्ट/राइट से दूरी
विवशता है.पता नहीं,,,क्योंकि जिस द्रमुक के विरुद्ध कांग्रेस ने लड़ाई लड़ी
उसी से ‘अपमानित’ होते हुए भी वह उसी के मंत्रियों को लगातार बनाए रखे हुए
है,,किंतु इस तरह तो राजनीति मात्र राजनीतिज्ञों की इच्छा, प्रतिष्ठा और
शक्ति बनकर रह गई है,इनमें आम आदमी के हित कहां हैं ? राजनीति में आम आदमी
के हित सवरेपरि हों, ऐसा असंभव लगता है,, इसके विरुद्ध युद्ध लंबा, कुंठित
कर देने वाला होगा,,किंतु लड़ना ही है, हम सभी को, अपने-अपने तरीकों से,
2014 का आम चुनाव इसके लिए श्रेष्ठ अवसर होगा, बस, आंखें खुली रखनी है...........
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