यह लेख हमने टीवी पत्रकार पूजा शुक्ला जी के फेसबुक पेज से लिया है। बकौल पूजा जी...............
बहुजन समाज पार्टी के पिछले 28 वर्षो के सफ़र पर नज़र डाले तो ये जानने में ज्यादा समय नहीं लगेगा की बसपा के संस्थापक कांशीराम की तरह ही मायावाती पार्टी की उन्नती की प्रमुख वजह रही है. इस बसपा रूपी वट वृक्ष की मुख्य शाखा अनुसूचित जातियां हैं जिन्हें बसपा समर्थित बुद्धजीवी दलित नाम से बुलाते हैं. ये दलित कोई दले हुए लोग नहीं जैसी के आम मान्यता है बल्कि ये वर्ग तो पूना अवार्ड के समय से ही भारत की विभिन्न अनुसूचित जातियों की सामाजिक क्रान्ति के फलस्वरूप उभरी अनुसूचित जाति का मध्यवर्ग है. जिस प्रकार हिन्दू धर्मं का राजनीतीकरण 'हिंदुत्व' है उसी तरह अनुसूचित जातियों का राजनैतिक मंथन दलित नाम से एकीकृत हुआ है.
आंबेडकर का मानना था की आरक्षण की सुविधा प्राप्त करते ही दलित अधिकारी अपने लोगों को छोड़ जाते हैं पर उनकी यह बात ज्यादा दिन तक कायम नहीं रही. सामाजिक-आर्थिक रूप से मजबूत हुए अनुसूचित जाति का मध्यवर्ग, जो की ज्यादातर सरकारी अधिकारी वाला शासक समूह था, आंबेडकर की मृत्यु के कुछ दशकों के बाद ही अगड़ी जातियों के सत्ता के एकाधिकार से कुपित होकर संगठित रूप से राजनैतिक भागीदारिता के अवसर ढूंढ़ने लगा. महाराष्ट्र की अपेक्षा उत्तर प्रदेश के प्रशासन में ब्राह्मण कायस्थ के बाद, अनुसूचित जाति के आई ए एस अधिकारियों की संख्या अच्छी खासी थी. अगड़ी जातियों के ब्राह्मण कायस्थों के रहते इन लोगों को वो स्थान नहीं मिला पाता था जो उन्हें मिल सकता बस इसी गुस्से को केन्द्रित कर आंबेडकर के लगभग निर्जीव हो चुके संघर्ष को कांशीराम ने बामसेफ नाम से मूर्त रूप दे दिया.बामसेफ ने इन्हीं दलित अधिकारी वर्ग को संगठित होने के लिए प्रेरित कर सवर्ण समाज से नौकरियों में छोटे फायदे की अपेक्षा स्वयं सत्ता पाकर बड़े फायदे के सपने दिखाए. बुरी तरह खीजी हुई यूपी की दलित ब्युरोक्रेसी ने इस खवाब को हकीकत में तब्दील करने का बीड़ा उठा लिया,तो कांशीराम ने भी बामसेफ को कर्मचारी यूनियन से आगे बढकर दलितों की बौद्धिक, धन व योग्यता को निखारने वाली संगठन बना डाला.
अधिकारियों के इस संगठन के पास अपना फंड, साहित्य पदाधिकारी तो थे पर नौकरी छोड़कर नेता बनाने वाले लोग नहीं थे जिसको पूरा करने के लिए कांशीराम ने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4) का गठन किया जोकि शुद्ध रूप से दलित राजनैतिक संगठन था. इन सब के बावाजूद भी 25% दलितों के पास लोकशाही में सफलता के लिए वो संख्याबल नहीं था, जिससे वे सत्ता में आ पाते, पर अगर दलितों के साथ करीबन 50% पिछड़ों जो की ज्यादातर कृषक या सेवा करने वाले समाज को मिला दिया जाए तो राज करने की जरूरी संख्याबल तैयार हो जाता है. कांशीराम ने इसी 25 जमा 50 के कम्बिनेशन को बहुजन (85% फीसदी ) नाम देकर दलितवाद को पसारते हुए उसे बहुजन शब्द में ढाल दिया. ये बहुजन अब डीएस-4 को वो संख्याबल दे सकते थे जो चुनावी राजनीती में अत्यंत आवश्यक होती है. 1984 में इसे योजना के तहत कांशीराम ने डीएस-4 को विलय कर बहुजन समाज पार्टी का गठन कर दिया.
बहुसंख्यक राजनैतिक शक्ति का नवसृजन करने के अपने शुरुआती दौर में जैसा हर संगठन में होता है वही यहाँ भी हुआ कुछ अधिकारी व नेता छोटे लालच में फंसकर 1986 में बामसेफ से अलग हो गए, पर कांशीराम लगे रहे. आंबेडकर की तरह बुद्ध धर्म के प्रसार या जोतिबा फुले के बहुजन आन्दोलन की तरह समाज सेवा में भी नहीं लगे ना ही लोगों की प्रचलित मान्यताओं व अंधविश्वास में जकड़े दलित समाज को पेरियार की तरह अनिश्वरवाद व् वैज्ञानिक तार्किक युद्ध में फंसे, उन्होंने तो अपनी सारी उर्जा दलितों को राजनैतिक पटल पर स्थापित कर सत्ता पर काबिज करने में लगा दिया. उनकी इसी हठधर्मिता से दलित सरकारी बाबुओ को भी उम्मीद बंधने लगी और कांग्रेस के करिश्माई नेतृत्व के आभाव में तुरंत अपना स्थान सुनिश्चित कर व्यक्तिवादी राजनीति को बहुजन अस्मिता की राजनीति में तब्दील कर दिया.
सन 77 में जब दिल्ली करोलबाग में रहकर कांशीराम अपनी नेतागिरी को आगे बढ़ा रहे थे तब उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय की एक छात्रा ने बहुत ही प्रभावित किया, ला फैकल्टी की 21 वर्षीय छात्र, अनुसूचित जाति के अधिकारों व सम्मान की लड़ाई की सोच वाली एक ऐसी युवा थी जिसे कांशीराम के आन्दोलन के लिए धार मिली, ये युवा छात्रा ही मायावती थी. माया की जीवनी लिखने वाले अजॉय बोस लिखतें है की 'कांशीराम मायावती के साथ बहुत अच्छी भावनात्मक जुड़ाव रखते थे, कांशीराम का गुस्सैल स्वभाव, खरी खरी भाषा व जरूरत पड़ने पर हाथ का इस्तेमाल पर मायावती की तर्कपूर्ण खरी खरी बातें भारी पड़ती थी. समान आक्रामक स्वभाव वाले दलित चेतना के लिए समर्पित इन दोनों लोगो के काम का अंदाज़ जुदा होते हुए भी एक दुसरे का पूरक था जहां कांशीराम लोगो से घुलना मिलना, राजनैतिक गपशप में यकीन रखते थे वही मायावती अंतर्मुखी रहते हुए राजनैतिक बहसों को समय की बर्बादी मानती थीं.'मायावती का ये अंदाज़ अब भी बरकरार है वे आज भी अपना काम करती हैं राजनैतिक लब्बोलुआब में ना तो वो खुद, ना ही उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं को वे शामिल होने देती है.
1984 में बसपा के गठन के बाद से ही मायावती ने कैराना से चुनावी सफ़र शुरू किया जहां पर कांग्रेस के प्रत्याशी जीते पर माया ने भी 44,445 वोटो के साथ तीसरा स्थान प्राप्त किया. तत्पश्चात 1985 बिजनौर के उपचुनावों में तीसरे स्थान के साथ 61,504 वोट मिले फिर 1987 में हरिद्वार सीट से 1,25,399 वोटो के साथ दुसरे स्थान पर रही. 1988 के महत्वपूर्ण इलाहाबाद की लोकसभा सीट के उपचुनाव में वी पी सिंह व् कांग्रेस के अनिल शाश्त्री के एतिहासिक मुकाबले में तीसरा बड़ी दावेदारी कांशीराम के नेतृत्व में इसी बहुजन समाज पार्टी ने दी. इतने प्रयासों के बाद सन 1989 में बिजनौर से 1,83,189 वोटो के साथ वे पहली बार संसद के लिए चुन ली गयी.
अस्सी के दशक में जब वे आम अध्यापिका थी तब भी वे अपनी शख्शियत के मुताबिक़ वे पूछा करती थी "अगर हम हरिजन की औलाद है तो क्या गांधी शैतान की औलाद थे" अपनी इसी तेजतर्रारी व खरी तेजाबी जुबान से जब उन्होंने वर्णवादी व्यवस्था को मनुवादी कह कह कर हिंदी क्षेत्रो में लताड़ना शुरू किया तो वर्षो से दबे हुए दलितों ने उन्हें अपनी आवाज़ और अपने लिए युद्धरत एक सिपाही पाया. कांग्रेस में वोटबैंक की मानिंद सिमटे रहने वाले दलित अधिकारी नेता अब आज़ाद महसूस करने लगे और अस्सी के दशक का हरिजन कब राजनैतिक व्यक्तित्व को प्राप्त कर 'दलित' बन गया ये पता ही नहीं चला.
1992 में पिछड़ों ने संगठित हो आरक्षण मांग कर सरकारी नौकरियों सवर्णों के दबदबे वाले गढ़ को ढहा दिया, उसके बाद के बाद पिछड़ों में भी सत्ता में भागीदारी का स्वप्न जागा, जिसके कारण सपा ने 15% मुस्लिमों और 9 फीसदी यादवों के साथ 'माई' नाम के गठजोड़ से सत्ता प्राप्त भी कर ली, तब गैर यादव पिछड़े और दलितों ने भी कांशीराम की बसपा की और रुख किया और सन 1993 में मुलायम के साथ बसपा यूपी में सरकार बनाने में सफल रही.अपनी अधिक संख्या के कारण खुद पिछड़ें समाज में भी ज्यादा विकल्प होने लगे मुलायम, शरद, लालू , नितीश, कल्याणसिंह वाला ये वर्ग हर छोटी बड़ी पार्टी में बंट गया पर दलितों ने सीधी राह पकड़ी व् मायावती को ही अपना नेता माना. मायावती ने चार चार बार उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री बन दलितों के सत्तापरिवर्तन के सपने को हकीकत में तब्दील कर दिखाया.
1984 में 'बीएसपी की पहचान, नीला झंडा हाथी निशान' व बाबा तेरा मिशन अधूरा मायावती करेगी पूरा, के नारों के साथ बसपा ने 1993 में सपा (पिछड़े मुस्लिम) व बसपा (अति पीछड़े व दलित) की युती कर मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम लगा भाजपा के पूरे राम मंदिर आन्दोलन को धुल चटा सवर्णों के धर्म व राजनैतिक आन्दोलन की रीढ़ ही तोड़ दी. कांशीराम की तरह वे उत्तरप्रदेश से बाहर की नहीं थी वे यूपी की बेटी थी वे दलित के बेटी थी. मायावती की इसी ज़मीने पकड़ के साथ आक्रामकता के चलते 1989 में महज 2 लोकसभा की सीटो पर 9.93 फीसदी मत मिले तो वहीं 1999 आते आते ये बढ़कर 14 सीटो के 22.8 per फीसदी मत हो गए.
1993 के बाद से तो पूरा एक दशक भाजपा और कांग्रेस को नागनाथ और सांपनाथ कह कह कहकर राजनैतिक मौकापरस्ती से बसपा ताकतवर होती गयी इस मौका परस्ती को कांशी राम नैचुरल जस्टिस मानते थे. अगर 1993 में मुलायम के साथ जाना बसपा का एतिहासिक फैसला था तब 1995 में भाजपा के साथ हाथ मिला दलित के ये बेटी पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बन गयी. भाजपा (सवर्ण, पिछड़ों) के साथ बसपा ( दलित अति पिछड़ों) का यह गठजोड़ विशुद्ध मौकापरस्ती थी. कई साथी इस दौर में बसपा त्याग गए, जिनमें प्रमुख नाम बामसेफ व डीएस-4 से लेकर फिर बसपा अध्यक्ष रहे राज बहादुर व मुस्लिम नेता मंत्री वे नेलोपा के संस्थापक मसूद अहमद हो, ये लोग भाजपा के अगड़ों व बसपा के दलित पिछडो के गठजोड़ के खिलाफ रहे. हालांकी राजनीति के गिरते स्तर के कारण ये मानना मुश्किल है की मात्र 1995 में भारतीय जनता पार्टी से समझौते के कारण, बीएसपी के मूल सिद्धांतों से भटकने की वजह से बसपा छोड़ दी.बसपा की पहली बार मुख्यमंत्री बंटी ही मायावती ने अम्बेडकर ग्राम की योजना को लाकर अनुसूचित जाति बहुल गांव में सरकारी निवेश को बढ़ा दिया, थानों में दलित अधिकारियों की नियुक्ती कर दलित उत्पीडन पर रोक लगा दी व दलित महापुरुषों के नाम पर नए जिले घोषित कर दलितों को मोह लिया.
भाजपा के गठजोड़ से बसपा तो बढ़ती चली गयी पर भाजपा का लगातार ह्वास हुआ 1995 से लेकर 2003 तक माया को भाजपा ने कुल तीन बार मुख्यमंत्री बनवाया बदले में 1999 में माया ने वाजपेयी सरकार गिराकर भाजपा की कमर तोड़ डी, साथ ही 52 लोकसभा सीटो में 33 फीसदी मत पाने वाली भाजपा 2009 में महज 10 सीट पर 22 फीसदी मतों के साथ सिकुड़ गयी साथ ही यूपी पर राज करने वाली भाजपा,1996 में जीती 176 सीटों से घट कर 2007 में महज 51 सीटो पर सिकुड़ गयी.अपने अनुभव से मायावती ये जान गयी की पिछड़ें-दलितों के साथी तो हैं पर उनकी संख्या बल उनमें राजनैतिक भागीदारिता की चाह रखता है, ये पिछड़ों की उत्कंठा दलितों की बसपा को समाप्त कर देगी, इसी बात को लेकर वे यादवों के बाद सबसे सशक्त पिछड़ी जाति कुर्मी से सावधान रहती हैं. इस जाति के बड़े नेता सोनेलाल पटेल(अपना दल),जंग बहादुर पटेल (बसद), राज बहादुर (बसपा-र) बाहर कर दिए गए, कांशीराम तो एक बार कह भी चुके थे के दलित की बेटी के बाद बसपा जल्दी ही कुर्मी मुख्यमंत्री बनायेगी.बसपा कभी भी दलितों की ही पार्टी नहीं रही, सी एस डी अस की माने तो सन 1996 में बसपा को 27% कुर्मी 24.7% कोईरी वोट मिले तो वही 1999 में मात्र 13% पिछड़ों के वोट कुर्मियों के कद्दावरों के बसपा को छोड़ जाने पर मिले भाजपा की सवर्ण जातियों के साथ आने से वे सवर्णों की सामाजिक राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्र में उपयोगिता समझ चुकी थीं, साथ ही वे ये भी जान गयी थीं की ये सवर्ण मौका पड़ने पर बसपा का साथ भी दे देंगे. मुलायम की पार्टी के कुछ लोगों द्वारा गेस्ट हॉउस में मायावती के साथ किये गए जानलेवा हमले में सवर्ण नेताओं खासकर ब्रह्मदत्त द्विवेदी द्वारा बचाई गयी मायावती ने भाजपा के सवर्ण की जगह सन 2005 में बसपा ने अपनी पार्टी में ही सवर्ण नेतृत्व उभारना शुरू किया. जिसको वकील से यूपी के महाधिवक्ता बनाये गए सतीश चन्द्र मिश्र ने मूर्त रूप दे डाला. मायावती ने सवर्ण और ब्राह्मण नेताओं को ज्यादा महत्त्व देना कांशीराम द्वारा बनाया गया 15 बनाम 85 फीसदी का बहुजन सामाजिक समीकरण को 25 दलित, 9% ब्राह्मण+20% अतिपिछड़ों का समीकरण कर दिया जिससे पिछड़ी जातियों और मुस्लिम समुदाय की भागीदारी कमतर होती गयी. कांग्रेस के जाते ही जो ब्राह्मण नेतृत्व विहीन हो गए थे वे सतीशचंद्र के नेतृत्व में 2007 में बड़ी संख्या में बसपा से जुड़े यहां तक की 42 ब्राह्मण जीतकर बसपा की पहली बार बने पूर्ण बहुमत सरकार का हिस्सा बने.
2007 के चुनावों के बाद नए गेटअप में नज़र आने वाली मायावती ने उत्तर प्रदेश को खुशाल प्रदेश का वादा किया, पर सबसे पहले फैसला उन्होंने लखनऊ के आंबेडकर स्मारक के रख रखाव में कोताही करने के कारण कुछ अधिकारियों को निलंबित करके लिया. मायावती ने उसके बाद कुछ दिनों तक अपनी कड़क प्रशासक की छवि के अनुरूप ही काम किया गुंडों के लगातार धरपकड़ की गयी, कुछ समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं पर भी पुलिस कार्यवाही की गयी, मुलायम राज के पुलिस भर्तियां रद्द कर उनकी जगह दुबारा भर्तियां शुरू कर सर्वसमाज (दलित व ब्राह्मण) को खुश करने का प्रयास किया. अपने मंत्रियों को भ्रष्टाचार से सचेत रहने को कहकर पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को बिना किसी दबाव के माफियाराज के खात्मे का हुक्म दे दिया. सर्वजन की विचारधारा के चलते, आम तौर पर अपनी बेलौस टिप्पणियां के लिए मशहुर मायावती ने नौकरशाहों से भली भांती समीक्षा किया हुआ भाषण पढ़ा, यहां तक की विपक्ष के हमलों का जवाब भी भाषा पर पकड़ वाले मझे हुए वकील सतीश मिश्र व सरकार के कैबिनेट सचिव शशांक शेखर ने ही दिया.
मायावती के पीछे साए की तरह खड़े रहने वाले नामों में कांशीराम के सेक्रेट्री अम्बेथ राजन व पार्टी के बिहार प्रभारी गांधी आज़ाद जैसे प्रतीबंध दलित कार्यकर्ता हैं. अम्बेथ राजन का संगठन कांशीराम व अन्य दलितों को दिल्ली में मूलभूत सुविधाएं देता था आज वे उसी प्रकार की सेवाएं बसपा के खजांची बन कर दे रहे हैं. मायावाती ने उन्हें तमिलनाडु में बसपा के प्रचार प्रसार की जिम्मेवारी दी है. आजमगढ़ के ग्रामीण आंचल से आने वाले गांधी आज़ाद तो एक बार तो मायावाती की जगह भी लेने वाले थे. सिद्ध्रत जो मायावती के भाई हैं उनकी निजी ज़िंदगी में मदद करते हैं. पुराने सहयोगी स्वामी प्रसाद मौर्य व इन्द्रजीत सरोज क्रमश यूपी व अन्य उत्तर के राज्यों का संगठन संभाले हुए है तो वही माया के दिल्ली के दिनों के साथी दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक सुधीर गोयल भी ख़ास म ख़ास बने हुए हैं. कभी उनके करीबी रहे पी एल पुनिया जी ताज कोरीडोर काण्ड में सी बी आई की तपन ना झेल पाए, और अपने बयान में कह दिया की इस मामले में सी एम को अवगत कराए थे तब लगा के मायावती का राजनैतिक जीवन ख़त्म हुआ पर किसी तरह वे बच गयी उसके बाद से मायावती सरकारी अधिकारियों से एक अच्छी दूरी बनाती है. उसका ही परिणाम है की जहा इस कार्यकाल में एनएचआरएम घोटाले में लुकी-छुपी जुबान में उनके कार्यालय के सचिव नवनीत सहगल का तो नाम आ रहा है पर उन्हें कोई दोष नहीं दे सकता.
सर्वजन हिताय व ब्राह्मण भाईचारे पर काम कर रही बसपा सुप्रीमो को 2009 के लोकसभा चुनावो में चोट लगी. बसपा 2004 लोकसभा चुनावों में जीती 19 सीटों में से 13 पर हार गई. मायावती के द्वारा चार बार जीती गयी अकबरपुर की प्रतिष्ठित सीट तो पूर्व बसपा नेता राजाराम पाल से हार गयी वहा पार्टी का उसका वोट प्रतिशत भी 2004 की तुलना में 18.84% घट गया. उसी तरह बाराबंकी 15%,उन्नाव में 13%,फैजाबाद में 12%, मुस्लिम बहुल मेरठ और डुमरियागंज में 11%, सुल्तानपुर, फतेहपुर, आजमगढ़ में 8%, मछलीशहर में साढे सात प्रतिशत वोट घट गया. वहीं कुशवाहा के रेत खनन के लायसेंस व अनुसूचित जाति में शामिल किये जाने से नाराज़ मल्लाह बहुल मिर्जापुर चंदौली और राबर्ट्सगंज में बसपा सपा से मामूली अंतर से हार गयी. लोकसभा में यूपी की 80 सीटों में से 21 पर वो जीतीं तथा 51 अन्य पर दुसरे स्थान पर रहीं, मनमाफिक नतीजे नहीं आने से मायावती काफी आहत दिखीं. मायावती का पूरा ध्यान दलितों के हित साधने में रहा। उनके द्वारा बैकलाग की भर्तियों पर बार-बार पूछताछ जारी रही.दलित कोटे का पूरा करना और महत्वपूर्ण पदों पर उन्हीं के लोगों की तैनाती इस बात को दर्शाती रही कि वे केवल उनके लिए ही शासन कर रही हैं.
दलितों का बसपा के प्रति गुस्सा और दलित नेताओ को बाहर का रास्ता दिखाना मायाराज में आम बात हो गयी है. कई कई साल बसपा को देने वाले सलेमपुर के पूर्व सांसद बब्बन राजभर हो, बलिया से ही कांशीराम के साथी पूर्व सांसद बलिहारी बाबू हो, इलाहबाद से इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष कालीचरण सोनकर हो, आजमगढ़ के सगड़ी के नेता मल्लिक मसूद हो, देवरिया जिले से वरिष्ठ नेता व 1993 में मंत्री शाकिर अली हो, कानपुर शहर से मंत्री डा. रघुनाथ संखवार हो, आर्य नगर के पूर्व बसपा विधायक महेश बाल्मीकि हो ,उन्नाव के मोहान से पूर्व विधायक राम खेलावन पासी हो,अमरोहा से रशीद अल्वी हो, अकबरपुर से राजाराम पाल हो, राम लखन वर्मा, भगवत पाल,रामाधीन, मेवा लाल बागी हो, मोहनलाल गंज से कांशीराम की बसपा के नंबर दो नेता रहे व अब राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी (रास्वपा) के संस्थापक पासियो के एकछत्र नेता रामकेवल उर्फ आरके चौधरी हो सबको बाहर कर दिया गया है.राजाराम पाल,राम खेलावन पासी, डा. रघुनाथ संखवार, राजबहादुर, महेश बाल्मीकि,बलिहारी बाबू,रामाधीन, मेवा लाल बागी, बब्बन राजभार आज कांग्रेस के शोभा बढ़ा रहे है.25 साल के बाद मायावती की अकबरपुर सीट को राजाराम पाल ने कांग्रेस को दिलवाकर मया की नींद हराम कर दी है.गांधी आजाद, महाराष्ट्र प्रभारी वीर सिंह ,बंगाल प्रभारी महेश आर्यन जैसे गिने चुने पुराने नाम शेष है.
वर्ष 2007 में डंके की चोट पर चौथी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाली मायावती का आगाज जितना अच्छा था, अंजाम उतना ही खराब हो गया, कभी ‘पत्थरों से प्रेम‘ तो कभी दौलत की बेटी‘ जैसी उपमाओं से नवाजी जाने वाली मुख्यमंत्री मायावती का पिछला पूरा साल भ्रष्टाचार, बिगड़ती कानून व्यवस्था और किसान आन्दोलन पर लगे आरोपों का जबाव देते हुए गुजर गया. लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर माया हावी होने लगी, शहरों में गैर बसपा पार्टियों के पकड़ के मद्देनज़र निकाय चुनाव एक्ट संशोधन कर पार्टी सिम्बल पर चुनाव लड़ाने पर रोक लगा दी जिसे इलाहबाद हाईकोर्ट ने निरस्त कर दिया. राज्य के छात्रसंघों पर सपा की पकड़ देखते हुए विश्विद्यालयो में चुनाव बैन कर दिए. टीम अन्ना, राहुल समेत राष्ट्रीय नेताओ ने किसानो के मुद्दे व नरेगा पर भ्रष्टाचार की बात की तो धारा 144 लगवा दी. लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के वरूण गांधी के उतेजित भाषण के बाद उन पर रासुका लगाने का फैसला मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने के लिए लिया तो यूपी कांग्रेसाध्यक्षा रीता बहुगुणा ने मायावती की बलात्कार पर मुआवजे पर उंगली उठाई तो उनके ऊपर मुकदमों की झड़ी लगा दी गई.
बरेली और मेरठ सहित कुछ अन्य जगह हुए साम्प्रदायिक दंगों की आग ने भी सरकार की छवि को ठेस पहुंचाई तो वही गोरखपुर मंडल में जापानी एन्सेफ्लाईटिस में हज़ारों बच्चों की मौतों को सरकार रोकने में पूरी तरह विफल रही. माया ने जहां बसपा के दलित पुरोधाओं की पत्थर की कीमती मूर्तियों में जनता के करीब 2500 करोड़ खर्च कर दिए, वहीं चुनाव के मुहाने पर आबकारी नीति से माल बनाने वाले व्यवसायी ने भी माया सरकार की मिटटी पलीद कर दी.
जुर्म और बाहुबलियों के खिलाफ 2007 में मिले जनसमर्थन पर शुरुवाती दिनों में अच्छा काम करने के बाद मायावती ने बाहुबलियों-अपराधियों को धीरे धीरे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने लगी. बाहुबली आनंद सेन, शेखर तिवारी, गुडडू पंडित,अरूण कुमार शुक्ला उर्फ अन्ना, अफजाल अंसारी और मुख्तार अंसारी से साठगांठ इसी बात को बताती है. सन 2010 में आंबेडकर जयन्ती समारोह के दौरान गोंडा जिला पंचायत सदस्य हनुमान शरण शुक्ल को भरे मंच पर ठीक कलेक्ट्रेट के मुख्यद्वार के सामने गोली मारकर गुंडों ने हत्या कर दी, वहीं इलाहबाद में मंत्री नंद गोपाल नंदी पर जानलेवा हमले ने प्रदेश की कानून व्यवस्था हश्र उजागर कर दिया, रही सही कसर मंत्रियो की अपराध संलिप्तता ने पुरी कर दी. एटा के सुनारों की दूकान लूट,तिहरे हत्याकांड में राज्यमंत्री अवधपाल सिंह यादव और उनके एमएलसी भाई हत्यारोपी बने,बाबू सिंह कुशवाहा और अनंत कुमार मिश्र दो सीएमओ की हत्याओं में फंसे, कैबिनेट मंत्री वेदराम भाटी पर गाजियाबाद में तिहरे हत्याकांड में फंसे, गईबांदा के बसपा विधायक पुरूषोतम पर भी एक लड़की को बंधक बनाकर उसके साथ रेप करने का मामले फंसे,बाहुबली आनंदसेन, दलित बसपा कार्यकर्ता की पुत्री के रेप व उसकी हत्या की साजिश में फंसे, माया के जन्मदिन पर धन उगाही के चाक्कर में बसपा विधायक शेखर तिवारी का इंजीनियर मनोज हत्याकांड में फंसे, संलिप्तता जाहिर हुई,रीता बहुगुणा का घर फूंक कर विधायक जीतेन्द्र सिंह फंसे. साथ ही राज्यमंत्री जयवीर सिंह पर एक अभियंता की पत्नी ने अपने पति की हत्या का आरोप लगाया, स्वास्थ्य मंत्री रहे अनंत कुमार मिश्र पर एक शिक्षिका ने अपने पति को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित करने का आरोप लगाया,राज्यमंत्री रहे हरिओम उपाध्याय पर अगवा हुए एक इंजीनियर ने रिहा होने के बाद उन पर आरोप लगाया, जिससे सरकार में जुर्म पर लगाम के दावे कमजोर हुए.
जुर्म और अपराधियों को संरक्षण ना देने की छवि को प्रस्तुत करने के लिए मायावती ने 2012 चुनावों के मद्देनज़र ऑपरेशन क्लीन के तहत 206 विधायको में से 110 विधायकों का पत्ता काट दिया. बसपा से वह बाहुबली ही बाहर किए गए जो थोड़ा निर्बल थे,जिनको पार्टी से कोई खास फायदा ना होके बदनामी मिल रही थी. आपराधिक मामलों वाले रायबरेली सदर के बसपा प्रत्याशी पुष्पेन्द्र सिंह, बहराइच की कैसरगंज से खालिद खान को पार्टी ने टिकट देकर इस बात को पुष्ट भी किया. अमेठी में स्टेडीयम निर्माण में हुई अनियमितता पर लोकायुक्त की शिकयात के बावजूद फतेहपुर के अयाहशाह से अयोध्या पाल, धर्माथ एवं होम्योपैथिक चिकित्सा राज्यमंत्री राजेश त्रिपाठी को गोरखपुर से,मंत्री ठाकुर जयवीर सिंह अलीगढ़ की बरौली से, बाहुबली इन्द्र प्रताप सिंह को गोसाईगंज से उतारकर व एनआरएचएम घोटाले में लिप्त स्वास्थ्य मंत्री अनंत कुमार मिश्र की जगह उनकी पत्नी शिखा मिश्र को महाराजपुर से,टिकट देकर बसपा की क्लीनिंग की गवाही खुद ही कर दी कर दी.
नौकरशाही पर इस बार ज्यादा विश्वास करने के कारन माया की जनता से दूरियां बढ़ गयी, सांसद और विधायक तक मुख्यमंत्री से नहीं मिल पाते थे. पहले कद्दावर नेताओ की वजह से नौकरशाही सहमी रहती थी जिससे सांसदों और विधायकों का रसूख कायम रहता था. पर इस बार मुख्यमंत्री की ओर से कैबनेट सचिव शशांक शेखर ही आदेश देने लगे, फिर चाहे वो सचिवालय के वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक हो या कानून व्यवस्था की समीक्षा या मंत्रियों को आदेश देना, कैबिनेट सचिव के द्वारा ही उन्हें मुख्यमंत्री के निर्देशों अथवा मंशा से अवगत कराया जाने का सिलसिला शुरू हुआ. आलम तो यह हुआ की मंत्रीयों समेत विधयक सब माया से मिलने के लिए उनसे ही समय लेने लेगे जिसकी वजह से लोग लिए शशांक शेखर को कैबिनेट सचिव के बजाय कार्यवाहक मुख्यमंत्री तक कहने लगे.पूर्ण बहुमत होने के कारण सरकार पूरी तरह से निरंकुश और नौकरशाही बेलगाम हुई तो परिणाम भ्रष्टाचार के रूप में बाहर आने लगे.ताज कोरिडोर घोटाले में फंसने के बाद सीख लेते हुए मुख्यमंत्री मायावती ने भविष्य में किसी भी तरह की जांच से बचने के लिए फ़ाइलों पर हस्ताक्षर न करने के इरादे को नौकरशाहों ने खूब भुनाया.
2009-10 में मनरेगा के तहत दिए 750 करोड़ रूपये, 2008-09 में 5500 करोड़ रूपये 2007-08 में 4800 करोड़ रूपये में आडिट गड़बड़ी सामने आयी, 2009-10 में 1600 करोड़ रूपये खर्च करके महीने भर में बुन्देलखंड में 10 करोड़ पेड़ लग गए, 5000 करोड़ का एनएचआरएम घोटाला हुआ. बात घोटालों तक ही सीमित नहीं हुई, अफसरशाही में भी मायावती सरकार ने अपने चहेतों को रेवड़ियों की तरह पद बांटे हैं, विभिन्न आयोगों में अपने खास सिपहसलारों को अध्यक्ष बनाकर अप्रत्यक्ष रूप से उस पर अपना कब्जा कर लिया है हद तो जब हुई जब उन्होंने अपनी पसंदीदा ब्यूटी पार्लर की पूनम सागर को महिला आयोग का अध्यक्ष बनवा दिया. बसपा का स्थायी वोट बैंक कहलाने वाला दलित,जिसने लम्बे समय से एकजुट होकर बसपा को एक बड़ी ताकत के रूप में खड़ा किया उसका भी मोह माया से भंग होता दिख रहा है। इसकी मुख्य वजह है कि उसकी कहीं पर भी सुनवाई नहीं हो रही है। उस पर अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं लेकिन सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही है। महज अधिकारियों के तबादले कर व समय-समय पर अधिकारियों की जिम्मेदारी तय करके मुख्यमंत्री अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती हैं।खैर, इतना तो तय है कि मायावती के शासनकाल में विपक्ष और प्रदेश की जनता को लाखों खामियां दिख रहीं हो लेकिन बसपा के वोटर के लिए तो यही खुशी की बात है कि ‘बहनजी’ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं। उनके समाज के महापुरूषों को पहचान दिलाने का काम भी बसपा सुप्रीमों ने बखूबी किया। यही वजह है , उनका वोटर बहनजी को पांचवी बार भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन होता देखना चाहता है।
बहुजन समाज पार्टी के पिछले 28 वर्षो के सफ़र पर नज़र डाले तो ये जानने में ज्यादा समय नहीं लगेगा की बसपा के संस्थापक कांशीराम की तरह ही मायावाती पार्टी की उन्नती की प्रमुख वजह रही है. इस बसपा रूपी वट वृक्ष की मुख्य शाखा अनुसूचित जातियां हैं जिन्हें बसपा समर्थित बुद्धजीवी दलित नाम से बुलाते हैं. ये दलित कोई दले हुए लोग नहीं जैसी के आम मान्यता है बल्कि ये वर्ग तो पूना अवार्ड के समय से ही भारत की विभिन्न अनुसूचित जातियों की सामाजिक क्रान्ति के फलस्वरूप उभरी अनुसूचित जाति का मध्यवर्ग है. जिस प्रकार हिन्दू धर्मं का राजनीतीकरण 'हिंदुत्व' है उसी तरह अनुसूचित जातियों का राजनैतिक मंथन दलित नाम से एकीकृत हुआ है.
आंबेडकर का मानना था की आरक्षण की सुविधा प्राप्त करते ही दलित अधिकारी अपने लोगों को छोड़ जाते हैं पर उनकी यह बात ज्यादा दिन तक कायम नहीं रही. सामाजिक-आर्थिक रूप से मजबूत हुए अनुसूचित जाति का मध्यवर्ग, जो की ज्यादातर सरकारी अधिकारी वाला शासक समूह था, आंबेडकर की मृत्यु के कुछ दशकों के बाद ही अगड़ी जातियों के सत्ता के एकाधिकार से कुपित होकर संगठित रूप से राजनैतिक भागीदारिता के अवसर ढूंढ़ने लगा. महाराष्ट्र की अपेक्षा उत्तर प्रदेश के प्रशासन में ब्राह्मण कायस्थ के बाद, अनुसूचित जाति के आई ए एस अधिकारियों की संख्या अच्छी खासी थी. अगड़ी जातियों के ब्राह्मण कायस्थों के रहते इन लोगों को वो स्थान नहीं मिला पाता था जो उन्हें मिल सकता बस इसी गुस्से को केन्द्रित कर आंबेडकर के लगभग निर्जीव हो चुके संघर्ष को कांशीराम ने बामसेफ नाम से मूर्त रूप दे दिया.बामसेफ ने इन्हीं दलित अधिकारी वर्ग को संगठित होने के लिए प्रेरित कर सवर्ण समाज से नौकरियों में छोटे फायदे की अपेक्षा स्वयं सत्ता पाकर बड़े फायदे के सपने दिखाए. बुरी तरह खीजी हुई यूपी की दलित ब्युरोक्रेसी ने इस खवाब को हकीकत में तब्दील करने का बीड़ा उठा लिया,तो कांशीराम ने भी बामसेफ को कर्मचारी यूनियन से आगे बढकर दलितों की बौद्धिक, धन व योग्यता को निखारने वाली संगठन बना डाला.
अधिकारियों के इस संगठन के पास अपना फंड, साहित्य पदाधिकारी तो थे पर नौकरी छोड़कर नेता बनाने वाले लोग नहीं थे जिसको पूरा करने के लिए कांशीराम ने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4) का गठन किया जोकि शुद्ध रूप से दलित राजनैतिक संगठन था. इन सब के बावाजूद भी 25% दलितों के पास लोकशाही में सफलता के लिए वो संख्याबल नहीं था, जिससे वे सत्ता में आ पाते, पर अगर दलितों के साथ करीबन 50% पिछड़ों जो की ज्यादातर कृषक या सेवा करने वाले समाज को मिला दिया जाए तो राज करने की जरूरी संख्याबल तैयार हो जाता है. कांशीराम ने इसी 25 जमा 50 के कम्बिनेशन को बहुजन (85% फीसदी ) नाम देकर दलितवाद को पसारते हुए उसे बहुजन शब्द में ढाल दिया. ये बहुजन अब डीएस-4 को वो संख्याबल दे सकते थे जो चुनावी राजनीती में अत्यंत आवश्यक होती है. 1984 में इसे योजना के तहत कांशीराम ने डीएस-4 को विलय कर बहुजन समाज पार्टी का गठन कर दिया.
बहुसंख्यक राजनैतिक शक्ति का नवसृजन करने के अपने शुरुआती दौर में जैसा हर संगठन में होता है वही यहाँ भी हुआ कुछ अधिकारी व नेता छोटे लालच में फंसकर 1986 में बामसेफ से अलग हो गए, पर कांशीराम लगे रहे. आंबेडकर की तरह बुद्ध धर्म के प्रसार या जोतिबा फुले के बहुजन आन्दोलन की तरह समाज सेवा में भी नहीं लगे ना ही लोगों की प्रचलित मान्यताओं व अंधविश्वास में जकड़े दलित समाज को पेरियार की तरह अनिश्वरवाद व् वैज्ञानिक तार्किक युद्ध में फंसे, उन्होंने तो अपनी सारी उर्जा दलितों को राजनैतिक पटल पर स्थापित कर सत्ता पर काबिज करने में लगा दिया. उनकी इसी हठधर्मिता से दलित सरकारी बाबुओ को भी उम्मीद बंधने लगी और कांग्रेस के करिश्माई नेतृत्व के आभाव में तुरंत अपना स्थान सुनिश्चित कर व्यक्तिवादी राजनीति को बहुजन अस्मिता की राजनीति में तब्दील कर दिया.
सन 77 में जब दिल्ली करोलबाग में रहकर कांशीराम अपनी नेतागिरी को आगे बढ़ा रहे थे तब उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय की एक छात्रा ने बहुत ही प्रभावित किया, ला फैकल्टी की 21 वर्षीय छात्र, अनुसूचित जाति के अधिकारों व सम्मान की लड़ाई की सोच वाली एक ऐसी युवा थी जिसे कांशीराम के आन्दोलन के लिए धार मिली, ये युवा छात्रा ही मायावती थी. माया की जीवनी लिखने वाले अजॉय बोस लिखतें है की 'कांशीराम मायावती के साथ बहुत अच्छी भावनात्मक जुड़ाव रखते थे, कांशीराम का गुस्सैल स्वभाव, खरी खरी भाषा व जरूरत पड़ने पर हाथ का इस्तेमाल पर मायावती की तर्कपूर्ण खरी खरी बातें भारी पड़ती थी. समान आक्रामक स्वभाव वाले दलित चेतना के लिए समर्पित इन दोनों लोगो के काम का अंदाज़ जुदा होते हुए भी एक दुसरे का पूरक था जहां कांशीराम लोगो से घुलना मिलना, राजनैतिक गपशप में यकीन रखते थे वही मायावती अंतर्मुखी रहते हुए राजनैतिक बहसों को समय की बर्बादी मानती थीं.'मायावती का ये अंदाज़ अब भी बरकरार है वे आज भी अपना काम करती हैं राजनैतिक लब्बोलुआब में ना तो वो खुद, ना ही उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं को वे शामिल होने देती है.
1984 में बसपा के गठन के बाद से ही मायावती ने कैराना से चुनावी सफ़र शुरू किया जहां पर कांग्रेस के प्रत्याशी जीते पर माया ने भी 44,445 वोटो के साथ तीसरा स्थान प्राप्त किया. तत्पश्चात 1985 बिजनौर के उपचुनावों में तीसरे स्थान के साथ 61,504 वोट मिले फिर 1987 में हरिद्वार सीट से 1,25,399 वोटो के साथ दुसरे स्थान पर रही. 1988 के महत्वपूर्ण इलाहाबाद की लोकसभा सीट के उपचुनाव में वी पी सिंह व् कांग्रेस के अनिल शाश्त्री के एतिहासिक मुकाबले में तीसरा बड़ी दावेदारी कांशीराम के नेतृत्व में इसी बहुजन समाज पार्टी ने दी. इतने प्रयासों के बाद सन 1989 में बिजनौर से 1,83,189 वोटो के साथ वे पहली बार संसद के लिए चुन ली गयी.
अस्सी के दशक में जब वे आम अध्यापिका थी तब भी वे अपनी शख्शियत के मुताबिक़ वे पूछा करती थी "अगर हम हरिजन की औलाद है तो क्या गांधी शैतान की औलाद थे" अपनी इसी तेजतर्रारी व खरी तेजाबी जुबान से जब उन्होंने वर्णवादी व्यवस्था को मनुवादी कह कह कर हिंदी क्षेत्रो में लताड़ना शुरू किया तो वर्षो से दबे हुए दलितों ने उन्हें अपनी आवाज़ और अपने लिए युद्धरत एक सिपाही पाया. कांग्रेस में वोटबैंक की मानिंद सिमटे रहने वाले दलित अधिकारी नेता अब आज़ाद महसूस करने लगे और अस्सी के दशक का हरिजन कब राजनैतिक व्यक्तित्व को प्राप्त कर 'दलित' बन गया ये पता ही नहीं चला.
1992 में पिछड़ों ने संगठित हो आरक्षण मांग कर सरकारी नौकरियों सवर्णों के दबदबे वाले गढ़ को ढहा दिया, उसके बाद के बाद पिछड़ों में भी सत्ता में भागीदारी का स्वप्न जागा, जिसके कारण सपा ने 15% मुस्लिमों और 9 फीसदी यादवों के साथ 'माई' नाम के गठजोड़ से सत्ता प्राप्त भी कर ली, तब गैर यादव पिछड़े और दलितों ने भी कांशीराम की बसपा की और रुख किया और सन 1993 में मुलायम के साथ बसपा यूपी में सरकार बनाने में सफल रही.अपनी अधिक संख्या के कारण खुद पिछड़ें समाज में भी ज्यादा विकल्प होने लगे मुलायम, शरद, लालू , नितीश, कल्याणसिंह वाला ये वर्ग हर छोटी बड़ी पार्टी में बंट गया पर दलितों ने सीधी राह पकड़ी व् मायावती को ही अपना नेता माना. मायावती ने चार चार बार उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री बन दलितों के सत्तापरिवर्तन के सपने को हकीकत में तब्दील कर दिखाया.
1984 में 'बीएसपी की पहचान, नीला झंडा हाथी निशान' व बाबा तेरा मिशन अधूरा मायावती करेगी पूरा, के नारों के साथ बसपा ने 1993 में सपा (पिछड़े मुस्लिम) व बसपा (अति पीछड़े व दलित) की युती कर मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम लगा भाजपा के पूरे राम मंदिर आन्दोलन को धुल चटा सवर्णों के धर्म व राजनैतिक आन्दोलन की रीढ़ ही तोड़ दी. कांशीराम की तरह वे उत्तरप्रदेश से बाहर की नहीं थी वे यूपी की बेटी थी वे दलित के बेटी थी. मायावती की इसी ज़मीने पकड़ के साथ आक्रामकता के चलते 1989 में महज 2 लोकसभा की सीटो पर 9.93 फीसदी मत मिले तो वहीं 1999 आते आते ये बढ़कर 14 सीटो के 22.8 per फीसदी मत हो गए.
1993 के बाद से तो पूरा एक दशक भाजपा और कांग्रेस को नागनाथ और सांपनाथ कह कह कहकर राजनैतिक मौकापरस्ती से बसपा ताकतवर होती गयी इस मौका परस्ती को कांशी राम नैचुरल जस्टिस मानते थे. अगर 1993 में मुलायम के साथ जाना बसपा का एतिहासिक फैसला था तब 1995 में भाजपा के साथ हाथ मिला दलित के ये बेटी पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बन गयी. भाजपा (सवर्ण, पिछड़ों) के साथ बसपा ( दलित अति पिछड़ों) का यह गठजोड़ विशुद्ध मौकापरस्ती थी. कई साथी इस दौर में बसपा त्याग गए, जिनमें प्रमुख नाम बामसेफ व डीएस-4 से लेकर फिर बसपा अध्यक्ष रहे राज बहादुर व मुस्लिम नेता मंत्री वे नेलोपा के संस्थापक मसूद अहमद हो, ये लोग भाजपा के अगड़ों व बसपा के दलित पिछडो के गठजोड़ के खिलाफ रहे. हालांकी राजनीति के गिरते स्तर के कारण ये मानना मुश्किल है की मात्र 1995 में भारतीय जनता पार्टी से समझौते के कारण, बीएसपी के मूल सिद्धांतों से भटकने की वजह से बसपा छोड़ दी.बसपा की पहली बार मुख्यमंत्री बंटी ही मायावती ने अम्बेडकर ग्राम की योजना को लाकर अनुसूचित जाति बहुल गांव में सरकारी निवेश को बढ़ा दिया, थानों में दलित अधिकारियों की नियुक्ती कर दलित उत्पीडन पर रोक लगा दी व दलित महापुरुषों के नाम पर नए जिले घोषित कर दलितों को मोह लिया.
भाजपा के गठजोड़ से बसपा तो बढ़ती चली गयी पर भाजपा का लगातार ह्वास हुआ 1995 से लेकर 2003 तक माया को भाजपा ने कुल तीन बार मुख्यमंत्री बनवाया बदले में 1999 में माया ने वाजपेयी सरकार गिराकर भाजपा की कमर तोड़ डी, साथ ही 52 लोकसभा सीटो में 33 फीसदी मत पाने वाली भाजपा 2009 में महज 10 सीट पर 22 फीसदी मतों के साथ सिकुड़ गयी साथ ही यूपी पर राज करने वाली भाजपा,1996 में जीती 176 सीटों से घट कर 2007 में महज 51 सीटो पर सिकुड़ गयी.अपने अनुभव से मायावती ये जान गयी की पिछड़ें-दलितों के साथी तो हैं पर उनकी संख्या बल उनमें राजनैतिक भागीदारिता की चाह रखता है, ये पिछड़ों की उत्कंठा दलितों की बसपा को समाप्त कर देगी, इसी बात को लेकर वे यादवों के बाद सबसे सशक्त पिछड़ी जाति कुर्मी से सावधान रहती हैं. इस जाति के बड़े नेता सोनेलाल पटेल(अपना दल),जंग बहादुर पटेल (बसद), राज बहादुर (बसपा-र) बाहर कर दिए गए, कांशीराम तो एक बार कह भी चुके थे के दलित की बेटी के बाद बसपा जल्दी ही कुर्मी मुख्यमंत्री बनायेगी.बसपा कभी भी दलितों की ही पार्टी नहीं रही, सी एस डी अस की माने तो सन 1996 में बसपा को 27% कुर्मी 24.7% कोईरी वोट मिले तो वही 1999 में मात्र 13% पिछड़ों के वोट कुर्मियों के कद्दावरों के बसपा को छोड़ जाने पर मिले भाजपा की सवर्ण जातियों के साथ आने से वे सवर्णों की सामाजिक राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्र में उपयोगिता समझ चुकी थीं, साथ ही वे ये भी जान गयी थीं की ये सवर्ण मौका पड़ने पर बसपा का साथ भी दे देंगे. मुलायम की पार्टी के कुछ लोगों द्वारा गेस्ट हॉउस में मायावती के साथ किये गए जानलेवा हमले में सवर्ण नेताओं खासकर ब्रह्मदत्त द्विवेदी द्वारा बचाई गयी मायावती ने भाजपा के सवर्ण की जगह सन 2005 में बसपा ने अपनी पार्टी में ही सवर्ण नेतृत्व उभारना शुरू किया. जिसको वकील से यूपी के महाधिवक्ता बनाये गए सतीश चन्द्र मिश्र ने मूर्त रूप दे डाला. मायावती ने सवर्ण और ब्राह्मण नेताओं को ज्यादा महत्त्व देना कांशीराम द्वारा बनाया गया 15 बनाम 85 फीसदी का बहुजन सामाजिक समीकरण को 25 दलित, 9% ब्राह्मण+20% अतिपिछड़ों का समीकरण कर दिया जिससे पिछड़ी जातियों और मुस्लिम समुदाय की भागीदारी कमतर होती गयी. कांग्रेस के जाते ही जो ब्राह्मण नेतृत्व विहीन हो गए थे वे सतीशचंद्र के नेतृत्व में 2007 में बड़ी संख्या में बसपा से जुड़े यहां तक की 42 ब्राह्मण जीतकर बसपा की पहली बार बने पूर्ण बहुमत सरकार का हिस्सा बने.
2007 के चुनावों के बाद नए गेटअप में नज़र आने वाली मायावती ने उत्तर प्रदेश को खुशाल प्रदेश का वादा किया, पर सबसे पहले फैसला उन्होंने लखनऊ के आंबेडकर स्मारक के रख रखाव में कोताही करने के कारण कुछ अधिकारियों को निलंबित करके लिया. मायावती ने उसके बाद कुछ दिनों तक अपनी कड़क प्रशासक की छवि के अनुरूप ही काम किया गुंडों के लगातार धरपकड़ की गयी, कुछ समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं पर भी पुलिस कार्यवाही की गयी, मुलायम राज के पुलिस भर्तियां रद्द कर उनकी जगह दुबारा भर्तियां शुरू कर सर्वसमाज (दलित व ब्राह्मण) को खुश करने का प्रयास किया. अपने मंत्रियों को भ्रष्टाचार से सचेत रहने को कहकर पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को बिना किसी दबाव के माफियाराज के खात्मे का हुक्म दे दिया. सर्वजन की विचारधारा के चलते, आम तौर पर अपनी बेलौस टिप्पणियां के लिए मशहुर मायावती ने नौकरशाहों से भली भांती समीक्षा किया हुआ भाषण पढ़ा, यहां तक की विपक्ष के हमलों का जवाब भी भाषा पर पकड़ वाले मझे हुए वकील सतीश मिश्र व सरकार के कैबिनेट सचिव शशांक शेखर ने ही दिया.
मायावती के पीछे साए की तरह खड़े रहने वाले नामों में कांशीराम के सेक्रेट्री अम्बेथ राजन व पार्टी के बिहार प्रभारी गांधी आज़ाद जैसे प्रतीबंध दलित कार्यकर्ता हैं. अम्बेथ राजन का संगठन कांशीराम व अन्य दलितों को दिल्ली में मूलभूत सुविधाएं देता था आज वे उसी प्रकार की सेवाएं बसपा के खजांची बन कर दे रहे हैं. मायावाती ने उन्हें तमिलनाडु में बसपा के प्रचार प्रसार की जिम्मेवारी दी है. आजमगढ़ के ग्रामीण आंचल से आने वाले गांधी आज़ाद तो एक बार तो मायावाती की जगह भी लेने वाले थे. सिद्ध्रत जो मायावती के भाई हैं उनकी निजी ज़िंदगी में मदद करते हैं. पुराने सहयोगी स्वामी प्रसाद मौर्य व इन्द्रजीत सरोज क्रमश यूपी व अन्य उत्तर के राज्यों का संगठन संभाले हुए है तो वही माया के दिल्ली के दिनों के साथी दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक सुधीर गोयल भी ख़ास म ख़ास बने हुए हैं. कभी उनके करीबी रहे पी एल पुनिया जी ताज कोरीडोर काण्ड में सी बी आई की तपन ना झेल पाए, और अपने बयान में कह दिया की इस मामले में सी एम को अवगत कराए थे तब लगा के मायावती का राजनैतिक जीवन ख़त्म हुआ पर किसी तरह वे बच गयी उसके बाद से मायावती सरकारी अधिकारियों से एक अच्छी दूरी बनाती है. उसका ही परिणाम है की जहा इस कार्यकाल में एनएचआरएम घोटाले में लुकी-छुपी जुबान में उनके कार्यालय के सचिव नवनीत सहगल का तो नाम आ रहा है पर उन्हें कोई दोष नहीं दे सकता.
सर्वजन हिताय व ब्राह्मण भाईचारे पर काम कर रही बसपा सुप्रीमो को 2009 के लोकसभा चुनावो में चोट लगी. बसपा 2004 लोकसभा चुनावों में जीती 19 सीटों में से 13 पर हार गई. मायावती के द्वारा चार बार जीती गयी अकबरपुर की प्रतिष्ठित सीट तो पूर्व बसपा नेता राजाराम पाल से हार गयी वहा पार्टी का उसका वोट प्रतिशत भी 2004 की तुलना में 18.84% घट गया. उसी तरह बाराबंकी 15%,उन्नाव में 13%,फैजाबाद में 12%, मुस्लिम बहुल मेरठ और डुमरियागंज में 11%, सुल्तानपुर, फतेहपुर, आजमगढ़ में 8%, मछलीशहर में साढे सात प्रतिशत वोट घट गया. वहीं कुशवाहा के रेत खनन के लायसेंस व अनुसूचित जाति में शामिल किये जाने से नाराज़ मल्लाह बहुल मिर्जापुर चंदौली और राबर्ट्सगंज में बसपा सपा से मामूली अंतर से हार गयी. लोकसभा में यूपी की 80 सीटों में से 21 पर वो जीतीं तथा 51 अन्य पर दुसरे स्थान पर रहीं, मनमाफिक नतीजे नहीं आने से मायावती काफी आहत दिखीं. मायावती का पूरा ध्यान दलितों के हित साधने में रहा। उनके द्वारा बैकलाग की भर्तियों पर बार-बार पूछताछ जारी रही.दलित कोटे का पूरा करना और महत्वपूर्ण पदों पर उन्हीं के लोगों की तैनाती इस बात को दर्शाती रही कि वे केवल उनके लिए ही शासन कर रही हैं.
दलितों का बसपा के प्रति गुस्सा और दलित नेताओ को बाहर का रास्ता दिखाना मायाराज में आम बात हो गयी है. कई कई साल बसपा को देने वाले सलेमपुर के पूर्व सांसद बब्बन राजभर हो, बलिया से ही कांशीराम के साथी पूर्व सांसद बलिहारी बाबू हो, इलाहबाद से इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष कालीचरण सोनकर हो, आजमगढ़ के सगड़ी के नेता मल्लिक मसूद हो, देवरिया जिले से वरिष्ठ नेता व 1993 में मंत्री शाकिर अली हो, कानपुर शहर से मंत्री डा. रघुनाथ संखवार हो, आर्य नगर के पूर्व बसपा विधायक महेश बाल्मीकि हो ,उन्नाव के मोहान से पूर्व विधायक राम खेलावन पासी हो,अमरोहा से रशीद अल्वी हो, अकबरपुर से राजाराम पाल हो, राम लखन वर्मा, भगवत पाल,रामाधीन, मेवा लाल बागी हो, मोहनलाल गंज से कांशीराम की बसपा के नंबर दो नेता रहे व अब राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी (रास्वपा) के संस्थापक पासियो के एकछत्र नेता रामकेवल उर्फ आरके चौधरी हो सबको बाहर कर दिया गया है.राजाराम पाल,राम खेलावन पासी, डा. रघुनाथ संखवार, राजबहादुर, महेश बाल्मीकि,बलिहारी बाबू,रामाधीन, मेवा लाल बागी, बब्बन राजभार आज कांग्रेस के शोभा बढ़ा रहे है.25 साल के बाद मायावती की अकबरपुर सीट को राजाराम पाल ने कांग्रेस को दिलवाकर मया की नींद हराम कर दी है.गांधी आजाद, महाराष्ट्र प्रभारी वीर सिंह ,बंगाल प्रभारी महेश आर्यन जैसे गिने चुने पुराने नाम शेष है.
वर्ष 2007 में डंके की चोट पर चौथी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाली मायावती का आगाज जितना अच्छा था, अंजाम उतना ही खराब हो गया, कभी ‘पत्थरों से प्रेम‘ तो कभी दौलत की बेटी‘ जैसी उपमाओं से नवाजी जाने वाली मुख्यमंत्री मायावती का पिछला पूरा साल भ्रष्टाचार, बिगड़ती कानून व्यवस्था और किसान आन्दोलन पर लगे आरोपों का जबाव देते हुए गुजर गया. लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर माया हावी होने लगी, शहरों में गैर बसपा पार्टियों के पकड़ के मद्देनज़र निकाय चुनाव एक्ट संशोधन कर पार्टी सिम्बल पर चुनाव लड़ाने पर रोक लगा दी जिसे इलाहबाद हाईकोर्ट ने निरस्त कर दिया. राज्य के छात्रसंघों पर सपा की पकड़ देखते हुए विश्विद्यालयो में चुनाव बैन कर दिए. टीम अन्ना, राहुल समेत राष्ट्रीय नेताओ ने किसानो के मुद्दे व नरेगा पर भ्रष्टाचार की बात की तो धारा 144 लगवा दी. लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के वरूण गांधी के उतेजित भाषण के बाद उन पर रासुका लगाने का फैसला मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने के लिए लिया तो यूपी कांग्रेसाध्यक्षा रीता बहुगुणा ने मायावती की बलात्कार पर मुआवजे पर उंगली उठाई तो उनके ऊपर मुकदमों की झड़ी लगा दी गई.
बरेली और मेरठ सहित कुछ अन्य जगह हुए साम्प्रदायिक दंगों की आग ने भी सरकार की छवि को ठेस पहुंचाई तो वही गोरखपुर मंडल में जापानी एन्सेफ्लाईटिस में हज़ारों बच्चों की मौतों को सरकार रोकने में पूरी तरह विफल रही. माया ने जहां बसपा के दलित पुरोधाओं की पत्थर की कीमती मूर्तियों में जनता के करीब 2500 करोड़ खर्च कर दिए, वहीं चुनाव के मुहाने पर आबकारी नीति से माल बनाने वाले व्यवसायी ने भी माया सरकार की मिटटी पलीद कर दी.
जुर्म और बाहुबलियों के खिलाफ 2007 में मिले जनसमर्थन पर शुरुवाती दिनों में अच्छा काम करने के बाद मायावती ने बाहुबलियों-अपराधियों को धीरे धीरे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने लगी. बाहुबली आनंद सेन, शेखर तिवारी, गुडडू पंडित,अरूण कुमार शुक्ला उर्फ अन्ना, अफजाल अंसारी और मुख्तार अंसारी से साठगांठ इसी बात को बताती है. सन 2010 में आंबेडकर जयन्ती समारोह के दौरान गोंडा जिला पंचायत सदस्य हनुमान शरण शुक्ल को भरे मंच पर ठीक कलेक्ट्रेट के मुख्यद्वार के सामने गोली मारकर गुंडों ने हत्या कर दी, वहीं इलाहबाद में मंत्री नंद गोपाल नंदी पर जानलेवा हमले ने प्रदेश की कानून व्यवस्था हश्र उजागर कर दिया, रही सही कसर मंत्रियो की अपराध संलिप्तता ने पुरी कर दी. एटा के सुनारों की दूकान लूट,तिहरे हत्याकांड में राज्यमंत्री अवधपाल सिंह यादव और उनके एमएलसी भाई हत्यारोपी बने,बाबू सिंह कुशवाहा और अनंत कुमार मिश्र दो सीएमओ की हत्याओं में फंसे, कैबिनेट मंत्री वेदराम भाटी पर गाजियाबाद में तिहरे हत्याकांड में फंसे, गईबांदा के बसपा विधायक पुरूषोतम पर भी एक लड़की को बंधक बनाकर उसके साथ रेप करने का मामले फंसे,बाहुबली आनंदसेन, दलित बसपा कार्यकर्ता की पुत्री के रेप व उसकी हत्या की साजिश में फंसे, माया के जन्मदिन पर धन उगाही के चाक्कर में बसपा विधायक शेखर तिवारी का इंजीनियर मनोज हत्याकांड में फंसे, संलिप्तता जाहिर हुई,रीता बहुगुणा का घर फूंक कर विधायक जीतेन्द्र सिंह फंसे. साथ ही राज्यमंत्री जयवीर सिंह पर एक अभियंता की पत्नी ने अपने पति की हत्या का आरोप लगाया, स्वास्थ्य मंत्री रहे अनंत कुमार मिश्र पर एक शिक्षिका ने अपने पति को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित करने का आरोप लगाया,राज्यमंत्री रहे हरिओम उपाध्याय पर अगवा हुए एक इंजीनियर ने रिहा होने के बाद उन पर आरोप लगाया, जिससे सरकार में जुर्म पर लगाम के दावे कमजोर हुए.
जुर्म और अपराधियों को संरक्षण ना देने की छवि को प्रस्तुत करने के लिए मायावती ने 2012 चुनावों के मद्देनज़र ऑपरेशन क्लीन के तहत 206 विधायको में से 110 विधायकों का पत्ता काट दिया. बसपा से वह बाहुबली ही बाहर किए गए जो थोड़ा निर्बल थे,जिनको पार्टी से कोई खास फायदा ना होके बदनामी मिल रही थी. आपराधिक मामलों वाले रायबरेली सदर के बसपा प्रत्याशी पुष्पेन्द्र सिंह, बहराइच की कैसरगंज से खालिद खान को पार्टी ने टिकट देकर इस बात को पुष्ट भी किया. अमेठी में स्टेडीयम निर्माण में हुई अनियमितता पर लोकायुक्त की शिकयात के बावजूद फतेहपुर के अयाहशाह से अयोध्या पाल, धर्माथ एवं होम्योपैथिक चिकित्सा राज्यमंत्री राजेश त्रिपाठी को गोरखपुर से,मंत्री ठाकुर जयवीर सिंह अलीगढ़ की बरौली से, बाहुबली इन्द्र प्रताप सिंह को गोसाईगंज से उतारकर व एनआरएचएम घोटाले में लिप्त स्वास्थ्य मंत्री अनंत कुमार मिश्र की जगह उनकी पत्नी शिखा मिश्र को महाराजपुर से,टिकट देकर बसपा की क्लीनिंग की गवाही खुद ही कर दी कर दी.
नौकरशाही पर इस बार ज्यादा विश्वास करने के कारन माया की जनता से दूरियां बढ़ गयी, सांसद और विधायक तक मुख्यमंत्री से नहीं मिल पाते थे. पहले कद्दावर नेताओ की वजह से नौकरशाही सहमी रहती थी जिससे सांसदों और विधायकों का रसूख कायम रहता था. पर इस बार मुख्यमंत्री की ओर से कैबनेट सचिव शशांक शेखर ही आदेश देने लगे, फिर चाहे वो सचिवालय के वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक हो या कानून व्यवस्था की समीक्षा या मंत्रियों को आदेश देना, कैबिनेट सचिव के द्वारा ही उन्हें मुख्यमंत्री के निर्देशों अथवा मंशा से अवगत कराया जाने का सिलसिला शुरू हुआ. आलम तो यह हुआ की मंत्रीयों समेत विधयक सब माया से मिलने के लिए उनसे ही समय लेने लेगे जिसकी वजह से लोग लिए शशांक शेखर को कैबिनेट सचिव के बजाय कार्यवाहक मुख्यमंत्री तक कहने लगे.पूर्ण बहुमत होने के कारण सरकार पूरी तरह से निरंकुश और नौकरशाही बेलगाम हुई तो परिणाम भ्रष्टाचार के रूप में बाहर आने लगे.ताज कोरिडोर घोटाले में फंसने के बाद सीख लेते हुए मुख्यमंत्री मायावती ने भविष्य में किसी भी तरह की जांच से बचने के लिए फ़ाइलों पर हस्ताक्षर न करने के इरादे को नौकरशाहों ने खूब भुनाया.
2009-10 में मनरेगा के तहत दिए 750 करोड़ रूपये, 2008-09 में 5500 करोड़ रूपये 2007-08 में 4800 करोड़ रूपये में आडिट गड़बड़ी सामने आयी, 2009-10 में 1600 करोड़ रूपये खर्च करके महीने भर में बुन्देलखंड में 10 करोड़ पेड़ लग गए, 5000 करोड़ का एनएचआरएम घोटाला हुआ. बात घोटालों तक ही सीमित नहीं हुई, अफसरशाही में भी मायावती सरकार ने अपने चहेतों को रेवड़ियों की तरह पद बांटे हैं, विभिन्न आयोगों में अपने खास सिपहसलारों को अध्यक्ष बनाकर अप्रत्यक्ष रूप से उस पर अपना कब्जा कर लिया है हद तो जब हुई जब उन्होंने अपनी पसंदीदा ब्यूटी पार्लर की पूनम सागर को महिला आयोग का अध्यक्ष बनवा दिया. बसपा का स्थायी वोट बैंक कहलाने वाला दलित,जिसने लम्बे समय से एकजुट होकर बसपा को एक बड़ी ताकत के रूप में खड़ा किया उसका भी मोह माया से भंग होता दिख रहा है। इसकी मुख्य वजह है कि उसकी कहीं पर भी सुनवाई नहीं हो रही है। उस पर अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं लेकिन सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही है। महज अधिकारियों के तबादले कर व समय-समय पर अधिकारियों की जिम्मेदारी तय करके मुख्यमंत्री अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती हैं।खैर, इतना तो तय है कि मायावती के शासनकाल में विपक्ष और प्रदेश की जनता को लाखों खामियां दिख रहीं हो लेकिन बसपा के वोटर के लिए तो यही खुशी की बात है कि ‘बहनजी’ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं। उनके समाज के महापुरूषों को पहचान दिलाने का काम भी बसपा सुप्रीमों ने बखूबी किया। यही वजह है , उनका वोटर बहनजी को पांचवी बार भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन होता देखना चाहता है।
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