जीसस पूर्णत: संबुद्ध थे किंतु वे ऐसे लोगों में रहते थे जो संबोधि या समाधि के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे। इसलिए जीसस को ऐसी भाषा का प्रयोग करना पडा जिससे यह गलतफहमी हो जाती है कि वे संबुद्ध नहीं थे। प्रबुद्ध नहीं थे। वे दूसरी किसी भाषा का प्रयोग कर भी नहीं सकते। बुद्ध की भाषा इनसे बिलकुल भिन्न है। बुद्ध ऐसे शब्दों का प्रयोग कभी नहीं कर सकते कि ‘’मैं परमात्मा का पुत्र हूं।’’ वे ‘’पिता’’ और ‘’पुत्र’’ जैस शब्दों का प्रयोग नहीं करते क्योंकि ये शब्द व्यर्थ है। परंतु जीसस करते भी क्या। जहां वे बोल रहे थ वहां के लोग इसी प्रकार की भाषा को समझते थे । बुद्ध की भाषा अलग है क्योंकि वे बिलकुल अलग प्रकार के लोगों से बात कर रहे थे।
जीसस बुद्ध से अनेक प्रकार से संबंधित थे। ईसाइयत इसके बारे में बिलकुल बेखबर है कि जीसस निरंतर तीस वर्ष तक कहां थे? वे अपने तीसवें साल में अचानक प्रकट होते है और तैंतीसवें साल में तो उन्हें सूली पर चढ़ा दिया जाता है। उनका केवल तीन साल का लेखा जोखा मिलता है। इसके अतिरिक्त एक या दोबार उनकी जीवन-संबंधी घटनाओं का उल्लेख मिलता है। पहला तो उस समय जब वे पैदा हुए थे—इस कहानी को सब लोग जानते है। और दूसरा उल्लेख है जब सात साल की आयु में वे एक त्यौहार के समय बड़े मंदिर में जाते है। बस इन दोनों घटनाओं का ही पता है। इनके अतिरिक्त तीन साल तक वे उपदेश देते रहे। उनका शेष जीवन काल अज्ञात है। परंतु भारत के पास उनके जीवन काल से संबंधित अनेक परंपराएं है।
इस अज्ञातवास में वे काश्मीर के एक बौद्ध विहार में थे। इसके अनेक रिकार्ड मिलते है। और काश्मीर की जनश्रुतियों में भी इसका उल्लेख है। इस अज्ञातवास में वे बौद्ध भिक्षु बनकर ध्यान कर रहे थे। अपने तीसवें वर्ष में वे जेरूसलेम में प्रकट होते है—इसके बाद इनको सूली पर चढ़ा दिया जाता है। ईसाईयों की कहानी के अनुसार जीसस का पुनर्जन्म होता है। परंतु प्रश्न यह है कि इस पुनर्जन्म के बाद दोबारा वे कहां गायब हो गये। ईसाइयत इसके बारे में बिलकुल मौन है। कि इसके बाद वे कहां चले गए और उनकी स्वाभाविक मृत्यु कब हुई।
अपनी पुस्तक ‘’दि सर्पेंट ऑफ पैराडाइंज’’, में एक फ्रांसीसी लेखक कहता है कि काई नहीं जानता कि जीसस तीस साल तक कहां रहे और क्या करते रह? अपने तीसवें साल में उन्होंने उपदेश देना आरंभ किया। एक जनश्रुति के अनुसार इस समय वे ‘’काश्मीर’’ में थे। काश्मीर का मूल नाम है। ‘’का’’ अर्थात ‘’जैसा’’, बराबर, और ‘’शीर’’ का अर्थ है ‘’सीरिया’’।
निकोलस नाटोविच नामक एक रूसी यात्री सन 1887 में भारत आया था। वह लद्दाख भी गया था। और जहां जाकर वह बीमार हो गया था। इसलिए उसे वहां प्रसिद्ध ‘’हूमिस-गुम्पा‘’ में ठहराया गया था। और वहां पर उसने बौद्ध साहित्य और बौद्ध शस्त्रों के अनेक ग्रंथों को पढ़ा। इनमें उसको जीसस के यहां आने के कई उल्लेख मिले। इन बौद्ध शास्त्रों में जीसस के उपदेशों की भी चर्चा की गई है। बाद में इस फ्रांसीसी यात्री ने ‘’सेंट जीसस’’ नामक एक पुस्तक भी प्रकाशित की थी। इसमे उसने उन सब बातों का वर्णन किया है जिससे उसे मालूम हुआ कि जीसस लद्दाख तथा पूर्व के अन्य देशों में भी गए थे।
ऐसा लिखित रिकार्ड मिलता है कि जीसस लद्दाख से चलकर, ऊंची बर्फीला पर्वतीय चोटियों को पार करके काश्मीर के पहल गाम नामक स्थान पर पहुंच। पहल गाम का अर्थ है ‘’गड़रियों का गांव’’ पहल गाव में वे अपने लोगों के साथ लंबे समय तक रहे। यही पर जीसस को ईज़राइल के खोये हुए कबीले के लोग मिले। ऐसा लिखा गया है कि जीसस के इस गांव में रहने के कारण ही इस का नाम ‘’पहल गाव’’ रखा गया। कश्मीरी भाषा में ‘’पहल’’ का अर्थ है गड़रिया और गाम का अर्थ गांव। इसके बाद जब जीसस श्रीनगर जा रहे थे तो उन्होंने ‘’ईश-मुकाम’’ नामक स्थान पर ठहर कर आराम किया था और उपदेश दिये थे। क्योंकि जीसस ने इस जगह पर आराम किया इसलिए उन्हीं के नाम पर इस स्थान का नाम हो गया ‘’ईश मुकाम’’।
जब जीसस सूली पर चढ़े हुए थे तो उस समय एक सिपाही ने उनके शरीर में भाला भोंका तो उसमे से पानी और खून निकला। इस घटना को सेंट जॉन की गॉस्पल (अध्याय 19 पद्य 34) में इस प्रकार रिकार्ड किया गया है कि ‘’एक सिपाही ने भाले से उनको एक और से भोंका और तत्क्षण खून और पानी बाहर निकला।‘’ इस घटना से ही यह माना गया है कि जीसस सूली पर जीवित थे क्योंकि मृत शरीर से खून नहीं निकल सकता।
जीसस को दोबारा मरना ही होगा। या तो सूली पूरी तरह से लग गई और वे मर गए या फिर समस्त ईसाइयत ही मर जाती। क्योंकि समस्त ईसाइयत उनके पुनर्जन्म पर निर्भर करती है। जीसस पुन जीवित होते है और यही चमत्कार बन जाता है। अगर ऐसा न होता तो यहूदियों को यह विश्वास ही न होता कि वे पैगंबर है क्योंकि भविष्यवाणी में यह कहा गया था कि आने वाले क्राइस्ट को सूली लगेगी और फिर उसका पुनर्जन्म होगा।
इसलिए उन्होंने इसका इंतजार किया। उनका शरीर जिस गुफा में रखा गया था वहां से वे तीन दिन के बाद गायब हो गया। इसके बाद वे देखे गए—कम से कम आठ लोगों न उनको नए शरीर में देखा। फिर वे गायब हो गए। और ईसाइयत के पास ऐसा कोई रिकार्ड नहीं है कि जिससे मालूम हो कह वे कब मरे।
जीसस फिर दोबारा काश्मीर आये और वहां पर 112 वर्ष की आयु तक जीवित रहे। और वहां पर अभी भी वह गांव है जहां वे मरे।
अरबी भाषा में जीसस को ‘’ईसस’’ कहा गया है। काश्मीर में उनको ‘’यूसा-आसफ़’’ कहा जाता था। उनकी कब्र पर भी लिखा गया है कि ‘’यह यूसा-आसफ़ की कब्र है जो दूर देश से यहां आकर रहा’’ और यहाँ भी संकेत मिलता है कि वह 1900साल पहले आया।
‘’सर्पेंट ऑफ पैराडाइंज’’ के लेखक ने भी इस कब्र का देखा। वह कहता है कि ‘’जब मैं कब्र के पास पहुंचा तो सूर्यास्त हो रहा था और उस समय वहां के लोगों और बच्चों के चेहरे बड़े पावन दिखाई दे रहे थे। ऐसा लगता था जैसे वे प्राचीन समय के लोग हों—संभवत: वे ईज़राइल की खोई हुई उस जाति से संबंधित थे जो भारत आ गई थी। जूते उतार कर जब मैं भीतर गया तो मुझे एक बहुत पुरानी कब्र दिखाई दी जिसकी रक्षा के लिए चारों और फिलीग्री की नक्काशी किए हुए पत्थर की दीवार खड़ी थी। दूसरी और पत्थर में एक पदचिह्न बना हुआ था—कहा जाता है कि वह यूसा-आसफ़ का पदचिह्न है। उसकी दीवार से शारदा लिपि में लिखा गया एक शिलालेख लटक रहा थ जिसके नीचे अंग्रेजी अनुवाद में लिखा गया है—‘’यूसा-आसफ़ (खन्नयार। श्रीनगर) यह कब्र यहूदी है। भारत में कोई भी कब्र ऐसी नहीं है। उस कब्र की बनावट यहूदी है। और कब्र के ऊपर यहूदी भाषा, हिब्रू में लिखा गया है।
जीसस पूर्णत: संबुद्ध थे। इस पुनर्जन्म की घटना को ईसाई मताग्रही ठीक से समझ नहीं सकते किंतु योग द्वारा यह संभव हो सकता है। योग द्वारा बिना मरे शरीर मो मृत अवस्था में पहुंचाया जा सकता है। सांस को चलना बंद हो जाता है, ह्रदय की धड़कन और नाड़ी की गति भी बंद की जा सकती है। इस प्रकार की प्रक्रिया के लिए योग की किसी गहन विधि का प्रयोग किया क्योंकि अगर वे सचमुच मर जाते तो उनके पुन जीवित होने की कोई संभावना नहीं थी। सूली लगाने वालों ने जब यह समझा कि वे मर गए है तो उन्होंने जीसस को उतार कर उनके अनुयायियों का दे दिया। तब एक परंपरागत कर्मकांड के अनुसार शरीर को एक गुफा में तीन दिन के लिए रखा गया। किंतु तीसरे दिन गुफा को खाली पाया गया। जीसस गायब थे।
ईसाइयों के ‘’एसनीज’’ नामक एक संप्रदाय की परंपरागत मान्यता है कि जीसस के अनुयायियों ने उनके शरीर के घावों का इलाज किया और उनको होश में ले आए और जब उनके शिष्यों ने उनको दोबारा देखा तो वे विश्वास ही न कर सके कि ये वही जीसस है जो सूली पर मर गए। उनको विश्वास दिलाने के लिए जीसस को उन्हें अपने शरीर के घावों को दिखाना पडा। ये घाव उनके एसनीज अनुयायियों ने ठीक किए। गुफा के तीन दिनों में जीसस के घाव भर रहे थे। ठीक हो रहे थे। और जैसे ही वे ठीक हो गए जीसस गायब हो गए। उनको उस देश से गायब होना पडा क्योंकि अगर वे वहां पर रह जाते तो इसमे कोई संदेह नहीं कि उनको दोबारा सूली दे दी जाती।
सूली से उतारे जाने के बाद उनके घावों पर एक प्रकार की मलहम लगाई गई। जो आज भी ‘’जीसस की मलहम’’ कही जाती है। और उनके शरीर को मलमल से ढका गया। उनके अनुयायी जौसेफ़ और निकोडीमस ने जीसस के शरीर को एक गुफा में रख दिया। और उसके मुहँ पर एक बड़ा सा पत्थर लगा दिया। जीसस तीन दिन इस गुफा में रहे और स्वस्थ होते रहे। तीसरे दिन जबर्दस्त भूकंप आया और उसके बाद तूफान; उस गुफा की रक्षा के लिए तैनात सिपाही वहां से भाग गए। गुफा पर रखा गया बड़ा पत्थर वहां से हट कर नीचे गिर गया। और जीसस वहां से गायब हो गये। उनके इस प्रकार गायब हो जाने के कारण ही लोगों ने उनके पुनर्जन्म और स्वर्ग जाने की कथा को जन्म दिया गया।
सूली पर चढ़ाये जाने से जीसस का मन बहुत परिवर्तित हो गया। इसके बाद वे पूर्णत: मौन हो गए। न उन्हें पैगंबर बनने में कोई दिलचस्पी रही न उपदेशक बनने में। बस वे तो मौन हो गए। इसीलिए इसके बाद उनके बारे में कुछ भी पता नहीं है। तब वे भारत में रहने लगे। भारत में एक परंपरा है कि बाइबल में भी कि यहूदियों का एक कबीला गायब हो गया और उसको खोजने के लिए बहुत लोग भेजे गए थे। वास्तव में कश्मीरी अपने चेहरे-मोहरे और अपने खून से मूलत: यहूदी ही है।
प्रसिद्ध फ्रांसीसी इतिहासकार, बर्नीयर ने, जो औरंगज़ेब के समय भारत आया था। लिखा है कि ‘’पीर पंजाल पर्वत को पार करने के बाद भारत राज्य में प्रवेश करने पर इस सीमा प्रदेश के लोग मुझे यहूदियों जैसे लगे।‘’ अभी भी काश्मीर में यात्रा करते समय ऐसा लगता है मानो किसी यहूदी प्रदेश में आ गए हो। इसीलिए ऐसा माना जाता है कि जीसस काश्मीर में आए क्योंकि यह भारत की यहूदी भूमि थी। वहां पर यहूदी जाति रहती थी। काश्मीर में इस प्रकार की कई कहानियां प्रचलित है। जीसस पहल गाव में बहुत वर्षों तक रहे। उनके कारण ही यह जगह गांव बन गया। प्रतीक रूप में उनको गड़रिया कहा जाता है और पहल गाम में आज भी ऐसी अनेक लोककथाएँ प्रचलित है जिनमें बताया गया है कि 1900 वर्ष पहले ‘’यूसा-आसफ़’’ नामक व्यक्ति यहां आकर बस गया था और इस गांव को उसी ने बसाया था।
जीसस सत्तर साल तक भारत में थे और सत्तर साल तक वे आने लोगों के साथ मौन रहे।
ईसाइयत को जीसस के सारे जीवन के बारे में कुछ नहीं मालूम। कि उन्होंने कहां साधना की या कैसे ध्यान किया। उनके शिष्यों को भी नहीं मालूम कि अपनी मौन-अवधि में जीसस क्या कर थे। उन्होंने केवल इतना ही रिकार्ड किया कि जीसस पर्वत पर चले गए और वहां वे तीस दिन तक मौन रहे। उसके बाद वे फिर वापस आए और उपदेश देने लगे। परंतु यह किसी को नहीं मालूम कि पर्वत पर वे क्या कर रहे थे।
इसके बाद वे धीरे-धीरे सामाजिक और राजनीतिक कार्यों में उलझते चले गए। जो कि स्वाभाविक था क्योंकि उनके चारों और जो लोग थे वे न तो आध्यात्मिक थे न दार्शनिक। इसलिए जीसस जो भी कहते उसे वे गलत समझ लेते थे। जीसस ने कहा, ‘’यहूदियों का राजा हूं’’, अब उनका मतलब इस संसार के राज्य से नहीं था—वे तो प्रतीकों और दृष्टांत के माध्यम से बोल रहे थे जिससे सम्राट बन जाएंगे और यही से मुसीबत आरंभ हो गई। किसी दूसरे देश में जीसस को सूली नहीं लगती किंतु यहूदी उनको समझ ही न सके। यहूदी सदा से पदार्थवादी है। उनके लिए दूसरी दुनिया या परलोक का कोई अर्थ नहीं है। उनकी सोच और विचार धारा ही एक दम से अलग है। वे यथार्थ के ठोस धरातल पर ही जीते रहे है। अब जीसस बुद्ध की भांति बोलने लगे तो दोनों में संवाद कैसे होता? यहूदी उनका निरंतर गलत समझते रहे। बल्कि पांटियस पायलट उनको अधिक समझ रहा था बजाएं उनकी अपनी जाति के लोगों के। पायलट जानता था कि एक निर्दोष और भोले-भाले आदमी को अकारण सूली पर चढ़ाया जा रहा है। और उसने जीसस को सूली से बचाने की भरसक कोशिश की। परंतु राजनैतिक हालात ने उसे विवश कर दिया। जीसस को सूली पर चढ़ाते समय—उस अंतिम क्षण में भी वह उनसे पूछता है ‘’सत्य क्या है?’’ और जीसस चुप रहे। और यही बौद्ध उत्तर है। क्योंकि सत्य के बारे में केवल बुद्ध ही चुप रहे है। और कोई नहीं। औरों ने कुछ न कुछ कहा है। केवल बुद्ध पूर्णत: मौन रहे है। यहूदियों ने समझा कि जीसस कुछ नहीं जानते। ‘’मुझे सदा ऐसा लगा कि पायलट दृश्य से गायब हो जाता है। उसने सारा ‘’चार्ज पुरोहित को दे दिया। क्योंकि वह इसमें भागीदार नहीं बनना चाहता। यह सब हुआ दो प्रकार की भाषाओं के कारण। जीसस दूसरी दुनिया की बात कर रहे है और यहूदी उनकी बात को इस दुनिया के प्रसंग में समझ रहे है। भारत में ऐसा नहीं हो सता था क्योंकि यहां पर प्रतीकों और दृष्टांतों की लंबी परंपरा है। यहूदी इन प्रतीकों को नहीं समझ सकते थे वे शाब्दिक अर्थ ही समझ सकते है। उनका दृष्टिकोण ही लौकिक है। वे कहते है कि अगर किसी ने तुम्हें नुकसान पहुंचाया है तो उसका दुगना नुकसान कर दो। अब जीसस बिलकुल बुद्ध की तरह बात कर रहे है। कि कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो तुम अपना दूसरा गाल भी उसके सामने कर दो।‘’
एक यहूदी अचानक कैसे इस प्रकार बोलने लगता है—यह बात समझ में नहीं आती। उनकी ऐसी कोई परंपरा नहीं है। जीसस यहूदियों में अचानक घट गए यहूदियों के विगत इतिहास से उनका कोई संबंध नहीं है। उनकी जड़ें भी वहां नहीं है। यहूदियों से उनका कोई साम्य भी नहीं है। यहूदियों का तो परमात्मा भी बहुत हिंसक, क्रोधी और ईर्ष्यालु है। वह एक क्षण में सबका सर्वनाश कर सकता है और इस पृष्ठभूमि में जीसस का यह कहना कि ‘’परमात्मा प्रेम है, कितना विचित्र हे।‘’
भारत में कभी कोई बुद्ध पुरूष मारा नहीं गया क्योंकि वह चाहे कितना ही विद्रोही क्यों न हो, वह भारतीय परंपरा की श्रंखला की कड़ी बना रहता है। परंतु जेरूसलेम में जीसस बिलकुल विदेशी जैसे थे—वे ऐसे प्रतीकों और भाषा का प्रयोग करते है जिससे यहूदी जाति बिलकुल अंजान है। उनको तो सूली पर चढ़ाया ही जाता। उन्हें सूली लगती ही।
ओशो कहते है कि, ‘’मैं जब जीसस को देखता हूं तो मुझे वे गहरे ध्यान में डूबे दिखाई देते है। गहन संबोधि में है वे परंतु उनको ऐसी जाति के लोगों में रहना पडा जो धार्मिक या दार्शनिक नहीं थे; वे बिलकुल राजनीतिक थे। इन यहूदियों का मस्तिष्क और ही ढंग से काम करता है। इसलिए इनमें कोई दार्शनिक नहीं हुआ। इनके लिए जीसस अजनबी थे। और वे बहुत गड़बड़ कर रहे थे। यहूदियों की जमी-जमायी व्यवस्था को बिगाड़ रहे थे जीसस। अंत: उन्हें चुप कराने के लिए यहूदियों ने उनको सूली लगा दी। सूली पर वे मरे नहीं। उनके शरीर को सूली से उतार कर जब तीन दिन के लिए गुफा में रखा गया तो मलहम आदि लगाकर उसे ठीक किया गया। और वहीं से जीसस पलायन कर गए। इसके बाद वे मौन हो गए और अपने ग्रुप के साथ अर्थात अपनी शिष्य मंडली के साथ वे चुपचाप गुह्म रहस्यों की साधना करते रहे।
ओशो कहते है कि ‘’मुझे ऐसा प्रतीत होता है। कि उनकी गुप्त परंपरा आज भी चल रही है।‘’
जीसस को समझने के लिए जरूरी है कि ईसाइयत द्वारा की गई उनकी व्याख्या को बीच में से हटाकर सीधे उनको देखा जाए—तब उनकी आंतरिक संपदा से हम समृद्ध हो सकत है।
ओशो की पुस्तक
‘’दि सायलेंट एक्सप्लोजन’’
में संकलित ‘’दि अननोन लाइफ ऑफ जीसस।‘’
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