शनिवार, 10 दिसंबर 2011

अध्यात्म रामायण के श्री राम

अखिल लोकनायक मर्यादा पुरूषोत्तम आनंदकंद दशरथ नंदन श्रीराम चरित्र को प्रकाशित करने वाले प्रधानभूत तीन ग्रंथों में प्रथम है...आदि काव्य "वाल्मीकि रामायणम्" दूसरा है... "अध्यात्म रामायण" और तीसरा है... "रामचरितमानस"। महर्षि वाल्मीकि ने भगवान् श्रीराम का अपने काव्य में जो चरित्र चित्रण किया है, उसके अनुशीलन से ज्ञात होता है कि उनका आदर्श चरित्र लोक के लिए परम-अनुकरणीय था। अध्यात्म रामायण के कतिपय स्थलों पर श्रीराम अतिमानुष कर्म करते हुए दिखाई देते हैं...इनसे उनके ईश्वर होने का स्पष्ट संकेत मिलता है...यथा अर्द्धमुहुर्त में एकाकी श्रीराम द्वारा चौदह हजार राक्षसों का नाश कर दिया जाना। जगजननी माता सीता के शब्दों में भी वे लोकनाथ प्रदर्शित किए गए हैं। किंतु, कथानक की घटनाओं को लेकर वाल्मीकि रामायण तथा अध्यात्म रामायण में भिन्नता है। रामचरितमानस व अध्यात्म रामायण के घटनाक्रम में कुछ परिवर्तन के साथ अत्यंत साम्य दिखाई देता है। ऎसा स्पष्ट प्रतीत होता है कि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस का मुख्य आधार अध्यात्म रामायण को ही बनाया है।

अध्यात्म रामायण एक आख्यान के रूप में ब्रह्मांड पुराण के उत्तराखंड के अंतर्गत माना गया है...अत: इसके रचयिता महर्षि वेदव्यास ही हैं। इस पवित्र गाथा को साक्षात् भगवान विश्वनाथ ने अपनी प्रिया आदिशक्ति माता पार्वती को सुनाया है। इसमें परम रसायन रामचरित का वर्णन करते हुए पद-पद पर प्रसंगानुसार भक्तिज्ञान, उपासना, नीति और सदाचार के दिव्य उपदेश दिए गए हैं। विधि विषयों का वर्णन होते हुए भी इसमें प्रधानता "अध्यात्मतत्व" की ही है और इसी कारण इसका "आध्यात्म रामायण" नाम सर्वथा सार्थüक है। प्रस्तुत ग्रंथ में भगवान् श्रीराम मूर्तिमान "आध्यात्मिक-तत्व" हैं शायद ही किसी कांड में कोई सर्ग हो, जिसमें श्रीराम को अनंत-कोटि -ब्रह्मांडनायक श्रीविष्णु का स्वरूप नहीं बताया हो। ग्रंथ के प्रारंभ में माता पार्वती, भगवान् शंकर से श्रीपुरूषोत्तम भगवान् के सनातनतत्व को पूछती हैं...क्योंकि वे भगवान् श्रीराम सिद्धगणों द्वारा परम अद्वितीय, आदिकारण प्रकृति के गुण-प्रवाह से परे बताए जाते हैं। किंतु, कोई कहते हैं कि श्रीराम परब्रह्म होने पर भी अपनी माया से आवृत होने के कारण अपने आत्मस्वरूप को नहीं जानते थे। अत: वसिष्ठादि के उपदेश से उन्होंने अध्यात्म तत्व को जाना...। यदि वे आत्मतत्व को जानते थे, तो उन परमात्मा ने सीता के लिए इतना विलाप क्यों किया...और यदि उन्हें आत्मज्ञान नहीं था, तो वे अन्य सामान्य जीव के समान ही हुए...फिर उनका भजन क्यों किया जाना चाहिए...? इस विषय को ऎसे वाक्यों से समझाइए कि मेरा संदेह निवृत्त हो जाए...।

तब देवादिदेव भगवान् नीलकंठ ने मां अंबिका को रामस्वरूप समझाते हुए बताया कि...भगवान् राम निस्संदेह प्रकृति से परे, परमात्मा, अनादि, आनंदघन और अद्वितीय पुरूषोत्तम हैं, जो अपनी माया से ही इस संपूर्ण जगत को रचकर इसके बाहर-भीतर सब ओर आकाश के समान व्याप्त हैं तथा जो आत्मरूप से सबके अंत:करण में स्थिर रहते हुए अपनी माया से इस विश्व को परिचालित करते हैं...।
भगवान् श्रीराम जब समस्त विघ्न-बाधाओं को पार कर राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए, तब भक्तवर हनुमान के प्रति अपने तत्व का उपदेश देने की जगजननी सीता को आज्ञा दी। माता सीता ने कहा...हे वत्स हनुमान्, तुम श्रीराम को साक्षात् अद्वितीय सच्चिदानंदघन परमब्रह्म परमेश्वर समझो...ये निर्विकार, निरंजन, सर्वव्यापक, स्वयं प्रकाशमान और पापहीन आत्मा हैं। तदंतर स्वयं भगवान् श्रीराम भी तत्वमसि वेदांत के अनुसार अपना अध्यात्म स्वरूप प्रिय भक्त हनुमान को ऎसा ही बताते हैं। ...विश्रवापुत्र रावण के अत्याचार से संतप्त होकर समस्त देवगण ब्रह्मा सहित जब श्रीहरि से अवतार हेतु प्रार्थना करते हैं, तब भगवान् नारायण स्वयं उन्हें राजा दशरथ के यहां कौशल्यादि रानियों के द्वारा पुत्र रूप से चार अंशों में प्रकट होने का आश्वासन देते हैं।...अपने चरणों की रज के स्पर्श से जब श्रीराम अहिल्या का उद्धार कर देते हैं, तब परमात्मतत्व सिद्ध हो जाता है और अहिल्या भी उन्हें पुराणपुरूष बताते हुए गुणगान करती है।...शिव धनुष भंग के पश्चात् जब श्रीराम अयोध्या लौटते हैं, तब परशुरामजी उन से अपना विष्णु धनुष चढ़वाकर उन्हें परमेश्वर रूप में स्वीकार करते हैं।...मुनिवर वामदेव भी भगवान् श्रीराम को "नारायण" और सीता को "लक्ष्मी" बताते हैं।...स्नेह और सेवा की मूर्ति भरत भी अपने को धिक्कारते हुए राम को परमात्मा बताते हैं।...यहां तक कि श्रीराम को वनवास देने वालीं माता कैकेयी भी आगे चलकर उन्हें विष्णु भगवान् बताती हैं।...और तो और राक्षसराज रावण भी उन का परम शत्रु होते हुए भी उन्हें "परमात्मा" बताता है और उनके हाथ से मर कर परम-पद प्राप्त करने के लिए ही उनसे वैर ठानता है...यहां आकर तो यह प्रसंग और भी स्पष्ट हो जाता है कि...श्रीराम साक्षात् "श्रीहरि" थे, क्योंकि रावण की मृत्यु के बाद उसके शरीर से निकला हुआ तेज श्रीराम में आकर ही समा जाता है।

इस रामायण के राम वस्तुत: आध्यात्मिकत्त्व होने के उपरांत भी अपने लौकिक चरित्र द्वारा आदर्श प्रस्तुत करते हैं कि...कुलीन बालक को किस प्रकार माता-पिता को नित्य प्रणाम करना चाहिए। पुत्र को माता-पिता का कैसा आज्ञाकारी होना चाहिए, इस बात को तो श्रीराम ने आचरण द्वारा ऎसा अनूठा प्रमाण प्रस्तुत किया है, जिसे संपूर्ण विश्व जानता है। जहां उन्हें राज सिंहासन मिलने वाला था, वहां उन्होंने वनवास को उससे भी अधिक हर्ष के साथ स्वीकार कर पिता के सत्य की रक्षा की। श्रीराम अपनी प्रजा के कितने प्रिय थे, इस बात का प्रमाण उनके वनगमन के समय प्रजा की विह्वलता से और उनके महाप्रयाण के समय उन्हीं के साथ सभी के प्रयाण करने से स्पष्ट होता है। श्रीराम के आदर्श राज्य को पुन:-पुन: स्मरण कर उसकी कल्पना में हम भारतवासी ही नहीं, अपितु समग्र विश्व का जन-जन आज भी प्राणप्रण से सचेष्ट है।

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