सवाल और मसला पुराना है, पर इसकी देश के वर्तमान संदर्भों में सर्वाधिक सार्थकता है। हिन्दुत्व क्या है ? क्या धर्म संबंधी ईसाई और इस्लाम की अवधारणा में हिन्दू धर्म भी है ? और क्या हिन्दुत्व दक्षिणपंथी और प्रतिक्रियावादी होने का ही बोधक है, उस में प्रगतिशील उदारता और वाम की गुंजाइश नहीं है ? दार्शनिक प्रोफेसर व राष्ट्पति रहे डा. सर्वपल्ली राधा कृष्णन ने कहा था कि हिन्दुत्व को परिभाषित नहीं किया जा सकता । इसे केवल महसूस किया जा सकता है।
हिन्दू, हिन्दुत्व और हिन्दू धर्म की प्रचलित मान्यतायें भयानक आत्मघाती अंतर्विरोधों का शिकार हैं। यह कहने में अटपटा लग सकता है कि इन मान्यताओं से हिन्दू और भारत की पहचान प्रभावित हो रही है। यह कटु सत्य है ,लेकिन हम समस्या की संवेदनशीलता से आंखें चुराते हुए हट बच्ा के ही निकल जाना चाहते हैं। अंतर्विरोध की स्थिति यह है कि एक बडा वर्ग धर्म को ‘अफीम’ की तरह देखते हुए इसका नाम तक लेने से कतराता है। जब कि एक वर्ग को अपने होने की पहचान कराते रहने के लिए ‘गर्व से कहो, हम हिन्दू हैं’ की पट्टिका लगानी पड रही है।
यह उस धर्म-संस्कृति की स्िथति है जो अनुयायियों के लिहाज से क्रिस्चियनिटी और इस्लाम के बाद अभी भी दुनिया का तीसरा सब से बडा धर्म है। जिसे सभी धर्म-दर्शनों का जनक-पितामह कहा जाता है। जो सब से पुराना जीवित धर्म है। जिसकी जडें प्राग्ऐतिहासिक काल में हैं। जिसका साहित्य -स्रोत ईसा पूर्व पांच-छह हजार वर्ष तक पुराना है।
विचार करने पर हम पाते हैं कि इस विडम्बनापूर्ण व विचित्र स्िथति के पीछे ‘हिन्दू’ शब्द है। यह जारज शब्द सदियों के सफर में अपना मूल व वास्तविक अर्थ ही खो बैठा है। अपने विद्रूपित अर्थ-रूप के विस्तार से धर्म के आर्यावर्ती स्वरूप को धकिया कर ‘सनातन’ आसन पर आ विराजा है।
हिन्दू शब्द प्रचलित या रूढ अर्थों में हिंदू धर्म वाला होने का बोध देता है। लेकिन ईसाइयत या इस्लाम की धर्म बिषयक मान्यता की तरह यहां कोई एकीकृत व्यवस्था नहीं है। न तो कोई प्रर्वतक-संस्थापक है और कोई एक किताब जिसके सहारे धर्मयात्रा पूरी की जाए। इसे राम-कृष्ण जैसे अवतारों या भोले शंकर जैसे महादेव ने नहीं चलाया और न ही किसी मंत्रदृष्टा ऋषि ने। सब इसमें हुए। तात्पर्य यह कि इसका शुरुआती सिरा-सूत्र ही नहीं है। अनादि और स्वरूप में सनातन है यह।
अब वैविध्य देखिए। मूर्तिपूजक हिंदू और अपूजक व मूर्ति पूजा को पानी पी पी कर कोसने वाला भी हिंदू। मंदिर-तीर्थ जाने वाला हिंदू और न जाने वाला भी हिंदू। यज्ञ, व्रत-उपवास करने वाला हिंदू और न करने वाला भी हिंदू। वेदपाठी व वेदनिष्ठ हिंदू और इनकी ओर भूल कर भी न झांकने वाला भी हिंदू। शिखा-सूत्र धारक हिंदू और इन सब को उतार फेंकने वाला भी हिंदू। आस्तिक हिंदू और नास्तिक भी हिंदू। राम, कृष्ण और शिव वगैरह भगवानों व तमाम देवी देवताओं को मानने वाला हिंदू , उनमें से किसी एक का ही आराधक भी हिंदू और किसी को भी न मानने वाला भी हिंदू। सगुणोपासक हिंदू और सगुण का उपहास उडाने वाला निगुर्णोपासक भी हिंदू। आप ही बतायें आखिर किसे कहें हिंदू ?
अनंत की खोज और उपासना पद्धतियों का यह वैविध्य ही भारतीय भूभाग का अनुपम वैशिष्ट्य रहा है। भारतीय चेतना यह मानती रही है कि परम सत्य तक पहुंचने और जगत-रहस्य सुलझाने के अनेक रास्ते हैं और सभी एक ही मंजिल को जाते हैं। इसी चिंतन – औदार्य की बदौलत प्राचीन भारत धरा में विचार-पद्धतियों के प्रकाश-दीप जल सके जिनका सिरा पकड दुनिया के तमाम दर्शन और मत विकसित हुए। भारत में उपास्यों और उपासना पद्धतियों की बहुलता के बावजूद सह अस्तित्व, समन्वय और सामंजस्य की सनातन चेतना का सूर्य यहां सदैव चमकता रहा। तमाम भाषाई, सांस्कृतिक, वैचारिक और क्षेत्रीय विभिन्नतायें एक छतरी के नीचे प्रश्रय पाती रहीं। सिंधु घाटी की सभ्यता में कई आस्था , विश्वास, मान्यतायें, दर्शन- मार्ग पुष्पित-पल्लवित हुए।
कहीं पढा था – हिंदू धर्म किसी एक ब्यक्ति, किसी एक पुस्तक, अथवा किसी एकांगी जीवन दृष्टि या पद्धति की उपज नहीं है, इस लिए ईसाई, यहूदी या मुहम्मदी , किसी भी मजहब से उसकी समकक्षता या तुलना नहीं हो सकती है।
संस्कृत समेत किसी भी प्राचीन भाषा में ‘हिंदू’ शब्द नहीं है। किसी भी पुराने धार्मिक या सांस्कृतिक ग्रंथ में भी यह नहीं है। करीब 1400 साल पहले आए कुरान मजीद में ईसाई और यहूदी शब्दों का तो एकाधिक बार जिक्र है लेकिन ‘ हिंदू’ सिरे से नदारद है। उपनिषद-गीता की तो बात दूर लगभग चार सौ वर्ष पुरानी राम चरित मानस में तक में ‘हिंदू धर्म’ कहीं नहीं है। तब हिंदी भ्रूणावस्था में ही थी। गोस्वामी तुलसी दास जी ने अरबी-फारसी के कई शब्दों को मानस में सम्मान दिया है। उनके राम और इस्लाम के अल्लाह की अवधारणायें समर्थता व समपर्ण में समान थीं। तय है कि तब हिंदू धर्म नहीं बना था। अन्यथा वह कहीं न कहीं मानस में जगह पाता। तुलसी के परवर्ती संतों व भक्त कवियों के साहित्य में भी ‘हिंदू’ नहीं ‘सनातन’ धर्म ही दीपित है।
तो फिर यह आया कहां से ? हिंदू की शब्द यात्रा देखने पर हम पाते हैं कि इसकी उत्पत्ति की दो मुख्य मान्यतायें हैं। एक, यह कि ‘हिंदू’ संस्कृत के सिंधु( नदी, समुद्र) से बना है। प्राचीन वैदिक संस्कृत के कतिपय अक्षरों के चलते सिंधु ‘हिंदु’ या ‘हिंद’ हो गया। दूसरे , यह कि उच्चारण भेद से सिंधु का हिंद हो गया। ग्रीक, अरब और पारसी पहले पहल जब भारत आए तो वे सिंधु शब्द को सही तरीके से उच्चारित नहीं कर पाये और सिंधु उनके गलत उच्चारण से हिंदू बन गया। बताते हें कि भारत में जब आक्रमण किया तो सिकंदर महान और उसके सैनिक भी ‘सिंधु’ नहीं बोल पाए। यानी ग्रीक, मेसापोटामिया और मध्य पूर्व क्षेत्र के लोग ‘स’ नहीं उच्चारित कर पाते थे। इस लिए ‘सिंध’ और ‘सिंधु’ ‘हिंद’ और ‘हिंदू’ हो गए।
प्राचीन भारत का चंद्रमा से गहरा नाता रहा है। यह भारत के जनजीवन में रचा बसा था। चंद्रमा के पर्यायवाची सोम पर ही आर्यों के प्रसिद्ध पेय-रस का नाम था। दूसरे पर्याय इंदु के नाम से (inde) ,इंडस (indus), और फिर इंडिया, हिंदी और हिंदू बने। सिंधु नदी उत्तर पश्चिम भाग में भारत ख्ांड की सीमा थी जिसे यूनानी में इंडस कहते थे। यह इंडस इंदु (चंद्रमा) के इंडि से बना। सिंधु घाटी की सभ्यता तत्कालीन विश्व की सिरमौर व सम्पन्न सभ्यताओं में थी। इस लिए ग्रीक-यवन आदि के यहां हमले भी होते रहते थे। ब्यापार व विद्या-दर्शन के आदान प्रदान को भी लोग आते जाते रहते थे।
खैर, मूल बिषय पर आते हैं। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन सांग के हवाले से कहा जाता है कि प्राचीन भारत को तीन कारणों से इंदु (चंद्रमा) कहा जाता था-
1- उत्तर की ओर देखने पर हिमालय आकार में चंद्रमा जैसा दिखता था।
2- हिमालय भी चंद्रमा जैसा शीतल-ठंढा है। और,
3- चंद्रमा प्रकाश देता है। भारत भी विश्व को ज्ञान-प्रकाश का प्रदाता था।
ग्रीक-रोमन वगैरह ‘इंदु’ सही नहीं बोल पाते थे , वे इसे ‘इंदि’ या ‘इंडि’ कहते थे।
अरब के लोग सिंधु नदी पार के भू क्षेत्र को अल हिंद कहते थे। इस तरह सिंधु घाटी पार के भौगोलिक क्षेत्र को ‘हिंद’ , ‘हिंदुस्तान’ और इस क्षेत्र विशेष के निवासियों को स्वाभाविक रूप से ‘हिंदू’ कहा गया। हिंदू शब्द इस क्षेत्र की जीवन शैली को निरूपित करता था। धर्म से इसका कोई संबंध नहीं था। यानी आज धर्म के लिए प्रयुक्त होने वाले और कुछ लोगों को साम्प्रदायिक लगने वाला ‘हिंदू’ मूलत: और प्रकृत्या धर्म निरपेक्ष था। भारतीय उपमहाद्वीप यानी हिंदुस्तान में रहने वाले सभी लोग हिंदू कहे जाते थे, चाहे वे जिस धर्म के हों। इतिहासकारों के अनुसार हिंदुस्तान भारत के वैकल्पिक नाम के रूप में 13वीं सदी में उभरा।
अंग्रेजों के पदापर्ण के बाद स्िथतियों ने तेजी से मोड लेना शुरू किया। सदमे में शिथिल पडी सनातनी धर्मधारा की पहचान मिटा देने के लिए मारक और शातिर चाल चली गयी। यह किया गोरों ने। 18वीं सदी के अंत में यूरोपीय ब्यापारियों और उपनिवेशवादियों ने भारतीय धर्मों को मानने वालों को सामूहिक रूप से हिंदू कहना शुरू किया। और फिर धीरे धीरे अवैदिक वैदिक भारतीय धर्म – बौद्ध, जैनादि इस शब्द परिधि के दायरे से पृथक होते गए। अंग्रेजी भाषा के शब्दकोषों में ‘हिंदुइज्म’ (हिंदुत्व) 19वीं सदी में शामिल किया गया बताया जाता है।
वेद यानी ज्ञान सनातन है। इस लिए भारत में धर्म को सनातन ,वेदाधारित होने से वैदिक, ब्राह्मण और भागवत धर्म भी कहा गया। सर्वकालिक संज्ञा सनातन धर्म ही रही। ‘सनातन’ पर ‘हिंदू’ रूपी मुखौटा चस्पा करने के बाद से लगातार भारतीय धर्म-चेतना को कमजोर करने की कोशिशें हो रहीं हैं। पहले अंग्रेजियत ने इसके सनातनी स्वरूप को सीमित- संकुचित किया , रही सही कसर अब आंतरिक अंतर्विरोध पूरी किये दे रहे हैं। एक बडा वर्ग हिंदू और हिंदुत्व से सार्वजनिक रूप से सायास दूरी बना कर चलता है।
यह अंतर्विरोध भी ध्यान देने योग्य है कि धर्मिक कार्यक्रमों- अनुष्ठानों में तो हमारे शंकराचार्य-धर्माचार्य ‘भारत माता की जय हो’ के बाद और ‘हर हर महादेव’ के उद्घोष के पहले ‘ सनातन धर्म की जय हो’ बोलते हैं। हिंदू धर्म की जय हो, नहीं बोला जाता। सनातन धर्म से धर्म की जिस गौरव-गरिमा और उदात्तता का बोध होता है वह इस नकली चेहरे से नहीं होता। ‘हिंदू धर्म ‘ एक प्रकार से शाब्दिक दासता है। अंतर्विरोध मिटाने को हमें क्या इस से मुक्त नहीं होना चाहिए ?
हिन्दू, हिन्दुत्व और हिन्दू धर्म की प्रचलित मान्यतायें भयानक आत्मघाती अंतर्विरोधों का शिकार हैं। यह कहने में अटपटा लग सकता है कि इन मान्यताओं से हिन्दू और भारत की पहचान प्रभावित हो रही है। यह कटु सत्य है ,लेकिन हम समस्या की संवेदनशीलता से आंखें चुराते हुए हट बच्ा के ही निकल जाना चाहते हैं। अंतर्विरोध की स्थिति यह है कि एक बडा वर्ग धर्म को ‘अफीम’ की तरह देखते हुए इसका नाम तक लेने से कतराता है। जब कि एक वर्ग को अपने होने की पहचान कराते रहने के लिए ‘गर्व से कहो, हम हिन्दू हैं’ की पट्टिका लगानी पड रही है।
यह उस धर्म-संस्कृति की स्िथति है जो अनुयायियों के लिहाज से क्रिस्चियनिटी और इस्लाम के बाद अभी भी दुनिया का तीसरा सब से बडा धर्म है। जिसे सभी धर्म-दर्शनों का जनक-पितामह कहा जाता है। जो सब से पुराना जीवित धर्म है। जिसकी जडें प्राग्ऐतिहासिक काल में हैं। जिसका साहित्य -स्रोत ईसा पूर्व पांच-छह हजार वर्ष तक पुराना है।
विचार करने पर हम पाते हैं कि इस विडम्बनापूर्ण व विचित्र स्िथति के पीछे ‘हिन्दू’ शब्द है। यह जारज शब्द सदियों के सफर में अपना मूल व वास्तविक अर्थ ही खो बैठा है। अपने विद्रूपित अर्थ-रूप के विस्तार से धर्म के आर्यावर्ती स्वरूप को धकिया कर ‘सनातन’ आसन पर आ विराजा है।
हिन्दू शब्द प्रचलित या रूढ अर्थों में हिंदू धर्म वाला होने का बोध देता है। लेकिन ईसाइयत या इस्लाम की धर्म बिषयक मान्यता की तरह यहां कोई एकीकृत व्यवस्था नहीं है। न तो कोई प्रर्वतक-संस्थापक है और कोई एक किताब जिसके सहारे धर्मयात्रा पूरी की जाए। इसे राम-कृष्ण जैसे अवतारों या भोले शंकर जैसे महादेव ने नहीं चलाया और न ही किसी मंत्रदृष्टा ऋषि ने। सब इसमें हुए। तात्पर्य यह कि इसका शुरुआती सिरा-सूत्र ही नहीं है। अनादि और स्वरूप में सनातन है यह।
अब वैविध्य देखिए। मूर्तिपूजक हिंदू और अपूजक व मूर्ति पूजा को पानी पी पी कर कोसने वाला भी हिंदू। मंदिर-तीर्थ जाने वाला हिंदू और न जाने वाला भी हिंदू। यज्ञ, व्रत-उपवास करने वाला हिंदू और न करने वाला भी हिंदू। वेदपाठी व वेदनिष्ठ हिंदू और इनकी ओर भूल कर भी न झांकने वाला भी हिंदू। शिखा-सूत्र धारक हिंदू और इन सब को उतार फेंकने वाला भी हिंदू। आस्तिक हिंदू और नास्तिक भी हिंदू। राम, कृष्ण और शिव वगैरह भगवानों व तमाम देवी देवताओं को मानने वाला हिंदू , उनमें से किसी एक का ही आराधक भी हिंदू और किसी को भी न मानने वाला भी हिंदू। सगुणोपासक हिंदू और सगुण का उपहास उडाने वाला निगुर्णोपासक भी हिंदू। आप ही बतायें आखिर किसे कहें हिंदू ?
अनंत की खोज और उपासना पद्धतियों का यह वैविध्य ही भारतीय भूभाग का अनुपम वैशिष्ट्य रहा है। भारतीय चेतना यह मानती रही है कि परम सत्य तक पहुंचने और जगत-रहस्य सुलझाने के अनेक रास्ते हैं और सभी एक ही मंजिल को जाते हैं। इसी चिंतन – औदार्य की बदौलत प्राचीन भारत धरा में विचार-पद्धतियों के प्रकाश-दीप जल सके जिनका सिरा पकड दुनिया के तमाम दर्शन और मत विकसित हुए। भारत में उपास्यों और उपासना पद्धतियों की बहुलता के बावजूद सह अस्तित्व, समन्वय और सामंजस्य की सनातन चेतना का सूर्य यहां सदैव चमकता रहा। तमाम भाषाई, सांस्कृतिक, वैचारिक और क्षेत्रीय विभिन्नतायें एक छतरी के नीचे प्रश्रय पाती रहीं। सिंधु घाटी की सभ्यता में कई आस्था , विश्वास, मान्यतायें, दर्शन- मार्ग पुष्पित-पल्लवित हुए।
कहीं पढा था – हिंदू धर्म किसी एक ब्यक्ति, किसी एक पुस्तक, अथवा किसी एकांगी जीवन दृष्टि या पद्धति की उपज नहीं है, इस लिए ईसाई, यहूदी या मुहम्मदी , किसी भी मजहब से उसकी समकक्षता या तुलना नहीं हो सकती है।
संस्कृत समेत किसी भी प्राचीन भाषा में ‘हिंदू’ शब्द नहीं है। किसी भी पुराने धार्मिक या सांस्कृतिक ग्रंथ में भी यह नहीं है। करीब 1400 साल पहले आए कुरान मजीद में ईसाई और यहूदी शब्दों का तो एकाधिक बार जिक्र है लेकिन ‘ हिंदू’ सिरे से नदारद है। उपनिषद-गीता की तो बात दूर लगभग चार सौ वर्ष पुरानी राम चरित मानस में तक में ‘हिंदू धर्म’ कहीं नहीं है। तब हिंदी भ्रूणावस्था में ही थी। गोस्वामी तुलसी दास जी ने अरबी-फारसी के कई शब्दों को मानस में सम्मान दिया है। उनके राम और इस्लाम के अल्लाह की अवधारणायें समर्थता व समपर्ण में समान थीं। तय है कि तब हिंदू धर्म नहीं बना था। अन्यथा वह कहीं न कहीं मानस में जगह पाता। तुलसी के परवर्ती संतों व भक्त कवियों के साहित्य में भी ‘हिंदू’ नहीं ‘सनातन’ धर्म ही दीपित है।
तो फिर यह आया कहां से ? हिंदू की शब्द यात्रा देखने पर हम पाते हैं कि इसकी उत्पत्ति की दो मुख्य मान्यतायें हैं। एक, यह कि ‘हिंदू’ संस्कृत के सिंधु( नदी, समुद्र) से बना है। प्राचीन वैदिक संस्कृत के कतिपय अक्षरों के चलते सिंधु ‘हिंदु’ या ‘हिंद’ हो गया। दूसरे , यह कि उच्चारण भेद से सिंधु का हिंद हो गया। ग्रीक, अरब और पारसी पहले पहल जब भारत आए तो वे सिंधु शब्द को सही तरीके से उच्चारित नहीं कर पाये और सिंधु उनके गलत उच्चारण से हिंदू बन गया। बताते हें कि भारत में जब आक्रमण किया तो सिकंदर महान और उसके सैनिक भी ‘सिंधु’ नहीं बोल पाए। यानी ग्रीक, मेसापोटामिया और मध्य पूर्व क्षेत्र के लोग ‘स’ नहीं उच्चारित कर पाते थे। इस लिए ‘सिंध’ और ‘सिंधु’ ‘हिंद’ और ‘हिंदू’ हो गए।
प्राचीन भारत का चंद्रमा से गहरा नाता रहा है। यह भारत के जनजीवन में रचा बसा था। चंद्रमा के पर्यायवाची सोम पर ही आर्यों के प्रसिद्ध पेय-रस का नाम था। दूसरे पर्याय इंदु के नाम से (inde) ,इंडस (indus), और फिर इंडिया, हिंदी और हिंदू बने। सिंधु नदी उत्तर पश्चिम भाग में भारत ख्ांड की सीमा थी जिसे यूनानी में इंडस कहते थे। यह इंडस इंदु (चंद्रमा) के इंडि से बना। सिंधु घाटी की सभ्यता तत्कालीन विश्व की सिरमौर व सम्पन्न सभ्यताओं में थी। इस लिए ग्रीक-यवन आदि के यहां हमले भी होते रहते थे। ब्यापार व विद्या-दर्शन के आदान प्रदान को भी लोग आते जाते रहते थे।
खैर, मूल बिषय पर आते हैं। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन सांग के हवाले से कहा जाता है कि प्राचीन भारत को तीन कारणों से इंदु (चंद्रमा) कहा जाता था-
1- उत्तर की ओर देखने पर हिमालय आकार में चंद्रमा जैसा दिखता था।
2- हिमालय भी चंद्रमा जैसा शीतल-ठंढा है। और,
3- चंद्रमा प्रकाश देता है। भारत भी विश्व को ज्ञान-प्रकाश का प्रदाता था।
ग्रीक-रोमन वगैरह ‘इंदु’ सही नहीं बोल पाते थे , वे इसे ‘इंदि’ या ‘इंडि’ कहते थे।
अरब के लोग सिंधु नदी पार के भू क्षेत्र को अल हिंद कहते थे। इस तरह सिंधु घाटी पार के भौगोलिक क्षेत्र को ‘हिंद’ , ‘हिंदुस्तान’ और इस क्षेत्र विशेष के निवासियों को स्वाभाविक रूप से ‘हिंदू’ कहा गया। हिंदू शब्द इस क्षेत्र की जीवन शैली को निरूपित करता था। धर्म से इसका कोई संबंध नहीं था। यानी आज धर्म के लिए प्रयुक्त होने वाले और कुछ लोगों को साम्प्रदायिक लगने वाला ‘हिंदू’ मूलत: और प्रकृत्या धर्म निरपेक्ष था। भारतीय उपमहाद्वीप यानी हिंदुस्तान में रहने वाले सभी लोग हिंदू कहे जाते थे, चाहे वे जिस धर्म के हों। इतिहासकारों के अनुसार हिंदुस्तान भारत के वैकल्पिक नाम के रूप में 13वीं सदी में उभरा।
अंग्रेजों के पदापर्ण के बाद स्िथतियों ने तेजी से मोड लेना शुरू किया। सदमे में शिथिल पडी सनातनी धर्मधारा की पहचान मिटा देने के लिए मारक और शातिर चाल चली गयी। यह किया गोरों ने। 18वीं सदी के अंत में यूरोपीय ब्यापारियों और उपनिवेशवादियों ने भारतीय धर्मों को मानने वालों को सामूहिक रूप से हिंदू कहना शुरू किया। और फिर धीरे धीरे अवैदिक वैदिक भारतीय धर्म – बौद्ध, जैनादि इस शब्द परिधि के दायरे से पृथक होते गए। अंग्रेजी भाषा के शब्दकोषों में ‘हिंदुइज्म’ (हिंदुत्व) 19वीं सदी में शामिल किया गया बताया जाता है।
वेद यानी ज्ञान सनातन है। इस लिए भारत में धर्म को सनातन ,वेदाधारित होने से वैदिक, ब्राह्मण और भागवत धर्म भी कहा गया। सर्वकालिक संज्ञा सनातन धर्म ही रही। ‘सनातन’ पर ‘हिंदू’ रूपी मुखौटा चस्पा करने के बाद से लगातार भारतीय धर्म-चेतना को कमजोर करने की कोशिशें हो रहीं हैं। पहले अंग्रेजियत ने इसके सनातनी स्वरूप को सीमित- संकुचित किया , रही सही कसर अब आंतरिक अंतर्विरोध पूरी किये दे रहे हैं। एक बडा वर्ग हिंदू और हिंदुत्व से सार्वजनिक रूप से सायास दूरी बना कर चलता है।
यह अंतर्विरोध भी ध्यान देने योग्य है कि धर्मिक कार्यक्रमों- अनुष्ठानों में तो हमारे शंकराचार्य-धर्माचार्य ‘भारत माता की जय हो’ के बाद और ‘हर हर महादेव’ के उद्घोष के पहले ‘ सनातन धर्म की जय हो’ बोलते हैं। हिंदू धर्म की जय हो, नहीं बोला जाता। सनातन धर्म से धर्म की जिस गौरव-गरिमा और उदात्तता का बोध होता है वह इस नकली चेहरे से नहीं होता। ‘हिंदू धर्म ‘ एक प्रकार से शाब्दिक दासता है। अंतर्विरोध मिटाने को हमें क्या इस से मुक्त नहीं होना चाहिए ?
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