बुधवार, 6 मार्च 2024

नेहरू की आत्ममुग्धता

जब इन्दिरा गांधी की सुरक्षा में खूबसूरत रूसी नौजवान लगाए गए 

भारत को तब नई नई आज़ादी मिली हुयी थी। पण्डित नेहरू के नेतृत्व में पूरे देश मे कांग्रेस का झण्डा लहरा रहा था।

पण्डित नेहरू साम्यवाद और समाजवाद के घोड़े पर सवार थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूरी दुनियां दो खेमों में बंट गई  थी। एक तरफ सोवियत रूस तब पूरी दुनियां में कम्यूनिज़्म और सोशलिज्म का झण्डा बरदार था तो दूसरी तरफ संयुक्त राज्य अमेरिका डेमोक्रेसी और कैपिटलिज्म का पैरोकार। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इन दो महाशक्तियों में एक अदृश्य युद्ध छिड़ गया जिसे कोल्डवार के नाम से जाना जाता है। इस कोल्डवार को लीड कर रही थी यूएसएसआर की खुफिया एजेंसी केजीबी और यूएसए की खुफिया एजेंसी सीआइए।

ये दोनों एजेंसियां अलग अलग देशों में खुफिया ऑपरेशन चलाकर वहां की व्यवस्थाओं पर अपना कब्जा चाहती थीं। उस समय दोनों के निशाने पर था एक ऐसा देश जो क्षेत्रफल की दृष्टि से सातवां सबसे बड़ा और जनसंख्या के लिहाज से दूसरा सबसे बड़ा देश था। भारत की व्यवस्था पर कब्जा का अर्थ पूरे यूरोप के बराबर व्यवस्था पर कब्जा। दोनों एजेंसियों ने अपने एजेण्ट भारत मे लगा रखे थे। लेकिन नेहरू के वाम पंथ की तरफ रुझान का फायदा उठा कर केजीबी व्यवस्था में गहरी घुसपैठ कर चुकी थी। नेहरू ने अमेरिका को अपना दुश्मन बना लिया था।                  
जोसेफ स्टालिन नेहरू और गांधी को खुलेआम "इम्पीरियलिस्ट पपेट" कहता था और उनकी खिल्ली उड़ाता था।लेकिन नेहरू को तब भी उसकी गोद मे बैठना ही पसंद आया। केजीबी ने भारत मे यूएसएसआर के दूतावास की मदद से अपने सैंकड़ों एजेंटों को भारत के सत्ता केंद्र दिल्ली में काम पर लगा दिये।

उस समय केजीबी के अहम खुफिया दस्तावेजों का प्रबंधन देख रहे थे "वेसिली मित्रोखिन"। मित्रोखिन कई वर्षों तक इन खुफिया दस्तावेजों की एक एक कॉपी अपने पास जमा करते रहे।फिर एक दिन ब्रिटिश खुफिया एजेंसी MI6 की मदद से वे रूस से भागने में सफल हुये और ब्रिटिश सुरक्षा में उन्होंने इन खुफिया दस्तावेजों के हवाले दो किताबें प्रकाशित करवाई जिन्हें मित्रोखिन आर्काइव 1 और 2 के नाम से जाना जाता है।

अपनी किताब में मित्रोखिन ने केजीबी के बहुत ही खुफिया ऑपरेशन्स की पोल खोलकर दुनियां भर में तहलका मचा दिया। मित्रोखिन के अनुसार 'जब भारत के प्रधानमंत्री नेहरू सोवियत रूस की यात्रा पर गये तो अपने साथ बेटी इन्दिरा को लेकर भी गये। उनकी इस यात्रा को केजीबी ने बहुत ही चतुराई से डिजाइन किया था। रूस पहुंचते ही नेहरू का अभूतपूर्व स्वागत किया गया। उन्हें मॉस्को की सड़कों पर स्टालिन के साथ घुमाया गया। आयोजन को भव्य रोड़ शो का स्वरूप दिया गया। कुल मिला कर नेहरू को ये अहसास दिलवाया गया कि वो रूस में भी बहुत लोकप्रिय हैं।'

केजीबी जानती थी कि नेहरू आत्ममुग्ध व्यक्ति हैं अतः उन्हें नियन्त्रण में लाने का यही सबसे अच्छा तरीका था कि चने के झाड़ पर चढ़ाकर मनमाने समझौते करवा लिए जायें। मित्रोखिन आगे बताते हैं कि उस समय केजीबी की तरफ से इंदिरा गांधी को 20 मिलियन भारतीय रुपयों का भुगतान किया गया। उन्हें रूस के खूबसूरत द्वीपों पर और बीचों पर भ्रमण के लिये ले जाया गया। जहां उनकी सुरक्षा में जान बूझ कर लम्बे चौड़े और खूबसूरत दिखने वाले अफसरों को तैनात किया गया था।
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आउटलुक के लेख का कुछ अंश:

उस यात्रा के दौरान केजीबी ने नेहरू से कई महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर करवा लिये। उस दौरान केजीबी ने नेहरू और इंदिरा को यह विश्वास दिलाया कि आने वाला समय कम्युनिस्टों का होगा। इसके बाद केजीबी बड़े पैमाने पर ऐसे नेताओं के चुनाव अभियान चलाने लगी जो चुनाव जीत कर मन्त्री बने। फिर इन मंत्रियों की मदद से वे हमारी व्यवस्थाओं पर और मजबूत पकड़ बनाते चले गये।

नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री जी ने केजीबी के पर कतरने शुरू कर दिये थे लेकिन ताशकंद में केजीबी ने उनकी हत्या कर दी। उनकी हत्या के बाद इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनी। इस दौरान केजीबी ने रूस में भारतीय दूतावास में मौजूद राजनयिकों को पैसे का लालच देकर, भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसाकर और हनीट्रैपिंग करके कई गोपनीय सूचनाओं को बाहर निकलवाया।

बिजनेस स्टैंडर्ड का लेख:

केजीबी भारतीय राजनयिकों, लेखकों, पत्रकारों, फिल्मकारों, नेताओं और महत्वपूर्ण मंत्रालयों के अधिकारियों को कोई ना कोई सम्मान के बहाने मॉस्को बुलाती थी और वहां किसी को पैसे से खरीद लेते थे तो किसी को महिला एजेंटों का उपयोग करके फंसा लेते थे। महिला एजेंट जिन्हें स्पेरो यानी गौरेया कहा जाता था, इन नेताओं और लेखकों के साथ रंगरेलियां मनाती थी और उनका वीडियो बनाकर फिर ब्लैकमेल करके महत्वपूर्ण सूचनाओं को चुराती थीं।

जहां एक तरफ केजीबी भारत की व्यवस्थाओं में गहरी घुसपैठ कर रही थी वहीं दूसरी तरफ सीआइए भी इस खेल में जुटी हुई थी। दोनों एजेंसियों ने भारत को अपना प्लेग्राउंड बनाया हुआ था। भारतीय राजव्यवस्था के खेवनहार कांग्रेसियों को और वामपंथियों को खरीदने के लिये दोनों देश पानी की तरह पैसा बहा रहे थे। केजीबी ने भारत के लगभग सभी प्रमुख समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को पैसे देकर अपने पक्ष में कर लिया। इन अखबारों के माध्यम से केजीबी ने हजारों आर्टिकल प्रकाशित करवाये। इन लेखों के द्वारा भारतीय जनमानस में अमेरिका के खिलाफ एक माहौल तैयार करवाया गया।

आज जो Press trust of India है उसे उस समय Press TASS of India कहा जाता था। TASS उस समय सोवियत समाचार एजेंसी थी। यही एजेंसी भारतीय प्रेस को नियंत्रित करती थी। भारत से बड़े बड़े पत्रकारों और लेखकों को सोवियत खर्चे पर मॉस्को बुलाया जाता था। वहां उन्हें कोई छोटा मोटा सम्मान देकर केजीबी के दफ्तरों में भेजा जाता था जहाँ केजीबी के एजेंट उन्हें ब्रीफ करते थे। सोवियत सरकार अपने खर्चे पर भारत मे जगह जगह सोवियत पुस्तक मेलों का आयोजन करवाती थी। इन पुस्तक मेलों में ऐसी लाखों पुस्तकें मुफ्त में बांटी जाती थी जो अमेरिका के खिलाफ प्रोपेगैंडा चलाती थीं और वामपन्थी नीतियों के पक्ष में एक जनमत तैयार करने का काम करती थी। इस तरह के आयोजनों के लिये कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के कैडरों का उपयोग किया जाता था।

उस समय दिल्ली में स्थित सोवियत दूतावास सबसे अधिक चर्चा में रहता था। वहां हर समय पत्रकारों, लेखकों, फ़िल्म कलाकारों, सरकारी अफसरों और नेताओं का हुजूम लगा रहता था। एक अनुमान के मुताबिक उस समय सोवियत दूतावास में 800 से ज्यादा कर्मचारी काम करते थे जिनमें से ज्यादातर केजीबी के एजेंट होते थे। हर वर्ष रूस ने करीब दस हजार ऐसे टूरिस्ट भारत आते थे जिन्हें सोवियत सरकार अपने खर्चे पर भारत भेजती थी। इन टूरिस्टों में कितने केजीबी के एजेण्ट होते थे यह आज भी रहस्य है।

सोवियत निर्देशों का पालन करते हुये कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ने इंदिरा गांधी को बाहर से समर्थन दिया जिसके कारण उनकी सरकार बच गयी।

इस समर्थन की एवज में वामपंथियों ने कला, संस्कृति, शिक्षा, पुरातत्व, भाषा इत्यादि विभागों में अपने लोग महत्वपूर्ण पदों पर बिठा दिये। इन्हीं वामपंथियों ने 1972 में Indian Council of Historical Research (ICHR) का गठन किया। इस संस्था ने भारतीय इतिहास का जो बंटाधार किया वो कई सौ वर्षों तक मुस्लिम और ईसाई भी नहीं कर पाये।

रोमिला थॉपर, डी.एन झा, रामगुहा, इरफान हबीब, जैसे फिक्शन लेखकों को इतिहास का विशेषज्ञ बना दिया गया। इन्होंने अपनी मर्जी से बिना किसी पुख्ता सबूत के मनमर्जी का इतिहास लिखा। ये जो आज आप देखते हैं ना कि किस तरह से इतिहास की किताबों में मुगलों की तारीफों का बखान किया गया है, ये सब इन्हीं की देन है।

ये जो देशद्रोहियों का अड्डा J.N.U है ना 1969 में ही बना था। इसे बनाने में भी कम्युनिस्ट ही शामिल थे। कम्युनिस्टों ने उस समय जो बीज बोया था वो आज वृक्ष बनकर "भारत तेरे टुकड़े होंगे" जैसा फल दे रहा है।
प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा पाठ्यक्रमों का निर्धारण भी सोवियत रूस के इशारों पर किया जाने लगा। पाठ्यक्रम से चुन चुन कर हिन्दू प्रतीकों को मिटाया जाने लगा। हिन्दू रीति रिवाजों का मजाक बनाया जाने लगा। इस काम मे तमाम समाचार पत्र पत्रिकाएं लगी हुई थी। केजीबी सोवियत खर्चे पर मुफ्त में ऐसा साहित्य वितरित करवा
रही थी जो हिन्दू धर्म के खिलाफ जहर उगलता था। उस समय पूरे देश में जगह जगह मास्को कल्चरल फेस्टिवल का आयोजन किया जाता था। इन आयोजनों में पहुंचने वाले युवाओं का जबतदस्त ब्रेनवॉश किया जाता था। कुल मिलाकर एक तरफ केजीबी सरकार पर नियंत्रण करके सैन्य और गोपनीय सूचनायें चुरा रही थी तो दूसरी तरफ कला, संस्कृति, धर्म और भाषा को जबरदस्त नुकसान पहुंचा रही थी।

बुधवार, 14 फ़रवरी 2024

झांसी की रानी के वंशज...अब यहां है ।।

अपने इतिहास के सर्वोच्च नायकों के साथ हमने कैसा व्यवहार किया है उसकी एक बानगी देखिये ।

झांसी के अंतिम संघर्ष में महारानी लक्ष्मीबाई की पीठ पर बंधा उनका बेटा दामोदर राव (असली नाम आनंद राव) सबको याद है. रानी की चिता जल जाने के बाद उस बेटे का क्या हुआ ?

वो कोई कहानी का किरदार भर नहीं था, 1857 के विद्रोह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी को जीने वाला राजकुमार था जिसने उसी गुलाम भारत में जिंदगी काटी, जहां उसे भुला कर उसकी मां के नाम की कसमें खाई जा रही थी.

अंग्रेजों ने दामोदर राव को कभी झांसी का वारिस नहीं माना था, सो उसे सरकारी दस्तावेजों में कोई जगह नहीं मिली थी. ज्यादातर हिंदुस्तानियों ने सुभद्रा कुमारी चौहान के आलंकारिक वर्णन को ही इतिहास मानकर इतिश्री कर ली.

1959 में छपी वाई एन केलकर की मराठी किताब ‘इतिहासाच्य सहली’ (इतिहास की सैर) में दामोदर राव का इकलौता वर्णन छपा.

महारानी की मृत्यु के बाद दामोदार राव ने एक तरह से अभिशप्त जीवन जिया. उनकी इस बदहाली के जिम्मेदार सिर्फ फिरंगी ही नहीं हिंदुस्तान के लोग भी बराबरी से थे.

आइये, दामोदर की कहानी दामोदर की जुबानी सुनते हैं :-

15 नवंबर 1849 को नेवलकर राजपरिवार की एक शाखा में मैं पैदा हुआ. ज्योतिषी ने बताया कि मेरी कुंडली में राज योग है और मैं राजा बनूंगा. ये बात मेरी जिंदगी में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से सच हुई. तीन साल की उम्र में महाराज ने मुझे गोद ले लिया. गोद लेने की औपचारिक स्वीकृति आने से पहले ही पिताजी नहीं रहे.

मां साहेब (महारानी लक्ष्मीबाई) ने कलकत्ता में लॉर्ड डलहॉजी को संदेश भेजा कि मुझे वारिस मान लिया जाए. मगर ऐसा नहीं हुआ.

डलहॉजी ने आदेश दिया कि झांसी को ब्रिटिश राज में मिला लिया जाएगा. मां साहेब को 5,000 सालाना पेंशन दी जाएगी. इसके साथ ही महाराज की सारी सम्पत्ति भी मां साहेब के पास रहेगी. मां साहेब के बाद मेरा पूरा हक उनके खजाने पर होगा मगर मुझे झांसी का राज नहीं मिलेगा.

इसके अलावा अंग्रेजों के खजाने में पिताजी के सात लाख रुपए भी जमा थे. फिरंगियों ने कहा कि मेरे बालिग होने पर वो पैसा मुझे दे दिया जाएगा.

मां साहेब को ग्वालियर की लड़ाई में शहादत मिली. मेरे सेवकों (रामचंद्र राव देशमुख और काशी बाई) और बाकी लोगों ने बाद में मुझे बताया कि मां ने मुझे पूरी लड़ाई में अपनी पीठ पर बैठा रखा था. मुझे खुद ये ठीक से याद नहीं. इस लड़ाई के बाद हमारे कुल 60 विश्वासपात्र ही जिंदा बच पाए थे.

नन्हें खान रिसालेदार, गनपत राव, रघुनाथ सिंह और रामचंद्र राव देशमुख ने मेरी जिम्मेदारी उठाई. 22 घोड़े और 60 ऊंटों के साथ बुंदेलखंड के चंदेरी की तरफ चल पड़े. हमारे पास खाने, पकाने और रहने के लिए कुछ नहीं था. किसी भी गांव में हमें शरण नहीं मिली. मई-जून की गर्मी में हम पेड़ों तले खुले आसमान के नीचे रात बिताते रहे. शुक्र था कि जंगल के फलों के चलते कभी भूखे सोने की नौबत नहीं आई.

असल दिक्कत बारिश शुरू होने के साथ शुरू हुई. घने जंगल में तेज मानसून में रहना असंभव हो गया. किसी तरह एक गांव के मुखिया ने हमें खाना देने की बात मान ली. रघुनाथ राव की सलाह पर हम 10-10 की टुकड़ियों में बंटकर रहने लगे.

मुखिया ने एक महीने के राशन और ब्रिटिश सेना को खबर न करने की कीमत 500 रुपए, 9 घोड़े और चार ऊंट तय की. हम जिस जगह पर रहे वो किसी झरने के पास थी और खूबसूरत थी.

देखते-देखते दो साल निकल गए. ग्वालियर छोड़ते समय हमारे पास 60,000 रुपए थे, जो अब पूरी तरह खत्म हो गए थे. मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि सबको लगा कि मैं नहीं बचूंगा. मेरे लोग मुखिया से गिड़गिड़ाए कि वो किसी वैद्य का इंतजाम करें.

मेरा इलाज तो हो गया मगर हमें बिना पैसे के वहां रहने नहीं दिया गया. मेरे लोगों ने मुखिया को 200 रुपए दिए और जानवर वापस मांगे. उसने हमें सिर्फ 3 घोड़े वापस दिए. वहां से चलने के बाद हम 24 लोग साथ हो गए.

ग्वालियर के शिप्री में गांव वालों ने हमें बागी के तौर पर पहचान लिया. वहां तीन दिन उन्होंने हमें बंद रखा, फिर सिपाहियों के साथ झालरपाटन के पॉलिटिकल एजेंट के पास भेज दिया. मेरे लोगों ने मुझे पैदल नहीं चलने दिया. वो एक-एक कर मुझे अपनी पीठ पर बैठाते रहे.

हमारे ज्यादातर लोगों को पागलखाने में डाल दिया गया. मां साहेब के रिसालेदार नन्हें खान ने पॉलिटिकल एजेंट से बात की.

उन्होंने मिस्टर फ्लिंक से कहा कि झांसी रानी साहिबा का बच्चा अभी 9-10 साल का है. रानी साहिबा के बाद उसे जंगलों में जानवरों जैसी जिंदगी काटनी पड़ रही है. बच्चे से तो सरकार को कोई नुक्सान नहीं. इसे छोड़ दीजिए पूरा मुल्क आपको दुआएं देगा.

फ्लिंक एक दयालु आदमी थे, उन्होंने सरकार से हमारी पैरवी की. वहां से हम अपने विश्वस्तों के साथ इंदौर के कर्नल सर रिचर्ड शेक्सपियर से मिलने निकल गए. हमारे पास अब कोई पैसा बाकी नहीं था.

सफर का खर्च और खाने के जुगाड़ के लिए मां साहेब के 32 तोले के दो तोड़े हमें देने पड़े. मां साहेब से जुड़ी वही एक आखिरी चीज हमारे पास थी.

इसके बाद 5 मई 1860 को दामोदर राव को इंदौर में 10,000 सालाना की पेंशन अंग्रेजों ने बांध दी. उन्हें सिर्फ सात लोगों को अपने साथ रखने की इजाजत मिली. ब्रिटिश सरकार ने सात लाख रुपए लौटाने से भी इंकार कर दिया.

दामोदर राव के असली पिता की दूसरी पत्नी ने उनको बड़ा किया. 1879 में उनके एक लड़का लक्ष्मण राव हुआ.दामोदर राव के दिन बहुत गरीबी और गुमनामी में बीते। इसके बाद भी अंग्रेज उन पर कड़ी निगरानी रखते थे। दामोदर राव के साथ उनके बेटे लक्ष्मणराव को भी इंदौर से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी.

इनके परिवार वाले आज भी इंदौर में ‘झांसीवाले’ सरनेम के साथ रहते हैं. रानी के एक सौतेला भाई चिंतामनराव तांबे भी था. तांबे परिवार इस समय पूना में रहता है. झाँसी के रानी के वंशज इंदौर के अलावा देश के कुछ अन्य भागों में रहते हैं। वे अपने नाम के साथ झाँसीवाले लिखा करते हैं।

जब दामोदर राव नेवालकर 5 मई 1860 को इंदौर पहुँचे थे तब इंदौर में रहते हुए उनकी चाची जो दामोदर राव की असली माँ थी। बड़े होने पर दामोदर राव का विवाह करवा देती है लेकिन कुछ ही समय बाद दामोदर राव की पहली पत्नी का देहांत हो जाता है। दामोदर राव की दूसरी शादी से लक्ष्मण राव का जन्म हुआ। दामोदर राव का उदासीन तथा कठिनाई भरा जीवन 28 मई 1906 को इंदौर में समाप्त हो गया।

अगली पीढ़ी में लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए। कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए।

दामोदर राव चित्रकार थे उन्होंने अपनी माँ के याद में उनके कई चित्र बनाये हैं जो झाँसी परिवार की अमूल्य धरोहर हैं।

उनके वंशज श्री लक्ष्मण राव तथा कृष्ण राव इंदौर न्यायालय में टाईपिस्ट का कार्य करते थे ! अरूण राव मध्यप्रदेश विद्युत मंडल से बतौर जूनियर इंजीनियर 2002 में सेवानिवृत्त हुए हैं। उनका बेटा योगेश राव सॅाफ्टवेयर इंजीनियर है। वंशजों में प्रपौत्र अरुणराव झाँसीवाला, उनकी धर्मपत्नी वैशाली, बेटे योगेश व बहू प्रीति का धन्वंतरिनगर इंदौर में सामान्य नागरिक की तरह माध्यम वर्ग परिवार हैं।

🙌 अनेक शूरवीर सम्राटों के इस अखंड भारत में हमे कभी कोई विदेशी आक्रांता गुलाम नहीं बना सकता था बशर्ते अपने ही लोगों ने कायरता न दिखाई होती.

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