गुरुवार, 8 मई 2014

हममे (भारत) में कुछ बात हैं कि हस्ती मिटती नहीं हमारी

सदियों से भारत और भारत के बाहर के लोग भारत और उसकी अमूल्य धरोहर यानी इसकी संस्कृति के बारे में जानने की कोशिश करते रहे हैं। इसी क्रम में कुछ जान पायें और कुछ बिना जाने ही स्वर्ग सिधार गये। जिन्होंने जाना, उन्होंने जीने की कला सीख ली और खुद को धन्य करा दिया और जिन्होंने नहीं जाना, वे आज भी आवागमन में लगे हैं। क्या है भारत, क्यों ये आज भी जीवित है जबकि इसी दरम्यान कई देश जीवित हुए और मृत भी हो गये, पर भारत आज भी साकार खड़ा है। इसकी सीमाएं कालांतराल में फैली, सिकुड़ती गयी, पर इसके अस्तित्व पर कभी संकट नहीं आया और न आ पायेगा । शायद इसीलिए सुप्रसिद्ध शायर इकबाल ने आखिर लिख ही डाला कि 

यूनान मिस्र रोमां, सब मिट गये जहां से,
अब तक मगर है बाकी, नामो निशां हमारा,
कुछ बात हैं कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा हैं, दुश्मन दौरे जहां हमारा.

 
कमाल है, विश्व में कौन ऐसा देश है, जिस पर भारत जितने हमले हुए, और फिर इन हमलों से पार पाकर, वो देश फिर शान से खड़ा हो गया हो। इसका मतलब ही है कि भारत, अन्य देशों से कहीं भिन्न है, ये भोगभूमि नहीं, ये त्यागभूमि है। इसका कण-कण धर्म और देवत्व की परिभाषा कहता हैं, जरुरत हैं इसे समझने की। पर आज इसे समझने की फुरसत किसे है, गर नहीं हैं, तो समय का इंतजार करिये, प्रकृति खुद ऐसी लीलाएं करेगी कि आप को समझना आवश्यक पड़ जायेगा।
विष्णु पुराण कहता है

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उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रश्चैव दक्षिणम्।
वर्षम् तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।।

 
अर्थात् हिमालय के दक्षिण और सागर के उत्तर में जो भूखण्ड है वो भारत के नाम से जाना जानेवाला हैं और उसकी संतान भारती कहलाती है।
भा का अर्थ होता है – प्रकाश, प्रभा, कांति, शोभा और रत का अर्थ है – उसमें रम जानेवाला। यानी प्रकाश की ओर सदैव गमन करनेवाले देश का नाम भारत है। कैसा प्रकाश तो उसका सीधा अर्थ है – ज्ञान का प्रकाश। सर्वप्रथम ज्ञानोदय यहीं हुआ, सभ्यता यहीं आयी और फिर इस ज्ञान के प्रकाश के आधार पर सारा विश्व आलोकित हुआ। सारा विश्व भी अब मान चुका है कि विश्व की पहली पुस्तक ऋग्वेद है और इससे ज्यादा वर्तमान में प्रमाणिक आधार दूसरा कोई हो ही नहीं सकता।
 

भारत और भारत का धर्म
 

बार-बार धर्म को लोग, अपने अपने चश्मे से देखते हैं, कोई कहता है – हिन्दू धर्म, इस्लाम धर्म, सिक्ख धर्म, ईसाई धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और पता नहीं कितने सारे धर्म आज विश्व में पैदा हो चुके हैं, जो अनगिनत हैं, हम कह सकते हैं कि जितने लोग, उतने धर्म। पर धर्म क्या है, उसका शाश्वत स्वरुप क्या है, उसका आधार क्या है, शायद ही इन धर्मों की वकालत अथवा इस पर गर्व करनेवालों को मालूम हो, पर सही में धर्म की व्याख्या बहुत पहले स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में कर दी थी – ये कहकर कि गर पूरे विश्व से हिन्दू धर्म समाप्त हो जाये और उसके जगह पर इस्लाम धर्म का बोलबाला अथवा ईसाई या अन्य किसी भी प्रकार के धर्मों का बोलबाला हो जाये तो उसके धर्म ध्वज अथवा उसके उपदेशों में क्या लिखा होगा – ये लिखा होगा कि झूठ बोलो, अमर्यादित आचरण करों, सज्जनों को दुख पहुंचाओं, नहीं तो फिर क्या लिखा होगा – यहीं न, कि सच बोलो, अमर्यादित आचरण न करों, सज्जनों को आनन्द पहुंचाओ, यहीं तो धर्म है। भारत तो सदियों से यहीं कहता आया है। यहीं धर्म का मूल स्वरुप हैं, आधार है। ऐसे भी धर्म शब्द की उत्पति ही संस्कृत के धृ धातु से हुई है। धृ का अर्थ है – धारण करना। क्या धारण करना तो सत्य धारयति धर्मः अर्थात् सत्य को धारण करना ही धर्म है। धर्म शाश्वत है यह प्रकृति के अधीन है। प्रकृति स्वयं सत्य आचरण करा लेती है कोई इसके विपरीत चल ही नहीं सकता। गर चलेगा तो प्रकृति उसे दंड देगी, ये पूर्णतः सत्य है। ठीक उसी प्रकार कि गर्मी के दिनों में कोई कंबल नहीं ओढ़ सकता, कंबल तभी ओढ़ेगा जब जाड़े का मौसम आयेगा। ये धर्म का सार है। किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा चलाया गया पंथ या मत – कदापि धर्म का स्वरुप नहीं ले सकता। क्योंकि धर्म उक्त व्यक्ति के पूर्व में नहीं रहने के बावजूद भी था और उक्त व्यक्ति के नहीं रहने पर भी रहेगा। वह मृत नहीं हो सकता। किसी व्यक्ति के पंथ अथवा मत को माननेवाले पंथी अथवा मतावलंबी हो सकते है। धर्मावलंबी नहीं, धर्मावलंबी तभी होंगे जब वो प्रकृति के अनुरुप चलेंगे, भारत और भारत की वैदिक परंपराएं अथवा उपनिषद् यहीं कहती है, गर आप इसे नकारेंगे तो भला, वेदों अथवा उपनिषदों को क्या होनेवाला है, ठीक उसी प्रकार गर कोई आकाश पर थूकने का प्रयास करें तो क्या होगा, उत्तर उस व्यक्ति को खुद ही पता हैं, इस पर विवेचना की आवश्यकता नहीं।
 

भारत भोगभूमि नहीं, त्यागभूमि है
 
ज्यादातर लोग आज पश्चिमी सभ्यता व संस्कृति से अनुप्राणित हो रहे है, उन्हें लगता हैं कि उनका जीवन पश्चिम की तरह सुखों का उपभोग करने के लिए हुआ हैं, इसलिए जमकर प्रकृति का दोहन करों, आनन्द पाओं और दुनिया से विदा हो जाओ, पर भारत के इतिहास को देखें तो यहां वहीं व्यक्ति जीवित रहा, जिसने त्याग को अपनाया, बाकी सभी मृतात्माओं की श्रेणी में आ गये। ये क्रम सदियों से चलता आ रहा है और चलता रहेगा, कोई इसे काटना भी चाहे तो नहीं काट पायेगा। कितने प्रमाण दूं।
जरा गोस्वामीतुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानस अथवा वाल्मीकि रामायण का पृष्ठ उल्टे. प्रसंग अयोध्याकांड का है। राजा दशरथ अति प्रसन्न है। वे अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम का राज्याभिषेक करना चाहते है। सारी तैयारियां हो चुकी हैं, पर ऐन मौके पर कैकेयी, महाराज दशरथ से दो वर मांगती हैं, जिसमें राम को वनवास और भरत को राज्याभिषेक की मांग शामिल है। दशरथ किंकर्तव्यविमूढ़ है। क्या करें क्या न करें। पर श्रीराम मर्यादा का पालन करते हुए पुरुषार्थ के प्रथम सोपान त्याग को अपनाते हैं, धर्म की रक्षा करते हुए, पिता और रघुकुल की रीति प्रभावित न हो, वे वनगमन को स्वीकार करते हुए, जंगल की ओर निकल पड़ते है। राम चाहते तो आजकल की पीढ़ियों के अनुसार वे अपने पिता दशरथ से कह सकते थे कि पिताजी आपने माता कैकेयी को वर दिया था, मैंने नहीं, रघुकुल के नियमानुसार अयोध्या का राजा ज्येष्ठ पुत्र ही होता है, ऐसे में, मैं ही अयोध्या का असली उत्तराधिकारी हूं और मैं ही राजा बनुंगा। अब आप बताईये, जब श्रीराम इस प्रकार की मांग दशरथ के पास रखते तो वे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते। उत्तर होगा – नहीं। तो ये है धर्म और ये है भारत। श्रीराम ने पिता के वचन को साकार करने के लिए, सारे सुखों का त्याग कर दिया, यहीं नहीं इसके बाद सीता और लक्ष्मण ने श्रीराम के लिए, महलों के सुख का परित्याग कर दिया। और अब आगे, श्रीराम के भाई भरत को पता चलता है कि उनकी माता कैकेयी, उनके लिए राज्याभिषेक और श्रीराम के लिए वनगमन की मांग कर दी है, तो वे अपनी माता कैकेयी तक का परित्याग करते हुए, अपने ज्येष्ठ भ्राता श्रीराम को वन से लौटाने के लिए, जंगल की ओर चल पड़ते है, यहीं नहीं 14 वर्षों तक अयोध्या में रहते हुए, भरत ने सारे सुखों का त्याग कर दिया और वनवासियों की तरह रहे, ये है त्याग की परिभाषा यानी भारत की परिभाषा का सुंदर उदाहरण।
एक और प्रसंग पर ध्यान दें.


प्रसंग श्रीरामचरितमानस के किष्किन्धाकांड का है
बालि श्रीराम के बाण से घायल है। घायल बालि ने कहा –


धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। मारेहु मोहि व्याध की नाई।।
मैं वैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कवन नाथ मोहि मारा।।

श्रीराम ने कहा


अनुज बधु भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी।।
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकई जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई।।

 
यहां भी धर्म की व्याख्या हो गयी, गर आप चौपाईयों पर ध्यान दें तो भारत और भारत के धर्म की परिभाषा स्वतः प्राप्त हो जाती है।
ये तो भारत के महाकाव्यों में से एक की बात कही, हो सकता है कि कई मित्र इन उदाहरणों को धार्मिक कथा कहकर, इसे प्रमाण मानने से इनकार कर दें। उनके लिए भी भारत के कई उदाहरण जो समसामयिक है। मेरे पास मौजूद है।
जरा ध्यान दे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का काल खंड महात्मा गांधी, दक्षिण अफ्रीका से भारत आते है, भारत आते ही स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई जारी करने की घोषणा करते है। तभी उनकी मुलाकात गोपाल कृष्ण गोखले से होती है, गोपाल कृष्ण गोखले, उन्हें कहते है कि मिस्टर गांधी ( उस वक्त तक गांधी को महात्मा का खिताब, रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने नहीं दिया था) जिस भारत की परिकल्पना वे अभी कर रहे है, वैसा भारत अभी नहीं हैं, स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई को ठीक ढंग से चलाने के लिए पहले, उन्हें यानी महात्मा गांधी को, भारत दर्शन का कार्यक्रम बनाना चाहिए, उसके बाद गांधी जी ने भारत दर्शन का कार्यकम बनाया। उसी दौरान, उन्होंने जो भारत की तस्वीर देखी, उनका हृदय विदीर्ण हो उठा। भारत और भारतीयों की दयनीय दशा देख उन्होंने सारे सुखों का त्याग करने का संकल्प लिया और उसके बाद जो उन्होंने सामान्य जन की वेष भूषा अर्थात् लंगोटी पहनी तो उसे आजीवन धारण किये रहे। फिर उन्होंने सामाजिक सुधार आंदोलन के साथ साथ देश की स्वतंत्रता आंदोलन को गति दी, और उन्होंने खुद अपने आंखों से भारत की स्वतंत्रता को देखा। इसके बदले में, उन्होंने अपने लिए कुछ भी देश से नहीं मांगा, सिर्फ और सिर्फ देश को दिया। त्याग की ऐसी मिसाल किस देश में मिलती है। इसी त्याग के कारण तो गांधी अपनी मृत्यु के साठ साल बीत जाने के बाद भी, जीवित है। यहीं नहीं संयुक्त राष्ट्र संघ ने इनके जन्म दिन को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस घोषित कर दिया।
लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी को लीजिए, इन्होंने इंदिरा गांधी के गर्व को चूर चूर कर दिया। संपूर्ण क्रांति की बात की। 1974 के छात्र आंदोलन और उसके बाद उपजे जनता के क्रोधाग्नि का सही नेतृत्व कर, उन्होंने 1977 में जनता पार्टी की सरकार बना दी, चाहते तो प्रधानमंत्री बन सकते थे, पर उन्होंने सत्ता से दूरी बनाये रखी, और कभी सत्ता की कामना ही नहीं की। मर गये, पर सामान्य जन की तरह जीवन जिया, और इसी जीवन के द्वारा, उन्होंने भारत की अमूल्य संस्कृति को बता दिया की, जीना इसी का नाम है।


भारतीय उपनिषद् तो स्पष्ट कहता है कि


नत्वामहं कामये राज्यं, न स्वर्गं न पुर्नभवं।
कामये दुखतप्तानां, प्राणिणां आर्तनाशनम्।।

 
गर कोई सच्चा भारतीय है, तो वो न तो राज्य की कामना करेगा, न स्वर्ग की कामना करेगा, वो तो बस यहीं चाहेगा की सारे सुखों का त्याग कर, दुखियों और पीड़ितों के शोक को शमन करने के लिए, इस धरा पर बार बार आता रहे । कौन सच्चा भारतीय अथवा पुरुषार्थ से भरा प्राणी रहा है, उसकी परीक्षा उसके पूरे जीवनकाल खंड के मूल्याकंण से हो जाती हैं कि उस व्यक्ति में कितना पुरुषार्थ रहा, जैसे चाणक्य ने कहा.
 

यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते।
निर्घषणतापछेदनेताडनैः।।
तथा चतुर्भिः पुरुषं परीक्ष्यते।
त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा।।

 
जैसे सोने को चार प्रकार से परखा जाता है, घिसकर, तापकर, छेदकर और पीटकर। ठीक उसी प्रकार किसी पुरुष की पुरुषार्थ की परीक्षा, उसके अंदर त्याग, मर्यादा, गुण और कर्म की परीक्षा लेकर की जाती हैं। जो इसमें खड़ा उतरा वो सच्चा भारतीय और भारत माता का लाल, नहीं तो बस उसी प्रकार आये गये, जैसे इस श्लोक का भावार्थ


येषां न विद्या, न तपो, न दानं, न ज्ञान शीलं, न गुणो न धर्मः
ते मृत्युलोके भूविभारभूता, मनुष्यरुपेणमृगाश्चरन्ति।।

 
जो आज विज्ञान पर्यावरण की संकट के बारे में आगाह कर रहा है, उस संकट को लाया किसने खुद विज्ञान ने, और ऐसा होगा, इसके बारे में आगाह तो हमारे मणीषियों ने आज से हजारों वर्ष पहले कह दिया था कि एक दिन ऐसा आयेगा कि विज्ञान के नाम पर ही लोग, अपने जीवन के कालखंड को सदा के लिए बुझा देंगे। कमाल है, आज के जैसी टेक्नॉलॉजी तो, उनके पास थी ही नहीं, फिर भी वे कैसे जान गये। वो इसलिए जान गये, क्योंकि उन्होंने परमज्ञान की प्राप्ति के पीछे ही समय गवायां, व्यर्थ के पचड़े में नहीं पड़े, प्रकृति ने जैसा संदेश दिया, उस अनुरुप आचरण करते गये, खुद को बनाया, भारत को बनाया, भारत की संस्कृति को अनुप्राणित किया, अपने इस आचरण को और बेहतर और आनेवाले पीढ़ियों को संदेश देने के लिए उपनिषद और अनेक ग्रंथ उपलब्ध करा दिये, और इसे धर्म का स्वरुप दिया, कि शायद लोग समझेंगे और गर आप आज नहीं समझ रहे, तो उनमें उनका क्या दोष। फिर भी मैं मानता हूं कि आनेवाला समय भारत का हैं, निराशावादी होना, अज्ञानता का परिचायक होता है, जो ज्ञानवान हैं वे आशावादी होते हैं, परिवर्तन चक्र चलता रहता है। भारत का ध्येय वाक्य है – सत्यमेव जयते। एक दिन सत्य की जीत होगी, धर्म का वर्चस्व बढ़ेगा, प्रकृति सभी को आगोश में लेगी, भारत फिर खिल उठेगा, त्याग की भूमि फिर इठलायेगी, चिंता की कोई आवश्यकता नहीं।


अंत में, कबीर की पंक्ति मुझे याद आ रही है, जो उन्होंने बहुत पहले कहा था

मन लागा, मेरा यार फकीरी में, जो सुख पाउं, राम भजन में
वो सुख नाही, अमीरी में, भला – बुरा, सब का सुन लीजै,
कर गुजरान, गरीबी में, मन लागा मेरा यार फकीरी में,
आखिर ये तन, खाक मिलेगा, कहां फिरत मगरुरी में,
कहत कबीर सुनो भाई साधो, साहिब मिले, सबूरी में,
मन लागा मेरा यार, फकीरी में

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

सनातन धर्म की पवित्र पुस्तके काल्पनिक कहानी नहीं है ।




सूरत जिले के पिंजरात गांव के पास समुद्र से आर्कियोलॉजी डिपार्टमेंट और ओशनोलॉजी डिपार्टमेंट ने एक पर्वत खोज निकाला है। यह ठीक उस मन्दराचल पर्वत की तरह है, जिससे समुद्रमंथन किया गया था और इस दौरान निकले विष को भगवान शिव ने ग्रहण किया था। इस पर्वत के बीचों-बीच नाग आकृति भी मिली है। प्राथमिक जांच के बाद ओशनोलॉजी डिपार्टमेंट ने अपनी वेबसाइट पर इस पर्वत से संबंधित जानकारियों की एक लिंक भी अपनी वेबसाइट पर डाली है।
 

बिहार और गुजरात में मिले ये दोनों पर्वत एक ही हैं :


आर्कियोलॉजी और ओशनोलॉजी विभाग के अधिकारियों के अनुसार बिहार में भागलपुर के पास स्थित भी एक मन्दराचल पर्वत है और गुजरात के समुद्र से निकला यह पर्वत भी मन्दराचल पर्वत ही है। आर्कियोलॉजिस्ट मितुल त्रिवेदी के बताए अनुसार बिहार और गुजरात में मिले इन दोनों पर्वतों का निर्माण एक ही तरह के ग्रेनाइट पत्थर से हुआ है। इस तरह यह दोनों पर्वत एक ही हैं। जबकि आमतौर पर ग्रेनाइट पत्थर के पर्वत समुद्र में नहीं मिला करते। इसलिए गुजरात के समुद्र में मिला यह पर्वत शोध का विषय है।


किस तरह मिला यह पर्वत:


सन् 1988 में पिंजरात गांव के समुद्र से द्वारका नगरी के अवशेष मिले थे। डॉ. एस.आर.राव के साथ सूरत के आर्कियोलॉजिस्ट मितुल त्रिवेदी भी एक स्पेशल कैप्सूल में समुद्र में 800 फीट की गहराई में गए थे। इस दौरान उन्हें एक यहां एक विशाल पर्वत दिखाई दिया था। तबसे इसकी जांच की जा रही थी।


पर्वत के बीचों-बीच नाग के शरीर की आकृति भी स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। विभाग द्वारा बारीकी से इस पर्वत की जांच की गई तो पता चला कि यह पर्वत मन्दराचल पर्वत ही है, जिसका उल्लेख पुराणों में भी मिलता है। पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान मन्दराचल पर्वत को ही मथा गया था।


 
अनेकों टेस्ट के बाद किया समर्थन :
 

पर्वत पर नागों की आकृतियां थीं। इसलिए आर्कियोलॉजिस्ट विभाग ने पहले यह सोचा कि शायद यह निशान लहरों से बने होंगे। इसकी पुष्टि के लिए पर्वत के अनेकों हिस्सों पर कार्बन टेस्ट किए गए। सभी टेस्ट में यही बात सामने आई कि ये निशान लहरों से नहीं बनें हैं, प्राकृतिक हैं। इसके बाद आर्कियोलॉजिस्ट ने एब्स्युलूट मैथड, रिलेटिव मैथड, रिटन मार्क्‍स, ऐइज इक्वीवेलंट स्ट्रेटग्राफिक मार्क्‍स, स्ट्रेटीग्राफिक रिलेशनशिप मैथड, लिटरेचर का उपयोग करते हुए दावा किया है कि यह वही मन्दराचल पर्वत है, जिसका उपयोग समुद्र मंथन के लिए किया गया था।

विभाग ने कर दी है पुष्टि :

आर्कियोलॉजिस्ट मितुल त्रिवेदी के बताए अनुसार यू-ट्यूब पर ओशनोलॉजिस्ट विभाग ने 50 मिनट का एक वीडियो अपलोड किया है। इसमें विभाग ने पिंजरत के पास 125 किमी दूर समुद्र में 800 फुट नीचे द्वारका नगरी के अवशेषों के साथ मन्दराचल पर्वत की भी खोज की है। ओशनोलॉजिस्ट वेबसाइट पर आर्टिकल में विभाग द्वारा इस बात की पुष्टि कर दी गई है।


मितुल त्रिवेदी 42 भाषएं और 9 लिपि जानते हैं:


आर्कियोलॉजिस्ट मितुल त्रिवेदी 42 भाषाएं और 8 लिपियों के जानकार हैं। वे नासा, आर्कियोलॉजिस्ट विभाग और इसरो से भी जुड़े हुए हैं। हडप्पा-मोहेंजोदडो की भाषा का उन्हीं ने अनुवाद किया था।