मंगलवार, 8 जुलाई 2014

रेल का खेल और सरकार की मज़बूरी ?

7122 से अधिक स्टेशनो को जोड़ते हुए प्रतिदिन 12 हजार 617
रेल गाडियाँ इस देश मे चलती है !जिसमे 2 करोड़ 30 लाख लोग प्रतिदिन सफर करते हैं यह प्रतिदिन आस्ट्रेलिया की पूरी जनसंख्या को ढोने के बराबर है। 7421 से अधिक माल गाड़ियो मे प्रतिदिन 30 लाख किलो माल ढोया जाता है देश मे कुल माल ढोने के साधनो का 31 % रेल से होता है ,खर्चा करने से पहले हम अपनी जेब भी देखे  इस वर्ष रेलवे को सकल यातायात आमदनी 1,39,558 करोड़ (1,लाख 39,हजार 558 करोड़ ) है ! लेकिन संचालन का खर्चा 1,30,321 ( 1 लाख 30 हजार 321 करोड़ है ) मतलब खर्चा काट के बचा लगभग 9000 करोड़  यही सबसे अधिक गड़बड़ी है  operating ratio (परिचालन अनुपात ) लगभग 94% को पार कर गया है | अर्थता 100 रूपये की कमाई के लिए रेलवे के 94 रूपये खर्च कर देता है ! ईंधन ,वेतन ,पेंशन ,सवारी डिब्बा अनुरक्ष्ण,सुरक्षा पर पैसा खर्च होता है !13 लाख कर्मचारी भारतीय रेलवे मे काम करते है !रेलवे का दूसरे नमबर का सबसे अधिक खर्चा इनही पर होता है, 30-40 हजार 50 हजार 60 हजार की पगारे ये कर्मचारी पाते है !ऊपर से साल मे दो बार वेतन आयोग के नाम पर इनका महंगाई भत्ता बढ़ा दिया जाता है ! अर्थात वेतन और बढ़ जाता है

ऐसे मे रेलवे का खर्चा बढ़ेगा नहीं तो क्या कम होगा ??

अब आप यहाँ देखिये सरकार ने कुछ दिन पहले 14% भाड़ा बढ़ाया था जिससे 8000 करोड़ की अधिक आय हुई  लेकिन उसमे से सरकार को 6500 करोड़ ही मिले 1500 करोड़ रिटायर कर्मचरियों की पेंशन बढ़ा दी उसमे खर्च हो गया !! जम्मू से कटरा चली नई रेल की लागत 1100 करोड़ है जिसमे रास्ते 38 पुल और 7 सुरंगे भी है ! और 1500 करोड़ सरकार मे कर्मचरियों की पेंशन बढ़ाने उड़ा दिया !! अर्थता वर्ष मे 2 बार महंगाई भत्ता,और वेतन 13 लाख कर्मचरियों का बढ़ाया जाएगा ! लेकिन उसके लिए किराया बढ़ाकर पैसा पूरे 120 करोड़ लोगो से वसूला जाएगा ?? ऊपर से इन 13 लाख कर्मचरियों को इतना वेतन देने के बाद मुफ्त मे कितने ही किलो मीटर रेल यात्रा की सुविधा हर वर्ष दी जाती है इसके अतिरिक्त 543 MP है 28 राज्यो के मुख्यमंत्री उनके नीचे सैंकड़ों MLA है ये सब पहले से इतनी इतनी पगारे पाते है,महंगाई भत्ता पाते है ऊपर से इन सबको first class मे जितनी मर्जी रेल यात्राओ की सुविधा है ! इनको बंद कर सरकार कितना पैसा बचा सकती है जिसे जनता को सुविधा देने के लिए खर्च किया जा सकता है !! मित्रो रेलवे की 1 लाख 40 हजार करोड़ की आय कम नहीं होती समस्या ये है इसमे से खर्चा 1 लाख 30 हजार करोड़ का है ! उसमे कर्मचरियों को बहुत अधिक धन लुटाया जाता है फिर वर्ष मे दो बार पगारे बर जाती ,अर्थात अगले वर्ष फिर खर्चा बढ़ जाता है ! ऊपर मंत्रियो ,अधिकारियों को दी जाने वाली अलग रेल सुविधाए ! आम जनता के लिए कुछ बचता नहीं है !  अब आप कहेंगे जो इतनी सारी नई परीयोजनो की घोषणा हुई है ये ट्रेन चलेगी वो ट्रेन चलेगी ,सुविधा मे ये मिलेगा वो मिलेगा ये वो सब क्या है ???

तो सुनिए !!

नई परियोजनाओ की घोषणा करना एक बात होती है लेकिन उन मे से कितनी परियोजनाएं पूरी हुई है ये बात महत्व की है !

अब ये पढ़िये !

पिछले 30 साल मे 1,57000 (1 लाख 57 हजार करोड़) की 676 परियोजनाएँ की घोषणा हुई ! लेकिन अब तक सिर्फ 317 परियोजनाओ को ही पूरा किया गया है अर्थात आधी से ज्यादा परियोजनाए अभी तक लटकी पड़ी है ! और 30 साल गुजर गए है

शेष 359 परियोजनाए को पूरा करने के लिए अब 1,82,000 ( 1 लाख 82 हजार करोड़
चाहिए क्योंकि अब समय के साथ सब महंगा हो गया है !

पहले 676 परियोजनाएँ के लिए कुल 1,57000 करोड़ चाहिए थे अब 359 परियोजनाओ के लिए
1,82,000 ( 1 लाख 82 हजार करोड़ चाहिए !

लेकिन सरकार ने अपनी कुल आय 1 लाख 40 हजार करोड़ मे से 1 लाख 30 हजार करोड़ तो खर्चो मे उड़ा दिया !!

बचे हुए 10 हजार करोड़ से तो 30 साल से लटक रही 1,82,000 करोड़ की ( 1 लाख 82 हजार करोड़ ) की पुरानी परियोजनाए पूरी नहीं होंगी ! इसके अतिरिक्त सरकार ने इस बजट मे और नई घोषनाये कर दी है वो कैसे और कब पूरी होगी आप खुद अनुमान लगा लीजिये !

तो मित्रो परियोजानों की घोषणा करने और उनको पूरा करने मे जमीन आसमान का अंतर है इसलिए मैंने ऊपर ही लिखा था खर्चा करने से पहले जेब तो देख लो ! और जाते जाते एक और बात जापानी कंपनियो को बुला कर बुलेट ट्रेन चलाई जाएगी !

कहाँ से कहाँ तक चलाई जाएगी ??

मुंबई से अहमदाबाद ??

कितना खर्चा है 60 हजार करोड़ का !

भाड़ा कितना होगा ?? लगभग हवाई जहाज के किराये जितना !

अब आप खुद विचार करो रेल सफर करने वाली 80 % जनता
जर्नल और स्लीपर मे सफर करती है !

मात्र मुंबई से अहमदाबाद एक रूट के लिए 60 हजार करोड़ खर्च करना
कौन सी समझदारी है ??? जबकि आगे ही खर्चा इतना ज्यादा है

इससे अच्छा तो जो माजूदा रेले है उनकी स्थिति सुधारे जाए ! सस्ती सस्ती 15 -20 रेल चलाओ से ज्यादा बढ़िया है !  और अंत मे मित्रो सरकार को गलियाँ देने से कुछ नहीं मिलने वाला !ज्यादा से ज्यादा क्या होगा मोदी को हटाकर किसी और को ले आओगे ! फिर से सत्ता परिवर्तन कर दो गए ! फिर वो काम नहीं करेगा उसे हटा किसी और को ले आओगे !

मित्रो ये काम तो 67 साल से देश मे चल ही रहा है बार बार हम सरकारे ही तो बदल रहे हैतो अब समय आ गया है जब हम सत्ता नहीं व्यवस्था बदले पुराने अँग्रेजी कानूनों और गलत नीतियो को बदले ,उसकी जगह नई नीतियाँ भारत और भारतीयता के अनुसार बनाये !! और मौजूदा पूर्ण बहुमत वाली सरकार पर ही दबाव बनाकर उनसे व्यवस्था को बदलवाये !

Note-----: यह  ब्लॉग  सरकार का बिरोध या पैरवी करने के लिए नहीं है । 

दुनियाभर में क्यों भिड़े हैं शिया और सुन्नी ?

इराक़ में जारी संघर्ष ने एक बार फिर सुन्नी और शियाओं के बीच मतभेदों को उजागर कर दिया है. सीरिया में भी जारी संघर्ष में शिया-सुन्नी विवाद की गूंज सुनाई देती है लेकिन इस मतभेद के बुनियादी कारण क्या हैं, जानते हैं । 

शिया और सुन्नियों में अंतर----:

मुसलमान मुख्य रूप से दो समुदायों में बंटे हैं- शिया और सुन्नी. पैगंबर मोहम्मद साहब  की मृत्यु के तुरंत बाद ही इस बात पर विवाद से विभाजन पैदा हो गया कि मुसलमानों का नेतृत्व कौन होगा.

मुस्लिम आबादी में बहुसंख्य सुन्नी हैं और अनुमानित आंकड़ों के अनुसार, इनकी संख्या 85 से 90 प्रतिशत के बीच है.
दोनों समुदाय के लोग सदियों से एक साथ रहते आए हैं और उनके अधिकांश धार्मिक आस्थाएं और रीति रिवाज एक जैसे हैं.
इराक़ के शहरी इलाक़ों में हाल तक सुन्नी और शियाओं के बीच शादी बहुत आम बात हुआ करती थीं.
इनमें अंतर है तो सिद्धांत, परम्परा, क़ानून, धर्मशास्त्र और धार्मिक संगठन का. उनके नेताओं में भी प्रतिद्वंद्विता देखने को मिलती है.
लेबनान से सीरिया और इराक़ से पाकिस्तान तक अधिकांश हालिया संघर्ष ने साम्प्रदायिक विभाजन को बढ़ाया है और दोनों समुदायों को अलग-अलग कर दिया है.

सुन्नी कौन हैं ?

सुन्नी मुसलमान ख़ुद को इस्लाम की सबसे धर्मनिष्ठ और पारंपरिक शाखा से मानते हैं. सुन्नी शब्द 'अहल अल-सुन्ना' से बना है जिसका मतलब है परम्परा को मानने वाले लोग. इस मामले में परम्परा का संदर्भ ऐसी रिवाजों से है जो पैग़ंबर मोहम्मद और उनके क़रीबियों के व्यवहार या दृष्टांत पर आधारित हो. सुन्नी उन सभी पैगंबरों को मानते हैं जिनका ज़िक्र क़ुरान में किया गया है लेकिन अंतिम पैग़ंबर मोहम्मद ही थे. इनके बाद हुए सभी मुस्लिम नेताओं को सांसारिक शख़्सियत के रूप में देखा जाता है. शियाओं की अपेक्षा, सुन्नी धार्मिक शिक्षक और नेता ऐतिहासिक रूप से सरकारी नियंत्रण में रहे हैं.

शिया कौन हैं?

शुरुआती इस्लामी इतिहास में शिया एक राजनीतिक समूह के रूप में थे- 'शियत अली' यानी अली की पार्टी. शियाओं का दावा है कि मुसलमानों का नेतृत्व करने का अधिकार अली और उनके वंशजों का ही है. अली पैग़ंबर मोहम्मद के दामाद थे. मुसलमानों का नेता या ख़लीफ़ा कौन होगा, इसे लेकर हुए एक संघर्ष में अली मारे गए थे. उनके बेटे हुसैन और हसन ने भी ख़लीफ़ा होने के लिए संघर्ष किया था. हुसैन की मौत युद्ध क्षेत्र में हुई, जबकि माना जाता है कि हसन को ज़हर दिया गया था. इन घटनाओं के कारण शियाओं में शहादत और मातम मनाने को इतना महत्व दिया जाता है. अनुमान के अनुसार, शियाओं की संख्या मुस्लिम आबादी की 10 प्रतिशत यानी 12 करोड़ से 17 करोड़ के बीच है. ईरान, इराक़, बहरीन, अज़रबैजान और कुछ आंकड़ों के अनुसार यमन में शियाओं का बहुमत है. इसके अलावा, अफ़ग़ानिस्तान, भारत, कुवैत, लेबनान, पाकिस्तान, क़तर, सीरिया, तुर्की, सउदी अरब और यूनाइडेट अरब ऑफ़ अमीरात में भी इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है.

हिंसा के लिए कौन ज़िम्मेदार ?

उन देशों में, जहां सुन्नियों की सरकारें है, वहाँ शिया ग़रीब आबादी में गिने जाते हैं. अक्सर वे खुद को भेदभाव और दमन के शिकार मानते हैं. कुछ चरमपंथी सुन्नी सिद्धांतों ने शियाओं के ख़िलाफ़ घृणा को बढ़ावा दिया गया है. वर्ष 1979 की ईरानी क्रांति से उग्र शिया इस्लामी एजेंडे की शुरुआत हुई. इसे सुन्नी सरकारों के लिए चुनौती के रूप में माना गया, ख़ासकर खाड़ी के देशों के लिए. ईरान ने अपनी सीमाओं के बाहर शिया लड़ाकों और पार्टियों को समर्थन दिया जिसे खाड़ी के देशों ने चुनौती के रूप में लिया. खाड़ी देशों ने भी सुन्नी संगठनों को इसी तरह मजबूत किया जिससे सुन्नी सरकारों और विदेशों में सुन्नी आंदोलन से उनसे संपर्क और मज़बूत हुए. लेबनान में गृहयुद्ध के दौरान शियाओं ने हिज़बुल्ला की सैन्य कार्रवाईयों के कारण राजनीतिक रूप में मजबूती हासिल कर ली.
पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में तालिबान जैसे कट्टरपंथी सुन्नी संगठन अक्सर शियाओं के धार्मिक स्थानों को निशाना बनाते रहे हैं.
इराक़ और सीरिया में जारी वर्तमान संघर्ष ने भी दोनों समुदायों के बीच एक बड़ी दीवार खड़ा कर दी है. दोनों ही देशों में सुन्नी युवा विद्रोही गुटों में शामिल हो गए हैं. इनमें से ज़्यादातर अल-क़ायदा की कट्टर विचारधारा को मानते हैं. इस बीच, शिया समुदाय के अधिकांश कट्टर युवा सरकारी सेना के साथ मिलकर इनसे लड़ते रहे हैं.।