बुधवार, 28 मई 2014

कांग्रेसी मित्रो अभी भी वक्त है सम्हल जाए ।

मित्रो पूरी पोस्ट को पढ़े आपको जरूर अच्छा लगेगा ।

सोच रहा हु की मेरे कांग्रेसी मित्रो को आइना दिखा दू , पर मेरे कांग्रेसी मित्रो आइना नहीं तोड़ना । लोकसभा के 2014चुनाव में कांग्रेसियों के पास कोई मुद्दा नहीं था ये पुरे चुनाव में सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी जी को घेरने में लगे रहे और इस देश की जनता ने कांग्रेस को ऐसा घेरा की 44 सीट पर लाकर पटक दिया फिर भी कांग्रेसी मित्रो ने सीख नहीं लिया और अब स्मृत ईरानी जी के शिक्षा को लेकर बीजेपी को घेरने लगे परिणाम में गड़े मुर्दे उखाड़ गए और राष्टवादी मित्र इंद्रा गांधी जी से लेकर सोनिया गांधी जी और राहुल गांधी जी की डिग्री तक खंगाल लिया । कांग्रेसी मित्रो अभी भी वक्त है , अपने आपको सकरात्मकताकता में लगाए नहीं तो इससे भी बड़ी दुर्दशा होगी आने वाले समय में ।

एक सौ तीस बरस की कांग्रेस ने इतने बुरे दिन नहीं देखे होंगे जितने वो आज देख रही है। बेचारी के पास से मुख्य विपक्षी दल का तमगा तक छिन रहा है। अब वह इस बात के लिए सरकार पर ही आश्रित हो गई कि उसे मुख्य विपक्षी दल कहा जाए। तो क्या सचमुच कांग्रेस बूढ़ी हो गई ? सालेएक पहले नरेन्द्र मोदी जी ने कहा था कि कांग्रेस अब बूढ़ी हो गई है। इसके जवाब में प्रियंका जी बोली थी कि क्या मैं बूढ़ी नजर आती हूं ।

प्रियंका जी ने सही कहा था कि कोई भी राजनीतिक दल उसके कार्यकर्ताओं के दम पर ही बूढ़ा और जवान होता है। किन्तु कहने और करने में फर्क होता है। प्रियंका जी ने कांग्रेस को जवान तो बता दिया लेकिन वे जवान लोगों को कांग्रेस की तरफ आकर्षित नहीं कर पाये। उल्टे ये काम किया नरेन्द्र मोदी जी ने।

उन्होंने युवाओं के सामने एक मजबूत भारत बनाने का वादा किया और नई पीढ़ी उनसे जुड़ गई। आज हालत ये है कि कांग्रेस के पास युवा कार्यकर्ताओं का टोटा है। अब वह सत्ता से बाहर बैठी स्यापा कर रही है। अब उसे समझ नहीं आ रहा कि वह क्या करे, कौन-सी रणनीति बनाए और किस रास्ते पर चले? ले दे कर कांग्रेस अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती नजर आ रही है।

दिग्गी राजा आह्वान कर रहे हैं- हे विश्व के समस्त कांग्रेसियो तुम सब वापस घर आ जाओ । हे पवारो, हे बनर्जिओ सब कांग्रेस में लौट आओ । पप्पू तुम्हारा इन्तजार कर रहा है। कुछ कांग्रेसी कह रहे हैं कि भैया को आजमा लिया अब दीदी को लाओ।

ऎसी दिग्भ्रम कांग्रेस अपने आपको कैसे खड़ा कर पाएगी, यह बहुत बड़ी चुनौती है। एक जमाना था जब कांग्रेस में हर एक प्रान्त के भीतर क्षत्रप थे लेकिन आलाकमान ने धीरे-धीरे सारे प्रान्तीय नेतृत्व को अपना दास बना लिया और आज कांग्रेस में सिर्फ तीन चेहरे नजर आते हैं सोनिया, राहुल और प्रियंका। गिरना कोई अपराध नहीं है लेकिन गिरकर संभल ना पाना और संभल कर आगे ना बढ़ना किसी के लिए भी परेशानी का सबब हो सकता है।

बहरहाल नरेन्द्र मोदी जी ने जैसी रणनीति बना रखी है और जैसे सपने दिखा रखे हैं उसके आधार पर कांग्रेस के पास तैयारी के लिए एक दो नहीं बल्कि दस बरस हैं और सत्ता से बाहर रहकर दस बरस तक दम बनाए रखना दम वालों के बस की बात है। आने वाले वर्षो में कांग्रेस कैसे चलती है यह देखना भी बड़ा दिलचस्प होगा।

सावरकर जी को सत सत नमन ।



आज सावरकर जी का जन्म दिन है । सावरकर जी को सत सत नमन ।

सावरकर कोई मामूली क्रांतिकारी नहीं थे। उन्हें 27 साल की आयु में 50-60 साल की सजाएं हुई थीं। अंडमान-निकोबार तथा रत्नागिरि में उन्होंने 27 साल की जेल और नजरबंदी भुगती। क्या दुनिया का कोई और क्रांतिकारी है , जिसने इतना लंबा कारावास भुगता हो ? अगर 25 साल जेल में रहने के कारण मंडेला विश्व-वंद्य हैं तो सावरकर को कौन सा स्थान मिलना चाहिए ? जब 1910 में सावरकर ने ब्रिटिश जहाज से समुद्र में कूदकर पलायन किया तो पहली बार संसार को पता चला कि भारत अंग्रेजों के चंगुल से छूटने को छटपटा रहा है। अभी गांधी और नेहरू स्वाधीनता संग्राम की मुख्यधारा में शामिल भी नहीं हुए थे , जबकि सावरकर इस संग्राम के विश्व विख्यात योद्धा की तरह पहचाने जाने लगे थे। उन्होंने स्वाधीनता संग्राम का अन्तरराष्ट्रीयकरण किया। वे विश्व के पहले व्यक्ति थे , जिनकी रिहाई का मुकदमा हेग की अंतरराष्ट्रीय अदालत में चला। सावरकर की तरह कोई क्रांतिकारी हो , नेता हो , विचारक हो और साथ-साथ महान साहित्यकार भी हो- ऐसा कोई दूसरा नाम दिखाई नहीं देता। जेल की दीवारों पर कील से कविता की 10 हजार पंक्तियां लिखने वाला और उन्हें याद रखने वाला क्या दुनिया का कोई और साहित्यकार हुआ है ? काले पानी की सजा काटते हुए सावरकर ने 11 साल तक जो कष्ट भुगते , उनकी तुलना अगर अन्य महान नेताओं के कष्टों से की जाए , तो सावरकर पहाडि़यों के बीच हिमालय की तरह दिखते हैं। ऐसे सावरकर के चित्र पर आपत्ति करने का आखिर कारण क्या है ?
तीन कारण बताए जाते हैं। एक , उन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगी थी। दूसरा , वे हिंदू साम्प्रदायिकता के जनक हैं। हिन्दुत्व की धारणा उन्होंने ही दी है। तीसरा , गाँधीजी की हत्या में उनका हाथ था। इसमें शक नहीं कि गाँधीजी की हत्या का जिन ग्यारह लोगों पर आरोप था , उनमें सावरकर को भी फंसाया गया था। बाकायदा मुकदमा चला और जस्टिस खोसा ने उन्हें बरी करते हुए कहा था कि इतने बड़े आदमी को इतना सताया गया। आज जरूरत इस बात की है कि सावरकर को फँसाने वालों का पता लगाया जाए। सावरकर और गाँधी में कोई तुलना नहीं है। गाँधी जैसे लोग सदियों में एकाध ही होते हैं , लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि सुभाष , सावरकर , आंबेडकर और भगत सिंह को भुला दिया जाए। लोहिया को भुलाने की भी कम कोशिश नहीं हुई , लेकिन उनके शिष्य रवि राय ने लोकसभाध्यक्ष बनते ही सेंट्रल हॉल में उनका चित्र लगवा दिया। अब भाजपा के प्रधानमंत्री और शिवसेना के लोकसभाध्यक्ष हैं। यदि सावरकर का चित्र अब भी नहीं लगता तो कब लगता ?
जहाँ तक हिन्दुत्व का सवाल है , सावरकर की वह छोटी सी किताब ' हिन्दुत्व ' मार्क्स के कम्युनिस्ट घोषणापत्र से कई गुना अधिक प्रभावशाली है। उसके तथ्य , तर्क , निष्कर्ष और शैली के आगे बीसवीं सदी के राजनीतिक दिग्गजों की रचनाएँ फीकी दिखाई पड़ती हैं। यह अलग बात है कि हिन्दुत्व के अनेक तर्क अब अप्रासंगिक हो गए हैं , लेकिन हमें उन हालात पर ध्यान देना चाहिए , जिनमें यह पुस्तक लिखी गई। अस्सी साल पहले जब खिलाफत आंदोलन शिखर पर था , भारत पर हुकूमत करने के लिए अफगान बादशाह अमानुल्लाह को मुसलमान होने के कारण आमंत्रित किया जा रहा था। मुस्लिम साम्प्रदायिकता फन फैला रही थी। गाँधी और अन्य नेता सदाशयता के कारण या मजबूरन उसी प्रवाह में बहे चले जा रहे थे , सावरकर ने ' हिन्दुत्व ' लिखकर हिन्दू समाज को झकझोर दिया। यद्यपि हिन्दू बहुमत गाँधी के साथ गया , लेकिन यदि सावरकर नहीं होते तो जरा सोचें कि क्या होता ? यदि भारत का विभाजन नहीं होता तो शायद भारत में दोबारा मुगलिया सल्तनत कायम हो जाती और यदि विभाजन होता तो अब से कई गुना बड़ा पाकिस्तान हमें देना पड़ता। सावरकर के विचारों ने तत्कालीन राजनीति पर गहरा असर डाला। यह कहना हास्यास्पद है कि जिन्ना की तरह सावरकर भी द्विराष्ट्रवाद में विश्वास करते थे। सावरकर तो अखंड भारत के पक्षधर थे। उन्होंने मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की बात कभी नहीं कही। उलटे उन्होंने अपने 1937 के हिन्दू महासभा के अध्यक्षीय भाषण में मुसलमानों को अपनी भाषा , संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिए विशेष गारंटियां देने की बात कही। उन्होंने कई बार दोहराया है कि , ' हिन्दू राष्ट्र में किसी के साथ धर्म , वंश या जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। सबके साथ ' पूर्ण समानता का बर्ताव होगा और किसी एक को दूसरे पर अपना वर्चस्व स्थापित नहीं करने दिया जाएगा। ' उनका विरोध मुसलमानों से नहीं , ' मुस्लिम ब्लैकमेल ' से था। इसमें शक नहीं कि उनके लेखों और भाषणों से देश में गांधी-विरोधी वातावरण बना और भारत विभाजन की रेखाएं गहरी हुईं , लेकिन गांधी और नेहरू के मरहम को मुसलमानों ने छुआ तक नहीं। विभाजन की खाई तो सावरकर के मैदान में आने से बहुत पहले ही खुद चुकी थी। यदि सावरकर 27 साल जेल में नहीं रहते और बैरिस्टर बनकर 1890 में ही भारत लौटते तो पता नहीं भारत कौन सा हिन्दुत्व स्वीकार करता। गांधी का नरम हिन्दुत्व विफल हुआ और मुस्लिम तुष्टिकरण की कोख से पाकिस्तान जन्मा। लोहिया ने भी अपनी पुस्तक ' भारत विभाजन के दोषी ' में नेहरू तथा अन्य कांग्रेसी नेताओं को जिम्मेदार ठहराया है। सावरकर तो पाकिस्तान का बराबर विरोध करते रहे। देखें भाग्य की विडंबना कि आजादी के आखिरी दौर में गांधी और सावरकर का गंतव्य एक ही हो गया तथा जिन्ना और नेहरू के गंतव्य में कोई फर्क नहीं रह गया। मुस्लिम आक्रांताओं के बारे में भी सावरकर और लोहिया के विचार अनेक बिंदुओं पर एक जैसे दिखाई पड़ते हैं।
सावरकर जितने सेक्युलर और बुनियादी थे , उतने तो गांधी भी नहीं थे। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि हिन्दुत्व की अवधारणा का जनक कुछ खास परिस्थितियों में गोमांस-भक्षण की वकालत कर सकता है , वेदों की अपौरुषेयता और जन्मना वर्णाश्रम को रद्द कर सकता है और पुरोहिताई पाखंडों पर वज्र-प्रहार कर सकता है ? ऐसा क्रांतिकारी आरएसएस को कैसे स्वीकार हो सकता था ? हिन्दू महासभा और संघ में जैसी खींचतान 40 साल पहले तक चला करती थी , वैसी इन संगठनों की कांग्रेस के साथ भी नहीं चलती थी। सावरकर की प्रतिमा लगाने का अर्थ अगर यह है कि संघ परिवार किसी नए महानायक की तलाश में है , तो इससे प्रतिपक्ष को प्रसन्न ही होना चाहिए , क्योंकि सावरकर के सपनों का भारत जीवन की बुद्धिवादी दृष्टि पर आधारित है , किसी पुराण , कुरान , बाइबल या दास कैपिटल पर नहीं।

 


 जहां तक सावरकर द्वारा माफी मांगने का सवाल है , किसकी बात प्रमाणिक मानें ? अपने सर्वज्ञ नेताओं की या उस अंग्रेज अफसर की , जिससे माफी मांगी जा सकती थी ? 1913 में जब गवर्नर जनरल का प्रतिनिधि रेजिनॉल्ड क्रेडॉक पोर्ट ब्लेयर गया तो उसके सामने पांच कैदियों ने याचिकाएं पेश कीं। उनमें सावरकर भी थे। वे याचिकाएं थीं , माफीनामे नहीं। इन याचिकाओं में पांचों क्रांतिकारियों ने उन पर हो रहे जुल्मों का उल्लेख किया है और सरकार से सभ्य व्यवहार की आशा की है। अपनी रिहाई के लिए उन्होंने जरूरत से ज्यादा चाशनीदार शब्दावली का प्रयोग किया है। ठीक है कि सावरकर ने खूनी क्रांति का मार्ग छोड़कर संवैधानिक रास्ते पर चलने और राजभक्ति का आश्वासन दिया , लेकिन जरा गौर कीजिए कि सावरकर की याचिका पर क्रेडॉक ने क्या कहा। उसने अपनी गोपनीय टिप्पणी में लिखा कि सावरकर को अपने किए पर जरा भी पछतावा या खेद नहीं है और वह हृदय-परिवर्तन का ढोंग कर रहा है। इस याचिका के बाद भी सावरकर ने लगभग एक दशक तक काले पानी की महायातना भोगी। ऐसे सावरकर के चित्र पर भी आपको आपत्ति है । धन्य हैं , हमारे राजनेता।

सावरकर जी को बारम्बार सत सत नमन ।