मंगलवार, 27 मई 2014

अच्छे दिन आए तो कितने ?

नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में मंत्रिमंडल के शपथ लेने को मनमोहन सरकार की विदाई अथवा दस साल बाद भाजपा सरकार के फिर सत्ता संभालने के रूप में देखने की बजाय परिवर्तन के ऎसे रूप में देखने की जरूरत है जहां उम्मीदें परवान चढ़ी हों और जनता चुटकी बजाते ही समस्याओं का निदान देखना चाहती हो ।

लोकसभा चुनाव में जय-पराजय, आरोप-प्रत्यारोप और वादों का दौर खत्म हो चुका है और मोदी जी सरकार के सामने अब कुछ नहीं बहुत कुछ करके दिखाने का समय शुरू हो चुका है। सत्ता का यह दौर ऎसी जिम्मेदारियों का दौर है जहां सरकार को जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरकर दिखाना होगा । बात महंगाई पर काबू पाने की हो या भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की अथवा विदेश नीति को चुस्त-दुरूस्त करने की । जनता की उम्मीदें बहुत हैं और यह जगाई भी स्वयं मोदी जी ने हैं । मोदी जी ने जनता से स्पष्ट बहुमत मांगा और उसने इतनी सीटें झोली में डाल दीं कि सरकार के पास अब बहाना भी नहीं बचा ।

मसलन, गठबंधन सरकार हो तो कहने का मौका मिल जाता है कि फलां दल नहीं मान रहा या फलां नेता काम में रोड़ा अटका रहा है । भाजपा की पिछली अटल बिहारी वाजपेयी जी की सरकार रही हो या निवर्तमान मनमोहन जी की सरकार, सहयोगी दलों के दबाव में ही काम करती नजर आई । सरकारें बहुत से काम नहीं कर पाई तो उसकी वजह सहयोगियों का साथ नहीं देना भी माना जा सकता है लेकिन मोदी सरकार के सामने ऎसी कोई बाधा नहीं है। लिहाजा काम नहीं हो पाने के लिए जनता कोई बहाना सुनने को तैयार नहीं होगी । और अगले पांच सालो में फिर से बीजेपी को अर्श से फर्श पर पटक देगी ।

मोदी जी ने जो उम्मीदें जगाई, गुजरात मॉडल के सपने दिखाए, "मिनिमम गवर्नमेंट- मैक्सिमम गवर्नेस" का नारा दिया उसे पूरा करना असंभव नहीं तो आसान भी नहीं होगा। वर्षो से चल रहे सिस्टम को तोड़कर मोदी जी अपना नया तंत्र एकाएक विकसित कर पाएंगे, आसान नहीं है । फिर भी जो वादे किए हैं, न सिर्फ उन पर खरा उतरकर दिखाना होगा बल्कि कुछ ऎसा भी करके दिखाना होगा ताकि परवान पर चढ़ी उम्मीदों के पूरा होने में मदद मिले । मोदी जी ने अपनी टीम में किसे लिया और किसी नहीं, यह राजनीतिक बहस का विषय हो सकता है लेकिन इतना तय है कि नई सरकार के कामकाज के आकलन का समय शुरू हो चुका है और आने वाले दिन ही बता पाएंगे कि "अच्छे दिन आए या नहीं और आए तो कितने" ?