रविवार, 27 जुलाई 2014

भारत ने कारगिल युद्ध क्या सबक लिया ? Part 2


इंटलीजेंस "इंटेलीजेंट" नहीं
कारगिल युद्ध की भनक न लगने में बड़ी खामी हमारे खुफिया तंत्र की नाकामी मानी जाती है। उसके बाद बहुत सारे इंटेलीजेंस एकत्र करने के समूह बना तो दिए हैं लेकिन आज भी आपसी समन्वय का भारी अभाव देखने को मिलता है। आईबी खुद को सबसे ज्यादा "सुपीरियर" समझती है तो रॉ में यह ग्रंथि (कॉम्प्लेक्स) है कि सिर्फ वही सबसे बढिया जासूसी करती है। 26/11 के आतंकी हमले के बाद एनआईए अस्तित्व में आ गया लेकिन आतंकी घटनाएं रोकने में हम अभी भी कमजोर हैं। एक खामी सुधारने के लिए हमने चार-पांच संगठन तो बना दिए लेकिन ये पूछा जाना चाहिए कि कारगिल और आज के बीच में इंटेलीजेंस ने कितना बड़ा मुकाम हासिल कर लिया है? कारगिल में हमारी एजेंसियां सोती रहीं। उसके बाद 26/11 का हमला हुआ। वो भी पाकिस्तान की तरफ से हुआ। उसकी भी भनक नहीं लगी।

कब गंभीर होंगे हम?
रक्षा पर हमारी गंभीरता इसी से पता लग जाती है कि जो सिक्योरिटी एडवाइजरी बोर्ड बनाया गया था, उसके पदाधिकारी मिलते ही नहीं है। खाली बडे-बड़े ऎलान कर देने से स्थितियां नहीं बदलेंगी। हम सुरक्षा के लिए अभी भी दिखावटी चीजों पर ज्यादा पैसा बहाते हैं। लेकिन जहां पर सेना को तैयार करना है, जो जरूरी हथियार उसे देने हैं ताकि हमारी सीमाएं सुरक्षित रहें, वह कार्य तेजी से नहीं हो पाता है। पाकिस्तान के साथ-साथ चीनी बॉर्डर पर भी हमने बड़ी तरक्की नहीं की है। सिर्फ विदेश मंत्रालय में बैठे बाबू और नेता ही सोचते हैं कि हमने बड़ी तरक्की कर ली है। अगर पिछले 15 साल में आमने-सामने गोली नहीं चली है तो इसका मतलब यह नहीं है कि सीमा पर अमन है। चीन चाहे जब हमारी सीमा में घुस आता है। नक्शे बदल देता है। चाहे जो ऎलान कर देता है। लेकिन हम कुछ नहीं कर पाते। बॉर्डर मैनेजमेंट को लेकर हमारी फौज, रक्षा मंत्रालय में नेता और बाबूओं के बीच आपसी तालमेल नहीं है।

इजरायल से सीखें
इजरायल हमारे आसपास ही आजाद हुआ था लेकिन आज वह दुनिया का बड़ा हथियार निर्यातक देश है। उसने ऎसे हथियार-उपकरण बनाए हैं जो अमरीका और यूरोप से भी आगे हैं। भारत के मुकाबले वह काफी छोटा देश है। लेकिन उसके जैसे मिसाइल, टैंक अमरीका ने भी नहीं बनाए। लेकिन हम हथियार आयात पर ही टिके हैं। 70 फीसद आयात करते हैं। हमारी डिफेंस इंडस्ट्री की स्वदेशी हथियार निर्माण में कोई दिलचस्पी नहीं है। ज्यादा से ज्यादा बाहर से सामान खरीदकर यहां एसेम्बल कर दिया जाता है। लेकिन बुनियादी समस्या यह है कि हमने हथियार निर्माण में कोई इनोवेशन नहीं किया है। हथियार खरीद की प्रक्रिया भी बहुत ढीली है।

सरकारी कम्पनियों ने कभी निजी कम्पनियों को आने नहीं दिया। सेनाध्यक्ष नए हथियार पर जोर देते रहे और ए के एंटनी जैसे रक्षा मंत्री अपने दामन पर दाग लगने की आशंका के चलते खरीद ही नहीं होने देते थे। अब जाकर 49 फीसदी एफडीआई किया गया है। इससे थोड़ी उम्मीद की जा सकती है। जब बाहरी देशों ने अपनी मिसाइल बेचने पर प्रतिंबध लगाया तो हमने अपने दम पर ऎसी मिसाइलें बना दीं कि आज हम वल्र्ड लीडर हैं, वैसे ही बाकी हथियारों में बन सकते हैं। लेकिन ऎसा दबाव न होने की वजह से हम आयात पर ही टिके रहना चाहते हैं।

कारगिल में धोखा
वष्ाü 1999 के मई महीने में पाकिस्तानी सेना ने अफगानी लड़ाकुओं और अनियमित सेनाओं को लेकर करगिल और द्रास क्षेत्र में भारतीय सेनाओं द्वारा छोड़ी गई चौकियों पर कब्जा कर लिया। दो महीने से ज्यादा चले इस युद्ध में भारतीय सेना ने 26 जुलाई 1999 को कारगिल में फतह पा ली। इस युद्ध में लगभग 527 से अधिक भारतीय जवान शहीद हुए वहीं 1300 से ज्यादा घायल हो गए। पाकिस्तान की तरफ से आधिकारिक तौर पर 453 सैनिकों के मरने और 665 से अधिक सैनिकों के घायल होने की पुष्टि की गई।

बाज नहीं आया पाकिस्तान
देश के रक्षा मंत्री अरूण जेटली ने सदन को बताया कि चालू वर्ष में पाकिस्तान ने 54 बार संघर्ष विराम का उल्लंघन किया। 26 मई को नई सरकार के सत्ता में आने के बाद से 19 बार से ज्यादा घुसपैठ की कोशिशें हो चुकी हैं। 22 जुलाई को पाकिस्तान की तरफ से अखनूर सेक्टर में फायरिंग की गई जिसमें एक जवान शहीद एवं दो घायल हो गए। जुलाई महीने के पहले पखवाड़े में दर्जनों बार पाकिस्तानी सेना ने भारतीय क्षेत्र में फायरिंग की। 8 जनवरी, 2013 को पाकिस्तानी सैनिक दो भारतीय सैनिकों का सिर काट ले गए।

उजागर हुई खामियां
कारगिल युद्ध ने भारत के खुफिया एजेंसियों पर सवाल खड़े किए।
पाकिस्तानी घुसपैठ का सही आंकलन लगाने में देरी हुई, राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा निर्णय लेने में देरी।
भारतीय रक्षा बलों में आपसी तालमेल का अभाव खुलकर सामने आया।

31 भारतीय जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ी है पिछले चार साल के दौरान पाकिस्तानी गोलीबारी में।

फाइटिंग फोर्स बनें, सरकारी नौकर नहीं

एस. कृष्णास्वामी पूर्व वायुसेना प्रमुख
कारगिल के बाद हम काफी मजबूत हुए हैं। हमने हथियार तंत्र में बदलाव किया है। आपसी समन्वय अच्छा हो गया है। लेकिन अब कम्युुनिकेशन, डिसिजन मेकिंग तेज हो गया है। इंटेलीजेंस, रिस्क भांपने की क्षमता और हथियार ज्यादा सटीक हैं। कारगिल में इंटेलीजेंस नाकामी के लिए काफी आलोचना हुई थी लेकिन अभी हालात बदल चुके हैं। सेना की ताकत भी बेहतर हुई है। लेकिन हमें ज्यादा सतर्क रहना होगा। पाकिस्तान आतंकवाद पर भरोसा करता है, वो हमारे खिलाफ कोई मौका नहीं छोड़ना चाहेगा।

1947 से लेकर अभी तक पाकिस्तान लगातार चौंकाने वाली पहल करता रहा है। हर बार वो हारा है। इसलिए वह फिर हमला कर सकता है, भले ही वह कारगिल जैसा नहीं हो। जैसे 26/11 का सरप्राइज हमला किया। अक्सर सेनाओं द्वारा हथियारों की कमी, आधुनिकीकरण न हो पाने और निर्णय लेने में सुस्ती की बात की जाती है लेकिन हमें इन कमियों की वजह से तैयारी में कसर नहीं छोड़नी चाहिए। हमें मानकर चलना चाहिए कि जो साजो-सामान हमारे पास है, उससे हम कैसे हैंडल करेंगे। हमारे मैथड्ज धीमे हैं लेकिन एकदम से जो चाहें वो नहीं खरीद सकते हैं।

सरकार को सेना से सवाल पूछने का हक है और उसे जरूरत स्पष्ट करनी चाहिए। आखिरकार यह सब सामान करदाताओं के धन से ही खरीदा जाता है। हालांकि दुनिया में कभी भी किसी मिलिट्री के पास पर्याप्त हथियार और सामान नहीं होंगे। हमेशा कुछ न कुछ जरूरत बनी रहती है। सेना के पास आवश्यक आधुनिक हथियार और उपकरण रहने चाहिए लेकिन उन्हें चलाने का प्रशिक्षण और उनसे लड़ने की तैयारी भी रखनी चाहिए। रणनीतिक स्तर पर पूरी तैयारी पाकिस्तान और चीन जैसे पड़ोसी को देखते हुए रखनी चाहिए। सेना के पास यह रणनीति होनी चाहिए कि फिलहाल युद्ध जैसी स्थिति बन गई तो कैसे सामना किया जाएगा। सवाल फिर मिलिट्री से पूछा जाएगा।

सिर्फ जहाज, हथियार-उपकरण न होने का बहाना नहीं चलता है। जो कुछ अभी है, उसे सम्भालना भी तो जरूरी है। सेना को सुनिश्चित करना चाहिए कि अभी जो बंदूकें, जहाज और हथियार हैं वे ऑपरेशनल हैं कि नहीं। उनके स्पेयर पार्ट ठीक है कि नहीं, पर्याप्त बारूद है कि नहीं। नए हथियार लाने से पहले रक्षा मंत्री को पूछने का अधिकार है कि जो साजो-सामान अभी सेना के पास है, उसके साथ लड़ने की तैयारी है? हथियारों को चलाने, सैनिकों का जहाजों को उड़ाने का प्रशिक्षण पूरा है? क्योंकि एक फाइटर पायलट को प्रशिक्षण के लिए ही 3-4 साल लग जाते हेैं, ऎसे में कैसे जाना जाए कि वह सक्षम चालक है? हालांकि हरेक मिलिट्री में इंस्पेक्टर जनरल होता है, उसे इस बारे में जानकारी रहती है। लेकिन यह सरकार पर निर्भर होता है कि जिन नए हथियार और उपकरणों की मांग हो रही है, उसके मुकाबले मौजूदा हथियारों का स्टेटस क्या है। अगर वे ही ठीक नहीं है तो उन्हें ठीक करना चाहिए। सैनिकों से पूछा जाए कि वे हथियारों के संचालन में कितने दक्ष हैं? लड़ाई से पहले हमारी सेनाओं की क्षमताएं कैसी है, यह जांचना चाहिए। सीमा पर घुसपैठ से निपटने में नाकामी को दूर करना चाहिए।

सेनाओं की क्षमताओं की जांच होती रहनी चाहिए। जब उन्हें इतना पैसा, हथियार और सुविधाएं चाहिए तो उनकी तैयारियों का जायजा लेते रहना चाहिए। लड़ाई के बारे में सरकार उनके आइडिया लेते रहे। पहले उनके लिए जरूरी हथियार, मशीन, बारूद, जवान और लॉजिस्टिक्स का इंतजाम करे। सेनाओं के मनोबल पर नजर रहनी चाहिए। सेनाओं को भी सिर्फ अपने लिए मांगने वाला रवैया छोड़ना चाहिए। मुझे दुख होता है जब सेनाओं में स्किल्स की बजाय अपनी रैंक, पेंशन, सुविधाओं-भत्तों की आवाज ज्यादा सुनाई देती है। सेवा भाव की बजाय सिर्फ सरकारी नौकरी की सुविधाओं पर फोकस नहीं रहना चाहिए।
सिर्फ सैनिकों की भर्ती करने से ही सेना मजबूत नहीं हो जाएगी। उनकी उच्च स्तरीय टे्रनिंग पर भी फोकस रहना चाहिए। विक्रमादित्य को खड़ा कर तालियां बजाने से काम नहीं चलेगा। असली काम उसका संचालन है, जो कि इतना आसान नहीं है।

उसके लिए भारी प्रयास और वक्त चाहिए, पूरी टे्रनिंग चाहिए। नए-नए जहाज, हथियार खरीद लेना अलग बात है और उनका फाइटिंग स्टेटस ध्यान में रखना एकदम अलग। सरकार कोे क्रॉस चैकिंग के तरीके अपनाने चाहिए। सेनाओं द्वारा भी कमजोर सिस्टम के लिए सिर्फ ब्यूरोक्रेट पर आरोप लगाने से काम नहीं चलेगा। सब कुछ खराब नहीं है। अहम बात आपके कार्य करने का तरीका है। ब्रिटेन, अमरीका जैसे मुल्कों में भी ब्यूरोक्रेट हैं। वहां भी संसद की रक्षा में भूमिका है। हालांकि वहां ब्यूरोक्रेट्स के साथ मिलिट्री का तालमेल अच्छा है, जो हमारे यहां नहीं है। इसमें सुधार करने की जरूरत है। सेना को भी एक फाइटिंग फोर्स बने रहने की जरूरत है, वह कोई सरकारी नौकरी नहीं है। भले ही जवान कम हों, लेकिन वे फोकस्ड हों और स्किल्ड हों।


भारत ने कारगिल युद्ध क्या सबक लिया ? Part 1

अभी  देश ने  कारगिल विजय की 15वीं वर्षगांठ मनाया । युद्ध में भारतीय जवानों ने पाकिस्तानी सेना को मुंहतोड़ जवाब दिया लेकिन उस दौरान हमारी कई खामियां भी सामने आई। सवाल यह है कि हमने कारगिल युद्ध से सबक लिया कि नहीं ? क्या आज हमारी सेनाएं और खुफिया तंत्र देश की सरहदों को महफूज रखने में सफल हैं? या फिर सुरक्षा और सामरिक नीतियों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है? जानते हैं विशेषज्ञों के नजरिए से...


मारूफ रजा रक्षा विशेषज्ञ

कारगिल के 15 साल बाद सीमा पर हमारी क्षमताओं में कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। जिन ज्यादातर हथियार-उपकरणों की मांग पहले थी वो अभी भी जारी है। अभी हमारी सरकार का जोर "फोर्स मल्टीप्लायर" हथियारों पर रहता है, जो हाथी के दांत की तरह खाने के और, दिखाने के और रहते हैं। आज भी हमारी सीमाएं बहुत सुरक्षित नहीं हो गई हैं। आज भी आतंकवादी हमलों के बाद कारगिल जैसा हमला होने की ही आशंका है। अभी भी नियंत्रण रेखा पर तनाव बना हुआ है। बार-बार पाकिस्तान की तरफ से सीजफायर का उल्लंघन होता है। हमारे सैनिक मारे जाते हैं।

समझौते के नाम पर धोखा
पाकिस्तान का सियाचिन और कश्मीर को हासिल करने का ख्वाब पुराना है। इसके लिए जब-तब वह नाकाम कोशिश करता रहा है। भारत-पाकिस्तान की सेनाओं के बीच जब एलओसी पर शांति बनाए रखने के लिए समझौता हुआ था तो उसमें यह भरोसा शामिल था कि सियाचिन क्षेत्र में सर्दी में बहुत कड़क बर्फ गिरती है तो दोनों मुल्कों की सेना की टोलियां बर्फीले पहाड़ों से नीचे आ जाएंगी ताकि सर्दी में उनका जीवन आसान हो जाए। बर्फ गिरना बंद होने के बाद दोनों देश फिर मोर्चा सम्भाल लेंगे। पर पाकिस्तान ने 1999 में सियाचिन पर भारत से धोखा किया।

दिक्कत यह है कि सियाचिन के ऊपर कोई सीमा रेखा दोनों देशों ने नहीं खींची है। नक्शे पर एक रेखा खींची हुई है, उसे ही जमीन पर एडजस्ट माना जाता है। कारगिल के पास कई जगह हंै, जहां दोनों मुल्कों के बीच बाउंड्री लाइन नहीं है। लेकिन कारगिल के पहाड़ों की चोटियों को ही दोनों देश नियंत्रण रेखा मानते रहे हैं। पर पाकिस्तान उस नियंत्रण रेखा को ही चुनौती देता आया है। कारगिल होने के बाद भी नवाज शरीफ को अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने यह कहते हुए झटका दिया था कि पाकिस्तान नियंत्रण रेखा का सम्मान करे। कारगिल के बाद विश्व में बड़े-बड़े देशों ने पाकिस्तान को कहा कि वह नियंत्रण रेखा का सम्मान करे।

हमारी भी नाकामी
हालांकि भारत की सरकार, खासतौर पर पिछले दस साल में यूपीए सरकार यकीनन नियंत्रण रेखा को मानने के दबाव का फायदा नहीं उठा पाई। पाकिस्तान द्वारा 99 में हम पर हमला करने में अटल बिहारी वाजपेयी जी की भी पाकिस्तान के प्रति नीतिगत विफलता रही थी और अभी तक हम उससे सख्ती से नहीं निपट पाए हैं। जब तक पाकिस्तान के साथ अपने दम पर सख्ती से नहीं निपटेंगे, वह हमें ठेंगा दिखाता रहेगा। कारगिल के बाद भी भारत के राजनीतिक विचारों और डिप्लोमेटिक स्तर पर विफलता बनी हुई है। 15 साल बाद भी हमने पाकिस्तान के साथ पॉलिसी फ्रेमवर्क नहीं अपनाया ताकि कारगिल नियंत्रण रेखा को चुनौती देने से पाकिस्तान बाज आ सके। जब बड़े-बड़े देशों ने कह दिया कि पाकिस्तान को नियंत्रण रेखा का सम्मान करना चाहिए तो क्यों नहीं हमारी सरकारों ने उस पर इसे बॉर्डर बनाने का दबाव डाला। उस नियंत्रण रेखा को बॉर्डर बनाने से कश्मीर पर हमारी चिंता कम हो जाएगी। पाकिस्तान कभी नहीं चाहेगा कि कश्मीर का मुद्दा खत्म हो जाए। वरना उसके पास भारत के खिलाफ कोई मुद्दा ही नहीं रहेगा।

फौज-बाबूओं में तालमेल नहीं
सेना के स्तर पर बात करें तो हथियार हमने पहले के मुकाबले काफी खरीदे हैं। कारगिल के बाद रिव्यू कमेटी की रिपोर्ट का असर जमीन पर दिखाई भी दिया। कारगिल में जब हमारी सेना लड़ रही थी तो बहुत बुरा हाल था। सियाचिन पर तो काफी पैसा खर्च कर दिया था। लेकिन कारगिल के पहाड़ों में हमारे फौजियों के पास न तो उपयुक्त जूते थे और न ही गर्म कपड़े थे। रिव्यू कमेटी में सिस्टम को सुधारने की कर्ई और बातें भी इंगित की गई थीं। खासतौर पर साउथ ब्लॉक के नेशनल सिक्योरिटी मॉडल कोे रेखांकित किया था। नौकरशाही की क्या भूमिका रहे और फौज व उनके बीच तालमेल कैसे हो, उस बारे में लिखा गया था। लेकिन इस मामले में स्थिति वहीं की वहीं है। साउथ ब्लॉक में बैठी "बाबू" बिरादरी नहीं चाहती कि ऎसी स्थिति बन जाए, जहां उनका महत्व ही खत्म हो जाए। राष्ट्रीय सुरक्षा पर राजनीतिक जमात तो गुमराह ही रही है, उन्हें ब्यूरोक्रेट ही चलाते रहे हैं। आज भी रक्षा मंत्रालय में जिम्मेदारी सम्भालने वाले नौकरशाहों का रक्षा के बारे में कोई स्पेशलाइजेशन नहीं होता है। कारगिल के बाद भी नौकरशाही और फौज के बीच स्थिति बदली नहीं है।

गुरुवार, 17 जुलाई 2014

मानसून बुलाने के अजब -गजब टोटके ।

  कहते हैं कि सर्दी, गर्मी और बारिश प्रकृति के हिसाब से आती-जाती हैं। इनमें मनुष्य कुछ नहीं कर सकता है, लेकिन देश के कुछ इलाकों में प्रकृति के इस नियम को बदलने के लिए कई तरह के टोने-टोटकों की परम्परा है। माना जाता है कि इन्द्रदेव को प्रसन्न कर लिया जाए, तो बारिश आती है। इसी क्रम में यूपी और एमपी के कई गांवों में मान्यता है कि अगर महिलाएं रात के समय नग्न होकर खेतों में हल चलाएं तो मानसून आता है। इस पूरे टोटके में महिलाएं समूह बनाकर खेत को घेर लेती हैं जिससे कोई अन्य यह सब देख नहीं पाए। इस दौरान यहां पर पुरूषों का आना-जाना बंद रहता है।
2. मानसून को बुलाने के लिए "बेड़" नाम का एक टोटका भी आजमाया जाता है। विदिशा के एक पठारी कस्बे में किए जाने वाले इस टोटके में ग्रामीण महिलाएं गाजे-बाजे के साथ किसी खेत पर अचानक हमला कर देती हैं। इसके बाद खेत पर काम कर रहे किसी भी किसान को बंधक बना लेती हैं। इसके बाद किसान को गांव में ले जाया जाता है। यहां इस बंधक किसान को दुल्हन की तरह सजाया जाता है। किसान की विदाई पैसे देकर की जाती है।

3. मध्यप्रदेश के ही इंदौर में मानसून को प्रसन्न करने के लिए एक अजीबोगरीब बारात निकाली जाती है। किसानों और व्यापारियों की ओर से निकाले जाने वाली इस बारात में दूल्हे को घोड़े की बजाय गधे पर बिठाया जाता है। इस बारात में शामिल लोग मस्त होकर डांस भी करते चलते हैं। हालांकि इस दूल्हे को दुल्हन नहीं मिलती है। माना जाता है कि इस टोटके से इन्द्रदेव प्रसन्न होते हैं और बारिश की अच्छी संभावना होती है।
4. भोपाल के मालवा अंचल में जीवित व्यक्ति की शवयात्रा निकाली जाती है। बताया जाता है कि अहिल्याबाई होल्कर के समय से जीवित व्यक्तियों की शवयात्रा निकाली जाती है। इसमें कारोबारी और किसान पीछे-पीछे चलते हैं। हाल में ही खरगोन में एक जीवित महिला की शवयात्रा निकाली गई। 
 
 5. यूपी, बिहार, उड़ीसा और उत्तरपूर्वी राज्यों में अच्छी बारिश के लिए मेंढ़क-मेंढ़की की शादी करवाई जाती है। यह शादी बाकायदा पूरे हिंदू रीति-रिवाजों से की जाती है। गांव के लोग मेंढ़क और मेंढ़की के घरवालों के रूप में बंट जाते हैं। उड़ीसा में तो मेंढ़कों का नाच तक करवाया जाता है।
6. बुंदेलखंड में ही महिलाएं जंगल में जाकर गाकड (बाटी) बनाती हैं और पूरे परिवार के साथ मिल बांटकर खाती है। पूजा पाठ भी करवाया जाता है।
7. मध्यप्रदेश के कई गांवों में शिवलिंग को पूरी तरह से पानी में डूबोकर रखा जाता है। मान्यता है कि इससे मानसून झूम कर आता है

8. मध्यप्रदेश के ही खंडवा जिले के बीड़ में लोग मंदिर परिसर में एक टोटका करते हैं। गांव के लोग मंदिर के आहते में खाली मटके जमीन में गाड़ देते हैं और अच्छे मानसून की कामना करते हैं।
10. मध्यप्रदेश के सागर जिले के राहतगढ़ विकासखंड के शिकारपुर गांव में वहां पड़ रहे सूखे के दौरे के लिए जब 2002 में जनप्रतिनिधि और अधिकारी गांव में पहुंचे, तो ग्रामीणों ने उन्हें कड़ी धूप में सूखे पेड़ से बांध दिया। ग्रामीणों की मान्यता थी कि इससे सूखा खत्म होगा।

शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

कुल मिलकर बजट 2014 में सुविधाएं सस्ती, शौक महंगा हुआ

मैं तो समझता हू की मोदी जी को इस धारणा पर काम करना चाहिए ।
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"काम" पहचान बनें मेरी तो बेहतर है, चेहरे का क्या है,
वो मेरे साथ ही एक दिन चला जाएगा "
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मोदी सरकार का पहला बजट आम आदमी के "अच्छे दिन" का सपना पूरा करेगा या नहीं, अभी कहना जल्दबाजी होगा लेकिन महंगाई, वित्तीय घाटे व चालू घाटे को कम करके आर्थिक विकास दर में तेजी लाने का जो लक्ष्य रखा है वह आर्थिक हालात को सुधारने के लिए सबसे बड़ी जरूरत है। बजट किसी भी सरकार के एक साल के आर्थिक खाके से कहीं अधिक उसकी सोच को परिलक्षित करता है और इस लिहाज से नई सरकार ने सब्सिडी घटाने के साथ विदेशी निवेश को बढ़ावा देने का संकेत जरूर दिया है लेकिन बेहतर होता कि सरकार घाटे को कम करने के उपायों का भी खुलासा करती। आम आदमी, खासकर नौकरीपेशा की बात की जाए तो आयकर छूट सीमा बढ़ाने, घर के लिए लोन की छूट सीमा डेढ़ लाख तक बढ़ाने और निवेश पर कर छूट सीमा बढ़ाकर डेढ़ लाख करना महंगाई से पिसते आम आदमी को सुकून दे सकती है।

महंगाई पर काबू पाने के लिए किसी भी सरकार की इच्छाशक्ति से ज्यादा जरूरी 500 करोड़ का महंगाई फंड कैसे है, यह भी बताना होगा। कर्मचारी भविष्य निधि कोष्ा के तहत पेंशन पाने वाले कर्मचारियों की न्यूनतम पेंशन एक हजार होना भी राहत की खबर हो सकती है।विभिन्न राज्यों के लिए अलग-अलग योजनाएं देना सामान्य हिस्सा हो सकता है। राजस्थान के लिए एक और कृçष्ा विश्वविद्यालय, आईआईएम की स्थापना और मेगा सोलर प्रोजेक्ट सौगात के रूप में देखे जा सकते हैं लेकिन दिल्ली-मुंबई औद्योगिक कॉरीडोर के बारे में बजट में कोई उल्लेख नहीं होना राज्य के लिए चिंता की बात है क्योंकि कॉरीडोर का चालीस फीसदी हिस्सा राजस्थान से गुजरता है।

सिगरेट, तंबाकू, गुटखा और सिगार का महंगा होना व्यसन पर लगाम लगाने का कदम है तो तेल, साबुन, कम्प्यूटर उपकरण, मोबाइल फोन, एलसीडी और एलईडी टीवी का सस्ता होना आम लोगों को लुभाने वाला। इसी तरह रोटी, कपड़ा और मकान के साथ-साथ बिजली, पानी, सड़क, स्कूल और अस्पतालों के लिए जूझती जनता को प्रतिमा और स्मारकों पर होने वाले सैकड़ों करोड़ के खर्च का औचित्य समझाना भी बड़ी चुनौती है। बजट घोष्ाणाओं का पिटारा होता है इस लिहाज से बहुत सी योजनाओं का ऎलान जरूर किया गया है लेकिन उनमें से अधिकांश योजनाओं का उल्लेख पहले कभी ना कभी हो चुका है ।
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''कुल मिलकर बजट में सुविधाएं सस्ती, शौक महंगा हुआ ''


आमजन ने बजट को लाइक ज्यादा और अनलाइक कम दिया हैं इससे ए साबित होता  हैं कई बज़ट आम जन को पसंद आया है ।

मंगलवार, 8 जुलाई 2014

रेल का खेल और सरकार की मज़बूरी ?

7122 से अधिक स्टेशनो को जोड़ते हुए प्रतिदिन 12 हजार 617
रेल गाडियाँ इस देश मे चलती है !जिसमे 2 करोड़ 30 लाख लोग प्रतिदिन सफर करते हैं यह प्रतिदिन आस्ट्रेलिया की पूरी जनसंख्या को ढोने के बराबर है। 7421 से अधिक माल गाड़ियो मे प्रतिदिन 30 लाख किलो माल ढोया जाता है देश मे कुल माल ढोने के साधनो का 31 % रेल से होता है ,खर्चा करने से पहले हम अपनी जेब भी देखे  इस वर्ष रेलवे को सकल यातायात आमदनी 1,39,558 करोड़ (1,लाख 39,हजार 558 करोड़ ) है ! लेकिन संचालन का खर्चा 1,30,321 ( 1 लाख 30 हजार 321 करोड़ है ) मतलब खर्चा काट के बचा लगभग 9000 करोड़  यही सबसे अधिक गड़बड़ी है  operating ratio (परिचालन अनुपात ) लगभग 94% को पार कर गया है | अर्थता 100 रूपये की कमाई के लिए रेलवे के 94 रूपये खर्च कर देता है ! ईंधन ,वेतन ,पेंशन ,सवारी डिब्बा अनुरक्ष्ण,सुरक्षा पर पैसा खर्च होता है !13 लाख कर्मचारी भारतीय रेलवे मे काम करते है !रेलवे का दूसरे नमबर का सबसे अधिक खर्चा इनही पर होता है, 30-40 हजार 50 हजार 60 हजार की पगारे ये कर्मचारी पाते है !ऊपर से साल मे दो बार वेतन आयोग के नाम पर इनका महंगाई भत्ता बढ़ा दिया जाता है ! अर्थात वेतन और बढ़ जाता है

ऐसे मे रेलवे का खर्चा बढ़ेगा नहीं तो क्या कम होगा ??

अब आप यहाँ देखिये सरकार ने कुछ दिन पहले 14% भाड़ा बढ़ाया था जिससे 8000 करोड़ की अधिक आय हुई  लेकिन उसमे से सरकार को 6500 करोड़ ही मिले 1500 करोड़ रिटायर कर्मचरियों की पेंशन बढ़ा दी उसमे खर्च हो गया !! जम्मू से कटरा चली नई रेल की लागत 1100 करोड़ है जिसमे रास्ते 38 पुल और 7 सुरंगे भी है ! और 1500 करोड़ सरकार मे कर्मचरियों की पेंशन बढ़ाने उड़ा दिया !! अर्थता वर्ष मे 2 बार महंगाई भत्ता,और वेतन 13 लाख कर्मचरियों का बढ़ाया जाएगा ! लेकिन उसके लिए किराया बढ़ाकर पैसा पूरे 120 करोड़ लोगो से वसूला जाएगा ?? ऊपर से इन 13 लाख कर्मचरियों को इतना वेतन देने के बाद मुफ्त मे कितने ही किलो मीटर रेल यात्रा की सुविधा हर वर्ष दी जाती है इसके अतिरिक्त 543 MP है 28 राज्यो के मुख्यमंत्री उनके नीचे सैंकड़ों MLA है ये सब पहले से इतनी इतनी पगारे पाते है,महंगाई भत्ता पाते है ऊपर से इन सबको first class मे जितनी मर्जी रेल यात्राओ की सुविधा है ! इनको बंद कर सरकार कितना पैसा बचा सकती है जिसे जनता को सुविधा देने के लिए खर्च किया जा सकता है !! मित्रो रेलवे की 1 लाख 40 हजार करोड़ की आय कम नहीं होती समस्या ये है इसमे से खर्चा 1 लाख 30 हजार करोड़ का है ! उसमे कर्मचरियों को बहुत अधिक धन लुटाया जाता है फिर वर्ष मे दो बार पगारे बर जाती ,अर्थात अगले वर्ष फिर खर्चा बढ़ जाता है ! ऊपर मंत्रियो ,अधिकारियों को दी जाने वाली अलग रेल सुविधाए ! आम जनता के लिए कुछ बचता नहीं है !  अब आप कहेंगे जो इतनी सारी नई परीयोजनो की घोषणा हुई है ये ट्रेन चलेगी वो ट्रेन चलेगी ,सुविधा मे ये मिलेगा वो मिलेगा ये वो सब क्या है ???

तो सुनिए !!

नई परियोजनाओ की घोषणा करना एक बात होती है लेकिन उन मे से कितनी परियोजनाएं पूरी हुई है ये बात महत्व की है !

अब ये पढ़िये !

पिछले 30 साल मे 1,57000 (1 लाख 57 हजार करोड़) की 676 परियोजनाएँ की घोषणा हुई ! लेकिन अब तक सिर्फ 317 परियोजनाओ को ही पूरा किया गया है अर्थात आधी से ज्यादा परियोजनाए अभी तक लटकी पड़ी है ! और 30 साल गुजर गए है

शेष 359 परियोजनाए को पूरा करने के लिए अब 1,82,000 ( 1 लाख 82 हजार करोड़
चाहिए क्योंकि अब समय के साथ सब महंगा हो गया है !

पहले 676 परियोजनाएँ के लिए कुल 1,57000 करोड़ चाहिए थे अब 359 परियोजनाओ के लिए
1,82,000 ( 1 लाख 82 हजार करोड़ चाहिए !

लेकिन सरकार ने अपनी कुल आय 1 लाख 40 हजार करोड़ मे से 1 लाख 30 हजार करोड़ तो खर्चो मे उड़ा दिया !!

बचे हुए 10 हजार करोड़ से तो 30 साल से लटक रही 1,82,000 करोड़ की ( 1 लाख 82 हजार करोड़ ) की पुरानी परियोजनाए पूरी नहीं होंगी ! इसके अतिरिक्त सरकार ने इस बजट मे और नई घोषनाये कर दी है वो कैसे और कब पूरी होगी आप खुद अनुमान लगा लीजिये !

तो मित्रो परियोजानों की घोषणा करने और उनको पूरा करने मे जमीन आसमान का अंतर है इसलिए मैंने ऊपर ही लिखा था खर्चा करने से पहले जेब तो देख लो ! और जाते जाते एक और बात जापानी कंपनियो को बुला कर बुलेट ट्रेन चलाई जाएगी !

कहाँ से कहाँ तक चलाई जाएगी ??

मुंबई से अहमदाबाद ??

कितना खर्चा है 60 हजार करोड़ का !

भाड़ा कितना होगा ?? लगभग हवाई जहाज के किराये जितना !

अब आप खुद विचार करो रेल सफर करने वाली 80 % जनता
जर्नल और स्लीपर मे सफर करती है !

मात्र मुंबई से अहमदाबाद एक रूट के लिए 60 हजार करोड़ खर्च करना
कौन सी समझदारी है ??? जबकि आगे ही खर्चा इतना ज्यादा है

इससे अच्छा तो जो माजूदा रेले है उनकी स्थिति सुधारे जाए ! सस्ती सस्ती 15 -20 रेल चलाओ से ज्यादा बढ़िया है !  और अंत मे मित्रो सरकार को गलियाँ देने से कुछ नहीं मिलने वाला !ज्यादा से ज्यादा क्या होगा मोदी को हटाकर किसी और को ले आओगे ! फिर से सत्ता परिवर्तन कर दो गए ! फिर वो काम नहीं करेगा उसे हटा किसी और को ले आओगे !

मित्रो ये काम तो 67 साल से देश मे चल ही रहा है बार बार हम सरकारे ही तो बदल रहे हैतो अब समय आ गया है जब हम सत्ता नहीं व्यवस्था बदले पुराने अँग्रेजी कानूनों और गलत नीतियो को बदले ,उसकी जगह नई नीतियाँ भारत और भारतीयता के अनुसार बनाये !! और मौजूदा पूर्ण बहुमत वाली सरकार पर ही दबाव बनाकर उनसे व्यवस्था को बदलवाये !

Note-----: यह  ब्लॉग  सरकार का बिरोध या पैरवी करने के लिए नहीं है । 

दुनियाभर में क्यों भिड़े हैं शिया और सुन्नी ?

इराक़ में जारी संघर्ष ने एक बार फिर सुन्नी और शियाओं के बीच मतभेदों को उजागर कर दिया है. सीरिया में भी जारी संघर्ष में शिया-सुन्नी विवाद की गूंज सुनाई देती है लेकिन इस मतभेद के बुनियादी कारण क्या हैं, जानते हैं । 

शिया और सुन्नियों में अंतर----:

मुसलमान मुख्य रूप से दो समुदायों में बंटे हैं- शिया और सुन्नी. पैगंबर मोहम्मद साहब  की मृत्यु के तुरंत बाद ही इस बात पर विवाद से विभाजन पैदा हो गया कि मुसलमानों का नेतृत्व कौन होगा.

मुस्लिम आबादी में बहुसंख्य सुन्नी हैं और अनुमानित आंकड़ों के अनुसार, इनकी संख्या 85 से 90 प्रतिशत के बीच है.
दोनों समुदाय के लोग सदियों से एक साथ रहते आए हैं और उनके अधिकांश धार्मिक आस्थाएं और रीति रिवाज एक जैसे हैं.
इराक़ के शहरी इलाक़ों में हाल तक सुन्नी और शियाओं के बीच शादी बहुत आम बात हुआ करती थीं.
इनमें अंतर है तो सिद्धांत, परम्परा, क़ानून, धर्मशास्त्र और धार्मिक संगठन का. उनके नेताओं में भी प्रतिद्वंद्विता देखने को मिलती है.
लेबनान से सीरिया और इराक़ से पाकिस्तान तक अधिकांश हालिया संघर्ष ने साम्प्रदायिक विभाजन को बढ़ाया है और दोनों समुदायों को अलग-अलग कर दिया है.

सुन्नी कौन हैं ?

सुन्नी मुसलमान ख़ुद को इस्लाम की सबसे धर्मनिष्ठ और पारंपरिक शाखा से मानते हैं. सुन्नी शब्द 'अहल अल-सुन्ना' से बना है जिसका मतलब है परम्परा को मानने वाले लोग. इस मामले में परम्परा का संदर्भ ऐसी रिवाजों से है जो पैग़ंबर मोहम्मद और उनके क़रीबियों के व्यवहार या दृष्टांत पर आधारित हो. सुन्नी उन सभी पैगंबरों को मानते हैं जिनका ज़िक्र क़ुरान में किया गया है लेकिन अंतिम पैग़ंबर मोहम्मद ही थे. इनके बाद हुए सभी मुस्लिम नेताओं को सांसारिक शख़्सियत के रूप में देखा जाता है. शियाओं की अपेक्षा, सुन्नी धार्मिक शिक्षक और नेता ऐतिहासिक रूप से सरकारी नियंत्रण में रहे हैं.

शिया कौन हैं?

शुरुआती इस्लामी इतिहास में शिया एक राजनीतिक समूह के रूप में थे- 'शियत अली' यानी अली की पार्टी. शियाओं का दावा है कि मुसलमानों का नेतृत्व करने का अधिकार अली और उनके वंशजों का ही है. अली पैग़ंबर मोहम्मद के दामाद थे. मुसलमानों का नेता या ख़लीफ़ा कौन होगा, इसे लेकर हुए एक संघर्ष में अली मारे गए थे. उनके बेटे हुसैन और हसन ने भी ख़लीफ़ा होने के लिए संघर्ष किया था. हुसैन की मौत युद्ध क्षेत्र में हुई, जबकि माना जाता है कि हसन को ज़हर दिया गया था. इन घटनाओं के कारण शियाओं में शहादत और मातम मनाने को इतना महत्व दिया जाता है. अनुमान के अनुसार, शियाओं की संख्या मुस्लिम आबादी की 10 प्रतिशत यानी 12 करोड़ से 17 करोड़ के बीच है. ईरान, इराक़, बहरीन, अज़रबैजान और कुछ आंकड़ों के अनुसार यमन में शियाओं का बहुमत है. इसके अलावा, अफ़ग़ानिस्तान, भारत, कुवैत, लेबनान, पाकिस्तान, क़तर, सीरिया, तुर्की, सउदी अरब और यूनाइडेट अरब ऑफ़ अमीरात में भी इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है.

हिंसा के लिए कौन ज़िम्मेदार ?

उन देशों में, जहां सुन्नियों की सरकारें है, वहाँ शिया ग़रीब आबादी में गिने जाते हैं. अक्सर वे खुद को भेदभाव और दमन के शिकार मानते हैं. कुछ चरमपंथी सुन्नी सिद्धांतों ने शियाओं के ख़िलाफ़ घृणा को बढ़ावा दिया गया है. वर्ष 1979 की ईरानी क्रांति से उग्र शिया इस्लामी एजेंडे की शुरुआत हुई. इसे सुन्नी सरकारों के लिए चुनौती के रूप में माना गया, ख़ासकर खाड़ी के देशों के लिए. ईरान ने अपनी सीमाओं के बाहर शिया लड़ाकों और पार्टियों को समर्थन दिया जिसे खाड़ी के देशों ने चुनौती के रूप में लिया. खाड़ी देशों ने भी सुन्नी संगठनों को इसी तरह मजबूत किया जिससे सुन्नी सरकारों और विदेशों में सुन्नी आंदोलन से उनसे संपर्क और मज़बूत हुए. लेबनान में गृहयुद्ध के दौरान शियाओं ने हिज़बुल्ला की सैन्य कार्रवाईयों के कारण राजनीतिक रूप में मजबूती हासिल कर ली.
पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में तालिबान जैसे कट्टरपंथी सुन्नी संगठन अक्सर शियाओं के धार्मिक स्थानों को निशाना बनाते रहे हैं.
इराक़ और सीरिया में जारी वर्तमान संघर्ष ने भी दोनों समुदायों के बीच एक बड़ी दीवार खड़ा कर दी है. दोनों ही देशों में सुन्नी युवा विद्रोही गुटों में शामिल हो गए हैं. इनमें से ज़्यादातर अल-क़ायदा की कट्टर विचारधारा को मानते हैं. इस बीच, शिया समुदाय के अधिकांश कट्टर युवा सरकारी सेना के साथ मिलकर इनसे लड़ते रहे हैं.। 

 

 


शनिवार, 5 जुलाई 2014

जहाँ मन्नत मांगी जाती है मोटरसाईकिल से !


विविधताओं से भरे हमारे देश में देवताओं,इंसानों,पशुओं,पक्षियों व पेडों की पूजा अर्चना तो आम बात है लेकिन मै यहाँ एक ऐसे स्थान की चर्चा करने जा रहा हूँ जहाँ इन्सान की मौत के बाद उसकी पूजा के साथ ही साथ उसकी बुलेट मोटर साईकिल की भी पूजा होती है, और बाकायदा लोग उस मोटर साईकिल से भी मन्नत मांगते है और हाँ इस चमत्कारी मोटर साईकिल ने आज से लगभग २१ साल पहले सिर्फ स्थानीय लोगों को ही नहीं बल्कि सम्बंधित पुलिस थाने के पुलिस वालो को भी चमत्कार दिखा आश्चर्यचकित कर दिया था और यही कारण है कि आज भी इस थाने में नई नियुक्ति पर आने वाला हर पुलिस कर्मी ड्यूटी ज्वाइन करने से पहले यहाँ मत्था टेकने जरुर आता है |
जोधपुर अहमदाबाद राष्ट्रिय राजमार्ग पर जोधपुर से पाली जाते वक्त पाली से लगभग 20 km पहले रोहिट थाने का " दुर्घटना संभावित" क्षेत्र का बोर्ड लगा दिखता है और उससे कुछ दूर जाते ही सड़क के किनारे जंगल में लगभग ३० से ४० प्रसाद व पूजा अर्चना के सामान से सजी दुकाने दिखाई देती है और साथ ही नजर आता है भीड़ से घिरा एक चबूतरा जिस पर एक बड़ी सी फोटो लगी,और हर वक्त जलती ज्योत | और चबूतरे के पास ही नजर आती है एक फूल मालाओं से लदी बुलेट मोटर साईकिल | यह वही स्थान है और वही मोटर साईकिल जिसका में परिचय करने जा रहा हूँ |
यह "ओम बना " का स्थान है ओम बना ( ओम सिंह राठौड़ ) पाली शहर के पास ही स्थित चोटिला गांव के ठाकुर जोग सिंह जी राठौड़ के पुत्र थे जिनका इसी स्थान पर अपनी इसी बुलेट मोटर साईकिल पर जाते हुए १९८८ में एक दुर्घटना में निधन हो गया था | स्थानीय लोगों के अनुसार इस स्थान पर हर रोज कोई न कोई वाहन दुर्घटना का शिकार हो जाया करता था जिस पेड के पास ओम सिंह राठौड़ की दुर्घटना घटी उसी जगह पता नहीं कैसे कई वाहन दुर्घटना का शिकार हो जाते यह रहस्य ही बना रहता था | कई लोग यहाँ दुर्घटना के शिकार बन अपनी जान गँवा चुके थे | ओम सिंह राठोड की दुर्घटना में मृत्यु के बाद पुलिस ने अपनी कार्यवाही के तहत उनकी इस मोटर साईकिल को थाने लाकर बंद कर दिया लेकिन दुसरे दिन सुबह ही थाने से मोटर साईकिल गायब देखकर पुलिस कर्मी हैरान थे आखिर तलाश करने पर मोटर साईकिल वही दुर्घटना स्थल पर ही पाई गई, पुलिस कर्मी दुबारा मोटर साईकिल थाने लाये लेकिन हर बार सुबह मोटर साईकिल थाने से रात के समय गायब हो दुर्घटना स्थल पर ही अपने आप पहुँच जाती | आखिर पुलिस कर्मियों व ओम सिंह के पिता ने ओम सिंह की मृत आत्मा की यही इच्छा समझ उस मोटर साईकिल को उसी पेड के पास छाया बना कर रख दिया | इस चमत्कार के बाद रात्रि में वाहन चालको को ओम सिंह अक्सर वाहनों को दुर्घटना से बचाने के उपाय करते व चालकों को रात्रि में दुर्घटना से सावधान करते दिखाई देने लगे | वे उस दुर्घटना संभावित जगह तक पहुँचने वाले वाहन को जबरदस्ती रोक देते या धीरे कर देते ताकि उनकी तरह कोई और वाहन चालक असामयिक मौत का शिकार न बने | और उसके बाद आज तक वहाँ दुबारा कोई दूसरी दुर्घटना नहीं हुयी |
ओम सिंह राठौड़ के मरने के बाद भी उनकी आत्मा द्वारा इस तरह का नेक काम करते देखे जाने पर वाहन चालको व स्थानीय लोगों में उनके प्रति श्रधा बढ़ती गयी और इसी श्रधा का नतीजा है कि ओम बना के इस स्थान पर हर वक्त उनकी पूजा अर्चना करने वालों की भीड़ लगी रहती है उस राजमार्ग से गुजरने वाला हर वाहन यहाँ रुक कर ओम बना को नमन कर ही आगे बढ़ता है और दूर दूर से लोग उनके स्थान पर आकर उनमे अपनी श्रद्धा प्रकट कर उनसे व उनकी मोटर साईकिल से मन्नत मांगते है | मुझे भी कोई दो साल पहले अहमदबाद से जोधपुर सड़क मार्ग से आते वक्त व कुछ समय बाद एक राष्ट्रिय चैनल पर इस स्थान के बारे प्रसारित एक प्रोग्राम के माध्यम से ये सारी जानकारी मिली और इस बार की जोधपुर यात्रा के दौरान यहाँ दुबारा जाने का मौका मिला तो सोचा क्यों न आपको भी इस निराले स्थान के बारे में अवगत करा दिया जाये |

अब ओम बना के बारे पूरा परिचय हो ही गया है तो लगे हाथ उनकी आराधना में यह विडियो युक्त भजन भी सुनते जाईये |

Read more: http://www.gyandarpan.com/2009/03/blog-post.html#ixzz36YxxTNLr


सचमुच अपना देश महान है । सच में यहाँ के लोगो की आस्था महान हैं । जिस देश एक ''मोटरसाइकल'' की ''पूजा'' की जा सकती है । उस देश के लोगो की आस्था को महान ही कह सकते है ?

-ज्ञान  दर्पण ब्लॉग से साभार ।