बुधवार, 19 दिसंबर 2012

क्या जाति ब्यवस्था टूट रही है ?

वैदिक काल के शुरूआती दौर में जब समाज के प्राचीन युग की कृषि दस्तकारी तथा अन्य सामाजिक कामो व पेशो का उदय हो रहा था , उस समय विभिन्न कामो में लगे रहे लोगो का काम न ही पुश्तैनी था और न ही प्रतिबंधित था ...! वर्तमान युग में खासकर ब्रिटिश दासता के काल से चल रहे आधुनिक युग में आधुनिक कामो पेशो के आगमन के साथ हम एक तरह से वैदिक काल की पुनरावृत्ति देख सकते है....किसी जाति के एक ही परिवार के सदस्यों को अपने पुश्तैनी पेशे और उससे अलग दुसरे पेशो मेंजाता बखूबी देख सकते है ....जैसे की मैं एक राजपूत जाति से हु ..और आज मैं राजपूतो वाला पेसा चाहते हुए भी  नहीं अपना सकता हु ...अब मैं ब्राह्मणी पेसा (धंधा) अपना लिया है !

समाज में जातिया आज भी विद्यमान है ... वे जातीय पेशो के साथ जातीय उंचाई -- निचाई , बड़ाई छोटाई के  अंतरजातीय संबंधो में तथा शादी -- विवाह , नातेदारी रिश्तेदारी के जाति के भीतर के संबंधो के रूप में विद्यमान है !इसके साथ ही वे समाज में जातीय  लगावो -- विरोधो की मनोवृत्तियो एवं प्रवृतियों आदि के रूप में भी मौजूद है , इसके अलावा आज ये जातीय सम्बन्ध एक नए रूप में भी खड़े होते जा रहे है.  लेकिन
वर्तमान युग में जात -- पात की यह सदियों पुरानी समाज व्यवस्था अपने उस  पुराने जड़ कट्टर रूप में कदापि मौजूद नही है,जिसके अंतर्गत समाज के  विभिन्न काम व पेशे विभिन्न जातियों के पुश्तैनी पेशो के रूप में विभाजित  थे , विभिन्न जातियों में न केवल पुश्तैनी श्रम विभाजन था , बल्कि वह  प्रतिबंधित भी था, अर्थात एक तरह के काम व पेशे को करने वाली जाति दूसरा  कोई काम व पेशा नही कर सकती थी ,,उदाहरण पूजा -- पाठ  कराने  का काम ब्राहमणों  का काम था , जिसे किसी दूसरे जाति का कोई भी आदमी नही कर सकता था, जबकि आज ऐसा नहीं रहा अ..आज ऐसे बहुत से लोग मिल जायेगे ..जो ब्राह्मण जाति से नहीं है फिर भी पूजा -पाठ का कार्य समाज में बखूबी करा रहे है ...हलाकि लोगो ने आज तक पूर्र्ण रूप से अन्य जाति के पुजारी को स्वीकार नहीं किया ....फिर भी मैं गायत्री शक्ति पीठ के कार्य कर्ताओं को साधुवाद दुगा की ओ इस काम में बखूबी कर रहे है ..मैं ब्यक्तिगत रूप से भे इस कार्म को बढ़ावा देना चाहता हु ....उसी तरह क्षेत्राधपति या क्षेत्राधिकारी होने , अस्त्र चलाने या युद्ध लड़ने का काम मुख्यत: क्षत्रियो का जातिगत काम व पेशा था , हालाकि इस काम या पेशे में  ब्राह्मण जाति के लोग भी अपने शास्त्रीय  काम व पेशे के साथ हिस्सा ले  सकते थे और लेते भी थे ,, वैश्य का पुश्तैनी पेशा समाज में विनिमय व व्यापार का था ! इन जातियों से  नीचे छूत मानी जाने वाली शुद्र -- जातियों में वे  तमाम कंकर जातिया थी ( और आज भी है ) जिनके काम व पेशे एक दुसरे से भिन्न  थे . इनमे बढ़ई -- लोहार , कुम्हार , गो पालक , कृषक तथा नाऊ खार माली जैसी  जातिया शामिल है.. इनके नीचे और समाज में सबसे नीचे वे और अछूत समझी जाने  वाली शुद्र जातियों के लोग थे और आज भी है , इन जातियों के लिए समाज में  सबसे नीचे समझे जाने वाले काम व पेशे पुश्तैनी रूप निर्धारित थे ! समाज में अपने उपर की सभी जातियों -- ब्राहमणों , क्षत्रियो विषयों से लेकर छुट शुद्र जातियों के निम्नतर स्तर के कामो को करते हुए उनका दास व सेवक बने  रहना इन अछूत जातियों का पुश्तैनी पेशा निर्धारित था ....!
             हम इस  विषय पर  चर्चा करने नही जा रहे कि इस देश में पुराने सामन्ती युगों में सामाजिक  कामो व पेशो का यह निर्धारण पुश्तैनी और एक दुसरे के लिए प्रतिबंधित कैसे  हो गया और फिर सदियों तक वह क्यों व कैसे बना रह गया ?  इस पर हम कभी अलग से बाते करेंगे.| यहाँ हमारी चर्चा का विषय यह है कि वर्तमान समय में इन  पुश्तैनी व प्रतिबंधित जातीय पेशो के बने रहने की दशा व दिशा क्या है ? और  उससे अपेक्षित सुधार - बदलाव के लिए क्या कुछ  किया जा सकता है ? जातीय  पेशो , संबंधो और  उसमे बदलाव की दशा -- दिशा के संदर्भ में यह बात ध्यान  देने योग्य है कि ये बदलाव आधुनिक युग के कामो व पेशो के खड़े होने के साथ -- साथ अपने आप भी होते गये है ,और फिर इन बदलावों के लिए सामाजिक सुधार -- आंदोलनों से लेकर राजनितिक --  सामाजिक प्रयास भी किये जाते रहे है , हालाकि इस संदर्भ में सबसे अफसोसजनक  बात यह है कि पिछले 30 -- 40 सालो से जाति व्यवस्था के अंतर्भेदो को कम  करने और फिर उसे समाप्त करने का कोई महत्वपूर्ण व उल्लेख्य्नीय प्रयास नही  किया गया और न ही इस समय किया जा रहा है ! जबकि ब्रिटिश राज और उसके  विरुद्ध आन्दोलन में ब्रम्ह समाज आन्दोलन , आर्य समाज आन्दोलन के आन्दोलन  और डाक्टर अम्बेडकर के नेतृत्व में चले दलित मुक्ति और जाति विरोधी आन्दोलन  कांग्रेस पार्टी के अछुतोद्दार आन्दोलन आदि के रूप में जातीय दूरी --  दुराव को घटाने -- मिटाने के सचेत प्रयास किये गये ,हलाकि इस प्रयास में वांछित सफलता नहीं मिली ..फिर भी एक आन्दोलन की सुरुआत तो हो ही गिया है जो आज भी बखूबी आगे को बढ़ रही है ...!1947 के बाद के दौर  में यह काम खासकर उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रो में कम्युनिस्ट एवं  सोशलिस्ट पार्टी के लोग करते रहे है ,लेकिन बिडम्बना यह है कि वर्तमान दौर में जातीय अन्तर्भेद को घटाने और समाप्त करने का पहले ऐसा कोई उल्लेखनीय   प्रयास नही किया जा रहा है , देश के उच्च व प्रचार माध्यमी स्तर पर तो  जातीय व्यवस्था को घटाने -- मिटाने की जगह उसका सत्ता -- स्वार्थी इस्तेमाल ही किया जाता रहा है , उसे राजनितिक सामाजिक संबंधो के रूप में परस्पर  विरोधी गोलबंदी के रूप में मजबूत किया जा रहा है ,उसे निरंतर बढाने का काम किया जा रहा है ...... ! इसे देखते हुए यह बात तो अब निश्चित हो चुकी है कि देश के धनाढ्य व उच्च  हिस्से , विभिन्न जातियों के उच्च हिस्से एवं सुविधा प्राप्त माध्यम वर्गीय से बने हुकमती शासकीय व प्रशासकीय हिस्से तथा प्रभावकारी प्रचार माध्यमी  एवं विद्वान् हिस्से , अब जाति व्यवस्था को घटाने मिटाने का कोई प्रयास नही कर सकते है , जातीय उंचाई -- निचाई को खत्म करते हुए विभिन्न जातियों के  जनसाधारण में नए युग की जनतांत्रिक या जनवादी सोच व व्यवहार प्रस्तुत नही  कर सकते , उन्हें आधुनिक समाज के जनसाधारण नागरिक के रूप में एकजुट करने का काम भी नही कर सकते ,कयोंकि उन्हें महगाई , बेकारी रोजी -- रोटी शिक्षा  चिकित्सा तथा सामाजिक सुरक्षा आदि जैसी जन समस्याओं को भोगते हुए विभिन्न  धर्म , जाति इलाका भाषा के समस्या ग्रस्त जनसाधारण से उसकी एकता से और उसके फलस्वरूप खड़े होने वाले जनसंघर्ष या विद्रोह से खतरा है, दूसरे यह काम   वे  इसलिए भी नही कर सकते कि वे अब बढती जनसमस्याओ के मुख्य आधार पर न तो वोट व समर्थन मांग सकते है और न ही उसे पा सकते है , कयोंकि समूचा हुकूमती  हिस्सा जनविरोधी नीतियों को खुलेआम लागू करते हुए देश -- दुनिया के धनाढ्य  एवं उच्च हिस्सों की सेवा में ही जी जान से लगा हुआ है , इसलिए वे अपने इस  चुनावी वोट के लिए भी समाज के कर्म , जाति , इलाका भाषा के सदियों पुराने  अन्तरभेदों व अलगावो को ही अपना प्रमुख हथकंडा बनाये हुए है ....यह बताने की जरूरत नही है कि समूचा उच्च प्रचार माध्यमी हिस्सा और इन सबका पालक  बुद्धिजीवी हिस्सा और इन सबका पालक धनकुबेरो का हिस्सा एक दूसरे के साथ एक जुट होकर इस हथकंडे को बढाने आजमाने और मजबूत करने में लगा हुआ है ...
लिहाजा अब जातीय उंचाई -- नीचे के साथ हर तरह के जातीय अन्तरभेदों को मिटाने तथा जाति व्यवस्था को समाप्त करने और धर्म -- सम्प्रदाय व इलाका -- भाषा के विरोधो या अंतरभेदों को भी मिटाने का दायित्व जनसाधारण पर है ,जनसाधारण समाज के आगे बढ़े हुए प्रबुद्ध व्यक्तियों से लेकर निचले आर्थिक सामाजिक स्तर पर बैठे हुए प्रत्येक व्यक्ति पर है, कयोंकि यह उन्ही की राह का रोड़ा है, उनके बुनियादी एवं जनतांत्रिक अधिकारों के रास्ते का रोड़ा है ,उनके वास्तविक आधुनिक विकास का पत्थर है...........!
         जाति व्यवस्था के संदर्भ में यह वैदिक युग और आज के युग की समानता को देखना भी दिलचस्प है,फिर यह समानता वर्तमान युग में जाति व्यवस्था को समाप्त करने का एक सबक है सन्देश भी जरुर देता है , वैदिक काल के शुरूआती दौर में जब समाज के प्राचीन युग की कृषि दस्तकारी तथा नानी सामजिक कामो व पेशो का उदय हो रहा था , उस समय विभिन्न कामो व पेशो में लगे रहे लोगो का काम न ही पुश्तैनी था और न ही प्रतिबंधित था ! एक ही परिवार का एक व्यक्ति मंत्रोचार  करने वाला ब्राह्मण हो सकता है तो दूसरा व्यक्ति रथ बनाने वाला रथकार हो सकता है,तीसरा खेती किसानी करने वाला कृषक हो सकता है , समाज के हर काम पेशे का पुश्तैनी और दुसरो के लिए प्रतिबंधित चरित्र तब कदापि नही था , यह काम तो समाज के आगे के विकास के दौर में हुआ , वर्तमान युग में खासकर ब्रिटिश दासता के काल से चल रहे आधुनिक युग में आधुनिक कामो पेशो के आगमन के साथ हम एक तरह से वैदिक काल की यह पुनरावृत्ति देख सकते है , किसी जाति के एक ही परिवार के सदस्यों को अपने पुश्तैनी पेशे और उससे अलग पेशो में जाता बखूबी देख सकते है ,...
नि: सन्देह यह परिवर्तन वैदिक युग की वापसी का नही है बल्कि मध्य युग का आधुनिक युग में परिवर्तन का है . यह समाज के एक अग्रगामी परिवर्तन का है.इस परिवर्तन की दिशा में लक्षित है . इसे समझना क्त्तई मुश्किल नही है .लेकिन यह काम कब तक होगा इसे कहना एकदम मुश्किल है . इसके किसी समय सीमा की भविष्यवाणी नही की जा सकती
लेकिन जाति व्यवस्था के उन्मूलन की दिशा को समझकर हम उसके लिए प्रयास जरुर कर सकते है ,इस संदर्भ में हम यह बात भी बखूबी समझ सकते है कि जातीय अन्तरभेदों का और फिर जातीय व्यवस्था के पूर्ण उन्मूलन धन -- सत्ता के वर्तमान मालिको संचालको के रहते हुए कदापि संभव नही है , कयोंकि वे जातीय पहचानो संबंधो को अपने -- अपने सत्ता स्वार्थ में इस्तेमाल करने से हट नही सकते है, इसीलिए जाति व्यवस्था के उन्मूलन का गम्भीर प्रयास जनसाधारण के ही सचेतन व संगठित प्रयासों से संभव है,, किसी दो या कुछ जातियों के जनसाधारण के ही नही बल्कि सभी जातियों के जनसाधारण प्रयासों से ही संभव है , वर्तमान युग में , जातीय व्यवस्था और जातीय पेशो में आ रहे टूटन के साथ जनसाधारण के बढ़ते संकटों के दौर में जाति व्यवस्था के उन्मूलन का सचेत , संगठित प्रयास अनिवार्य एवं अपरिहार्य हो चुका है ,, कयोंकि विभिन्न धर्म , जाति इलाका के जनसाधारण के जीवन के गम्भीर संकट , उसे एक प्लेटफार्म पर आने की अधिकाधिक एकजुट होने की मांग कर रहा है,आपसी अन्तविरोधो को घटाते -- मिटाते हुए उसके उन्मूलन की दिशा में बढना जनसाधारण का ही काम है ,क्या आप इस पुनीत कार्य में समाज में कुछ कर रहे है ?

हमें ‘गुस्‍सा’ क्यों आता है ?


वैज्ञानिकों ने मस्तिष्क में पाये जाने वाले ऐसे ब्रेन रिसेप्‍टर को खोज निकाला है जो गुस्सा के लिये जिम्मेदार है.. यह मस्तिष्क रिसेप्टर एक एंजाइम है जिसका नाम मोनोएमीन आक्सीडेस ए है... इतना ही नहीं इस रिसेप्टर को बंद कर गुस्से से निजात भी दिलाई जा सकती है............
इस एंजाइम के उचित तरीके से कार्य नहीं करने से चूहों में तुरंत गुस्सा आते देखा गया है... ये रिसेप्टर मानव में भी पाए जाते हैं...
इस रिसेप्टर को बंद कर वैज्ञानिकों को चूहों को गुस्से से मुक्त करने में सफलता मिली है, जिससे गुस्सा से निजात पाने का एक नया रास्ता सामने आया है....
विज्ञान पत्रिका न्यूरोसांइस जर्नल के मुताबिक साउथ कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय और इटली के शोधार्थियों की यह खोज उन्मादी व्यवहार तथा अल्जाइमर रोग, ऑटिज्म, बाइपोलर डिसऑर्डर और सिजोफ्रेनिया जैसे कई अन्य मनोवैज्ञानिक वकृतियों के इलाज के लिए औषधि का विकास करने में मदद कर सकती है.....इस बिषय पर खोज अभी जारी है ...