शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

देशभक्ति ?

सरहदें, भौगोलिक सीमाएं इंसानियत की सबसे बड़ी दुश्मन हैं. देशभक्ति मानवता के लिए अभिशाप है. मानव निर्मित धर्मों के बाद अगर इंसानी दुनिया को सबसे ज्यादा किसी ने अभिशप्त किया है तो वह है देशभक्ति और कट्टर राष्ट्रवाद. कथित रूप से बड़े देशभक्तों ने पूरी मानवता को निर्ममता से कुचला, रौंदा और बार-बार प्रताड़ित किया और ये सब होता रहा राष्ट्र की रक्षा के नाम पर.

हम बड़े गर्व के साथ खुद को देशभक्त कहते हैं, सैकड़ों वर्ष अंग्रेजों का गुलाम रहने के बाद बड़ी शान से आजादी का तिरंगा फहराते हैं. पर क्या यह सब करते हुए हमें एक बार भी यह ख्याल आता है कि जिस आजादी के ऊपर हम इतना नाज करते हैं वह कितने इंसानों की जान लेकर मिली है? भारत को एक आजाद देश बनाने के लिए देशभक्ति के नाम पर हमने ना सिर्फ अपने मुल्क के लोगों की जान गंवाई बल्कि दूसरे इंसानों से भी उनके जीने का हक छीना. ‘धरती’ जिसे हम अपनी मां कहते हैं, उसे लाल किया है और यह सब करने के बाद भी हम खुद को इंसान कहते हैं.

कहने को तो हम मानवता और इंसानियत को ही अपना धर्म बताते हैं लेकिन जब इस कथन को व्यवहारिक रूप देने की बात आती है तो हम सरहदों के फेर में उलझकर इंसानों के ही खून के प्यासे हो जाते हैं. इंसानियत का पहला उसूल है दूसरे व्यक्ति के प्रति सहानुभूति रखना, अपने वचनों और कर्मों से किसी को तकलीफ ना पहुंचाना लेकिन इस कसौटी पर शायद देशभक्ति ही खरी नहीं उतरती. मात्र अपने राजनीतिक हित साधने के लिए इंसानों को एक-दूसरे से लड़वाया जाता है. एक-दूसरे के खून का प्यासा बनाकर उन्हें जंग के मैदान में उतार दिया जाता है और जब वह अपने तथाकथित दुश्मन की जान लेकर वापस लौटते हैं तो हम उन्हें विभिन्न प्रकार के वीर चक्रों से नवाजते हैं.

निश्चित तौर पर जब भारत की सीमाओं पर बाहरी मुल्कों का आक्रमण होगा या देश की अखंडता और एकता पर खतरा मंडराएगा तो इसका प्रभाव सीधा देशवासियों पर पड़ेगा लेकिन क्या हमने कभी यह सोचा है कि ऐसे राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और स्वार्थ ग्रसित आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इंसानों का आपस में लड़ना इंसानियत के ही मुंह पर कितना बड़ा तमाचा है. सरहदों और सीमाओं को बहाना बनाकर इंसानियत को तार-तार किया जाता है. भिन्न-भिन्न नियमों और कानूनों को आधार बताकर इंसानियत को फैलने से रोका जाता है.

क्या कथित देशभक्ति के लिए हम इंसानियत को कुर्बान करते हुए एक बार भी यह नहीं सोचते कि जिन लोगों का हम खून बहा रहे हैं, उनसे जीने का अधिकार छीन रहे हैं, उनका जाना उनके परिवार पर कितना भारी पड़ेगा. इंसानियत को तार-तार करती यह नफरत इस कदर हमारे दिलोदिमाग पर घर कर चुकी है कि देशभक्ति की आड़ लेकर खून की होली खेलने में भी हम कोई बुराई नहीं समझते. अभी कुछ ही समय पहले मैंने एक किताब पढ़ी थी जिसमें लिखा था कि आपके भीतर का भय ही आपको दुश्मन बनाने के लिए विवश करता है. जिस दिन आप दूसरों से डरना बंद कर देंगे उसी दिन आपके दुश्मनों की संख्या भी कम हो जाएगी. शायद हमारे अंदर का दर्द ही हमें दुश्मन बनाने को मजबूर करता है और दुश्मनों की संख्या सरहदों का निर्माण करवाती है.

हाल ही में हमने आजादी की 65वीं वर्षगांठ मनाई है. इस अवसर पर बहुत से लोगों को मेरा यह लेख विवाद पैदा करने वाला लग सकता है परंतु इस लेख को लिखने का आशय देशभक्ति को सही या गलत ठहराना नहीं बस छिपी और दबी हुई इंसानियत के औचित्य को खंगालना था जिसकी ओर हम ध्यान देना ही जरूरी नहीं समझते.............

Thanks जागरण जंक्सन ....