शनिवार, 22 सितंबर 2012

!! मुस्लिम तुष्टीकरण ही असली समाजवाद है UP में ???


जय समाजवाद .........? अच्छा है समाजवाद .??? मुस्लिम तुष्टीकरण ही असली समाजवाद है ???

 उत्तरप्रदेश सरकार को अपने वोट बैंक की अधिक चिंता है और अन्य राजनीतिक पार्टियां अल्पकालिक फायदों पर ज्यादा नजर रखती हैं. प्रायःहर राजनीतिक दल अपने वोट के नजरिए से चीजों को तौलता और देखता है !  धार्मिक संवेदनाओं का खुला इस्तेमाल अपना वोट बैंक बचाने और बनाने के लिए किया जाता रहा है. वह चाहे कश्मीर का मुद्दा हो . गुजरात के दंगे हो या असम की ताजातरीन घटना, सब राजनीति के इसी सोच के प्रतिफल हैं.असम में वोटों की खातिर सरकार ने लाखों घुसपैठियों को न सिर्फ रहने की जगह दी, उन्हें भारत का नागरिक होने का हक भी प्रदान किया. इसका परिणाम यह हुआ कि असम सांप्रदायिक हिंसा की भेट चढ़ा जिसमे लाखो लोग बेघर हो गए और न जाने कितने लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी. असम की आग देखते-देखते पूरे देश में फैल गयी. पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों को जिस तरह उत्तर और दक्षिण भारत के शहरों से भागना पड़ा है और उसमें देश के सांप्रदायिक तत्वों और पाकिस्तान में बैठे कट्टरपंथियों द्वारा संचालित वेबसाइटों, फेसबुक और ट्वीटर ने जैसी भूमिका निभाई है, वह चिंता का विषय है.! धर्मनिरपेक्षता के नाम पर देश में पाकिस्तानी झंडे लहराने और शहीद स्मारक को तोड़ने और भगवान् बुध्ध के प्रतिमा को तोड़ने वाले  लोगों को मनमानी छूट नही मिलनी चाहिए, सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों के लिए न्याय पाना और जीवन को दोबारा पटरी पर लाना बेहद कठिन होता है......
तुष्टीकरण सामान्यतः ऐसी राजनयिक नीति को कहते हैं जो किसी दूसरी शक्ति या पक्ष को इसलिये छूट दे देता है ताकि युद्ध से बचा जा सके, एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश में नागरिकों का तुष्टीकरण उचित नहीं है, गांधी जी के अनुसार तुष्टीकरण तो सिर्फ दुश्मनों के बीच होता है, अम्बेडकर ने तुष्टीकरण को हमेशा राष्ट्र विरोधी बताया था ! तुष्टीकरण की नीति से ऊपर उठकर ऐसा खुशहाल समाज बनाने की कोशिश की जानी चाहिए जिसमें सबके लिए अवसर, उम्मीद और आकांक्षाएं हों ,, इसके लिए बहुत ही ईमानदार कोशिशों की जरूरत है....
देश की प्रमुख राजनैतिक पार्टी कांग्रेस पर सपा पर ,बासापा पर ,हमेशा से ही मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगता रहा है,, अतीत की बातें छोड़ दें, हाल के दिनों में अल्पसंख्यकों की तुष्टीकरण के लिए केन्द्र सरकार ने मजहब के आधार पर आरक्षण देने की घोषणा की थी, सर्वोच्च न्यायालय में जब इस मुद्दे को चुनौती दी गई तो सरकार को मुंह की खानी पड़ी, मजहब के आधार पर आरक्षण सम्बंधी असंवैधानिक निर्णय क्या सांप्रदायिकता को बढ़ावा देनेवाला नहीं हैं ? यह कैसी धर्मनिरपेक्षता है ? इतना ही नहीं सोनिया गाँधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के द्वारा तैयार किए गए सांप्रदायिक एवं लक्ष्य केन्द्रित हिंसा निवारण अधिनियम के मसौदे में ये दलील दी गयी है कि सांप्रदायिक हंगामें के लिए कथित तौर पर बहुसंख्यक ज़िम्मेदार हैं,ये मान कर चलना कि बहुसंख्यक समुदाय के लोग ही हिंसा करेंगें या फैलाएंगे, ये गलत और आपत्तिजनक सोच है !  अजमल कसाब तथा अफजल गुरु जैसे लोगों के साथ नरमी सरकार के तुष्टीकरण नीति का ही परिचायक है!मुल्सिम वोट बैंक के मद्देनजर जो काम कांग्रेस करती है वही काम पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा, बिहार में राजद और अब जदयू, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, तमिलनाडु में द्रमुक जैसी पार्टियां करती हैं, वोट की राजनीति के कारण ही उग्र हिन्दुत्व का उभार हुआ है, भाजपा ने कांग्रेस की तुष्टीकरण की कथित नीति के खिलाफ हिन्दुओं के असंतोष को उभारा है.....धर्म और क्षेत्र के नाम पर मुखर होने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, जिससे क्षेत्रों व समुदायों के बीच शांति स्थापित करना और भी ज्यादा मुश्किल हो गया है, सबको यह समझना चाहिए कि देश में रहने वाले सर्वप्रथम भारतीय हैं, उसके बाद ही कोई हिन्दू , मुस्लिम, सिक्ख या ईसाई हैं !आम धारणा है कि मुसलमान सिर्फ अपने धर्म की ही परवाह करते हैं, अपने देश की नहीं,एक साजिश के तहत मुस्लिम समाज को कट्टरपन, दकियानूसीपन और पृथकतावादी मानसिकता के रास्ते पर धकेला जा रहा है, वह भ्रष्टाचार, आर्थिक विकास, राष्ट्रीय एकता, समाज सुधार आदि सब प्रश्नों से मुंह मोड़कर केवल और केवल मुसलमान के नाते सोचता और निर्णय लेता है ! इस संकुचित और पृथकतावादी मानसिकता के कारण कई तरह की शंकाएं पैदा होती हैं !आखिर क्या वजह है कि जमीयाते उलेमा ए हिंद तथा दारूल उलूम देवबंद जैसी संस्थाओं द्वारा ‘वंदे मातरम’ के खिलाफ फतवा जारी करना पड़ता है, जहां कोई अल्पसंख्यक समुदाय बहुसंख्यक समुदाय के साथ एकाकार होने से इंकार करता है वहां स्थानीय सांप्रदायिक संघर्ष उठ खड़े होते हैं,,मुसलमानों की तीव्र अतिसंवेदनशीलता, छोटे-बड़े मसलों पर उनका आक्रामक और उग्र रवैया उन्हें दूसरों से अलग-थलग करता है,,जैसे अभी हाल में हुआ है मोहम्द्दा पैगम्बर साहब पर  तथाकथित फिल्म  !! अल्पसंख्यक समुदाय को असुरक्षा का भाव एक-दूसरे के नजदीक लाता है और एकजुट समुदाय की तरह चलने के लिए प्रेरित करता है और इसी हाल के वर्षों में भारत कट्टरपंथी हमले का सबसे आसान निशाना बनकर उभरा है और यही असुरक्षा की भावना का दोहन करते है सेकुलर  ! इस्लामी कट्टरपंथी अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए समुदाय के गुमराह युवकों का इस्तेमाल कर रहे हैं! ऐसे युवकों को भी इस्लामी कट्टरता में अपना भविष्य नजर आ रहा है,मुसलमान अपनी पहचान बनाये रखने के लिए जितना मुखर होते हैं हिन्दुओं में उसकी प्रतिक्रिया उतनी ही उग्र होती है और परिणाम के रूप में असम ,गुजरात और UP के दंगे है .........
                 
हमारी राष्ट्रीय चेतना उत्तरोत्तर शिथिल हो रही है और जाति, क्षेत्र, भाषा व सम्प्रदाय की संकीर्ण चेतनाएं प्रबल हो रही हैं, क्षेत्रीयता और सांप्रदायिकता के उभार के कारण लोग अपने ही देश में खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं !अलगावादी और कट्टरवादी शक्तियों को सख्ती से नहीं कुचला गया तो वह आधारशिला ही ढह जाएगी जिस पर एक उदार धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील समाज बनाने का सपना देखा गया था! कट्टरवाद किसी भी सूरत में ठीक नहीं है चाहे वह धार्मिक हो या सामाजिक! कट्टरवाद से केवल नुकसान ही होता है.. कट्टरवादी मानसिकता के कारण इंसान ऐसा रास्ता चुन लेता है जिसकी इजाजत न तो मानवता देती है न ही विश्व का कोई धर्म देता है......(इस्लाम में कट्टरवादी संस्कृत है ?)
कट्टरपंथ वहीं संभव होता है जहां लोकतंत्र नहीं होता, किसी भी लोकतांत्रिक देश के विकास के लिए परस्पर सौहार्द का होना नितांत आवश्यक है,,पूरे देश और सभी क्षेत्रों का सामान आर्थिक विकास, भाषा और धर्म के मामले में सच्चे अर्थों में सहिष्णुता तथा जातिवाद को समाप्त करने की सुदृढ़ चेष्टा यदि रही तो भारत सशक्त और संगठित देश के रूप में फिर उठ खड़ा होगा.....अन्यथा .....क्या होगा सोच लीजिये ..कही एक और पकिस्तान और बंगलादेश की माग नहीं उठने लगे ..........क्या करना है आप सोचे .....हम सोचे ..सभी सोचे ......अन्यथा जा कर घर में लम्बी तान कर सो जाइए .....देश जाए चूल्हे ......जले तो जले ......हम तो सतरंज के खेल में माहिर है और यह खेल खेलेगे ..............नमस्कार ..जय  हिंद जय भारत ..जय जय श्री राम........



!! तीसरा मोर्चा और मुलायम जी के सपने ...!!


‘‘किसी युवा से कभी यह मत कहिए कि यह काम असंभव है ! हो सकता है कि ईश्वर शताब्दियों से किसी ऐसे ही व्यक्ति की प्रतीक्षा कर रहा हो जो इस काम के असंभव होने की बात तक से इतना अनजान हो कि उसे संभव ही कर दिखाए..’’ -जॉन एंड्रयू होम्स, अमेरिकी लेखक ‘मैंने सीज़र को इसलिए नहीं मारा क्योंकि मैं उनसे कम प्यार करता था, बल्कि इसलिए मारा क्योंकि मैं अपने देश से ज्यादा प्यार करता हूं
!’ - मार्क ब्रूटस, जूलियस सीज़र के निकटतम मित्रों में एक ‘महत्वाकांक्षा’ के आरोप लगाकर उन्हीं की हत्या करने के बाद ! राष्ट्रीय राजनीति में अचानक अनेक महत्वाकांक्षाएं धधकने लगी हैं ! ममता बनर्जी की इच्छा, आम आदमी का सर्वाधिक विश्वसनीय पक्षधर बनकर उभरने की है! जैसे कि 1999 में जयललिता उभरी थीं। न वो आश्चर्य था न ही यह नई बात ! हां, ऐसे निर्णयों से राजनीति का परिदृश्य अवश्य रोचक, रोमांचक और विवादास्पद हो उठा है। यकायक नई-नई शत्रुता-मित्रता दिखने-मिटने लगेगी.. जैसे ममता के हटते ही मुलायम सिंह यादव ने तीसरे मोर्चे की मानो घोषणा ही कर डाली...फिर नजाकत देख, पलट भी गए... एक ही मुद्दे पर, दूरी बनाए हुए ही सही, लेफ्ट और राइट दोनों सड़क पर नारे लगाते, भाषण देते दिखे...अचरज पैदा कर सकती हैं कुछ बातें ! सरकार के जिन फैसलों के विरुद्ध ममता ने इतना बड़ा कदम उठाया, उसी के विरोध प्रदर्शन में शामिल होने से इनकार कर दिया... कारण- वे भाजपा के साथ दिखना नहीं चाहतीं और माकपा के साथ दिख नहीं सकतीं... ऐसे ही 1999 में जिन मुलायम सिंह ने सोनिया गांधी को ‘‘हमें पूर्ण बहुमत यानी 272 सांसदों का समर्थन है’’ कहने पर अपना हाथ हटाकर बुरी तरह झटका दिया था, वहीं मुलायम 2008 में जब ‘अविश्वास’ चरम पर था, सोनिया संरक्षित सरकार को बचाने के लिए जी-जान से जुटे नजर आए !  अब भाजपा की बात और अलग..तीसरे मोर्चे को ‘इतिहास’करार देकर खारिज करने वाली इस पार्टी के नेता, निरंतर इसी तरह के गैर-कांग्रेसी, गैर-भाजपा विपक्षी मोर्चे से प्रताड़ित या प्रभावित होते रहे हैं... जो लोग डीज़ल -रिटेल विरोधी प्रदर्शन में भाजपा-भाकपा-तीसरे मोर्चे ‘जैसे’ दलों को एक साथ सड़क पर देखकर विस्मय व्यक्त कर रहे हैं, वे क्यों कर भूल रहे हैं कि यह तो सामान्य, सहज बात थी जिसका कोई भी ‘स्वाभाविक’ विरोध करेगा...जैसे कि हर तरह की हिंसा की सभी दल भत्र्सना ही तो करते दिखेंगे... हर नेता, यहां तक कि हांफ रहे, लड़खड़ा रहे नेता भी यही कहते रहे हैं कि वे किसी दौड़ में नहीं हैं !बाद में वे कुछ बने भी तो ‘राष्ट्रहित’ में.. कम से कम हमें तो उन्होंने यही बताया... जूलियस सीजर के जमाने से आज तक राजनीति में गलत-सही ‘राष्ट्रहित में ही तो किया जा रहा है..’ बहरहाल, लेफ्ट-राइट-सेंटर के एक होने का सबसे बड़ा उदाहरण तो विश्वनाथ प्रतापसिंह को प्रधानमंत्री बनाना रहा.. सारे पुराने समाजवादी इकठ्ठे.. सारे पूर्व कांग्रेसी जमा.. दक्षिणपंथी और वामपंथी भी एकजुट..सम्मानजनक या कि अपमानजनक जैसी भी हो दूरी बनाए रखी..बाहर से समर्थन दिया..इसलिए व्यर्थ है सारा विलाप ! कहीं कोई आश्चर्य नहीं,,जिस समय जिसकी जैसी महत्वाकांक्षा जगी- वह दौड़ में दिखलाई पड़ा,, हर चुनाव के पहले तलाक, राजनीतिक गठबंधन, बेमेल विवाह और अलग-अलग रहने के सभी दलों के ढेरों उदाहरण,, तीसरे मोर्चो की भी अपनी अलग गाथा,,जितनी भी बार ऐसे मोर्चे बने, हर बार ऐसा तभी हुआ जब कांग्रेस कमजोर पड़ी,,यानी हर तीसरा मोर्चा कमजोर पड़ी कांग्रेस के गर्भ से निकला,,आपातकाल के कलुषित अध्याय के बाद 1977 में ‘‘हारे, हारे और हारते चले गए.. ’’ कांग्रेसियों के सत्ता में रहते पथभ्रष्ट होने के कारण मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व वाली जनता सरकार हो या 1989 में वीपी सिंह वाले जनमोर्चे की सरकार ?? यानी कांग्रेस कमजोर तो मोर्चा बना..ठीक इसके उलट.. हर ऐसा मोर्चा कांग्रेस के समर्थन से बना रहा ! कांग्रेस रणनीतियों से लड़कर, उलझकर बिखरता...गुट, घटक, धड़े बनते टूटते.. फिर उनमें से एक, कांग्रेस की कृपा से ‘बना रहता, बढ़ जाता’..फिर स्वाभाविक है- कांग्रेस उसे तबाह कर देती। 1979 में चौधरी चरण सिंह की सरकार गिराई..1990 में युवा से वरिष्ठ ‘तुर्क’ बने चंद्रशेखर की गद्दी खींची.. सबकुछ नाटकीय..सोचो तो असंभव..जानो तो सरल, सहज ! यही क्यों, 1996 में देवेगौड़ा सरकार !‘निद्रा में लीन रहने वाले नेता’ के रूप में प्रचारित किए गए इस प्रथम दक्षिणी प्रधानमंत्री को गिराकर जगाने वाली कांग्रेस ने उतनी ही सफाई से इंद्र कुमार गुजराल को 1997 में अपदस्थ कर दिखाया ! सब कुछ संभव...राजनीति ने यह एकमात्र सकारात्मक पाठ खुलकर पढ़ाया है..सवा सौ करोड़ नागरिकों के इस महान देश की महानतम लोकतांत्रिक परम्पराएं हैं, किन्तु ‘‘संसार ऐसे ही चलता है’’ जैसी नैराश्यपूर्ण किन्तु शक्तिशाली पंक्ति को मिटाते हुए भारतीय राजनीति को देश के बुद्धिमान मतदाता ने हमेशा ‘पुरातन परम्पराओं’ को तोड़ने और हरपल कुछ ‘नया, ज्यादा और अलग’ करने पर विवश किया है ! 13 दिन के प्रधानमंत्री हमने देखे..फिर 13 माह भी पाए.. हमने ही दिए.. छह महीने पहले अतिआत्मविश्वास से भरकर ‘इंडिया शाइनिंग’ से स्वयं अंधेरे में चले गए..यहां प्रधानमंत्री दो सिपाहियों के नाम पर गिराए गए..चंद्रशेखर तो क्या, स्वयं उन सिपाहियों तक को न पता चला कि उन्होंने ‘इतना बड़ा कुछ’ कर दिया है.. राष्ट्र के निर्माण में ऐसे अच्छे-बुरे उदाहरण अत्यधिक सामान्य बात है, अनिवार्य भी है.. 2014 राहुल विरुद्ध मोदी विरुद्ध मुलायम, होगा या नहीं; बहस सहज है.. रसप्रद.भी.. ममता तब क्या कांग्रेस से इतनी ही दूर रहेंगी-?? क्योंकि लेफ्ट/राइट से दूरी विवशता है.पता नहीं,,,क्योंकि जिस द्रमुक के विरुद्ध कांग्रेस ने लड़ाई लड़ी उसी से ‘अपमानित’ होते हुए भी वह उसी के मंत्रियों को लगातार बनाए रखे हुए है,,किंतु इस तरह तो राजनीति मात्र राजनीतिज्ञों की इच्छा, प्रतिष्ठा और शक्ति बनकर रह गई है,इनमें आम आदमी के हित कहां हैं ? राजनीति में आम आदमी के हित सवरेपरि हों, ऐसा असंभव लगता है,, इसके विरुद्ध युद्ध लंबा, कुंठित कर देने वाला होगा,,किंतु लड़ना ही है, हम सभी को, अपने-अपने तरीकों से, 2014 का आम चुनाव इसके लिए श्रेष्ठ अवसर होगा, बस, आंखें खुली रखनी है...........