शनिवार, 4 अगस्त 2012

अधीरता ही दुःख का कारन बन जाता है ?

नुकसान का दुख होता ही है.... कोई चीज खो जाए तो पीड़ा देने वाली बात है... जैसे खोए का दुख होता है, वैसे ही पाए का भी दुख होता है.. विज्ञान के इस दौर में उपलब्धियां सदैव सुख पहुंचा दें, ऐसा जरूरी नहीं है..विज्ञान ने जो-जो हमें दिया इसमें एक भावना और भी है कि जो कुछ भी मिले, जल्दी मिले... इसीलिए बदहवासी आजकल सामान्य जीवनशैली बन गई है...........

कोई भी इंतजार नहीं करना चाहता.. यह अधीरता विक्षिप्तता में बदलकर आदमी को उच्छृंखल बना देती है... आदमी के दिमाग में एक सनक चढ़ जाती है कि मुझे यह मिलना ही चाहिए और यदि जल्दी नहीं मिला तो मैं कुछ भी कर सकता हूं....

इसीलिए कुछ लोग अपने जीवन की श्रेष्ठतम बातों को चुन-चुनकर चकनाचूर कर देते हैं, क्योंकि उन्हें तो बस चाहिए..आदमी सबकुछ अपनी मुट्ठी में करना चाहता है... इसलिए पकड़ने के लिए बेताब है... बेताबी पकड़ने के लिए हो या छोड़ने के लिए, दोनों ही स्थितियों में खतरनाक है...

जब आदमी जो चाहता है, उसे नहीं मिलता तो वह धर्म की दुनिया में चला जाता है... उसे लगता है कि भोग में दुख है तो त्याग में सुख होगा..लेकिन यदि भीतर की बेताबी खत्म नहीं हुई तो त्याग भी दुख ही देगा। इसे अध्यात्म में भटकाव कहा गया है............

जो लोग बहुत तेजी से दौड़ते हैं, वे भटक जाते हैं। संसार में लोग दुखी हैं तो कोई नई बात नहीं है, लेकिन संसार छोड़ने के बाद भी दुख नहीं जाता। त्याग और भोग क्रीड़ा बन जाते हैं। आदमी इसी खेल में उलझ जाता है। अच्छा यह हो कि न हम ज्यादा पकड़ने के लिए बेताब हों और न ही छोड़ने के लिए। एक संतुलन के साथ दोनों को स्वीकार करें।