शनिवार, 9 जून 2012

!!सत्य को जानने का भ्रम हमें सत्य से दूर कर देता है !!

तीसरी कक्षा की एक छात्रा ने घर आकर मां को बताया, मां! आज मुझे स्कूल में प्राइज मिला है। एक प्रतियोगिता थी। मैम ने सवाल पूछा, मैंने जवाब दे दिया।

मां ने कहा, तुम्हारा जवाब सही था, इसलिए प्राइज मिला। कितनी अच्छी बात है।

बच्ची ने कहा, नहीं मां! मेरा जवाब पूरी तरह से सही नहीं था, लकिन काफी सही था, इसीलिए प्राइज मिला। मेरे साथियों के जवाब तो बिल्कुल ही गलत थे। कुछ बच्चों ने तो जवाब ही नहीं दिए।

मां ने पूछा, मैम ने तुमसे क्या पूछा था? बच्ची ने बताया, मैम ने पूछा कि गाय के कितने पैर होते हैं? मेरे सब साथियों ने कहा कि गाय के दो पैर होते हैं, लेकिन मैंने तीन बताए। उसके बाद मैम हमें गाय दिखाने ले गईं और उसके पैर गिनवाए। मेरे साथियों के जवाब तो बिल्कुल ही गलत थे, लेकिन मैंने एक ही कम बताया था, इसलिए मुझे प्राइज मिल गया।

पूरा सच जानना और सच के निकट होना -दोनों दो अलग-अलग बातें हैं। कई बार सत्य के निकट होने की स्थिति असत्य से भी बुरी या उसके बराबर की हो सकती है। लेकिन 'स्यात' शब्द हमें सत्य के निकट ले जाता है। उसके द्वारा पूरे सत्य की उपलब्धि तो नहीं होती, लेकिन यह सत्य के साथ हमें जोड़ देता है। मोटे तौर पर 'स्यात' को आप 'शायद' समझ लें।

जैसे किसी ने सफेद गाय देखी। उसने कहा कि गाय सफेद होती है। यह उसका सत्य है , लेकिन यह पूरा सत्य नहीं है। यदि वह कहता है कि सिर्फ यही सत्य है , तो वह सत्य से हट जाता है। लेकिन यदि कहता है कि गाय सफेद होती है , पर शायद दूसरे रंगों की भी होती हो। तुम कहते हो कि गाय काली होती है , तो शायद ( स्यात ) यह भी सत्य है। स्यात की यही भावना उसको बड़े सत्य के नजदीक पहुंचा देती है।

पूरा सत्य भाषा के माध्यम से उपलब्ध होता ही नहीं। ' स्यात ' शब्द सत्य के परिसर में ले जाता है , सत्य को साक्षात करने की इससे सुंदर युक्ति अन्यत्र नहीं मिलती। यदि ' स्यात ' का भाव मन में हो , तो कभी आग्रह नहीं होगा , जिद या दावा नहीं होगा। इधर आग्रह बहुत पनपा है। जिसने जो जाना , देखा , आग्रह हो गया कि बस यही सत्य है। मैं ने जो देखा है , मैं ने जो सुना है , मैं जो समझ रहा हूं , मैं जो कहता हूं - बस वही सत्य है।

राजा की सभा में एक पंडित था - बहुत विद्वान , तार्किक और अपनी बात पर अड़ने वाला। कोई भी आता और कहता कि यह सच बात है , पंडित उसका खंडन कर देता। एक बार राजा ने कहा , पंडित , तुम बड़े नटखट हो। सबका खंडन कर देते हो। अच्छा , मेरा यह विचार है , बोलो यह कैसा है ? पंडित ने कहा , यह बिल्कुल गलत है क्योंकि यह आपका विचार है , मेरा नहीं। जो मेरा विचार नहीं है , वह सच नहीं हो सकता , गलत ही होगा।

सभी लोग ऐसा ही मानते हैं। सभी लोगों ने सीमा बना कर घोषणा कर दी , मेरे विचार में आओ , तुम्हारा कल्याण होगा , स्वर्ग मिलेगा। अन्यथा नरक में जाओगे। बड़ी दुनिया है। मैं कुछ सोचता हूं , बोलता हूं , तो दूसरा कहने में नहीं हिचकता कि यह सब मेरी नकल है। स्वतंत्र विचार जैसा कुछ भी नहीं है। अरे , सत्य का ठेका क्या किसी एक व्यक्ति ने ले रखा है ?

व्यक्ति में इतना प्रबल अहंकार और इतना बड़ा आग्रह हो जाता है कि सत्य नीचे दब जाता है और उस व्यक्ति का विचार मात्र ऊपर तैरता है। विचार के बंधन से , चिंतन की कारा से तथा स्मृति , कल्पना और बुद्धि की सीमा से परे जाने का एकमात्र उपाय है - स्यात शब्द का सहारा।

स्यात शब्द अपेक्षा की ओर इंगित करता है। वह कहता है - जो कुछ कहा गया है , कहा जा रहा है उसे अपेक्षा से समझो। अपेक्षा से समझे बिना अर्थ का अनर्थ हो सकता है। आग्रह मत करो। अपेक्षा को समझो कि यह कथन किस अपेक्षा से , किस संदर्भ में किया गया है। शब्द की पकड़ खतरा पैदा कर देती है। वह सत्य से दूर ले जाती है।

कोई महान या ज्ञानी व्यक्ति , दस - बीस - पचास पर्यायों की अभिव्यक्ति कर सकता है। पूरे सत्य को वह कभी नहीं कह सकता। उसके द्वारा प्रतिपादित सत्य के कुछेक पर्यायों को पूर्ण सत्य मानकर बाकी को हम नकार देते हैं। तब सत्य से हटकर असत्य की ओर चले जाते हैं। इसीलिए अनेकांत ने एक युक्ति प्रस्तुत की। उसने कहा , ' तुम असत्य से बच सकते हो यदि तुम ' स्यात ' शब्द का सहारा लेकर चलो। जो कुछ कहा , उसके साथ ' स्यात ' शब्द लगा लो। वह तुम्हें असत्य से बचा लेगा। इसका मतलब होगा , मैं पूर्ण सत्य कहने में असमर्थ हूं। सत्य का मात्र एक पक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं .............