सोमवार, 16 अप्रैल 2012

!! पाकिस्तानी हिंदू, पाकिस्तानी हिंदू युवती की गुहार, मैं हिंदू हूं !!

‘ किस तरह करूं फरियाद मैं, यकीन हो दुनिया को कि मैं हिंदू हूं, मैं होश में हूं, मैं जानती हूं, मेरा नाम रिंकल हैं, मैं हिंदू हूं, पढ़ाया गया कलमा वो सबको दिखता है, अब क्यों नहीं माना जा रहा मैं हिंदू हूं, मालूम है नहीं मिलेगा इंसाफ मुझे, मेरे खिलाफ सब हैं क्योंकि मैं हिंदू हूं, और क्यों मैं इस दुनिया को सबूत दूं, दुनिया को चीख-चीख कर कह रही हूं कि मैं हिंदू हूं, मेरा रब करेगा इंसाफ मुझसे, मैं मरते दम तक कहूंगी कि हिंदू हूं।’ यह पैगाम है रिंकल का।
hindu girl in pakistanपाकिस्तान के सिंध प्रांत के मीरपुर मथेलो की रिंकल कुमारी का पिछले दिनों अपहरण किया गया था। उसका धर्म परिवर्तन कराकर उसे मुसलमान बनाया गया फिर 24 फरवरी को नावीद शाह नाम के एक मुस्लिम युवक से उसकी शादी करा दी गई। रिंकल को धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया गया। रिंकल मां-बाप के पास जाना चाहती है, मामला सुप्रीम कोर्ट में गया लेकिन अभी तक वहां से भी इंसाफ नहीं मिला है। सुप्रीम कोर्ट ने रिंकल को फिलहाल संरक्षण गृह भेज दिया है, इस मामले की फिर सुनवाई 18 अप्रैल को होनी है। संरक्षण गृह से रिंकल ने एक पैगाम अपनी मां और पाकिस्तान की हिंदू आवाम के नाम भेजा है। इस पैगाम को रिंकल की मां ने सोशल नेटवर्किंग साइट्ïस पर ‘कैनविज टाइम्स’ के साथ शेयर किया है। इस मामले की कोर्ट में सुनवाई के दौरान रिंकल ने रोते हुए कहा ‘हम मां के पास जाना चाहते हैं।’ लेकिन दूसरे पक्ष के वकील ने कहा लडक़ी ने कलमा पढ़ लिया है, अब वह हिंदू नहीं है। पाकिस्तान के नारी संरक्षण गृह दारुल अमीन जाने से जब रिंकल ने इंकार कर दिया तो पुलिस उसको घसीटते हुए ले गई। दारुल अमीन में रो-रोकर बेहाल रिंकल ने उनसे मिलने गईं पाकिस्तान हिंदू काउंसिल की मंगला शर्मा के हाथों एक पैगाम भिजवाया। उस पैगाम में उसका दर्द, मजबूरी और पाकिस्तान में इंसाफ के हाल को बखूबी समझा जा सकता है।
रिंकल की दर्दभरी अपील के बाद पाकिस्तान में अल्पसंख्यक हिंदुओं की आवाज उठाने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट पर एक अभियान छिड़ गया है। पाकिस्तान हिंदू वायस सहित कई पेज फेसबुक पर बने हैं, जहां रिंकल को न्याय दिलाने के लिए साथ में आवाज उठाने की गुजारिश की जा रही है।
पाकिस्तान में हिंदुओं की नाबालिग लड़कियों का अपहरण करके जबरन धर्मांतरण के बाद निकाह किया जाना आम बात हो गई है, लेकिन रिंकल की बहादुरी को देखकर इसके पहले ऐसे हादसे से गुजर चुकी कई महिलाएं भी अब अपना इंसाफ मांगने के सामने आने लगी हैं। पाकिस्तान में हिंदुओं के खिलाफ अत्याचार की एक और घटना की शिकार लता तेजाब से झुलसे अपने चेहरे के साथ न्याय के लिए सामने आई है। घटना सिंध प्रांत के ग्रामीण इलाके की है जहां हिंदू समुदाय की एक नाबालिग लडक़ी लता की शादी जबरन एक मुसलमान युवक के साथ करा दी गई। लता ने बंदूक की नोक पर भी निकाह कबूल नहीं किया तो उसका चेहरा जला दिया गया। चेहरे पर तेजाब का घाव लेकर लता ने भी बुधवार को पाकिस्तान हिंदू काउंसिल के पदाधिकारियों से मुलाकात करके इंसाफ की गुहार लगाई है। पाकिस्तान सरकार हिंदुओं के साथ हो रही जुल्म-ज्यादती की घटनाओं पर चुप्पी साधे है।
इसको लेकर भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ई-मेल भेजकर गुहार लगाई गई थी, लेकिन पाक राष्टï्रपति जरदारी के दौरे के दौरान मनमोहन सिंह की चुप्पी से पाकिस्तान के हिंदू मर्माहत हैं। पाकिस्तान हिंदू काउंसिल के पदाधिकारियों ने इस मामले में विश्व हिंदू परिषद के पदाधिकारियों के साथ सांसद योगी आदित्यनाथ से भी सम्पर्क साधा है ताकि भारत की संसद में पाकिस्तान के हिंदुओं के साथ हो रही जुल्म-ज्यादती की कहानी वह अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठा सके |

!!महाभारत गाय और राजा रान्तिदेव : सनातन धर्र्म को बदनाम करने की एक और कुटिलता !!

धर्म हमारे महान भारत देश का प्राणभूत तत्व रहा है और इसीलिए भारत के शत्रुओं ने बार बार हिन्दू धर्म पर प्रहार किया है और इसी कड़ी कुछ लोग यह हास्यास्पद बात कह रहे हैं की भारत में पुराने समय में गौ-मांस खाया जाता था और वो महाभारत के राजा रान्तिदेव को गौ हत्या करने वाला सिद्ध करने का मुर्खतापूर्ण परन्तु कुटिल प्रयत्न करते हैं |सबसे पहले तो देखे की महाभारत की रचना किसने की और इसे किसने लिखा था |महाभारत के श्लोक वेदव्यास रचित हैं और उन्हें श्री गणेश ने स्वयं लिपिबद्ध किया है | लेखन कार्य प्रारंभ होने से पहले श्री गणेश के यह शर्त रखी थी की मेरी लेखनी रुकनी नहीं चाहिए और वेदव्यास ने शर्त राखी थी की आप बिना समझे हुए कुछ नहीं लिखेंगे और इसके बाद व्यास जी ने जटिल और गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया था |महाभारत के सम्बन्ध में स्वयं भगवन श्रीकृष्ण कहते हैं की "इसमें ८८८०  श्लोक हैं जिनका अर्थ मैं जनता हूँ , सूत जी जानते हैं और संजय जानते हैं या नहीं ये मैं नहीं जनता .."| अब आप स्वयं ही सोचये की जिनके अर्थ को संजय जानते हाँ या नहीं इसमें संशय है वो क्या इतने सीधे होंगे की उनकी गूढता और प्रसंग का विचार किये बिना केवल शाब्दिक अर्थ (वो भी व्याकरण को छोड़कर) ले लिया जाय ?
अब देखते हैं महाभारत के वनपर्व के वो श्लोक जिसके आधार पर राजा रंतिदेव को गोहयता करने वाला कहा जाता है -
 राज्ञो महानसे पूर्वं रंतिदेवस्य वै द्विज |
द्वे सहस्त्रे तु वध्येते पशुनंन्वहनं तदा |
अहन्यहनि वध्येते द्वे सहस्त्रे गवां तथा ||
हास्यास्पद कम्युनिस्ट - इस्लामिक अर्थ- रान्तिदेव नामक एक राज प्रतिदिन  लोगों  को मान्स  बांटने के लिए दोहजर पशुओं और दो हजार गायों की हत्या करता था |


व्याकरणगत अशुद्धि - 
 इस श्लोक में 'वध्येते'" का अर्थ मारना लिया गया है जो की संस्कृत व्याकरण के अनुसार पूर्णतयः अशुद्ध है क्यूँकी संस्कृत में 'वध' धातु स्वतन्त्र है ही नहीं जिसका अर्थ 'मारना' हो सके ,मरने के अर्थ में तो 'हन्' धातु का प्रयोग होता है |पाणिनि का सूत्र है "हनी वध लिङ् लिङु च " इस सूत्र में  कर्तः हन् धातु को वध का आदेश होता है अर्थात वध स्वतन्त्र रूप से प्रयोग नही हो सकता है |अतः व्याकरण के आधार पर स्पस्ट है की की ये 'वध्येते ' हिंसा वाले वध के रूप में नहीं हो सकते हैं | तब हंमे यह ढूढ़ना पड़ेगा की इस शब्द का क्या अर्थ है और निश्चय ही ये हत्या वाले 'हिंसा' नहीं अपितु बंधन वाले ' बध बन्धने' धातु है |
इसके अतिरिक्त २ और पंक्तियाँ है जिनके आधार पर राजा रान्तिदेव को गोवध करने वाला , ऐसा सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है -
समांसं ददतो ह्रान्नं रन्तिदेवस्‍य नित्‍यशः
अतुला कीर्तिरभवन्‍नृप्‍स्‍य द्विजसत्तम

सदा मान्स सहित भिजन देने वाले राज रान्तिदेव कि अतुलित कीर्ति हुयी |
यहाँ पर 'समांसं'  का अर्थ पशुमंस से युक्त उचित नहीं होगा और कारन आगे बताया जाएगा |पुराने समय में सभी शब्दों के विस्तृत अर्थ हुआ करते थे परन्तु आज उनका अर्थ अत्यंत सीमित हो गया है उदहारणतयः 'मृग' का अर्थ पहले सभी वन्य पशुओं के लिए था जबकि वर्त्तमान में यह केवल 'हिरण' के लिए हैं और वृषभ का अर्थ बैल , अपने विषय में सर्वश्रेष्ठ , तेज गति से चलने वाला , शक्तिशंली इस भांति के १६ अर्थ थे परन्तु आज केवल बैल अर्थ लिया जाता है इसी भांति पुराने समय में मांस का अर्थ पशुमांस के साथ साथ गौउत्पाद  अर्थात दूध , दही भी था परन्तु आज वहग केवल पशुमांस का पर्याय बन कर रह गया है | वर्त्तमान पंक्तियों के सन्दर्भ में , राजा रातीदेव के चरित्र ,पंक्तियों के प्रसंग ,गौ की महत्तता तथा तात्कालिक सामाजिक मान्यताओं के कारन यहाँ पर पशुमांस नहीं अपितु दूध यह अर्थ ही उचित होगा |
इसके अतिरिक्त

आलाभ्यंत शतं गवः सहस्त्राणि च विशन्ति
हिंदुत्व विरोधी आलाभ्यंत का अर्थ हिंसा करते हैं 

इसी भांति महाकवि कालिदास र्षित मेघ दूत में रंतिदेव से सम्बंधित पंक्ति
व्यालाम्बेथः सुरभितानाया - आलम्भ्जाम मनिष्यन
में आलम्भ्जाम का अर्थ हिंसक कहते हैं |
जबकी इसका अर्थ स्पर्श या प्राप्त है और यह परंपरा रही है की दान देने वाला व्यक्ति दान दी जारी  वास्तु को छूकर दान दे देता  है| आलाभ्यंत शब्द का वेदों अन्य स्थानों पर भी इसी भांति प्रयोग हुआ है यथा -

ब्रहामाने ब्राहमण अलाभ्ते - ज्ञान के लिए ज्ञानी को प्राप्त करता है
क्षत्राय राज्न्यम आलाभ्ते -शौर्य के लिए शूर को प्राप्त करता है


तार्किक असम्भाव्यता -
तार्किक रूप से भी पशुओं के वध वाला अर्थ उचित नहीं  लगता है क्यूँकी सर्वप्रथम कभी भी रसोई में पशुओं का वध नहीं किया जाता है | वध स्थल में इतनी अधिक गन्दगी होती है की वहा रसोई से बहुत दूर और यदि संभव हो तो नगर के बाहर  होता है |दूसरी बात हिंदुत्व विरोधी कहते हैं  की मारी गयी गायों के चमड़े से निकले हुए पानी से चर्म्वती नदी बन गयी | एक तो न ही कभी मारे हुए पशुओं का चमडा रसोई में रखा जाता है और न ही गीले चमड़े से निकला हुआ जल इतनी अधिक मात्रा में होता हिया की बहता हुआ दिखाई दे हाँ यदि इसे पशुओं को धोने से बहता हुआ जल कहा जाय तो तर्कसंगत होगा|इसके अतिरिक्त महाभारत में ही सामान प्रसंग में कहा गया है की "रजा रंतिदेव के यज्ञ में प्रेमवश ग्रामो और वनों से पशु स्वयं उपस्थित हो जाते थे "; अब क्या वो अपने वध के लिए आते होंगे ?इसके अतिरिक्त महाभारत में कई स्थानों पर गौ दान के द्वारा कीर्ति प्राप्त होने की बात कही गयी है |


 राजा रान्तिदेव  का चरित्र -
 महाभारत के अनुशासन पर्व के पांच श्लोकों में बहुत से राजाओं के नाम गिनाये गए हैं जिन्होंने कभी मांस नहीं खाया और उसमे राजा रान्तिदेव का भी नाम है | जिस राजा ने कभी मांस न खाया हो क्या उसकी पाकशाला में प्रतिदिन २ हजार पशुओं की हत्या मांस केलिए की जा सकती है ??नारद जी राजा संजय से कहते हैं "संजय !सुना है की संकृति के पुत्र रान्तिदेव भी जीवित न रह सके |उन महामना के दरबार यहाँ दो लाख रसोइये थे जो घर आये हुए अतिथियों को दिन रात  कच्चे और पक्के उत्तम अन्न दिन रात परोसते थे |" , यहाँ पर स्पस्ट है की राजा रान्तिदेव के यहाँ अन्न परोसा जाता था |
श्रीमदभगवतमहापुराण के नवे स्कंध में   रजा रंतिदेव की एक कथा आती है की उनको ४८ दिनों तक भूखा रहना पड़ा था |उसके बाद उनको खीर इस्यादी प्राप्त हुआ |जैसे ही वो भोजन करने बैठे एक ब्राहमण आया जिसके भीतर रन्तिदेव ने भगवन को ही देखा और उसका आदर पूर्वक स्वागत किया |जब ब्राहमण खाकर चला गया तब रजा अपने परिवार सहित बचा हुआ भोजन करने के लिए बैठे तभी एक शुद्र अतिथि आ गया| रजा ने उस अतिथि को भी भोजन करवा दिया |जैसे ही शुद्र अतिथि गया एक दूसरा अतिथि कुछ कुत्ते साथ लिए हुए पहुंचा तो रजा रन्तिदेव ने बचा हुआ सम्पूर्ण अन्न दे दिया और भगवन समझ कर प्रणाम किया |अब वे भोजन पकाए हुए बर्तनों का धोवन पानी सकुटुम्ब आपस में बांटकर उस पानी को पीने ही वाले थे की  पानी की खोज करता हुआ एक प्यासा चंडाल आ पहुंचा |रजा ने सारा पानी उसे दे दिया और सृष्टिकर्ता से प्रार्थना की "हे भगवन ! न तो मैं अष्टसीद्धियों से युक्त सरवोछ स्थान चाहता हूँ और न मुक्ति |मैं तो यह चाहता हूँ  की प्राणिमात्र के अन्तः कारन में बैठ कर उनके दुखों को स्वयं सहन कर हूँ जिससे की सभी प्राणी अपने सभी प्रकार के दुखों से बच सकें | " अब आप स्वयं ही निर्णय करें की क्या ऐसा राजा प्रतिदिन ४ हजार पशुओं को भोजन के लिए मरवा सकता है ?


महाभारत का मूल प्रसंग  - 
ये श्लोक महाभारत के वनपर्व के हैं तथा जिसमे एक वधिक द्वारा की गयी हिंसा की निंदा की गयी है |  जिस खंड का उद्देश्य ही वधिक द्वारा की गयी हिंसा की निंदा हो उस के अन्दर चार हजार निर्दोष पशुओं की हत्या करके कीर्ति प्राप्त करने की बात लिखी होना हास्यास्पद है |इस प्रसंग में पुत्र वध से दुखी राजा युधिषठिरको समझाते हुए भगवन श्री कृष्ण कहानते हैं की पूर्व काल के कई यशस्वी राजा भी जीवित नहीं रहे | इसी क्रम में भगवन सही कृष्ण ने कई राजाओं जैसे शिबी आदि के नाम बताये जिन्होंने गौ दान के द्वारा यश अर्जित किया था |कहीं भी गौ हत्या जैसा कोई प्रसंग नहीं है |महाभारत में उसके ठीक पहले वाले अध्याय में "अहिंसा परमो धर्मः" का सन्देश दिया गया है | एक अध्याय में अहिंसा परमो धर्मः का उपदेश देकर अगले ही अध्याय में हिंसा करने वाले राजा की कीर्ति कैसे गायी जा सकती है ?

राजा रान्तिदेव की कीर्ति का वास्तविक कारण - 
राजा रान्तिदेव  की कीर्ति का कारण गायों का दान करना तथा फल फूल द्वारा ऋषियों का स्वागत करना था | राजा रंतिदेव के बारे में कहा गया हिया की वो हजारों गायें और सहस्त्रों निष्क छूकर दान देते थे |निष्क एक राशी होती है जिसमे एक स्वर्ण माला से युक्त वृषभ , उसके पीछे एक हजार गायें और एक सौ आठ स्वर्ण मुद्राएँ होती हैं |राजा रान्तिदेव की रसोई में मणिमाय कुंडल धारण किये हुए रसोइये पुकार पुकार कर कहते थे आप लोग खूब दाल भात खाइए |राजा रन्तिदेव की कीर्ति का वास्तविक कारण यही था | 

चर्मण्वती नदी -
 हिंदुत्व  के विरोधी एक  श्लोक का अर्थ करते हुए कहते हैं की राजा रंतिदेव की 'रन्तिदेव' की रसोई में दो हजार गायें मारी जाती थी और उनका गीला चमडा रसोई में रखा जाता था |उसका टपका हुआ जो जल बहा वह एक नदी बन गया जो की कर्मवती नदी कहलाया | परन्तु यदी आप महा भारत में उस श्लोक के ठीक पहले वाला श्लोक उठा कर देखें तो आप को  इस तर्क की हास्यास्पदता पता चलेगी जिसमे की कहा गया है की कठोर व्रत का पालन करने वाले राजा रन्तिदेव के यहाँ गावों और जंगल से पशु  यज्ञ के लिए स्वयं उपस्थित हो जाते थे | अब आप स्वयं विचार करिए की क्या वो पशु स्वयं के वध के लिए उपस्थित होते रहे होंगे या दूध देने के लिए ?वास्तव में पशुओं को धोने के लिए जिस नाधि का जल प्रयोग किया जाता था उसका नाम चर्म्वती नदी था जो की आज चम्बल है |

गौ की अवध्यता -
 वेदों में पुराणो में तथा महाभारत में भी सभी स्थानों पर गौ को अवध्य कहा गया है |यहता महाभारात्र शांतिपर्व "श्रुति में गौवों को अवध्य कहा गया है  तो कौन उनके वध का विचार करेगा ? जो गायों और बैलों को मरता है वो महान पाप करता है  " | "अगर पशुओं की हत्या का फल स्वर्ग है तो नरक किन कर्मों का फल है  ? "
आरे गोहा नृहा वधो वो अस्तु ऋग्वेद ७ ।५६।१७

सदा ही रक्षा के पात्र गाय और बैल को मत मार |


सूयवसाद भगवती हि भूया अथो वयं भगवन्तः स्याम
अद्धि तर्णमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती
ऋग्वेद १।१६४।४०
ऋग्वेद गौ- हत्या को जघन्य अपराध घोषित करते हुए मनुष्य हत्या के तुल्य मानता है और ऐसा महापाप करने वाले के लिये दण्ड का विधान करता है |

अघ्न्येयं सा वर्द्धतां महते सौभगाय ऋग्वेद १ ।१६४।२७
अघ्न्या गौ- हमारे लिये आरोग्य एवं सौभाग्य लाती हैं |

यदि नो गां हंसि यद्यश्वम् यदि पूरुषं
तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नो सो अवीरहा
अर्थववेद १।१६।४
यदि कोई हमारे गाय,घोड़े और पुरुषों की हत्या करता है, तो उसे सीसे की गोली से उड़ा दो |


पुरे विवेचन से स्पस्ट है की गाय सदा से हिन्दुओं के लिए पूज्य रही है और ये पुरे हिन्दू समाज को एक सूत्र में पिरोने  का कार्य करती रही है | गौ हत्या और गौमांस खाने के  विचार हिंदुत्व विरोधियों की गाय के पार्टी श्रद्धा को समाप्त करने का मात्र एक कुटिल प्रयास है जिससे की हिंदुत्व की एकता के सूत्र को ही समाप्त किया जा सके परन्तु यह संभव नहीं है | एक हिन्दू की तीन माताएं होती हैं एक जन्म देवे वाली माता , एक पृथ्वी माता और एक गौ माता ; और भला एक माता और पुत्र के स्नेह को काम करने में कौन की कुटिलता सफल हो सकती है ?

नोट --

!!जागीर में मिलता है मैला ढोने का काम !!

उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश समेत देश के कम से कम छह राज्यों में सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा आज भी जारी है.....
इंदौर में राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के एक सदस्य के मुताबिक इस कुप्रथा को सरकार कानून बनाकर करीब दो दशक पहले ही इसे प्रतिबंधित कर चुकी है. ...........
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय से जुडे़ आयोग के सदस्य ने   बताया
, 'मैंने अब तक पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश का दौरा किया है. इन सभी राज्यों में यह प्रथा आज भी जारी है..............   

सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने जोर देकर कहा कि इस कुप्रथा को खत्म करने के लिये सफाई कर्मचारियों को वैकल्पिक रोजगार मुहैया कराये जाने चाहिये. एक सवाल पर उन्होंने कहा कि दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाली मायावती के मुख्यमंत्री होने के बावजूद उत्तरप्रदेश में सिर पर मैला ढोने की परंपरा जारी है. ....'मध्यप्रदेश के उज्जैन के कुछ इलाकों में आज भी सिर पर मैला ढोया जा रहा है.'.............
 
कौन अपने खुसी से किसी का  मैला ढोना चाहेगा पर यह हकीकत है की ,,,बरोठा (मध्यप्रदेश में देवास से २६  किलो मीटर ) गांमित्रा बाई जब शादी करके आई  थी तब उनकी सास ने उन्हें अपनी जागीर सौंप दी थी और उन्हें जागीर में मिला था 25 घरों का मैला ढोने का काम। असभ्य समाज में भी इस तरह की प्रथा का प्रचलन नहीं था पर विकसित होते समाज में बदस्तूर ऐसी प्रथा का पालन किया जा रहा है जिसमें इंसान का इंसान से ही मल साफ करवाया जा रहा है............
इसी व्यवहार के सम्बन्ध में अब तक किये गये प्रयासों से यह मान्यता स्थापित होती गई है कि यदि एक समुदाय मानव मल ढोने का काम कर रहा है तो इसका सबसे बड़ा कारण आर्थिक अभाव नहीं बल्कि सामाजिक असंवेदनशीलता और प्रतिबध्दता की कमी है। सुमित्रा बाई ने खुद को इस पेशे के चक्रव्यूह में से बाहर निकालने की जध्दोजहद की। अब से कुछ   साल पहले उन्होंने मैला ढोने का काम बंद कर दिया था। उन्हें अ -न्त्यावसायी योजना के अन्तर्गत राष्ट्रीयकृत बैंक से वैकल्पिक रोजगार के लिये 20 हजार रूपये का ऋण भी मिला। वह खुश थीं कि अब उनके बच्चों को समाज में सम्मान मिलेगा और वह बेहतर जीवन जी पायेंगी। सुमित्रा बाई ने ऋण राशि से गांव में कपड़े की दुकान खोली परन्तु मुक्ति का वह रास्ता किसी अंधेरी गुफा में जा पहुंचा। तीन माह तक हर रोज सुमित्रा बाई बड़ी उम्मीद के साथ दुकान खोलती पर इस दौरान गांव से कपड़े का एक टुकडा भी किसी व्यक्ति ने उनके यहां से नहीं खरीदा। बात प्रचलित हो गई कि सुमित्रा बाई मसान के कपड़े बेच रही है। आखिरकार उन्हें अपनी दुकान बंद कर देना पड़ी और एक सुखद सपने का शुरूआत से पहले ही अंत हो गया। डेढ़ साल तक फिर भी वह अन्य विकल्पों की तलाश करती रही पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी और सुमित्रा बाई को एक बार फिर कच्चे शौचालयों की सफाई के काम की ओर कदम बढ़ाने पड़े। पहले एक प्रशासनिक अधिकारी और अब सामाजिक कार्यकर्ता की हैसियत से इस मुद्दे पर काम कर रहे हर्शमन्दर कहते हैं कि यह सम्मान और गरिमा का सवाल है; कोई आर्थिक मदद या सरकारी योजना इसका जवाब नहीं खोज सकती है। अभी तक हम योजना आधारित पुनर्वास की कोशिशें करते रहे हैं जबकि जरूरत सामाजिक बदलाव की है। इसमें दो तरफा पहल की जरूरत है, एक तो मैला ढोने के काम में लगे लोग इस काम को छोडें और दूसरे स्तर पर समाज उन्हें समानता का दर्जा देते हुए बिना किसी भेदभाव के स्वीकार करें। विगत एक दशक में सरकार 144 करोड़ रूपये खर्च करके भी इन परिवारों को अमानवीय पीड़ा से मुक्ति नहीं दिला पाई है। उनके दावों का अब भी कोई आधार नहीं है, न ही वे अपने काम को जवाबदेय ही मानते हैं। 
मध्यप्रदेश में दलित समानता के लिए की गई पहल को दुनिया भर में ख्याति मिली है और राज्य सरकार के उसी दलित एजेण्डे में यह स्पष्ट रूप से दावा किया गया था कि अप्रैल 2003 तक प्रदेश के सभी शौचालयों को जलवाहित शौचालयों में बदलने का काम पूर्ण कर लिया जायेगा परन्तु आज की स्थिति में भी मध्यप्रदेश में 78 हजार से ज्यादा शुष्क शौचालय हैं जिनमें मैला साफ करने में अठारह हजार लोग लगे हुए हैं। राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के अनुसार भी मध्यप्रदेश के 16 जिलों में अभी व्यापक रूप से यह प्रथा प्रचलन में है। सबसे अहम् बात यह है कि सरकार के स्तर पर किये गये प्रयासों में अभी भी सामाजिक सोच में बदलाव की कोशिशों का पूर्णत: अभाव है और तो और उन्हें व्यवस्था की मदद भी नहीं मिल पा रही हैं। शासन की कल्याणकारी योजना के अनुसार अस्वच्छ पेशों में संलग्न परिवारों के बच्चों को शिक्षा के लिए हर वर्ष साढ़े सात सौ रूपये की छात्रवृत्ति प्रदान की जाती है परन्तु धरातल पर यह योजना विसंगति पूर्ण परिणाम दे रही हैं पन्ना जिले के बिसानी गांव की तीन महिलाओं ने जब यह पेशा छोड़ा तो उन्हें प्रोत्साहन मिलना तो दूर तत्काल उनके बच्चों को मिलने वाली छात्रवृत्तिा बंद कर दी गई। उनमें से एक अनिता वाल्मिकी कहती हैं कि उस छात्रवृत्तिा से कम से कम बच्चों की किताबें और कपड़े तो आ ही जाते थे परन्तु अब तो वह मदद भी बंद हो गई। सरकार मानती है कि मैला ढोने का काम बंद करते ही उन्हें दूसरे अच्छे काम मिल जाते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि ऐसा करने से उनके दूसरे विकल्प भी छिन जाते हैं। देवास जिले की बागली तहसील की शांतिबाई कहती हैं कि हमें इस काम के एवज में हर घर से एक बासी रोटी और त्यौंहारों पर पुराने कपड़े मिलते थे। हम तो उनके गुलाम जैसे थे इसलिये काम करवाने वाले हमारी कुछ मदद भी कर देते थे परन्तु जबसे यह काम छोड़ा है तब से हमारा तो जैसे सामाजिक बहिष्कार हो गया है। अब जरूरत पड़ने पर भी जब हम सवर्णों से रोटी या अन्य मदद मांगने जाते हैं तो एक भी परिवार हमारी मदद नहीं करता है। इतना ही नहीं शांति बाई को यह कहकर मजदूरी पर नहीं लगाया गया कि तुम तो मैला ढोने वाले हो तुमसे मजदूरी कैसे होगी देवास के गंधर्वपुरी गांव की मुन्नी बाई से कहा गया कि जिन्होंने तुमसे मैला ढोने का काम छुड़वाया है अब उन्हें से जाकर मदद मांगो। शिक्षा अब एक मौलिक अधिकार है और सरकार 14 वर्ष तक के बच्चों की नि:शुल्क शिक्षा के लिए प्रतिबध्द है। परन्तु हर जिले में सरकारी स्कूल में बच्चों से 30 रूपये प्रतिमाह शुल्क लिया जा रहा है। दलित परिवारों के सामने यह दुविधा की स्थिति है।
सामाजिक संरचना पर वर्गभेद इस कदर हावी है कि व्यापक समाज यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि वाल्मिकी समाज इस अस्वच्छ पेशे से मुक्त हो। वहीं दूसरी ओर समाज (वाल्मिकी) के भीतर भी भेदभाव चरम स्तर पर है।
मैला ढोने की प्रथा के उन्मूलन में लगे गरिमा अभियान के एक अध्ययन से पता चला है कि जिन 531 परिवारों का उन्होंने सर्वेक्षण मध्यप्रदेश में किया उनमें से 506 परिवारों में यह काम केवल महिलायें ही करती हैं। परम्परा यह है कि महिला विवाह के बाद जब अपने ससुराल पहुंचती है तो तत्काल उसे जागीरदारी में 20-25 घरों के मैला ढोने का काम मिलता है। अध्ययन का यह निष्कर्ष चौंकाने वाला है कि अस्पृश्यता औषण की पीड़ग रहे दलित समुचर्मकार, बरगुण्डा और बैरवा जाति के अस्सी फीसदी लोग यह मानते है कि वाल्मिकी समुदाय को यह करते रहना चाहिए क्योंकि यह उनकी जिम्मेदारी है।
वास्तव में इस व्यवसाय का आर्थिक पहलू का विष्लेषण भी अपने आप में बहुत रोचक है। अब तक यह माना जाता है कि चूंकि वाल्मिकी समाज के परिवारों को इस पेशे से आय होती है और इसी से वे जीवनयापन करते हैं इसलिये ये यह काम नहीं छोड़ना चाहते हैं। परन्तु आकलन से पता चलता है कि एक परिवार से मैला उठाने के एवज में उन्हें 5 से 20 रूपये प्रतिमाह मिलते है। और अधिकतम 25 घरों की सफाई का काम इनके पास रहता है। इस तरह इस गरिमाहीन पेशे से उन्हें प्रतिमाह 125 से 500 रूपये की ही आय होती है और त्यौंहारों या समारोहों के मौके पर उन्हे पुराने कपड़े और मिठाई भी मिल जाती है। टोंक की रेखा बाई कहती हैं कि मैं चार सौ रूपये कमाने के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकाती हूं। वाल्मिकी समाज अकल्पनीय छुआछूत को भोगता है। आज भी गांव या कस्बे की चाय की दुकानों पर उनके लिये अलग टूटे बरतन रखे जाते हैं। देवास, पन्ना, होशंगाबाद, शाजापुर, हरदा और मन्दसौर के साढ़े तीन सौ गांवों में वाल्मिकी बलाई एवं चर्मकार समाज के लोगों के बाल नाई नहीं काटते है। आमलाताज बनवाने और बाल कटवाने के ते हैं क्योंलिये एक बार में 65 से 70 रूपये खर्च करने पड़कि इसके लिये हमें 20 रूपये खर्च करके सोनकच्छ जाना पड़ता है, 15 रूपये दाढ़ी-कटिंग के देने होते है। और समय इतना लगता है कि 35 रूपये की मजदूरी चली जाती है।
सरकारी स्तर पर अपरिपक्व नजरिये के कारण कई प्रयास सफल नहीं हो पा रहे हैं। राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी कर्मचारी आयोग के सदस्य गिरिजा शंकर प्रसाद कहते हैं कि केन्द्र सरकार पिछले आठ सालों से लगातार राज्य सरकार को निर्देश दे रही है परन्तु यहां के प्रशासनिक अधिकारी संवेदनशीलता के साथ योजनाओं का क्रियान्वयन नहीं कर रहे हैं और अब तो यह निर्देश भी जारी कर दिये गये है कि किसी जिले में एक भी व्यक्ति इस पेशे में संलग्न पाया जाता है और यदि वहां कानून के अनुसार कार्रवाई नहीं होती है तो जिलाधिकारी को इस कोताही के लिए जिम्मेदार माना जायेगा। परन्तु यह बात भी स्पष्ट है कि केन्द्र सरकार ने अब तक जारी 13 गंभीर आदेशों-दिशा निर्देशों और तीन सम्बन्धित कानूल्यांयास नहीं किये है_ था के उन्मूनों की निगरानी-मूकन के लिए अब तक कार्इे प्र। स्वाभाविक है कि इस प्रलन के प्रयास में क्रियान्वयन की जिम्मेदारी जिला प्रशासन की है परन्तु इस संवेदनशील प्रथा के परिप्रेक्ष्य में बहुत ही असंवेदनशील तरीके से प्रयास हुये हैं। सरकार की अन्त्यावसायी योजना के अन्तर्गत अस्वच्छ कामों में लगी महिलाओं को किसी कला या अन्य कार्य के कौशल विकास के लिये छह माह का प्रशिक्षण दिये जाने का प्रावधान है। इसी के आधार पर होशंगाबाद की सोहागपुर तहसील में 30 महिलाओं को मूर्तिकला का प्रशिक्षण दिया गया। अब तक मैला उठाने वाले हाथ इतनी जल्दी र उन्हानें मांशिक्षण की अवधि और बढ़ा दी जाये परन्तु प्रशासन ने तत्काल यह कला सीख नहीं पाये औग की कि उनके प्रयह कहते हुये इस जरूरत को नजरअंदाज कर दिया कि शासन की योजनाओं मे यह प्रावधान नहीं है। परिणामस्वरूप उन महिलाओं को प्रशिक्षण मिलने के बाद भी उस सरकारी योजना का लाभ नहीं मिल सका। मध्यप्रदेश के पन्ना, देवास सहित 36 जिले दावा कर चुके हैं कि वहां मैला ढोने का काम बंद हो चुका है। जबकि वहां आज भी सत्तार हजार से ज्यादा कच्चे शौचालय मौजूद हैं। देवास के कमलापुर थाने में ही अब भी कच्चा शौंचालय हैं और मध्यप्रदेश के सभी नगरीय निकायों में साफ-सफाई के काम में इसी समुदाय के लोगों को नियुक्त किया जा रहा है। वास्तव में व्यापक समाज के स्तर पर यह मानसिकता स्थापित हो चुकी है कि अस्वच्छता से सम्बन्धित किसी भी काम में इसी समुदाय को जिम्मेदारी दी जानी चाहिये।
गरिमा अभियान ने छह जिलों में अपने सघन प्रयासों से छह सौ महिलाओं को इस पेशे से मुक्त करवाया है परन्तु अब उसके सामने भी यह अनुभव उभरकर सामने आने लगा है कि मैला साफ करने का काम छोड़ने वाली महिला पर यह काम फिर से शुरू करने का दबाव बहुत बढ़ रहा है। उसके अपने आंकड़े भी हैं कि तीस महिलाओं ने फिर से यह काम अपना लिया है। कारण साफ है कि यह पेशे को अपनाने या छोडने का मामला नहीं है बल्कि सामाजिक व्यवस्था के भेदवादी चरित्र को चुनौती देने का मामला हैं.........

सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को समाप्त करने के लिये सरकार ने वर्ष 1993 में सफाई कर्मचारियों का नियोजन और शुष्क शौचालयों का निर्माण (प्रतिबंध) नाम का कानून बनाया था. इसमें स्पष्ट प्रावधान हैं कि कोई भी व्यक्ति न तो सिर पर मैला ढोने का काम करेगा, न ही शुष्क शौचालयों का रख-रखाव करेगा.......

सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय
ने आरोप लगाया कि मध्यप्रदेश सरकार ने उन्हें प्रदेश दौरे के वक्त उचित सुरक्षा मुहैया नहीं करायी. उन्होंने इंदौर के जिलाधिकारी राघवेंद्र कुमार सिंह के यहां आयोग की बैठक में शामिल न होने पर गुस्से में उन्हें 'दलित विरोधी' तक कह दिया. .......