शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

!! प्राचीन भारतीय स्थापत्य कला !!

दक्षिण कोसल के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरातत्वीय स्थलों की सूची में सिरपुर का स्थान सर्वोच्च है । पुण्य-सलिला महानदी के तट पर स्थित सिरपुर का अतीत सांस्कृतिक विविधता तथा वस्तुकला के लालित्य से ओतप्रोत रहा है । सिरपुर, प्राचीन काल में 'श्रीपुर' के नाम से विख्यात रहा है तथा सोमवंशी शासकों के काल में इसे दक्षिण कोसल की राजधानी होने का गौरव प्राप्त रहा है । कला के शाश्वत नैतिक मूल्यों एवं मौलिक स्थापत्य शैली के साथ-साथ धार्मिक सौहार्द्र तथा आध्यत्मिक ज्ञान-विज्ञान के प्रकाश से आलोकित सिरपुर भारतीय कला के इतिहास में विशिष्ट कला-तीर्थ के रुप में प्रसिद्ध है । लक्ष्मण मंदिर, आनंदप्रभु कुटी विहार, स्वास्तिक विहार, तीवरदेरव विहार, बालेश्वर मंदिर समूह, राजप्रासाद, विविध उत्खनित स्मारक-स्थल एवं उपलब्ध कलात्मक शिल्पकृतियां देश-विदेश के पुराविदों के लिए आकर्षण के केन्द्र हैं । सिरपुर के भग्नावशेषों में भागवत, माहेश्वर एवं तथागत के सद्धर्म से शासित अनुयायियों के समवेत घोष अनुगूंजित हैं । यद्यपि सिरपुर की समृद्धि के परिचायक अधिकांश पुरावैभव विलुप्त हो चुके हैं फिर भी विद्यमान अल्पांश अवशेष, अतीत के गौरव के साक्ष्य हैं ।
सिरपुर की प्राचीनता का सर्वप्रथम परिचय शरभपुरीय शासक प्रवरराज तथा महासुदेवराज के ताम्रपत्रों से उपलब्ध होता है जिनमें 'श्रीपुर' से भूमिदान दिया गया था । सोमवंशी शासकों के काल में सिरपुर दक्षिण कोसल का महत्वपूर्ण राजनैतिक एवं सांस्कृतिक केंन्द्र के रुप में प्रतिष्ठित हुआ । इस वंश के महाप्रतापी शासक महाशिवगुप्त बालार्जुन के 58 वर्षीय सुदीर्घ शासन काल (595 से 653 ईसवी) में यहां अनेकानेक मंदिर, मठ, बौद्ध विहार, सरोवर तथा उद्यानों का निर्माण करवाया गया । सातवीं सदी ईस्वी में चीन के महान पर्यटक तथा विद्वान ह्वेनसांग ने दक्षिण कोसल की 639 ईसवी में यात्रा की थी । उनके अनुसार सिरपुर में उस समय लगभग 100 संघाराम और मंदिर थे जिनमें महायान संप्रदाय के कई भिक्षु निवास करते थे । राजनैतिक सुस्थिरता तथा धार्मिक सहिष्णुता के फलस्वरुप सिरपुर दीर्घकाल तक ज्ञान-विज्ञान तथा कला का केंद्र बना रहा । महाशिवगुप्त बालार्जुन के पश्चात सिरपुर का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक महत्व क्रमशः क्षीण होने लगा तथा दक्षिण कोसल के इतिहास के स्वर्णयुग का पटाक्षेप हो गया ।
सिरपुर के पुरावैभव की ओर तत्कालीन ब्रिटिश विद्वान बेगलर (1873-74 ईस्वी) एवं सर अलेक्जेंडर कनिंघम (1881-82 ईस्वी) के द्वारा सर्वप्रथम प्रकाश डालते हुये आर्केलाजिकल सर्वे रिपोर्टस ऑफ इंडिया खंड 7 तथा 17 में संबंधित प्रारंभिक विवरण प्रकाशित किये गये हैं । सिरपुर के गर्भ में छिपे पुरातत्वीय रहस्यों को उजागर करने के उद्देश्य से समय-समय पर उत्खनन के प्रयास किये गये । जिनसे सिरपुर के पुरातत्व वैभव और सांस्कृतिक इतिहास पर प्रचुर प्रकाश पड़ा है ।
माननीय श्री बृजमोहन अग्रवाल, संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री के विशेष प्रयासों से सिरपुर के उत्खनन का कार्य संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग छत्तीसगढ़ शासन की ओर से प्रख्यात पुरातत्वविद् अरुण कुमार शर्मा के निदेशन में वर्ष 2005 में प्रारंभ हुआ जिससे सिरपुर की पुरातत्वीय महत्व को अधिकाधिक उजागर करने, अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन स्थल के रुप में विकसित करने तथा उपलब्ध सांस्कृतिक निधि को विश्व धरोहर के रुप में स्थापित करने की दिशा में सफलता अर्जित हुई है । इन वर्षो में 06 बौद्ध विहार, 01 बौद्ध स्तूप, 01 बेद पाठशाला, 01 जैन विहार, 07 आवासीय भवन, 08 शिव मंदिर तथा विशाल औद्योगिक स्थल जहाँ चौड़े-चौड़े रास्ते 48 अन्नागार तथा कई आयुर्वेदिक स्नान कुण्ड प्रकाश में आये हैं । उत्खनन में प्रथम बार विहार की संरचना के अंगभूत बौद्ध देवी हारिति की उपलब्धि उल्लेखनीय है । इसी अवधि में महानदी के तट पर स्थित भव्य राजमहल की भग्नावशेष रेस्ट हाऊस के निकट स्थित भव्य तोरणद्वार वाला विशाल बड़े-बड़े प्रस्तरों से निर्मित विशाल पंचायतन शिवमंदिर प्राप्त हुआ है । इस प्रस्तर की चाहरदीवारी वाले मंदिर परिसर के दक्षिण में तांत्रिक मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए हैं । इसके तीन गर्भग्रह में पूर्व में विष्णु की प्रतिमा तथा पश्चिम में 16 कोणीय धारा लिंग एवं धारा योनिपीठ मूलस्थिति में प्राप्त हुए हैं । आकार एवं प्रकार तथा ऊँचाई में सुरंगटीला शिवमंदिर छत्तीसगढ़ का विशाल और विलक्षण स्मारक है । इस मंदिर का अधिष्ठान भारत का सबसे ऊँचा है ।
स्तूप तथा औद्योगिक क्षेत्र के प्रकाश में आने से सिरपुर का इतिहास ई.पू. 6वीं शताब्दी तक चला गया है । राजधानी बनने से पहले सिरपुर एक बहुत बड़ी औद्योगिक नगरी थी । सिरपुर की असीम पुरासंपदा ऐतिहासिक महत्व पर्यटनात्मक आकर्षण को ध्यान में रखते हुए उत्खनित स्मारकों की मूलरुप में सुव्यवस्थित अंतर्राष्ट्रीय पुरातत्वीय संरक्षण विधियों के अनुसार अनुरक्षण कार्य प्रगति पर है ।
सिरपुर में वर्ष 1953 से 1956 के मध्य सागर विश्वविद्यालय एवं मध्यप्रदेश शासन के पुरातत्व विभाग के द्वारा संयुक्त रुप से डॉ.एम.जी.दीक्षित के निर्देशन में उत्खनन कार्य करवाया गया । इस उत्खनन से यहां पर टीले के भीतर दबे हुए दो बौद्ध विहार अनावृत हुए । इनका अभिज्ञान आनंदप्रभ कुटी बिहार तथा स्वास्तिक विहार के रुप में किया गया है । उत्खनन क्षेत्र से धातु प्रतिमा, प्रतिमा फलक, आभूषण बनाने के विविध उपकरण, लोहे के अनेक प्रकार के बर्तन, कीलें-ताले, जंजीर, सिलबट्टा, दीपक, पूजा के पात्र, घड़े, मिट्टी के मनके, चुड़ियां, पकी मिट्टी की मुहरें एवं खिलौने आदि प्राप्त हुए तथा तीन महत्वपूर्ण सिक्के भी उपलब्ध हुए थे । इनमें से एक सिक्का शरभपुरीय शासक प्रसन्नमात्र का है तथा दूसरा कलचुरि शासक रत्नदेव के समय का है । तीसरा विशेष उल्लेखनीय सिक्का चीनी राजा काई युवान् (713 से 741 ईस्वी) के समय का है ।
वर्ष 2000 से 2004 के मध्य नार्गाजुन बोधिसत्व संस्थान मनसर (महाराष्ट्र) के द्वारा वरिष्ठ पुरातत्वविद् श्री अरुण कुमार शर्मा के निर्देशन में उत्खनन कार्य सम्पन्न किया गया । इस अवधि में बौद्ध विहार तथा आवासीय भवन प्रमुख रुप से अनावृत्त किए गए । राज्य पुरातत्व सलाहकार के रुप में श्री अरुण कुमार शर्मा के द्वारा वर्तमान में यहाँ किये जा रहे उत्खनन से प्रमुख रुप से बौद्ध स्तूप, सुरंग टीला मंदिर, सड़के एवं दुकानें, शिव मंदिर, आवासीय संरचना, भूमिगत अन्नागार, आयुर्वेदिक स्नानकुण्ड तथा विभिन्न धातुओ की मूर्तियाँ खुदाई में प्राप्त हुई हैं, जिनकी भव्यता, कलात्मकता तथा अलंकरण अभिप्राय अद्वितीय हैं ।
दर्शनीय स्थल -
पुरातत्वीय वैभव से संपन्न सिरपुर के प्राकृतिक सौंदर्य में महानदी के सुरम्य प्रवाह तथा हरितिमा से सजे-संवरे वन्य-पादपों की भी भागीदारी है । यहां के मुख्य दर्शनीय स्मारक स्थलों में लक्ष्मण मंदिर तथा गंधेश्वर मंदिर प्रारंभ से अस्तित्व में रहे हैं । आनंद प्रभु कुटी विहार, स्वस्तिक विहार, तीवरदेव महाविहार, बालेश्वर मंदिर समूह, शिव मंदिर, राज प्रासाद, सुरंगटीला आदि समय-समय पर उत्खनन से अनावृत्त किये गये हैं । ये सभी स्मारक पुरातत्वीय, धार्मिक तथा पर्यटन अभिरुचि से जुड़े हुये हैं । यहां से उत्खनित संरचनाओं में शैव, वैष्णव तथा बौद्ध धर्म से संबंधित स्थापत्य कला का चरमोत्कर्ष दिखाई देता है । महत्वपूर्ण स्मारक स्थलों का संक्षिप्त परिचय क्रमशः प्रस्तुत है -
लक्ष्मण मंदिर -
यह ईंटों से निर्मित भारत के सर्वोत्तम प्राचीन मंदिरों में से एक है । अलंकरण सौंदर्य, मौलिक अभिप्राय तथा निर्माण कौशल की दृष्टि से यह अपूर्व है । लगभग 7 फुट ऊंची पाषाण निर्मित जगती पर स्थित पर मंदिर अत्यंत भव्य है । पंचरथ प्रकार का यह मंदिर गर्भगृह, अंतराल तथा मंडप से संयुक्त है । मंदिर के बाह्य भित्तियों पर कूट-द्वार, वातयान आकृति, चैत्य गवाक्ष, भारवाहक गण, गज कीर्तिमुख एवं कर्ण आमलक आदि अभिप्राय दर्शनीय हैं । मंदिर का प्रवेश द्वार अत्यंत सुन्दर है । सिरदल पर शेषशायी विष्णु, प्रदर्शित हैं । उभय द्वारशाखाओं पर विष्णु के प्रमुख अवतार, कृष्ण लीला के दृश्य, अलंकरणात्मक प्रतीक, मिथुन दृश्य और वैष्णव द्वारपालों का अंकन है । गर्भगृह में नागराज अनंत शेष की बैठी हुई सौम्य प्रतिमा स्थापित है । लक्ष्मण मंदिर का निर्माण महाशिवगुप्त बालार्जुन की माता वासटा ने अपने दिवंगत पति की स्मृति में करवाया था । वासटा मगध के राजा सूर्यवर्मन की पुत्री थी । अभिलेखीय साक्ष्य के आधार पर लक्ष्मण मंदिर का निर्माण काल ईस्वी 650 के लगभग मान्य है ।
राम मंदिर -
लक्ष्मण मंदिर से कुछ दूरी पर पूर्व की ओर ईंटों से निर्मित एक भग्न तथा जीर्ण-शीर्ण मंदिर स्थित है, जो राममंदिर के नाम से प्रसिद्ध है । इस मंदिर के ऊर्ध्व विन्यास में कोण तथा भुजाओं के संयोजन द्वारा प्रतिरथों से ताराकृति तल विन्यास की रचना की गई । इस कलात्मक मंदिर का संपूर्ण शिखर नष्ट हो चुका है तथा भग्न प्रायः भित्तियां कुछ अंशों में शेष हैं । लक्ष्मण मंदिर तथा राम मंदिर के निर्माण में मात्र कुछ दशकों का अंतराल है । मंदिर परिसर में टीले में परिवर्तित तत्कालीन आवासीय भवन को भारतीय पुरातत्वीय सर्वेक्षण, रायपुर द्वारा उत्खनन से प्रकाश में लाया गया है, जिससे स्थानीय, भवन निर्माण शैली की विशेषता दृष्टव्य है ।
गंधेश्वर मंदिर -
महानदी के तट पर स्थित इस मंदिर का प्राचीन नाम गंधेश्वर था । यह सतत् पूजित पूजित शिव मंदिर है । इस मंदिर का प्रवेश द्वार मूल रुप से विद्यमान है तथा उभय द्वारशाखाओं पर शिवलीला के अनेक दृश्य प्रदर्शित हैं । मंदिर के मंडप का निर्माण प्राचीन मंदिरों एवं विहारों से प्राप्त स्तंभों से किया गया है । मराठा काल में जीर्णोद्धार के कारण इस मंदिर का मौलिक स्वरुप विलुप्त हो चुका है । मंदिर परिसर में विभिन्न भग्नावशेषों से प्राप्त - बुद्ध, नटराज, उमा-महेश्वर, वराह, विष्णु, वामन, महिषासुरमर्दिनी, नदी देवियां आदि की कलात्मक प्रिमायें और खंडित अभिलेख सुरक्षित रखी गई हैं । गंधेश्वर मंदिर में प्रस्थापित शिवलिंग का प्रतिदिन नियमित रुप से पुष्पों द्वारा आकर्षक श्रृंगार किया जाता है ।

आनंद प्रभ कुटी एवं स्वस्तिक विहार-
बौद्धधर्म से संबंधित अवशेषों की दृष्टि से सिरपुर विशेष महत्वपूर्ण है । सर्वप्रथम वर्ष 1956-57 के उत्खनन कार्य से यहां ईंटों से निर्मित दो बौद्ध विहारों के अवशेष प्रकाश में आये हैं । उत्खनित विहारों की वास्तु योजना में गुप्तकालीन मंदिर तथा आवासीय भवन निर्माण कला का सुंदर समन्वय है । इन विहारों के मुख्य कक्ष (गर्भगृह) में भगवान बुद्ध की भूमिस्पर्श मुद्रा में लगभग साढ़े 6 फुट ऊंची कलात्मक प्रतिमा प्रस्थापित है । विहार में प्रमुख स्थविर तथा अन्य भिक्षुओं के ध्यान, अध्ययन-अध्यापन और निवास की सुविधा थी । आधार तल में निवास के लिए मण्डल के दोनों ओर अनेक कक्ष निर्मित है तथा इन कक्षों में दीपक रखने के लिए आले बने हुए हैं । इसके सम्मुख भाग में तोरण था जिसके दोनो ओर द्वारपाल तथा अर्ध मंडप में बौद्ध देवताओं की प्रतिमायें भित्ति से संलग्न प्रस्थापित रही हैं । अभिलेख के आधार पर इस विहार का नामकरण आनंदप्रभु कुटी विहार किया गया है । इसी के सन्निकट एक अन्य ध्वस्त विहार भी उत्खनन से प्रकाश में आया है । तल योजना के आधार पर इसे स्वस्तिक विहार के नाम से जाना जाता है सिरपुर के उत्खनन में प्राप्त समस्त बौद्ध विहार द्वितल (भू-तल एवं प्रथम तल ) स्थापत्य योजना के अनुरुप निर्मित हैं । इन विहारों का निर्माण महाशिवगुप्त बालार्जुन के समय में करवाया गया था । 
धातु प्रतिमायें –
सातवीं-आठवीं सदी ईस्वी में सिरपुर महायान धर्म का सुप्रसिद्ध केन्द्र था तथा धातु प्रतिमाओं के निर्माण में अग्रगण्य रहा है । सिरपुर में सर्वप्रथम 1939 में धातु प्रतिमाओं का भंडार प्राप्त हुआ था । यहां से प्राप्त धातु प्रतिमायें रायपुर, नागपुर, नई दिल्ली स्थित संग्रहालय तता मुम्बाई के भारतीय विद्या भवन में संरक्षित हैं । सिरपुर की धातु प्रतिमाओं में ‘श्री’ एवं ‘शील’ का अद्भुत संतुलन है । उपलब्ध धातु प्रतिमाओं में बुद्ध, अवलोकितेश्वर, पदमपाणि, वज्रपाणि, मंजुश्री, तारा आदि के अतिरिक्त ऋषभनाथ तथा विष्णु आदि उल्लेखनीय हैं । इन प्रतिमाओं के प्रदीप्त मुख, अर्ध निमीलत नेत्र, केशविन्यास, वरद मुद्रा युक्त हथेली की अंगुलियों एवं परिधान के तरंगवत् सिलवटों में आध्यात्मिक सौंदर्य के सथा कला का चरमोत्कर्ष व्याप्त है । सिरपुर की धातु प्रतिमायें, दक्षिण कोसल की धातु शिल्पियों के अद्भुत कौशल को प्रकट करती है तथा इनकी गणना भारतीय कला के उत्कृष्टम कलाकृतियों में की जाती है । भारत महोत्सव के अन्तर्गत सिरपुर से प्राप्त धातु प्रतिमाएं पेरिस, जापान तथा अमेरिका में प्रदर्शित की जाती हैं । सिरपुर की धातु प्रतिमाओं से भारतीय ललित कला के इतिहास में एक गौरवशाली अध्याय जुड़ा है ।  

स्थानीय संग्रहालय-
लक्ष्मण मंदिर परिसर में भारतीय पुरातत्वीय सर्वेक्षण विभाग द्वारा नियंत्रित स्थानीय संग्रहालय में सिरपुर से प्राप्त अनेक दुर्भल प्रतिमाएं और स्थापत्य खण्ड संरक्षित कर रखी गई हैं । ये कलाकृतियां शैव, वैष्णव, बौद्ध तता जैन धर्म से संबंधिक हैं । संग्रहालय में प्रदर्शित प्रतिमाएं अत्यंत कलात्मक हैं जिनमें गुप्तकालीन कला की मौलिकता, प्रतिमा विज्ञान की मान्यताएं और परंपराओं का समन्वय है । अंग-संरचना, आभूषण, केश विन्यास तथा परिधान में स्थानीय विशेषताएं प्रत्यक्ष हैं । यहां पर प्रदर्शित अंगड़ाई लेती हुई एक नायिका की प्रतिमा में सौंदर्य, अनुराग तथा चपलता का अद्भुत सामंजस्य है । काले पाषाण से निर्मित चतुर्मुख लिंग के रुपांकित मुख मंडल पर ध्यान, योग, लास्य और उग्र भाव क्रमशः परिलक्षित है । महिषासुरमर्दिनी प्रतिमा में देवी के अनुग्रह के साथ-साथ संहारक शक्ति की व्यंजना है । इसी प्रकार की अनेक कलात्मक प्रतिमायें यहां प्रदर्शित हैं जिनमें नृसिंह, अम्बिका, चामुंडा, विष्णु, सूर्य, हारिति, दुर्गा, नाग पुरुष, बुद्ध, तीर्थंकर पार्श्वनाथ, नदी देवियां आदि विशेष महत्वपूर्ण हैं । 
बौद्ध स्तूप-
सन् 639 में चीनी यात्री व्हेनसांग जी सिरपुर आये थे तब उन्हें बताया गया थी कि वहाँ पर राजा अशोक द्वारा निर्मित बौद्ध स्तूप है । चीनी यात्री द्वारा बतायी दिशा में यह स्तूप भग्नावस्था में जनवरी 2009 में प्राप्त हुआ । बड़े-बड़े पत्थरों निर्मित यह स्तूप एक 13.20 x 12.80 मीटर के प्रस्तर निर्मित अधिष्ठान पर स्थित है । अंड 4.30 मी. ऊँचा है तथा जिसके दो छत्र मौजूद है छत्र का व्यास 45 से.मी. है । दूसरी शाताब्दी में अधिष्ठान के पश्चिम भाग में विस्तार किया गया जिसका प्रमाण है सीढ़ियों पर ब्राम्हूी में अंकित 'हे्ल' । यह स्तूप सिरपुर में बौद्ध धर्म के आगमन का प्रमाण है । समय - ईसा पूर्व तीसरी शाताब्दी  

सुरंग टीला मंदिर-
वर्तमान गाँव के मध्य में स्थित सुरंग टीला मंदिर एक विशाल पहाड़ी नुमा स्थल के उत्खनन से प्रकाश में आया । बड़े-बड़े पत्थरों से निर्मित यह पंचयातन शैली का शिव मंदिर 4.65 मीटर ऊँचे अधिष्ठान पर स्थित है । संरचना के ऊपर चार मंदिर हैं जिसमें से चार में शिवलिंग तथा पाँचवे में गणेश की मूर्ति स्थापित है । इनके सामने 32 स्तम्भों का मंडप है । पश्चिम में 43 सीढ़ियाँ है । एक स्तम्भ में मंदिरों का प्रारुप अंकित है । मंदिर 12 वीं शताब्दी में भूकंप से ध्वस्त हो गया । मंदिर के दक्षिण में पुजारी का आवास है तथा दक्षिण-पश्चिम में तांत्रिक मंदिर है जिसमें एक ही अधिष्ठान पर तीन गर्भ गृह है जिनमें विष्णु, बृह्मा तथा शिवलिंग स्थापित है । श्वेत धारालिंग तथा योनिपीठ सोलहकोणीय हैं । सुरंग टीला तथा परिसर के मंदिरों का निर्माण यहाँ से प्राप्त शिलालेख के अनुसार महाशिवगुप्त बालर्जुन ने सातवीं शताब्दी में करवाया था ।
बौद्ध विहार-
प्रस्तर तथा ईटों से निर्मित पश्चिमाभिमुखी बौद्ध विहार का निर्माण सातवीं शताब्दी में हूआ था इसमें पाँच गर्भगृह है जिनमें से मध्य में महात्मा बुद्ध की भूस्पर्श मुद्रा में मूर्ति स्थापित है तथा चार अन्य गर्भगृह में हैं । भवन के मध्य में कुंड है तथा अर्ध मंडप में नाग कन्याओं आदि की मूर्तियाँ लगी है । प्रवेश द्वार के सामने फर्श पर चक्र बना है । गर्भगृहों के द्वारों के ऊपर प्रस्तर निर्मित सिरदल शिला है जिनमें बुद्ध की जीवन कथा अंकित है ।  
ईसा पूर्व दूसरी तीसरी शताब्दी का मार्ग तथा दुकानें-
गंधेश्वर मंदिर के पूर्व में स्थित टीले के उत्खनन से विशाल शिवमंदिर प्राप्त हूआ है । इस मंदिर के तोरण द्वार के पूर्व में 30 फीट चौड़ी सड़क है जो शहर के मध्य में आरम्भ होकर नदी तट तक जाती है । इस सड़क के दोनों ओर मंदिर में पूजा अर्चना की की सामग्रियों के विक्रम के लिये छोटी-छोटी दुकानों है । सारी दुकानें एक ही लंबाई-चौड़ाई की है । प्रत्येक के पीछे भंडार गृह हैं । मार्ग के दोनों ओर आठ-आठ दुकानें हैं । शिव मंदिर-
गंधेश्वर मंदिर के पूर्व में एक विशाल शिव मंदिर प्रकाश में आया है पूर्वाभिमुखी मंदिर में 12 प्रस्तर स्तम्भों वाला तोरण द्वार के पूर्वी सीढियों के दोनों तरफ मंदिर के हाथी बांधने के पत्थर हैं। अंदर विशाल प्रांगण हैं . इस पंचायतन मंदिर के मुख्य मंदिर में उत्तर तथा दक्षिण में स्थित सीढ़ियों द्वारा प्रवेश किया जा सकता है . मंदिर 1.60 मीटर ऊँचे प्रस्तर निर्मित जगती पर स्थित है । चार स्तम्भों वाला मंडप है तथा गर्भगृह में श्वेत रंग का धारा लिंग एवं योनिपीठ स्थापित है । मंदिर में दो परकोटा है । भीतरी परकोटा ईंटों से तथा बाहरी प्रस्तर से निर्मित है । मंदिर के दक्षिण में पुजारी का आवास है तथा भीतरी परकोटा में यात्रियों के निवास के लिये कमरे बने हैं । दोनों परकोटे के बीच में रंगशाला या सभामंडप है । 
आवासीय संरचना-
गंधेश्वर मंदिर के पूर्व में एक वृहत आवासीय संरचना तथा शिल्प निर्माण केन्द्र प्रकाश में आये है । ये सभी निर्माण वास्तु शास्त्र के नियमों के अनुसार किये गये है । बीच में रास्ते है । कमरों में प्रवेश दो पल्लों वाले द्वार से होता था तथा भवन प्राय: दो मंजिले होते थे । प्रथम मंजिल प्रस्तर से तथा दूसरी मंजिले ईंटों से निर्मित थे दूसरे मंजिल पर चढ़ने के लिये सीढ़ियाँ बनी हैं । ऊपरी मंजिल की छत पर कवेलू की जगह प्रस्तर के छप्पर बनाये गये थे । प्राय: हर कमरे में धान कूटने की ओखली बने हैं । प्रत्येक समूह के मकान के समीप एक कुआँ भी निर्मित है । ये निर्माण ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी से लेकर ईसा के बाद चौदहवीं शताब्दी तक के है ।  

भूमिगत अन्नागार-
गंधेश्वर मंदिर के उत्तर पूर्व में महानदी के किनारे विशाल क्षेत्र में फैले व्यापारिक स्थल पर कतार से समान आकार के तराशे गये प्रस्तर से निर्मित अन्नागार प्राप्त हुये है । ये अन्नागार 2.20x 0.80x2.20 मीटर आकार के हैं . अन्नागार को ढकने के लिये बड़े-बड़े प्रस्तर खंडों का उपयोग किया गया है । ये स्लाइडिंग है । एक अन्नागार में कम से कम 34 क्विंटल अनाज समा सकता है । अब तक 48 अन्नागार मिल चुके हैं । यह व्यवस्था विश्व में पहली बार मिली है । 
आयुर्वेदिक स्नानकुंड-
प्रत्येक अन्नागार समूह के सामने प्रस्तर निर्मित आर्युवेदिक स्नान कुंड प्रकाश में आये है । खुले बरामदों वाले ये स्नानकुंड अंदर से 1.80x1.80x0.60 मीटर आकार के हैं । इन कुडों में विभिन्न व्याधियों की चिक्तसा होती थी । प्रत्येक कुंड में पानी के निकास के लिये भूमिगत नालियाँ है । कुंडों के ऊपर छतें होती थीं
राजा की मूर्ति एवं कांसे की बौद्ध मूर्ति-
सफेद पत्थर से निर्मित राजा की मूर्ति त्रिभंग मुद्रा में है । जैसी कटार उनके कटि में लटकी है वैसी कटारें उत्खनन में प्राप्त हुई हैं ।
सिरपुर में धातु मूर्तियों का निर्माण होता था । उत्खनन में अब तक 80 धातु मूर्तियाँ, निर्माण के लिये आवश्यक सामग्री के साथ एक बौद्ध विहार से प्राप्त हुई है । सिरपुर में उत्खनन से तत्कालीन प्रतिमा विज्ञान, भवन निर्माण कला, जल प्रणालिका, नगर सन्निवेश तथा अन्य भौगोलिक जानकारियों पर प्रकाश पड़ा है । 
लक्ष्मण मंदिर

राम मंदिर

आनंद प्रभ कुटी एवं स्वस्तिक विहार

धातु प्रतिमायें

बौद्ध स्तूप-

सुरंग टीला मंदिर

बौद्ध विहार-अवशेष 

ईसा पूर्व दूसरी तीसरी शताब्दी का मार्ग तथा दुकानें-

आवासीय संरचना

भूमिगत अन्नागार-

आयुर्वेदिक स्नानकुंड

राजा की मूर्ति एवं कांसे की बौद्ध मूर्ति
छत्तीसगढ़ राज्य शासन एवं भारतीय पुरातत्वीय सर्वेक्षण, सिरपुर के पुरातत्वीय, महत्व को अधिकाधिक उजागार करने, अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन स्थल के रुप में विकसित करने तथा उपलब्ध सांस्कृतिक निधि को विश्व धरोहर के रुप में स्थापित करने की दिशा में सतत् प्रयासरत् है  ..............



!!कहाँ हो हिन्दू धर्म के ठेकेदारों !!

कहाँ हो हिन्दू धर्म के ठेकेदारों, जो मंदिरों के नाम पर करोडो चंदा लेकर बैठे हो? कहाँ हो हमारे सुखी संपन्न साधू संत?? पाकिस्तान के जुल्म से तंग आकर तक़रीबन १५० हिन्दू परिवार हाल में हिंदुस्तान आया हुआ है, और वो पाकिस्तान लौट कर नहीं जाना चाहता, उन्हें दो वक्त कि रोटी और सर  पर छत नहीं है, हिंदुस्तान में वो मारे मारे घूम रहें हैं, क्या इसी लिए आप लोग हिन्दुओं के ठेकेदार बने थे???



 ओहो.....मैं भी किसी जगा रहा हूँ ?.....जगाया तो उन्हें जाता है जो सो रहें हों |


या शायद अब तक मिडिया ने उनकी जाती नहीं बताई सिर्फ पाकिस्तानी हिन्दू कहा है  इसलिए कोई आगे नहीं आ रहा उनका हाल पूछने|



सरकार इन्हें वापस पाकिस्तान भेजने के लिए बहुत उत्सुक  दिख  रही है , वो इन्हें जल्द से जल्द पाकिस्तान भेजना चाहती  है ...पर क्या वो इतनी उत्सुकता  अवैध रूप से रह रहे बंगलादेशी और पाकिस्तानी मुसलमानों के लिए दिखाती है ?
शायद नहीं ....बल्कि उनके वोटर कार्ड भी बना देती है वोटकी खातिर ,ये बेचारे हिन्दू अपना जाली वोटर कार्ड नहीं बनवा सकते इसलिए शायद  सरकार इन्हें जल्दी से वापस भेजना चाहती हैं|
देखे :
http://www.ibtl.in/news/international/1671/muslim-voter-inflation-in-assam:-are-illegal-infiltrated-bangladeshis-being-legalised-
 
http://en.wikipedia.org/wiki/Illegal_immigration_in_इंडिया


चलते चलते  दुष्यंत जी की कविता याद आ गाई...
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

!! अहिंसा परमो धर्म की निति के कारण देश हुआ गुलाम !!

भारत लगभग एक हज़ार वर्ष विदेशियों का गुलाम रहा जिसमे मुस्लिम शासको ने लम्बी  अवधि तक भारत पर शासन किया, क्या कारण था की भारत जो प्राचीन काल में वीरो की भूमि कहलाता  था  उनकी संताने इतनी आसानी से हार मान गयी थी? इसका मूल कारण बौध और जैन धर्म का अति अहिंसावादी होना था|
 बौध और जैन धर्म मूल शिक्षा 'अहिंसा ' है , जैन धर...्म तो 'अहिंसा परमो धर्म ' मन गया है |
सम्राट अशोक के बौध धर्म अपनाने के बाद उसने युद्ध करना बिलकुल छोड़ दिया था और अहिंसा का प्रचार-प्रसार करने लगा था यहाँ तक की उसने शिकार खेलने तक पर रोक लगा दी थी| युद्ध न करने के कारण सैनिक कमजोर पड़ते गए और  वो अपनी सैन्य कलाएं  भूलते गए और इसी प्रकार से अहिंसा का प्रजा  के बीच अधिक प्रचार करने से प्रजा भी अहिंसक हो गयी जो आसानी से किसी भी आक्रमणकारी का शिकार बन सकती थी|
यही कारण था की ७११ में जब मुहम्मद बिन कासिम ने  मात्र ३००० सैनिको के साथ  सिंध पर आक्रमण किया तो उसने आसानी से दाहिर को हरा दिया जो उस समय सिंध का राजा हुआ करता था क्यूँ की वहाँ  बौधो की संख्या अधिक थी| उसके बाद गौरी-गजनवी आये और उन्होंने अफगानिस्तान जहाँ बौधो का शासन था उन्होंने वहा से  बौधो का नामोनिशान मिटा दिया|
इसी तरह से जैन धर्म भी अति अहिंसा वादी होने के कारण विदेशी आक्रमणकारियों का मुकाबला नहीं कर सका चूँकि ये दोनों ही धर्म सनातन धर्म की शाखांए मानी जाती है और  इनकी शिक्षाओं का प्रभाव हिंन्दुओ पर पड़ा और वो भी अहिंसक हो गए जिस कारण वो भी मुगलों का सामना नहीं कर पायें और गुलामी सही |
 पर प्रशन यह भी उठाता है की जब लाडाकू जाती के हाथ में सता आ गयी फिर देश क्यों गुलाम हुआ ???