मंगलवार, 17 जनवरी 2012

!!कैफ़ी आज़मी जी की गजले !!

नोट --सभी गजले कैफ़ी आजमी जे के है जो गूगल से कापी - पेस्ट की हुई है पाठको के लिए ---------
आवारा सज्दे
इक यही सोज़े-ए-निहाँ कुल मिरा सरमाया है !
दोस्तो ! मैं किसे यह सोज़-ए-निहाँ नज़्र करूँ ? !
...किसको दिल नज़्र करूँ और किसे जाँ नज़्र करूँ !
...अपनी लाश आप उठाना कोई आसान नहीं !
दस्तो-बाज़ू मेरे नाकारा हुए जाते हैं !
जिनसे हर दौर में चमकी है तुम्हारी देहलीज़,
आज सिज्दे वही आवारा हुए जाते हैं !
राह में टूट गये पाँव तो मालूम हुआ
जुज़ मिटे और मेरा रहनुमा कोई नहीं !
एक के बाद ख़ुदा एक चला आता था :
कह दिया अक़्ल ने तंग आके-ख़ुदा कोई नहीं !



ऐसा झोंका भी इक आया था के दिल बुझने लगा
तूने इस हाल में भी मुझको संभाले रक्खा

कुछ अंधेरे जो मिरे दम से मिले थे मुझको
आफ़रीं तुझ को, के नाम उनका उजाले रक्खा

मेरे ये सज़्दे जो आवारा भी बदनाम भी हैं
अपनी चौखट पे सजा ले जो तिरे काम के हों
अंदेशे
रूह बेचैन है इक दिल की अज़ीयत क्या है
दिल ही शोला है तो ये सोज़-ए-मोहब्बत क्या है
वो मुझे भूल गई इसकी शिकायत क्या है
रंज तो ये है के रो-रो के भुलाया होगा
वो कहाँ और कहाँ काहिफ़-ए-ग़म सोज़िश-ए-जाँ
उस की रंगीन नज़र और नुक़ूश-ए-हिरमा
उस का एहसास-ए-लतीफ़ और शिकस्त-ए-अरमा
तानाज़न एक ज़माना नज़र आया होगा
झुक गई होगी जवाँ-साल उमंगों की जबीं
मिट गई होगी ललक डूब गया होगा यक़ीं
छा गया होगा धुआँ घूम गई होगी ज़मीं
अपने पहले ही घरोंदे को जो ढाया होगा
दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाये होँगे
अश्क आँखों ने पिये और न बहाये होँगे
बन्द कमरे में जो ख़त मेरे जलाये होँगे
इक-इक हर्फ़ जबीं पर उभर आया होगा
उस ने घबरा के नज़र लाख बचाई होगी
मिट के इक नक़्श ने सौ शक़्ल दिखाई होगी
मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तरफ़ मुझ को तड़पता हुआ पाया होगा
बेमहल छेड़ पे जज़्बात उबल आये होँगे
ग़म पशेमा तबस्सुम में ढल आये होँगे
नाम पर मेरे जब आँसू निकल आये होँगे
सर न काँधे से सहेली के उठाया होगा
ज़ुल्फ़ ज़िद कर के किसी ने जो बनाई होगी
रूठे जलवों पे ख़िज़ाँ और भी छाई होगी
बर्क़ आँखों ने कई दिन न गिराई होगी
रंग चेहरे पे कई रोज़ न आया होगा
होके मजबूर मुझे उस ने भुलाया होगा
ज़हर चुप कर के दवा जान के ख़ाया होगा
अज़ा में बहते थे आँसू यहाँ
अज़ा में बहते थे आँसू यहाँ, लहू तो नहीं
ये कोई और जगह है ये लखनऊ तो नहीं
यहाँ तो चलती हैं छुरिया ज़ुबाँ से पहले
ये मीर अनीस की, आतिश की गुफ़्तगू तो नहीं
चमक रहा है जो दामन पे दोनों फ़िरक़ों के
बग़ौर देखो ये इस्लाम का लहू तो नहीं
अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर
अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी आया न करो
मुझ से बिखरे हुये गेसू नहीं देखे जाते
सुर्ख़ आँखों की क़सम काँपती पलकों की क़सम
थर-थराते हुये आँसू नहीं देखे जाते
अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी आया न करो
छूट जाने दो जो दामन-ए-वफ़ा छूट गया
क्यूँ ये लग़ज़ीदा ख़रामी ये पशेमाँ नज़री
तुम ने तोड़ा नहीं रिश्ता-ए-दिल टूट गया
अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी आया न करो
मेरी आहों से ये रुख़सार न कुम्हला जायें
ढूँडती होगी तुम्हें रस में नहाई हुई रात
जाओ कलियाँ न कहीं सेज की मुरझा जायें
अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी आया न करो
मैं इस उजड़े हुये पहलू में बिठा लूँ न कहीं
लब-ए-शीरीं का नमक आरिज़-ए-नमकीं की मिठास
अपने तरसे हुये होंठों में चुरा लूँ न कहीं

आग़ोश-ए-तसव्वुर=सपनों का आलिंगन ; लग़ज़ीदा ख़रामी=सोच-सोच के चलना ; पशेमाँ नज़री=पछतावे से भरी निगाह ; रुख़सार=गाल ; लब-ए-शीरीं=मधुर होंठ ; आरिज़-ए-नमकीं=नमकीन गाल
आज सोचा तो आँसू भर आए
आज सोचा तो आँसू भर आए
मुद्दतें हो गईं मुस्कुराए

हर कदम पर उधर मुड़ के देखा -२
उनकी महफ़िल से हम उठ तो आए
आज सोचा ...

दिल की नाज़ुक रगें टूटती हैं -२
याद इतना भी कोई न आए
आज सोचा ...

रह गई ज़िंदगी दर्द बनके -२
दर्द दिल में छुपाए छुपाए

इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े
इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े
हँसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े
जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े
एक तुम के तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है
एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े
मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े
साक़ी सभी को है ग़म-ए-तश्नालबी मगर
मय है उसी के नाम पे जिस के उबल पड़े
इब्ने-मरियम
तुम ख़ुदा हो
ख़ुदा के बेटे हो
या फ़क़त अमन के पयमबर हो
य किसी का हसीं तखय्युल हो
जो भी हो मुझ को अच्छे लगते हो
मुझ को सच्चे लगते हो
इस सितारे में जिस में सदियों से
झूठ और किज़्ब का अंधेरा है
इस सितारे में जिस को हर रुख़ से
रंगती सरहदों ने घेरा है
इस सितारे मे, न जिस की आबादी
अमन बोती है जंग काटती है
रात पीती है नूर मुखडो का
सुबह सीनों का ख़ून चाटती है
तुम न होते तो जाने क्या होता
तुम न होते तो इस सितारे में
देवता राक्षस ग़ुलाम इमाम
पारसा रिंद रहबर रहज़न
बराह्मन शैख़ पादरी भिक्षु
सभी होते मगर हमारे लिये
कौन चढता ख़ुशी से सूली पर
झोंपडों में घिरा ये वीराना
मछलियाँ दिन में सूख़ती हैं जहाँ
बिल्लियाँ दूर बैठी रहती हैं
और ख़ारिशज़दा से कुछ कुत्ते
लेटे रहते हैं बे-नियाज़ाना
दम मरोड़े के कोई सर कुचले
काटना क्या ये भोँकते भी नहीं
और जब वो दहकता अंगारा
छन से सागर में डूब जाता है
तीरगी ओढ लेती है दुनिया
कश्तियाँ कुछ किनारे आती हैं
भांग गांजा चरस शराब अफ़ीम
जो भी लायें जहाँ से भी लायें
दौड़ते हैं इधर से कुछ साये
और सब कुछ उतार लाते हैं
गाड़ी जाती है अदल की मीज़ान
जिस का हिस्सा उसी को मिलता है
तुम यहाँ क्यों खड़े हो मुद्दत से
ये तुम्हारी थकी-थकी भेड़ें
रात जिन को ज़मीं के सीने पर
सुबह होते उँडेल देती है
मंडियों दफ़्तरों मिलों की तरफ़
हाँक देती ढकेल देती है
रास्ते में ये रुक नहीं सकतीं
तोड़ के घुटने झुक नहीं सकतीं
इन से तुम क्या तवक़्क़ो रखते हो
भेड़िया इन के साथ चलता है
तकते रहते हो उस सड़क की तरफ़
दफ़्न जिस में कई कहानियाँ हैं
दफ़्न जिस में कई जवानियाँ हैं
जिस पे इक साथ भागी फिरती हैं
ख़ाली जेबें भी और तिजोरियाँ भी
जाने किस का है इंतज़ार तुम्हें
मुझ को देख़ो के मैं वही तो हूँ
जिस को कोड़ों की छाँव में दुनिया
बेचती भी ख़रीदती भी थी
मुझ को देख़ो के मैं वही तो हूँ
जिस को खेतों में ऐसे बाँधा था
जैसे मैं उन का एक हिस्सा था
खेत बिकते तो मैं भी बिकता था
मुझ को देख़ो के मैं वही तो हूँ
कुछ मशीनें बनाई जब मैंने
उन मशीनों के मालिकों ने मुझे
बे-झिझक उनमें ऐसे झौंक दिया
जैसे मैं कुछ नहीं हूँ ईंधन हूँ
मुझ को देखो के मैं थका हारा
फिर रहा हूँ युगों से आवारा
तुम यहाँ से हटो तो आज की रात
सो रहूँ मैं इसी चबूतरे पर
तुम यहाँ से हटो ख़ुदा के लिये
जाओ वो विएतनाम के जंगल
उस के मस्लूब शहर ज़ख़्मी गाँव
जिन को इंजील पड़ने वालों ने
रौंद डाला है फूँक डाला है
जाने कब से पुकारते हैं तुम्हें
जाओ इक बार फिर हमारे लिये
तुम को चढ़ना पड़ेगा सूली पर

फ़क़त=सिर्फ़ ; पयम्बर=अवतार ; तखय्युल=कल्पना ; किज़्ब= झूठ ; रुख=तरफ़ ; नूर=ज्योती ; पारसा=पवित्र ; रहबर=पथ-प्रदर्शक ; रहज़न=लुटेरे ; ख़ारिशज़दा=खुजली से पीडित ; बे-नियाज़ाना=निश्चिन्त ; अदल=न्याय ; खयानत=बेइमानी ; मस्लूब=सलीब पर चढाये गये ; इंजील=बाइबल
एक दुआ
अब और क्या तेरा बीमार बाप देगा तुझे
बस एक दुआ कि ख़ुदा तुझको कामयाब करे
वो टाँक दे तेरे आँचल में चाँद और तारे
तू अपने वास्ते जिस को भी इंतख़ाब करे
ऐ सबा! लौट के किस शहर से तू आती है
ऐ सबा! लौट के किस शहर से तू आती है?
तेरी हर लहर से बारूद की बू आती है!

खून कहाँ बहता है इन्सान का पानी की तरह
जिस से तू रोज़ यहाँ करके वजू आती है?

धाज्जियाँ तूने नकाबों की गिनी तो होंगी
यूँ ही लौट आती है या कर के वजू आती है?

अपने सीने में चुरा लाई है किसे की आहें
मल के रुखसार पे किस किस का लहू आती है!

औरत
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

कल्ब-ए-माहौल में लरज़ाँ शरर-ए-ज़ंग हैं आज
हौसले वक़्त के और ज़ीस्त के यक रंग हैं आज
आबगीनों में तपां वलवला-ए-संग हैं आज
हुस्न और इश्क हम आवाज़ व हमआहंग हैं आज
जिसमें जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

ज़िन्दगी जहद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नक़्हत ख़म-ए-गेसू में नहीं
ज़न्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिये
फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा तेरे लिये
क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिये
ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिये
रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

क़द्र अब तक तिरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझ में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं
तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उनवान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

तोड़ कर रस्म के बुत बन्द-ए-क़दामत से निकल
ज़ोफ़-ए-इशरत से निकल वहम-ए-नज़ाकत से निकल
नफ़स के खींचे हुये हल्क़ा-ए-अज़मत से निकल
क़ैद बन जाये मुहब्बत तो मुहब्बत से निकल
राह का ख़ार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

तोड़ ये अज़्म शिकन दग़दग़ा-ए-पन्द भी तोड़
तेरी ख़ातिर है जो ज़ंजीर वह सौगंध भी तोड़
तौक़ यह भी है ज़मर्रूद का गुल बन्द भी तोड़
तोड़ पैमाना-ए-मरदान-ए-ख़िरदमन्द भी तोड़
बन के तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

तू फ़लातून व अरस्तू है तू ज़ोहरा परवीन
तेरे क़ब्ज़े में ग़रदूँ तेरी ठोकर में ज़मीं
हाँ उठा जल्द उठा पा-ए-मुक़द्दर से ज़बीं
मैं भी रुकने का नहीं वक़्त भी रुकने का नहीं
लड़खड़ाएगी कहाँ तक कि संभलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतिशार सा है
कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतिशार सा है
जहाँ को अपनी तबाही का इंतिज़ार सा है

मनु की मछली, न कश्ती-ए-नूह और ये फ़ज़ा
कि क़तरे-क़तरे में तूफ़ान बेक़रार सा है

मैं किसको अपने गरेबाँ का चाक दिखलाऊँ
कि आज दामन-ए-यज़दाँ भी तार-तार-सा है

सजा-सँवार के जिसको हज़ार नाज़ किए
उसी पे ख़ालिक़-ए-कोनैन शर्मसार सा है

तमाम जिस्म है बेदार, फ़िक्र ख़ाबीदा
दिमाग़ पिछले ज़माने की यादगार सा है

सब अपने पाँव पे रख-रख के पाँव चलते हैं
ख़ुद अपने दोश पे हर आदमी सवार सा है

जिसे पुकारिए मिलता है इस खंडहर से जवाब
जिसे भी देखिए माज़ी के इश्तेहार सा है

हुई तो कैसे बियाबाँ में आके शाम हुई
कि जो मज़ार यहाँ है मेरे मज़ार सा है

कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले
उस इंक़लाब का जो आज तक उधार सा है

कर चले हम फ़िदा
कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो
साँस थमती गई, नब्ज़ जमती गई
फिर भी बढ़ते क़दम को न रुकने दिया
कट गए सर हमारे तो कुछ ग़म नहीं
सर हिमालय का हमने न झुकने दिया

मरते-मरते रहा बाँकपन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

ज़िंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर
जान देने के रुत रोज़ आती नहीं
हस्न और इश्क दोनों को रुस्वा करे
वह जवानी जो खूँ में नहाती नहीं

आज धरती बनी है दुलहन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

राह कुर्बानियों की न वीरान हो
तुम सजाते ही रहना नए काफ़िले
फतह का जश्न इस जश्न‍ के बाद है
ज़िंदगी मौत से मिल रही है गले

बांध लो अपने सर से कफ़न साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

खींच दो अपने खूँ से ज़मी पर लकीर
इस तरफ आने पाए न रावण कोई
तोड़ दो हाथ अगर हाथ उठने लगे
छू न पाए सीता का दामन कोई
राम भी तुम, तुम्हीं लक्ष्मण साथियो

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो
कोई ये कैसे बता ये कि वो तन्हा क्यों हैं
कोई ये कैसे बता ये के वो तन्हा क्यों हैं
वो जो अपना था वो ही और किसी का क्यों हैं
यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यों हैं
यही होता हैं तो आखिर यही होता क्यों हैं
एक ज़रा हाथ बढ़ा, दे तो पकड़ लें दामन
उसके सीने में समा जाये हमारी धड़कन
इतनी क़ुर्बत हैं तो फिर फ़ासला इतना क्यों हैं
दिल-ए-बरबाद से निकला नहीं अब तक कोई
एक लुटे घर पे दिया करता हैं दस्तक कोई
आस जो टूट गयी फिर से बंधाता क्यों हैं
तुम मसर्रत का कहो या इसे ग़म का रिश्ता
कहते हैं प्यार का रिश्ता हैं जनम का रिश्ता
हैं जनम का जो ये रिश्ता तो बदलता क्यों हैं

कुर्बत=समीपता ; मसर्रत=खुशी
खार-ओ-खस तो उठें, रास्ता तो चले
खार-ओ-खस तो उठें, रास्ता तो चले
मैं अगर थक गया, काफ़ला तो चले
चांद, सूरज, बुजुर्गों के नक्श-ए-क़दम
खैर बुझने दो उनको हवा तो चले
हाकिम-ए-शहर, यह भी कोई शहर है
मस्जिदें बंद हैं, मैकदा तो चले
उसको मज़हब कहो या सिआसत कहो!
खुद्कुशी का हुनर तुम सिखा तो चले
इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाउँगा
आप ईंटों की हुरमत बचा तो चले
बेल्चे लाओ, खोलो ज़मीन की तहें
मैं कहाँ दफ़न हूँ, कुछ पता तो चले
चरागाँ
एक दो भी नहीं छब्बीस दिये
एक इक करके जलाये मैंने

इक दिया नाम का आज़ादी के
उसने जलते हुये होठों से कहा
चाहे जिस मुल्क से गेहूँ माँगो
हाथ फैलाने की आज़ादी है

इक दिया नाम का खुशहाली के
उस के जलते ही यह मालूम हुआ
कितनी बदहाली है
पेत खाली है मिरा, ज़ेब मेरी खाली है

इक दिया नाम का यक़जिहती के
रौशनी उस की जहाँ तक पहुँची
क़ौम को लड़ते झगड़ते देखा
माँ के आँचल में हैं जितने पैबंद
सब को इक साथ उधड़ते देखा

दूर से बीवी ने झल्ला के कहा
तेल महँगा भी है, मिलता भी नहीं
क्यों दिये इतने जला रक्खे हैं
अपने घर में झरोखा न मुन्डेर
ताक़ सपनों के सजा रक्खे हैं

आया गुस्से का इक ऐसा झोंका
बुझ गये सारे दिये-
हाँ मगर एक दिया, नाम है जिसका उम्मीद
झिलमिलाता ही चला जाता है
झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है कि नहीं
झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है कि नहीं
दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं
तू अपने दिल की जवाँ धड़कनों को गिन के बता
मेरी तरह तेरा दिल बेक़रार है कि नहीं
वो पल के जिस में मुहब्बत जवान होती है
उस एक पल का तुझे इंतज़ार है कि नहीं
तेरी उम्मीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को
तुझे भी अपने पे ये ऐतबार है कि नहीं
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो
आँखों में नमी हँसी लबों पर
क्या हाल है क्या दिखा रहे हो
बन जायेंगे ज़हर पीते पीते
ये अश्क जो पीते जा रहे हो
जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है
तुम क्यों उन्हें छेड़े जा रहे हो
रेखाओं का खेल है मुक़द्दर
रेखाओं से मात खा रहे हो
तुम परेशां न हो

तुम परेशां न हो बाब-ए-करम वा न करो
आैर कुछ देर पुकारूंगा चला जाऊंगा
इसी कूचे में जहां चांद उगा करते थे
शब-ए-तारीक गुज़ारूंगा चला जाऊंगा
रास्ता भूल गया या यहां मंिज़ल है मेरी
कोई लाया है या ख़ुद आया हूं मालूम नहीं
कहते हैं कि नज़रें भी हसीं होती हैं
मैं भी कुछ लाया हूं क्या लाया मालूम नहीं
यूं तो जो कुछ था मेरे पास मैं सब कुछ बेच आया
कहीं इनाम मिला आैर कहीं क़ीमत भी नहीं
कुछ तुम्हारे लिए आंखों में छुपा रक्खा है
देख लो आैर न देखो तो शिकायत भी नहीं
फिर भी इक रात में सौ तरह के मोड़ आते हैं
काश तुम को कभी तन्हाई का एहसास न हो
काश ऐसा न हो ग़ैर-ए-राह-ए-दुनिया तुम को
आैर इस तरह कि जिस तरह कोई पास न हो
आज की रात जो मेरी तरह तन्हा है
मैं किस तरह गुज़ारूंगा चला जाऊंगा
तुम परेशां न हो बाब-ए-करम वा न करो
आैर कुछ देर पुकारूंगा चला जाऊ
दायरा
रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे
फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ
बारहा तोड़ चुका हूँ जिन को
इन्हीं दीवारों से टकराता हूँ
रोज़ बसते हैं कई शहर नये
रोज़ धरती में समा जाते हैं
ज़लज़लों में थी ज़रा सी गिरह
वो भी अब रोज़ ही आ जाते हैं
जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत
न कहीं धूप न साया न सराब
कितने अरमाँ है किस सहरा में
कौन रखता है मज़ारों का हिसाब
नफ़्ज़ बुझती भी भड़कती भी है
दिल का मामूल है घबराना भी
रात अँधेरे ने अँधेरे से कहा
इक आदत है जिये जाना भी
क़ौस एक रंग की होती है तुलू'अ
एक ही चाल भी पैमाना भी
गोशे गोशे में खड़ी है मस्जिद
मुश्किल क्या हो गई मयख़ाने की
कोई कहता था समंदर हूँ मैं
और मेरी जेब में क़तरा भी नहीं
ख़ैरियत अपनी लिखा करता हूँ
अब तो तक़दीर में ख़तरा भी नहीं
अपने हाथों को पढ़ा करता हूँ
कभी क़ुरान कभी गीता की तरह
चंद रेखाओं में समाऊँ मैं
ज़िन्दगी क़ैद है सीता की तरह
राम कब लौटेंगे मालूम नहीं
काश रावन ही कोई आ जाता
दोशीज़ा मालिन
लो पौ फटी वह छुप गई तारों की अंज़ुमन
लो जाम-ए-महर से वह छलकने लगी किरन

खुपने लगा निगाह में फितरत का बाँकपन
जलवे ज़मीं पे बरसे ज़मीं बन गई दुल्हन

गूँजे तराने सुबह के इक शोर हो गया
आलम तमाम रस में सराबोर हो गया

फूली शफ़क फ़ज़ा में हिना तिलमिला गई
इक मौज़-ए-रंग काँप के आलम पे छा गई

कुल चाँदनी सिमट के गिलो में समा गई
ज़र्रे बने नुजूम ज़मीं जगमगा गई

छोड़ा सहर ने तीरगी-ए-शब को काट के
उड़ने लगी हवा में किरन ओस चाट के

मचली जबीने-शर्क पे इस तरह मौज-ए-नूर
लहरा के तैरने लगी आलम में बर्क-ए-तूर

उड़ने लगी शमीय छलकने लगा सुरूर
खिलने लगे शिगूके चहकने लगे तयूर

झोंके चले हवा के शजर झूमने लगे
मस्ती में फूल काँटों का मुँह चूमने लगे

थम थम के जूफ़िशाँ हुआ ज़र्रों पे आफ़ताब
छिड़का हवा ने सब्जा-ए-ख्वाबीदा पर गुलाब

मुरझायी पत्तियों में मचलने लगा शबाब
लर्ज़िश हुई गुलों में बरसने लगी शराब

रिन्दाने-मस्त और भी बदमस्त हो गये
थर्रा के होंठ ज़ाम में पेवस्त हो गये

दोशीज़ा एक खुशकदो-खुशरंगो-खूबरू
मालिन की नूरे-दीद गुलिस्ताँ की आबरू

महका रही है फूलों से दामान-ए-आरजू
तिफ़ली लिये है गोद में तूफ़ाने-रंगो-बू

रंगीनियों में खेली, गुलों में पली हुई
नौरस कली में कौसे-कज़ह है ढली हुई

मस्ती में रुख पे बाल-ए-परीशाँ किये हुये
बादल में शमा-ए-तूर फ़रोज़ाँ किये हुये

हर सिम्त नक्शे-पा से चरागाँ किये हुये
आँचल को बारे-गुल से गुलिस्ताँ किये हुये

लहरा रही है बादे-सहर पाँव चूम के
फिरती है तीतरी सी गज़ब झूम झूम के

ज़ुल्फ़ों में ताबे-सुंबुले-पेचाँ लिये हुये
आरिज़ पे शोख रंगे-गुलिस्ताँ लिये हुये

आँखों में बोलते हुये अरमाँ लिये हुये
होठों पे आबे-लाले-बदख्शाँ लिये हुये

फितरत ने तौल तौल के चश्मे-कबूल में
सारा चमन निचोड़ दिया एक फूल में

ऐ हुस्ने-बेनियाज़ खुदी से न काम ले
उड़ कर शमीमे-गुल कहीं आँचल न थाम ले

कलियों का ले पयाम गुलों का सलाम ले
कैफ़ी से हुस्ने-दोस्त का ताज़ा कलाम ले

शाइर का दिल है मुफ़्त में क्यों दर्दमंद हो
इक गुल इधर भी नज़्म अगर यह पसंद हो

दो-पहर /
ये जीत-हार तो इस दौर का मुक्द्दर है
ये दौर जो के पुराना नही नया भी नहीं
ये दौर जो सज़ा भी नही जज़ा भी नहीं
ये दौर जिसका बा-जहिर कोइ खुदा भी नहीं
तुम्हारी जीत अहम है ना मेरी हार अहम
के इब्तिदा भी नहीं है ये इन्तेहा भी नहीं
शुरु मारका-ए-जान अभी हुआ भी नहीं
शुरु तो ये हंगाम-ए-फ़ैसला भी नहीं
पयाम ज़ेर-ए-लब अब तक है सूर-ए-इसराफ़ील
सुना किसी ने किसी ने अभी सुना भी नहीं
किया किसी ने किसी ने यकीं किया भी नहीं
उठा जमीं से कोई, कोई उठा भी नहीं
[पयाम = संदेसा ]
कदम कदम पर दिया है रहज़नों ने फ़रेब
के अब निगाह मे तौकीर-ए-रहनुमा भी नहीं
उसे समझते है मंजिल जो रास्ता भी नहीं
वहाँ लगाते हैं डेरा जहाँ वफ़ा भी नही
[रहज़न = चोर ]

ये कारवाँ है तो अनज़ाम-ए-कारवाँ मालूम
के अजनबी भी नहीं कोई आशना भी नहीं
किसी से खुश भी नहीं कोई खफ़ा भी नहीं
किसी का हाल मुड़ कर कोइ पूछता भी नहीं

नज़राना
तुम परेशान न हो बाब-ए-करम वा न करो
और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा
इसी कूचे में जहाँ चाँद उगा करते हैं
शब-ए-तारीक गुज़ारूँगा चला जाऊँगा
रास्ता भूल गया या यहाँ मंज़िल है मेरी
कोई लाया है या ख़ुद आया हूँ मालूम नहीं
कहते हैं हुस्न कि नज़रें भी हसीं होती हैं
मैं भी कुछ लाया हूँ क्या लाया हूँ मालूम नहीं
यूँ तो जो कुछ था मेरे पास मैं सब कुछ बेच आया
कहीं इनाम मिला और कहीं क़ीमत भी नहीं
कुछ तुम्हारे लिये आँखों में छुपा रक्खा है
देख लो और न देखो तो शिकायत भी नहीं
एक तो इतनी हसीं दूसरे ये आराइश
जो नज़र पड़ती है चेहरे पे ठहर जाती है
मुस्कुरा देती हो रसमन भी अगर महफ़िल में
इक धनक टूट के सीनों में बिखर जाती है
गर्म बोसों से तराशा हुआ नाज़ुक पैकर
जिस की इक आँच से हर रूह पिघल जाती है
मैं ने सोचा है तो सब सोचते होंगे शायद
प्यास इस तरह भी क्या साँचे में ढल जाती है
क्या कमी है जो करोगी मेरा नज़राना क़ुबूल
चाहने वाले बहुत चाह के अफ़साने बहुत
एक ही रात सही गर्मी-ए-हंगामा-ए-इश्क़
एक ही रात में जल मरते हैं परवाने बहुत
फिर भी इक रात में सौ तरह के मोड़ आते हैं
काश तुम को कभी तनहाई का एहसास न हो
काश ऐसा न हो ग़ैर-ए-राह-ए-दुनिया तुम को
और इस तरह कि जिस तरह कोई पास न हो
आज की रात जो मेरी तरह तन्हा है
मैं किस तरह गुज़ारूँगा चला जाऊँगा
तुम परेशाँ न हो बाब-ए-करम वा न करो
और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा
पत्थर के ख़ुदा वहाँ भी पाये
पत्थर के ख़ुदा वहाँ भी पाये
हम चाँद से आज लौट आये
दीवारें तो हर तरफ़ खड़ी हैं
क्या हो गया मेहरबाँ साये
जंगल की हवायें आ रही हैं
काग़ज़ का ये शहर उड़ न जाये
लैला ने नया जनम लिया है
है कै़स कोई जो दिल लगाये
है आज ज़मीन का गुसल-ए-सहत
जिस दिल में हो जितना ख़ून लाये
सहरा सहरा लहू के ख़ेमे
फिर प्यासे लब-ए-फ़ुरात आये
पशेमानी
मैं ये सोच कर उस के दर से उठा था
के वो रोक लेगी मना लेगी मुझको
कदम ऐसे अंदाज से उठ रहे थे
के वो आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको
हवाओं मे लहराता आता था दामन
के दामन पकड़ के बैठा लेगी मुझको
मगर उस ने रोका, ना मुझको मनाया
ना अवाज़ ही दी, ना वापस बुलाया
ना दामन ही पकड़ा, ना मुझको बिठाया
मैं आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता ही आया
यहाँ तक के उस से जुदा हो गया मैं
पहला सलाम
एक रंगीन झिझक एक सादा पयाम
कैसे भूलूँ किसी का वो पहला सलाम
फूल रुख़्सार के रसमसाने लगे
हाथ उठा क़दम डगमगाने लगे
रंग-सा ख़ाल-ओ-ख़द से छलकने लगा
सर से रंगीन आँचल ढलकने लगा
अजनबियत निगाहें चुराने लगी
दिन धड़कने लगा लहर आने लगी
साँस में इक गुलाबी गिरह पड़ गई
होंठ थरथराये सिमटे नज़र गड़ गई
रह गया उम्र भर के लिये ये हिजाब
क्यों न संभला हुआ दे सका मैं जवाब
क्यों मैं बे-क़स्द बे-अज़्म बे-वास्ता
दूसरी सम्त घबरा के तकने लगा
बस इक झिझक है यही
बस इक झिझक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में
कि तेरा ज़िक्र भी आयेगा इस फ़साने में
बरस पड़ी थी जो रुख़ से नक़ाब उठाने में
वो चाँदनी है अभी तक मेरे ग़रीब-ख़ाने में
इसी में इश्क़ की क़िस्मत बदल भी सकती थी
जो वक़्त बीत गया मुझ को आज़माने में
ये कह के टूट पड़ा शाख़-ए-गुल से आख़िरी फूल
अब और देर है कितनी बहार आने में
मकान
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुटपाथ पे नींद आएगी
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी
ये ज़मीन तब भी निगल लेने पे आमादा थी
पाँव जब टूटी शाख़ों से उतारे हम ने
इन मकानों को ख़बर है न मकीनों को ख़बर
उन दिनों की जो गुफ़ाओं में गुज़ारे हम ने
हाथ ढलते गये साँचे में तो थकते कैसे
नक़्श के बाद नये नक़्श निखारे हम ने
की ये दीवार बुलन्द, और बुलन्द, और बुलन्द
बाम-ओ-दर और ज़रा, और सँवारे हम ने
आँधियाँ तोड़ लिया करती थीं शमों की लौएं
जड़ दिये इस लिये बिजली के सितारे हम ने
बन गया क़स्र तो पहरे पे कोई बैठ गया
सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश-ए-तामीर लिये
अपनी नस-नस में लिये मेहनत-ए-पैहम की थकन
बंद आँखों में इसी क़स्र की तस्वीर लिये
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक
रात आँखों में ख़टकती है स्याह तीर लिये
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात न फ़ुट-पाथ पे नींद आयेगी
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी

मकीन=मकानों में रहने वाले ; बाम-ओ-दर=छत और दरवाज़े ; कस्र=बंगला ; शोरिश=शोरशराबा ; मेहनत-ए-पैहम=लगातार काम करना

मशवरे
पीरी:
ये आँधी ये तूफ़ान ये तेज़ धारे
कड़कते तमाशे गरजते नज़ारे
अंधेरी फ़ज़ा साँस लेता समन्दर
न हमराह मिशाल न गर्दूँ पे तारे
मुसाफ़िर ख़ड़ा रह अभी जी को मारे
शबाब:
उसी का है साहिल उसी के कगारे
तलातुम में फँसकर जो दो हाथ मारे
अंधेरी फ़ज़ा साँस लेता समन्दर
यूँ ही सर पटकते रहेंगे ये धारे
कहाँ तक चलेगा किनारे-किनारे

पीरी=बुढापा ; शबाब=यौवन ; फ़ज़ा=वातावरण ; मिशाल=मशाल ; गर्दूँ=आकाश ; साहिल=किनारा ; तलातुम=बाढ
मेरे दिल में तू ही तू है
मेरे दिल में तू ही तू है दिल की दवा क्या करूँ
दिल भी तू है जाँ भी तू है तुझपे फ़िदा क्या करूँ
ख़ुद को खोकर तुझको पा कर क्या क्या मिला क्या कहूँ
तेरा होके जीने में क्या क्या आया मज़ा क्या कहूँ
कैसे दिन हैं कैसी रातें कैसी फ़िज़ा क्या कहूँ
मेरी होके तूने मुझको क्या क्या दिया क्या कहूँ
मेरी पहलू में जब तू है फिर मैं दुआ क्या करूँ
दिल भी तू है जाँ भी तू है तुझपे फ़िदा क्या करूँ
है ये दुनिया दिल की दुनिया, मिलके रहेंगे यहाँ
लूटेंगे हम ख़ुशियाँ हर पल, दुख न सहेंगे यहाँ
अरमानों के चंचल धारे ऐसे बहेंगे यहाँ
ये तो सपनों की जन्नत है सब ही कहेंगे यहाँ
ये दुनिया मेरे दिल में बसी है दिल से जुदा क्या करूँ
दिल भी तू है जाँ भी तू है तुझपे फ़िदा क्या करूँ

मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता
मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ नहीं मिलता
नई ज़मीं नया आसमाँ भी मिल जाये
नये बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता
वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मेरा
किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता
वो मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे
कि जिन में शोले तो शोले धुआँ नहीं मिलता
जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ
यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलता
खड़ा हूँ कब से मैं चेहरों के एक जंगल में
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता
वक्त ने किया क्या हंसी सितम

वक्त ने किया क्या हंसी सितम
तुम रहे न तुम, हम रहे न हम ।

बेक़रार दिल इस तरह मिले
जिस तरह कभी हम जुदा न थे
तुम भी खो गए, हम भी खो गए
इक राह पर चल के दो कदम ।

जायेंगे कहाँ सूझता नहीं
चल पड़े मगर रास्ता नहीं
क्या तलाश है, कुछ पता नहीं
बुन रहे क्यूँ ख़्वाब दम-ब-दम ।
वतन के लिये
यही तोहफ़ा है यही नज़राना
मैं जो आवारा नज़र लाया हूँ
रंग में तेरे मिलाने के लिये
क़तरा-ए-ख़ून-ए-जिगर लाया हूँ
ऐ गुलाबों के वतन
पहले कब आया हूँ कुछ याद नहीं
लेकिन आया था क़सम खाता हूँ
फूल तो फूल हैं काँटों पे तेरे
अपने होंटों के निशाँ पाता हूँ
मेरे ख़्वाबों के वतन
चूम लेने दे मुझे हाथ अपने
जिन से तोड़ी हैं कई ज़ंजीरे
तूने बदला है मशियत का मिज़ाज
तूने लिखी हैं नई तक़दीरें
इंक़लाबों के वतन
फूल के बाद नये फूल खिलें
कभी ख़ाली न हो दामन तेरा
रोशनी रोशनी तेरी राहें
चाँदनी चाँदनी आंगन तेरा
माहताबों के वतन
वो कभी धूप कभी छाँव लगे
वो कभी धूप कभी छाँव लगे
मुझे क्या-क्या न मेरा गाँव लगे

किसी पीपल के नीचे जा बैठे
अब भी अपना जो दांव लगे

एक रोटी के ता'अक्कुब में चला हूँ इतना
की मेरा पाँव किसी और ही का पाँव लगे

जैसे देखात में लू लगते है चरवाहों को
बम्बई में यूँ ही तारों की हँसी छाँव लगे
सदियाँ गुजर गयीं
क्या जाने किसी की प्यास बुझाने किधर गयीं
उस सर पे झूम के जो घटाएँ गुज़र गयीं

दीवाना पूछता है यह लहरों से बार बार
कुछ बस्तियाँ यहाँ थीं बताओ किधर गयीँ

अब जिस तरफ से चाहे गुजर जाए कारवां
वीरानियाँ तो सब मिरे दिल में उतर गयीं

पैमाना टूटने का कोई गम नहीं मुझे
गम है तो यह के चाँदनी रातें बिखर गयीं

पाया भी उन को खो भी दिया चुप भी यह हो रहे
इक मुख्तसर सी रात में सदियाँ गुजर गयीं
सुना करो मेरी जाँ
सुना करो मेरी जाँ इन से उन से अफ़साने
सब अजनबी हैं यहाँ कौन किस को पहचाने
यहाँ से जल्द गुज़र जाओ क़ाफ़िले वालों
हैं मेरी प्यास के फूँके हुए ये वीराने
मेरी जुनून-ए-परस्तिश से तंग आ गये लोग
सुना है बंद किये जा रहे हैं बुत-ख़ाने
जहाँ से पिछले पहर कोई तश्ना-काम उठा
वहीं पे तोड़े हैं यारों ने आज पैमाने
बहार आये तो मेरा सलाम कह देना
मुझे तो आज तलब कर लिया है सेहरा ने
सिवा है हुक़्म कि "कैफ़ी" को संगसार करो
मसीहा बैठे हैं छुप के कहाँ ख़ुदा जाने
सोमनाथ
बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये
हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रक्खे हैं
अपनी यादों में बसा रक्खे हैं

दिल पे यह सोच के पथराव करो दीवानो
कि जहाँ हमने सनम अपने छिपा रक्खे हैं
वहीं गज़नी के खुदा रक्खे हैं

बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े टुकड़े सही दामन में उठा लेंगे उन्हें
फिर से उजड़े हुये सीने में सजा लेंगे उन्हें

गर खुदा टूटेगा हम तो न बना पायेंगे
उस के बिखरे हुये टुकड़े न उठा पायेंगे
तुम उठा लो तो उठा लो शायद
तुम बना लो तो बना लो शायद

तुम बनाओ तो खुदा जाने बनाओ क्या
अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी
प्यार होगा न ज़माने में मुहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी
हम से उस की न इबादत होगी

वह्शते-बुत शिकनी देख के हैरान हूँ मैं
बुत-परस्ती मिरा शेवा है कि इंसान हूँ मैं
इक न इक बुत तो हर इक दिल में छिपा होता है
उस के सौ नामों में इक नाम खुदा होता है

हाथ आकर लगा गया कोई

हाथ आकर लगा गया कोई
मेरा छप्पर उठा गया कोई

लग गया इक मशीन में मैं
शहर में ले के आ गया कोई

मैं खड़ा था के पीठ पर मेरी
इश्तिहार इक लगा गया कोई

यह सदी धूप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई

ऐसी मंहगाई है के चेहरा भी
बेच के अपना खा गया कोई

अब बोह अरमान हैं न वो सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई

वोह गए जब से ऐसा लगता है
छोटा मोटा खुदा गया कोई

मेरा बचपन भी साथ ले आया
गांव से जब भी आ गया कोई

!! वेद क्या है ?


ब्रह्म क्या है? जीव क्या है? आत्मा क्या है? ब्रह्मांण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई है? इन सभी बिंन्दुओं पर विस्त्रित व्याख्या हमारे वेदों में भरी पडी़ है। सम्पूर्ण पिण्ड-ब्रह्माण्ड और परमात्मा को जानने का विज्ञान ही वेद है। वेद मानव सभ्यता, भारतीय संस्कृति के मूल श्रोत हैं। इनमें मानव-जीवन के लौकिक एवं पारलौकिक उन्नति के लिये उपयोगी सभी सिद्धान्तों एवं उपदेशों का अद्भुत वर्णन है। वेद एक प्रकार से मंत्र का विज्ञान है, जिसमें विराट् विश्व ब्रह्मांड की अलौकिक शूक्ष्म एवं चेतन सत्ताओं एवं शक्तियों तक से सम्बन्ध स्थापित करने करने के गूढ़ रहस्य दिये हुये है। भौतिक विज्ञानी अभी तक इस क्षेत्र में मामुली सी जानकारी ही प्राप्त कर सके हैं।

वेद का अर्थ है ज्ञान। वेद शब्द विद सत्तायाम,विदज्ञाने,विदविचारणे एवं विद्लाभे इन चार धातुओं से उत्पन्न होता है। संक्षिप्त में इसका अर्थ है, जो त्रिकालबाधित सत्तासम्पन्न हो, परोक्ष ज्ञान का निधान हो, सर्वाधिक विचारो का भंडार हो और लोक परलोक के लाभों से परिपूर्ण हो। जो ग्रंथ इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के परिहार के उपायों का ज्ञान कराता है, वह वेद है। भारतीय मान्यता के अनुसार वेद ब्रह्मविद्या के ग्रंथभाग नही, स्वयं ब्रह्म हैं-शब्द ब्रह्म हैं। प्राचीन काल से हमारे ऋषि-महर्षि, आचार्य तथा भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाले विद्वानों ने वेद को सनातन, नित्य और अपौरूषेय माना हैं। उनकी यह मान्यता रही है कि वेद का प्रादुर्भाव ईश्वरीय ज्ञान के रूप में हुआ है। इसका कारण यह भी है कि वेदों का कोई भी निरपेक्ष या प्रथम उच्चरयिता नहीं है। सभी अध्यापक अपने पूर्व-पूर्व के अध्यापकों से ही वेद का अध्ययन या उच्चारण करते रहे हैं। वेद का ईश्वरीय ज्ञान के रूप में ऋषि-महर्षियों ने अपनी अन्तर्दृष्टि से प्रत्यक्ष दर्शन किया। द्रष्टाओं का यह भी मत है कि वेद श्रेष्ठतम ज्ञान-पराचेतना के गर्भ में सदैव से स्थित रहते हैं। परिष्कृत-चेतना-सम्पन्न ऋषियों के माध्यम से वे प्रत्येक कल्प में प्रकट होते हैं। कल्पान्त में पुनः वहीं समा जाते हैं।

वेद को श्रुति, छन्दस् मन्त्र आदि अनेक नामों से भी पुकारा जाता है। विष्णु, भागवत, वायु, मत्स्य आदि पुराणों के अनुसार त्रेतायुग के अन्त तक वेद एक ही था। द्वापर के अन्त में महर्षि वेदव्यास ने वेद के चार विभाग कियेः-

१-ऋग्वेद ।

२-यजुर्वेद ।

३-सामवेद ।

४-अथर्ववेद ।

जिसमें नियताक्षर वाले मंत्रों की ऋचाएँ हैं,वह ऋग्वेद कहलाता है। जिसमें स्वरों सहित गाने में आने वाले मंत्र हैं, वह सामवेद कहलाता है। जिसमें अनितह्याक्षर वाले मंत्र हैं, वह यजुर्वेद कहलाता है। जिसमें अस्त्र-शस्त्र, भवन निर्माण आदि लौकिक विद्याओं का वर्णन करने वाले मंत्र हैं, वह अथर्ववेद कहलाता है। वेद मंत्रों के समूह को शूक्त कहा जाता है, जिसमें एकदैवत्य तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है।

वेद की समस्त शिक्षाएँ सर्वभौम है। वेद मानव मात्र को हिन्दू, सिख, मुसलमान, ईसाई बौद्ध,जैन आदि कुछ भी बनने के लिये नहीं कहतें। वेद की स्पष्ट आज्ञा है-मनुर्वभ। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में सृष्टि के मूल तत्व, गूढ़ रहस्य का वर्णन किया गया है। सूक्त में आध्यात्मिक धरातल पर विश्व ब्रह्मांड की एकता की भावना स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त हुई है। भारतीय संस्कृति में यह धारणा निश्चित है कि विश्व-ब्रह्मांड में एक ही सत्ता विद्यमान है, जिसका नाम रूप कुछ भी नहीं है ।

ऋक् संहिता में १० मंडल, बालखिल्य सहित १०२८ सूक्त हैं। वेद मंत्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है, जिसमें एकदैवत्व तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है। कात्यायन प्रभति ऋषियों की अनुक्रमणी के अनुसार ऋचाओं की संख्या १०५८०, शब्दों की संख्या १५३५२६ तथा शौनक कृत अनुक्रमणी के अनुसार ४,३२,००० अक्षर हैं। ऋग्वेद की जिन २१ शाखाओं का वर्णन मिलता है, उनमें से चरणव्युह ग्रंथ के अनुसार पाँच ही प्रमुख हैं-१. शाकल, २. वाष्कल, ३. आश्वलायन, ४. शांखायन और माण्डूकायन । ऋग्वेद में ऋचाओं का बाहुल्य होने के कारण इसे ज्ञान का वेद कहा जाता है। ऋग्वेद में ही मृत्युनिवारक त्र्यम्बक-मंत्र या मृत्युञ्जय मन्त्र (७/५९/१२) वर्णित है,ऋग्विधान के अनुसार इस मंत्र के जप के साथ विधिवत व्रत तथा हवन करने से दीर्घ आयु प्राप्त होती है तथा मृत्यु दूर हो कर सब प्रकार का सुख प्राप्त होता है। विश्वविख्यात गायत्री मन्त्र(ऋ० ३/६२/१०) भी इसी में वर्णित है। ऋग्वेद में अनेक प्रकार के लोकोपयोगी-सूक्त, तत्त्वज्ञान-सूक्त, संस्कार-सुक्त उदाहरणतः रोग निवारक-सूक्त (ऋ०१०/१३७/१-७),श्री सूक्त या लक्ष्मी सुक्त (ऋग्वेद के परिशिष्ट सूक्त के खिलसूक्त में), तत्त्वज्ञान के नासदीय-सूक्त(ऋ० १०/१२९/१-७) तथा हिरण्यगर्भ-सूक्त (ऋ०१०/१२१/१-१०)और विवाह आदि के सूक्त (ऋ० १०/८५/१-४७) वर्णित हैं, जिनमें ज्ञान विज्ञान का चरमोत्कर्ष दिखलाई देता है।

यजुर्वेदः-ऋग्वेद के लगभग ६६३ मंत्र यथावत् यजुर्वेद में हैं। यजुर्वेद वेद का एक ऐसा प्रभाग है, जो आज भी जन-जीवन में अपना स्थान किसी न किसी रूप में बनाये हुऐ है। संस्कारों एवं यज्ञीय कर्मकाण्डों के अधिकांश मन्त्र यजुर्वेद के ही हैं। यजुर्वेदाध्यायी परम्परा में दो सम्प्रदाय-१. ब्रह्म सम्प्रदाय अथवा कृष्ण यजुर्वेद, २. आदित्य सम्प्रदाय अथवा शुक्ल यजुर्वेद ही प्रमुख हैं। वर्तमान में कृष्ण यजुर्वेद की शाखा में ४ संहिताएँ -१.तैत्तिरीय, २. मैत्रायणी, ३.कठ और ४.कपिष्ठल कठ ही उपलब्ध हैं। शुक्ल यजुर्वेद की शाखाओं में दो प्रधान संहिताएँ- १.मध्यदिन संहिता और २. काण्व संहिता ही वर्तमान में उपलब्ध हैं। आजकल प्रायः उपलब्ध होने वाला यजुर्वेद मध्यदिन संहिता ही है। इसमें ४० अध्याय, १९७५ कण्डिकाएँ (एक कण्डिका कई भागों में यागादि अनुष्ठान कर्मों में प्रयुक्त होनें से कई मन्त्रों वाली होती है।) तथा ३९८८ मन्त्र हैं। विश्वविख्यात गायत्री मंत्र (३६.३)तथा महामृत्युञ्जय मन्त्र (३.६०) इसमें भी है।

सामवेदः- सामवेद संहिता में जो १८७५ मन्त्र हैं, उनमें से १५०४ मन्त्र ऋग्वेद के ही हैं। सामवेद संहिता के दो भाग हैं,आर्चिक और गान। पुराणों में जो विवरण मिलता है उससे सामवेद की एक सहस्त्र शाखाओं के होने की जानकारी मिलती है। वर्तमान में प्रपंच ह्रदय, दिव्यावदान, चरणव्युह तथा जैमिनि गृहसूत्र को देखने पर १३ शाखाओं का पता चलता है। इन तेरह में से तीन आचार्यों की शाखाएँ मिलती हैं- (१) कौमुथीय, (२)राणायनीय और (३) जैमिनीय। सामवेद का महत्व इसी से पता चलता है कि गीता में कहा गया है कि -वेदानां सामवेदोऽस्मि।(गीता-अ० १०, श्लोक २२)। महाभारत में गीता के अतिरिक्त अनुशासन पर्व में भी सामवेद की महत्ता को दर्शाया गया है-सामवेदश्च वेदानां यजुषां शतरुद्रीयम्। (म०भा०,अ० १४ श्लोक ३२३)। सामवेद में ऐसे मन्त्र मिलते हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि वैदिक ऋषियों को एसे वैज्ञानिक सत्यों का ज्ञान था जिनकी जानकारी आधुनिक वैज्ञानिकों को सहस्त्राब्दियों बाद प्राप्त हो सकी है। उदाहरणतः- इन्द्र ने पृथ्वी को घुमाते हुए रखा है।(सामवेद,ऐन्द्र काण्ड,मंत्र १२१), चन्द्र के मंडल में सूर्य की किरणे विलीन हो कर उसे प्रकाशित करती हैं। (सामवेद, ऐन्द्र काण्ड,मंत्र १४७)। साम मन्त्र क्रमांक २७ का भाषार्थ है- यह अग्नि द्यूलोक से पृथ्वी तक संव्याप्त जीवों तक का पालन कर्ता है। यह जल को रूप एवं गति देने में समर्थ है। अग्नि पुराण के अनुसार सामवेद के विभिन्न मंत्रों के विधिवत जप आदि से रोग व्याधियों से मुक्त हुआ जा सकता है एवं बचा जा सकता है, तथा कामनाओं की सिद्धि हो सकती है। सामवेद ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की त्रिवेणी है। ऋषियों ने विशिष्ट मंत्रों का संकलन करके गायन की पद्धति विकसित की। अधुनिक विद्वान् भी इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि समस्त स्वर, ताल, लय, छंद,गति, मन्त्र, स्वर-चिकित्सा, राग नृत्य मुद्रा, भाव आदि सामवेद से ही निकले हैं।

अथर्ववेदः- अथर्ववेद संहिता के बारे में कहा गया है कि जिस राजा के रज्य में अथर्ववेद जानने वाला विद्वान् शान्तिस्थापन के कर्म में निरत रहता है, वह राष्ट्र उपद्रवरहित होकर निरन्तर उन्नति करता जाता हैः-

यस्य राज्ञो जनपदे अथर्वा शान्तिपारगः।

निवसत्यपि तद्राराष्ट्रं वर्धतेनिरुपद्रवम् ।। (अथर्व०-१/३२/३)।

भूगोल, खगोल, वनस्पति विद्या, असंख्य जड़ी-बूटियाँ,आयुर्वेद, गंभीर से गंभीर रोगों का निदान और उनकी चिकित्सा,अर्थशास्त्र के मौलिक सिद्धान्त, राजनीति के गुह्य तत्त्व, राष्ट्रभूमि तथा राष्ट्रभाषा की महिमा, शल्यचिकित्सा, कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोगों का विवेचन, मृत्यु को दूर करने के उपाय,प्रजनन-विज्ञान अदि सैकड़ों लोकोपकारक विषयों का निरूपण अथर्ववेद में है। आयुर्वेद की दृष्टि से अथर्ववेद का महत्व अत्यन्त सराहनीय है। अथर्ववेद में शान्ति-पुष्टि तथा अभिचारिक दोनों तरह के अनुष्ठन वर्णित हैं। अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहते हैं। चरणव्युह ग्रंथ के अनुसार अथर्व संहिता की नौ शाखाएँ- १.पैपल,२. दान्त, ३. प्रदान्त, ४. स्नात, ५. सौल, ६. ब्रह्मदाबल, ७.शौनक, ८. देवदर्शत और ९. चरणविद्य बतलाई गई हैं। वर्तमान में केवल दो- १.पिप्पलाद संहिता तथा २. शौनक संहिता ही उपलब्ध है। जिसमें से पिप्लाद संहिता ही उपलब्ध हो पाती है। वैदिकविद्वानों के अनुसार ७५९ सूक्त ही प्राप्त होते हैं। सामान्यतः अथर्ववेद में ६००० मन्त्र होने का मिलता है परन्तु किसी-किसी में ५९८७ या ५९७७ मन्त्र ही मिलते हैं।

वेदाङ्गः (वेदार्थ ज्ञान में सहायक शास्त्र)

वेद समस्त ज्ञानराशि के अक्षय भंडार है, तथा प्राचीन भारतीय संस्कृति,सभ्यता एवं धर्म के आधारभूत स्तम्भ हैं। वेद धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चार पुरुषार्थों के प्रतिपादक हैं। वेद भी अपने अङ्गों के कारण ही ख्यातिप्राप्त हैं, अतः वेदाङ्गों का अत्याधिक महत्व है। यहां पर अङ्ग का अर्थ है उपकार करनेवाला अर्थात वास्तविक अर्थ का दिग्दर्शन करानेवाला। वेदाङ्ग छः प्रकार के हैः-

(१) शिक्षा,

(२) कल्प,

(३) व्याकरण,

(४) निरुक्त,

(५) छन्द और

(६) ज्योतिष ।

(१)- शिक्षाः- स्वर एवं वर्ण आदि के उच्चारण-प्रकार की जहाँ शिक्षा दी जाती हो,उसे शिक्षा कहाजाता है। इसका मुख्य उद्येश्य वेदमन्त्रों के अविकल यथास्थिति विशुद्ध उच्चारण किये जाने का है। शिक्षा का उद्भव और विकास वैदिक मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण और उनके द्वारा उनकी रक्षा के उदेश्य से हुआ है।

(२)-कल्पः- कल्प वेद-प्रतिपादित कर्मों का भलीभाँति विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है। इसमें यज्ञ सम्बन्धी नियम दिये गये हैं।

(३)-व्याकरणः-वेद-शास्त्रों का प्रयोजन जानने तथा शब्दों का यथार्थ ज्ञान हो सके अतः इसका अध्ययन आवश्यक होता है। इस सम्बन्ध में पाणिनीय व्याकरण ही वेदाङ्ग का प्रतिनिधित्व करता है। व्याकरण वेदों का मुख भी कहा जाता है।

(४)-निरुक्तः-इसे वेद पुरुष का कान कहा गया है। निःशेषरूप से जो कथित हो, वह निरुक्त है।इसे वेद की आत्मा भी कहा गया है।

(५)-छन्दः-इसे वेद पुरुष का पैर कहा गया है।ये छन्द वेदों के आवरण है। छन्द नियताक्षर वाले होते हैं। इसका उदेश्य वैदिक मन्त्रों के समुचित पाठ की सुरक्षा भी है।

(६)-ज्योतिषः-यह वेद पूरुष का नेत्र माना जाता है। वेद यज्ञकर्म में प्रवृत होते हैं और यज्ञ काल के आश्रित होते है तथा जयोतिष शास्त्र से काल का ज्ञान होता है। अनेक वेदिक पहेलियों का भी ज्ञान बिना ज्योतिष के नहीं हो सकता।