बुधवार, 6 जून 2012

!!शब्दों की नाव से उतरें!!


जिसे शब्दों की नाव से उतरने की कला आ गई, उसे शांति की खोज में पहाड पर जाकर तप करने की जरूरत नहीं होती। वह संसार के बीच रहकर भी शांति की खोज कर सकता है !मौन को जिसने पा लिया, उसे पाने को कुछ शेष नहीं रह जाता, क्योंकि मौन के क्षण में ही पता चलता है कि हम परमात्मा के अंश हैं। परमात्मा का अभिप्राय है- जिसे पाने को कुछ भी शेष न हो। परमात्मा का अर्थ है-जो भी है, वह उससे परम तृप्त है। कोई चाह नहीं। कोई प्यास नहीं। कोई क्षुधा नहीं। कोई मांग नहीं। कोई प्रार्थना नहीं। जिस दिन प्रार्थना और मांग खो जाती है, उस दिन जो भी पाया जा सकता है, वह हमें मिल जाता है। लेकिन मौन के क्षण में ही यह पता चलता है। मौन के बिना हम अपने से अपरिचित ही रह जाते हैं। मौन से अपनी कहानी खुल जाती है। जैसे कोई बंद द्वार खुल जाता है। जैसे अंधेरे में कोई दीया जल जाए और सब प्रकाशित हो जाए।
                  हम बोलते हैं, क्योंकि यह जरूरी है। क्योंकि दूसरे से जुडने का शब्दों के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। लेकिन जब दूसरों से जुडने की आवश्यकता भी नहीं है या जब तुम अकेले में होते हो, तब क्यों बोलते हो? उपयोगिता न होने पर भी शब्दों का उपयोग क्यों? एक आदमी रास्ते पर चलता है, तो उसके पैर चलते हैं। लेकिन तुम बैठे हुए पैरों को हिलाते रहो और तुम उन्हें रोकने में असमर्थ हो जाओ, तो? इसका मतलब है कि तुम्हारा शरीर अस्वस्थ है। उससे तुम्हारा नियंत्रण खो गया है। वस्तुत:अपने से बोलने के लिए न भाषा की जरूरत है, न शब्द की। अगर खुद से बोलना है, तो मौन रहकर बोलो। पदार्थ को जानना हो, तो शब्द साधन है, लेकिन खुद को या परमात्मा को जानना हो तो शून्य साधन है। वहां मौन होकर पहुंचना पडेगा। वहां बोलते हुए गए तो चूक जाएंगे। क्योंकि जो बोल रहा है, वह अपने ही स्थूल शब्दों से इतना भरा है कि सूक्ष्म उसकी पकड में नहींआएगा।हमारे भीतर बाजार का शोरगुल है। मंदिर-मस्जिद में भी बडा शोरगुल है। वहां जाने का अर्थ ही यह होना चाहिए कि तुम शोरगुल या बाजार को पीछे छोड आए। जहां तुम जूते उतारते हो, वहीं शब्द भी उतार देने चाहिए। मंदिर में शब्द ले जाने का क्या अर्थ है? शब्द जूतों की तरह बासी और गंदे हो गए हैं। गौर करो, तो तीन सौ से ज्यादा शब्द नहीं होते, जिनका तुम दिन-रात उपयोग करते हो। तीन सौ शब्द तुम ठीक से सीख लो, तो नई भाषा आ जाएगी। जैसे रुपया बाजार में चलते-चलते गंदा हो जाता है, घिस जाता है, वैसे ही तुम्हारे शब्द भी घिस गए हैं। इन्हें मंदिर के बाहर छोड जाना, तभी खुद से मिल सकोगे। वस्तुत:जो मौन हो गया, वह मंदिर में है और जो बोलता रहा, वह मंदिर में होते हुए भी दुकान में है। तुम कहां हो, इससे फर्क नहीं पडता, तुम्हारे भीतर क्या है, इससे फर्क पडता है।
                        इंसान जब गर्भ में होता है, तब वह मौन होता है। उसकी मृत्यु होती है, तब भी मौन हो जाता है। जीवन के इस छोर के पहले मौन है, जीवन के उस छोर के बाद मौन है। मौन से तुम उठते हो, मौन में खो जाते हो। शब्द बीच का खेल है।
दूसरे से बातचीत उपयोगी है, लेकिन उससे तुम्हारे आगे तुम्हारा स्वभाव प्रकट नहीं होगा। इसके लिए शब्द को भूलना होगा। शब्द को भूलने का अर्थ है-दूसरे को भूल जाना। लेकिन शब्द के बिना तो तुमने कुछ भी नहीं सीखा है। सभी सीख शब्दों पर खुदी है। शब्द को छोडते ही सब पांडित्य और ज्ञान चला जाता है। तुम रह जाते हो-निपट-निर्दोष। जैसे तुम थे-जन्म के पहले और हो जाओगे मृत्यु के बाद। यही तो तुम हो, जिसकी तुम्हें खोज थी। लेकिन तुम सारी ऊर्जा शब्दों में चुका रहे हो। बोल-बोलकर नष्ट हुए जा रहे हो।
शब्दों से उतर जाने की कला मौन है, जहां असीमित शांति है। इसके लिए हिमालय जाने की जरूरत नहीं। हिमालय तो वे जाते हैं, जो नासमझ हैं। जो इस कला को नहीं जानते, उन्हें हिमालय में भी कुछ नहीं मिलेगा। अगर उन्हें छोटी-सी कला आ गई-शब्द की नाव से उतर जाने की कला, तो वे ठीक यहीं बीच बाजार में [सांसारिक जीवन में] जब चाहें तब हिमालय को खोज सकते हैं। जैसे ही वे शब्द का द्वार बंद करते हैं, उसी क्षण मौन हो जाते हैं। बाहर हो जाते हैं संसार के हर स्थान से। चुप होना इस जगत में सबसे बडी कला है। शेष सभी कलाएं शब्दों पर ही निर्भर हैं।
इस बार सोमवतीअमावस्या भी
माघ मास की कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मौनी अमावस्या कहते हैं। इस बार यह अमावस्या 23जनवरी को है। संयोगवश इस दिन सोमवार भी है, इसलिए इस दिन सोमवतीअमावस्या भी पड रही है। मौनी और सोमवतीअमावस्या के इस संयोग के बारे में मान्यता है कि इस दिन मौन रहकर गंगा में स्नान करने से अक्षय पुण्य मिलता है। इस अवसर पर एक दिन, एक माह या एक वर्ष के लिए मौन का संकल्प लेने की भी परंपरा है। मान्यता है कि मौनी अमावस्या को ही ब्रह्मा जी ने महाराज मनु और महारानी शतरूपाको प्रकट कर सृष्टि की शुरुआत की थी।
ग्रंथों में मौनी अमावस्या की कथा भी मिलती है। उसके अनुसार, जब सागर मंथन से भगवान धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए, तो देवताओं एवं असुरों में अमृत कलश के लिए खींचतान शुरू हो गई। इससे अमृत की कुछ बूंदे छलककर इस दिन प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैनमें जा गिरीं। यही कारण है कि यहां की नदियों में स्नान करने को लोग ज्यादा महत्व देते हैं। मौन रहने का का संदेश यह है कि हम अपनी इंद्रियों को वश में रखें और स्नान हमें नदियों को बचाने और उन्हें स्वच्छ रखने की प्रेरणा देता है..........

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