मंगलवार, 8 मई 2012

!!समय: पारंपरिक दृष्टिकोण और समाज की अवधारणा !!


समय सबसे बड़ा छलिया होता है. मेहरबान हो तो दुनिया-भर की सल्तनत बख्श दे. रूठ जाए तो चैहद्दी के राजपाट समेत डुबा दे. इस जैसा न तो कोई दयालु, न बेहरम. न इससे असरदार कोई मरहम. न इससे धारदार कोई हथियार….
समय-सा कोई करीबी नहीं!
समय से बड़ा बहरूपिया भी नहीं.
समय से कभी मत लड़ना.
समय को चुनौती मत देना.
समय पर कभी भरोसा न करना.
हर आदमी यही कहता है. चाहता है कि समय से बचकर रहे. उसे कभी अनदेखा न करे. बूढ़ी होती पीढ़ी कामना करती है कि उसका समय ज्यों का त्यों बना रहे….आने वाली पीढ़ियों पर समय की सदा मेहरबानी रहे. समय पर सब काम पूरे हों. समय का सब लाभ उठाएं.
आने वाला समझता है कि जाने वाली पीढ़ी अपने हिस्से का समय इस्तेमाल कर चुकी. अब उसकी बारी है.
जाने वाला सोचता है कि उसकी यादें और समय ज्यों का त्यों उसके बाद भी बना रहे.
बड़े-बड़े मनीषी कह गए हैं—
समय को समझना आसान नहीं!
फिर भी कोशिश है कि कभी थमती ही नहीं….
आदमी समय से डरता, साथ-साथ बढ़ता है. समय क्या है, कोई नहीं जानता. समय है यह सब मानते हैं. आदमी भगवान पर भरोसा भले कर ले, समय पर कभी विश्वास नहीं लाता. डरता है, वह जाने कब, किस ओर पलटनिया खा जाए.
समय की अवधारणा
समय को लेकर कुछ ऐसी ही अवधारणा, ऐसे ही विचार जनमानस में व्याप्त हैं. कुछ लोग समय को इतिहास कहकर संतुष्ट हो जाते हैं, कुछ के लिए वह निस्सीम विस्तार है. ग्रह, नक्षत्र, चांद-सितारे, धरती-अंबर और न जाने कितने ब्रह्मांड उसमें समाए हुए हैं. कुछ ऐसे भी हैं जो समय को बहती धारा मानते हैं. भूत-वर्तमान और भविष्य की चिर-तरंगिणी. अदृश्य प्रवाह जो ब्रह्मांड की समस्त हलचलों, ग्रह-नक्षत्र, नीहारिकाओं, नदियों, महासागरों के साथ-साथ गतिमान है. वैज्ञानिकों और वुद्धिजीवियों की बात अलग है. वे समय को लेकर गुणा-भाग करते रहते हैं. आम आदमी का उससे संबंध भावनात्मक ही होता है. उसमें उसका डर भी समाया होता है. उम्मीदें होती हैं तो वे भी डरी-सहमी.
समय की अवधारणा कब जन्मी, यह ठीक-ठीक बता पाना संभव नहीं. सिर्फ कल्पना की जा सकती है कि आदमी ने जब सूरज को समय पर उगते और डूबते देखा. तारामंडल की उदय-अस्त होती कलाबाजियां देखीं. बालक को जन्मते, बड़ा होते, फिर बूढ़ा होकर मौत के गाल में समाते हुए पाया. तब उसने माना कि कुछ है जो कभी उसके साथ चलता है, तो कभी उसको पीछे ढकेल आगे निकल जाता है. जो अंतरिक्ष की तरह सर्वव्यापी, नदी की तरह पल-पल प्रवाहमान है. जिसका कोई ओर है न छोर. इस अनुभूति को उसने समय का नाम दिया. यह संज्ञा इतनी मनोहारी थी कि आगे जो भी दार्शनिक और विचारक आए, सभी ने उसकी पुष्टि की. वैज्ञानिकों तक की हिम्मत न हुई कि समय की परिकल्पना को चुनौती दे सकें. दार्शनिकों ने समय के बारे में तरह-तरह की परिकल्पनाएं प्रस्तुत कीं. आस्थावान लोगों ने उसे परमतत्व का विस्तार मानकर उसका भांति-भांति से महिमा मंडन किया. दार्शनिकों ने उसके आधार पर जीवन-रहस्यों की व्याख्या की, तो कुछ कथित भौतिकवादी दर्शनों ने उसकी सत्ता को ही चुनौती दे डाली. इन परस्पर विरोधी विचारधारों के बीच कुछ प्रश्न लगातार सिर उठाए रहे—माना कि समय है, उसकी प्रतीति है….पर वह है क्या? कब उसका जन्म हुआ? ब्रह्मांड के साथ अथवा उससे पहले? यदि पहले तो कितना? समय क्या घड़ी की टिक-टिक, नदी की कल-कल की भांति आगे बढ़ने वाला प्रवाह है? अथवा ऐसी निस्सीम सत्ता जिसमें घड़ी की टिक-टिक, नदी की कल-कल, चांद, सितारे, सूरज, ग्रह-उपग्रह जैसी ब्रह्मांड के कोटिक कोटि पिंड समाए हुए हैं? समय की प्रतीति घटनाओं के माध्यम से होती है, तो क्या वह घटनाओं की अन्वति मात्र है? घटनाएं समय में बीतती हैं या घटनाओं में समय की उलटबांसी चलती है? अगर वह घटना नहीं है तो उसकी प्रतीति का आधार क्या है? क्या घटनाओं से बाहर समय की अनुभूति संभव है? समय और समयबोध में अंतर क्या है? क्या समय और समयबोध दोनों साथ-साथ जन्मे? यदि नहीं तो उनके बीच अंतराल कितना है? दोनों में पहले कौन जन्मा? मानव-मन में हजारों वर्ष पहले कौंधे ये प्रश्न आज तक उसी तरह बने हुए हैं. संतोष है तो बस इतना है कि प्रश्न का होना भी कम नहीं होता. समस्या हो तो मानवीय जिज्ञासा समाधान कभी--कभी खोज ही लेती है.
समय की कथित व्युत्पत्ति को लेकर वैज्ञानिकों के अलग-अलग विचार हैं. स्टीफन हाकिंग समय की उत्पत्ति को ब्रह्मांड के जन्म से जोड़ते हैं. शायद इसलिए कि ब्रह्मांड से पहले समय की परिकल्पना का कोई ठोस आधार उन्हें नजर नहीं आता. यदि समय की व्युत्पत्ति को पहले मान लिया जाए तब एक और ब्रह्मांड की परिकल्पना करनी पड़ेगी. फिर यह सिलसिला अनंत तक चलता जाएगा. इसलिए समय के इतिहास के बहाने वे दरअसल ब्रह्मांड का इतिहास ही बता रहे होते हैं. ब्रह्मांड की व्याख्या के लिए समय की अवधारणा क्यों जरूरी है? यह प्रश्न मन में कौंधता है. जानना अपेक्षित भी है. मगर वे इस बारे में कुछ नहीं कहते. इससे यह सामान्य निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि समय की प्रतीति घटनाओं से जुड़ी है. घटनाएं न हों तो समय की कोई जरूरत ही न रहे. मनुष्य होश संभालते ही घटनाओं के प्रवाह में स्वयं को पाता है. उन्हीं का अवलोकन करते, हिसाब-किताब रखते हुए समय का प्रत्यय उसके अवचेतन में अनायास पैठ जाता है. इतना गहरा और स्थायी कि उसके प्रभावक्षेत्र से बाहर आ पाना जनसाधारण तो क्या अच्छे-अच्छों के लिए संभव नहीं होता. कह सकते हैं कि समय की प्रतीति प्राणी चेतना के आरंभिक बिंदू से जुड़कर अंत तक बनी रहती है.
समयबोध ने ही जीवन की नश्वरता के विचार को जन्म दिया. आदमी को लगा कि कुछ है जिसमें सब कुछ बीत रहा है. यहां तक कि उसका जीवन भी. जो इतना शक्तिशाली है कि बड़े से बड़े पहलवान को एक ही झटके में धूल चटा दे. और इतना व्यापक भी कि ब्रह्मांड की एक भी घटना उससे बाहर नहीं. समय की अनिश्चितता के बोध ने डर को जन्म दिया. डर ने अमरत्व की कल्पना को. जरा-मरण से घबराए इंसान ने समय को ताकतवर सत्ता मान लिया गया. समय की मेहरबानी बनी रहे इसके लिए मनौतियां मांगी जाने लगीं. भयभीत मनुष्य समय से दोस्ती गांठने, उसके साथ सातत्य बनाए रखने की कोशिश करने लगा. समय के साथ बने रहने की चाहत ने पुनर्जन्म की कल्पना को जन्म दिया. उसके चंगुल से पार छिटक जाने की चाहत का नाम मोक्ष पड़ा. वह अमरत्व की ऐसी कल्पना थी, जिसपर समय की मार बेअसर थी. समय के साथ बने रहना. उसको दौड़ में मात दे देना पुरुषार्थ का प्रतीक मान लिया गया. उसके साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ने वाले निष्प्रह पुरुषार्थी को कर्मयोगी कहा गया. चूंकि समय के संग दौड़ में बने रहना, सभी के लिए सदैव संभव नहीं होता, इसलिए स्वार्थी पंडाओं ने भाग्य, प्रारब्ध, कपालरेख, नियतिचक्र जैसे भ्रमों की परिकल्पना की. फलित ज्योतिष का गूदा स्वयं खाकर गुठलियां वे जनसाधारण में बांटने लगे. निराशा से उबरने के आदमी जब-तब उनकी शरण लेने लगा. भाग्य कर्महीनों की शरणस्थली बना, पुरुषार्थ कर्मयोगियों की पहचान.
समय दोनों के लिए अबूझ पहेली बना रहा.
मानव जीवन समय से अनुशासित है. तो क्या समय की संकल्पना मनुष्य की सामाजिकता का निकष् है? क्या अकेले व्यक्ति का भी कोई समय होता है? शायद नहीं; या शायद हां. अकेले व्यक्ति के लिए भी घटनाएं होंगी. उन्हें देखकर उसको अपने आसपास गतिशीलता का आभास होगा. इससे वह वर्तमान को अपने सामने से गुजरते हुए देखेगा. लेकिन अकेले व्यक्ति को स्मृति की जरूरत शायद ही पड़े. स्मृति न रही तो घटनाओं की तारतम्यता का बारीक हिसाब-किताब वह किसके लिए रखेगा! यदि रखेगा भी तो सबकुछ गड़बड़ा भी सकता है. इसलिए कि उसके निर्णय और बोध को चुनौती देने वाला कोई न होगा. अकेले व्यक्ति का समयबोध हुआ भी तो वह सामूहिक समयबोध से काफी भिन्न और सीमित होगा. वह कुछ ऐसा होगा जैसी पशु-पक्षियों की अंतश्चेतना, जो अपनी जैविक आवश्यकताओं के आधार पर सौर दिवस में प्रकृतिचक्र से तालमेल बनाए रखते हैं. दिन की पहली झलक के साथ जिन्हें भोजन की चिंता सताने लगती है. प्रकृति के निरंतर साहचर्य में रहते हुए वे अपनी जैविक आवश्यकताओं और परिवेश के बीच सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं. अंबर से उतरता उजाला देखते ही चिड़ियाओं में उड़ान भरने का हौसला आ जाता है. पशु अपने-अपने काम की ओर निकल जाते हैं.
समयबोध को बनाए रखने में मानव स्मृति का कम योगदान नहीं है. स्मृति घटनाओं को सहेजने का दायित्व निभाती है. मनुष्य के आसपास जो घटनाएं घटती हैं, स्मृति उन्हें एक-एक कर दर्ज करती जाती है. मानव-मस्तिष्क में वे अपने स्वरूप एवं क्रमानुक्रम के साथ दर्ज होती जाती हैं. यह क्रमानुक्रमता ही समयबोध के रूप में विकसित होती है. बातचीत के दौरान सामने वाला व्यक्ति उन घटनाओं को उसी क्रमानुक्रम में ग्रहण करता है. इसलिए घटना के साथ उससे जुड़ा समयबोध भी बड़ी आसानी से दूसरे के मन-मस्तिष्क पर छा जाता है. अकेलेपन की अवस्था में ऐसा समयबोध अस्थायी होगा. तब व्यक्ति घटनाओं का प्रेक्षक भर होता. क्योंकि उपयोग न होने के कारण उसकी स्मृति शायद ही विकसित हो. तो क्या यह मान लिया जाए कि मनुष्य का समयबोध उसकी सामाजिकता की उपज है? अपने अनुभवों को दूसरे पर प्रामाणिकता से सौंपने के लिए मनुष्य समयबोध की सहायता लेता है. अथवा जैसे सिनेमा अलग-अलग चित्र अपनी क्रमानुक्रमता में एक कहानी का प्रभाव पैदा करते हैं, समय वैसी ही कल्पना है? समय का सामाजिक बोध की उपज होना उसकी व्यावहारिकता को सिद्ध करता है. और व्यवहार से परे? समय के बारे में पहला वस्तुनिष्ठ चिंतन बौद्ध दर्शन में मिलता है. पश्चिम विचारकों में संदेहवादी दार्शनिक भी हुए जिन्होंने प्रकारांतर उसके अस्तित्व पर सवाल उठाए, लेकिन समय के बारे में पहली बार सुनिश्चित चिंतन बीसवीं शताब्दी में आरंभिक दशकों में आया. उसके पीछे आइंस्टाइन के सापेक्षिकतावाद की प्रेरणा थी. ध्यातव्य है कि आइंस्टाइन ने समय को चैथा आयाम मानते हुए उसकी शाश्वत सत्ता में विश्वास प्रकट किया था.
समय के बारे गंभीर चिंतन बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दर्शनों में सामने आया. सर्वप्रथम जिस दार्शनिक ने इसपर वस्तुनिष्ठ ढंग से विचार किया उसका नाम था—जान इलिस मेक टोगार्ट. हीगेल से प्रभावित टोगार्ट ने समय की सत्ता पर सवाल उठाए. अपने लेख ‘अनरीयल्टी आफ टाइम’ में एक के बाद एक, अकाट्य तर्क देते हुए टोगार्ट ने उसकी मौजूदगी को नकारा. समय के बारे में समाज में प्रचलित धारणाओं के आधार पर समयबोध को उसने दो श्रेणियों में बांटा. जिसको उसने ‘ए’ थ्योरी और ‘बी’ थ्योरी का नाम दिया. ‘ए’ थ्योरी का दूसरा नाम ‘काल सैद्धांतिकी’ भी है. इसके अनुसार समय बहता हुआ प्रवाह है. नदी के समान अनवरत, बिना रुके, बगैर थके….भूत, वर्तमान और भविष्य में विभाजित. आदिमानव पत्थरों को रगड़कर आग जलाता था. गौतम बुद्ध ने वैशाली की गणिका आम्रपाली को दीक्षा दी. गुरु नानक ने सिख धर्म की नींव रखी थी. यानी जो बीत चुका है, और जो उससे भी पहले बीत चुका है. या जो अभी-अभी बीतकर अतीत का हिस्सा बना है, जो अब लौटकर आने वाला नहीं, उसको भूतकाल माना गया. वर्तमान वह जो आंखों के सामने से गुजर रहा है. मैं समय को लेकर कागज काले कर रहा हूं. डेढ़ वर्ष का ईशान आंगन में ‘दादू-दादू’ की रट लगा रहा है. ट्रांजिस्टर पर सलमा आगा द्वारा गाई सदाबहार गजल ‘दिल के अरमां आसुंओं में बह गए….’ आ रही है. अर्थात प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष वे सब घटनाएं जो हमारे साथ तारतम्यता में बनी हैं, जिन्हें हम अपने आसपास गुजरता हुआ महसूस कर रहे हैं, जिनसे हमारा आज और अब का नाता है, भले ही वे किसी और अंतरिक्ष में घट रही हों—सब वर्तमान का हिस्सा हैं. लेख पूरा होने पर किसी पत्र अथवा पत्रिका में प्रकाशित होगा. ईशान बड़ा होने पर स्कूल जाने लगेगा. मेरी नई पुस्तक प्रकाशित होकर अगले महीने बाजार में आ जाएगी, यानी कुछ ऐसी घटनाएं जो अभी घटने की प्रतीक्षा में हैं, जिनका साक्षात होना है, जो अभी तक केवल अनुमान अथवा कल्पना का विषय हैं—वे सब भविष्य का हिस्सा हैं. हाॅब्स ने भविष्य को कपोलकल्पना माना है. आने वाला समय न जाने कैसा हो? भविष्य की कल्पना कभी-कभी अच्छे-अच्छों की रातों की नींद उड़ा देती है. ‘ए’ थ्योरी के अनुसार प्रत्येक घटना का अपना समय होता है. वह भूत-वर्तमान अथवा भविष्य कुछ भी हो सकता है. बहती नदी के समान वह गुजरता जाता है. मिनट, सैकिंड, पल-अनुपल, घड़ी-प्रहर की तारतम्यता में. सिनेमा के पर्दे पर गुजर रहे दृश्यों की भांति. समय को लेकर आम धारणा यही है. इसी के आधार पर इतिहासकार बड़े-बड़े ग्रंथ रच डालते हैं. समय की यही तारतम्यता व्यक्ति को डराती है. मिनट सैकिंड, पल-अनुपल, वर्ष आदि इस मान्यता के अनुसार वे निश्चित अवधियां हैं, जो कालविभाजन को लेकर मनुष्य ने अपनी सुविधा की दृष्टि से तय की हैं. लोकमानस में समय को लेकर यही विचार मौजूद रहता है.
अनेक विद्वान समय की प्रवाहशीलता के विचार से सहमत नहीं हैं. समय को मिनट, सैकिंड, पल-अनुपल में बांटने का विचार उन्हें स्वीकार नहीं है. उनके अनुसार समय से ऐसा भौतिक आचरण अनपेक्षित है. समय उनके लिए अनुभूति का विषय है. उसकी ब्रह्मांड सदृश विराटता को केवल अनुभव किया जा सकता है. ‘बी’ थ्योरी समय की शाश्वतता और उसकी निस्सीम मौजूदगी का बयान करती है. उसके अनुसार समय ब्रह्मांडीय विस्तार जैसा ही निस्सीम और शाश्वत है, जिसमें सबकुछ घटता है. ऐसा कुछ भी नहीं जो समय की व्याप्ति से परे हो. ब्रह्मांड की प्रत्येक हलचल उसमें समाई है. इस मान्यता के अनुसार समय का आकलन संभव नहीं. इंसान केवल उसकी निस्सीमता का अनुभव कर सकता है. घटनाएं उसके अनंत महासागरीय विस्तार में आती-जाती क्षुद्र डांेगियों के समान हैं. भूत, वर्तमान और भविष्य का काल-विभाजन यद्यपि इस मान्यता में भी है. इसलिए नहीं कि वह समय की विशेषता है. बल्कि इसलिए कि वह मनुष्य की व्यावहारिक जरूरत है. सांत मानवेंद्रियों द्वारा अनंत समय से तालमेल बनाए रखने की चेष्ठा! इसलिए भूत-वर्तमान-भविष्य आदि समय के स्वतंत्र प्रखंड न होकर उसकी निस्सीमता में समाहित हैं. प्राचीन समय में आदिमानव आग जलाने के लिए पत्थर के टुकड़ों को रगड़ता था. गौतम बुद्ध ने गणिका आम्रपाली को धर्मोपदेश दिया था. गुरु नानक ने सिख धर्म की नींव रखी. सभी समय के निस्सीम-वितान में घटी घटनाएं हैं. आगे-पीछे की अनुभूति इतिहास तय करता है, जिसे मनुष्य अपनी स्मृतियों को सहेजने के लिए लिखता है. रात्रि के दस बजे हैं और मैं अपने लेख को पूरा करने के लिए कलम घसीट रहा हूं, अमेरिका में सुबह दस्तक दे चुकी है. चांदनी रात का मजा लेने के लिए कुछ लोग इंडियागेट पर घूम रहे हैं. समय की निस्सीमता में घट रहीं अथवा घट चुकीं ये घटनाएं ऐसी हैं, जिनका कोई न कोई साक्षी रहा है. तदनुसार समय ब्रह्मांड-तुल्य रचना है. सृष्टि की समस्त हलचल को अपने भीतर समेटे हुए. इसमें सभी घटनाएं जो समय के विभिन्न कालखंडों में घटी, उनके अलावा कोटिक अन्य दृश्य-अदृश्य घटनाएं भी रही होंगी—स्वतः समाहित हैं. दूरदर्शन पर प्रसारित लोकप्रिय धारावाहिक ‘महाभारत’ में उद्घोषक हरीश भिमाणी की गूंजती हुई आवाज ‘मैं समय हूं’ समय की इसी निस्सीमता का बखान करती थी. इस सैद्धांतिकी में काल-विभाजन अमान्य है. यह समय की चिंरतनवादी अवधारणा है. पहली ने इतिहास को जन्म दिया. दूसरी ने दार्शनिक चिंतना को. लेखक को जन्म दिया !

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