शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

!!उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में मुस्लिम वोट की लड़ाई और अधिकार ?

उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में मतदान आरम्भ हो गया है तीन चरणों की मतदान भी सम्पन्न हो गया है , सभी राजनैतिक दल मुस्लिम बोट के लिए तड़प रहे है  मुस्लिम  समूह के वोट किस पार्टी को मिलेंगे, इस पर बहस चल रही है। इस प्रदेश में चंद्रभानु गुप्ता से लेकर हेमवती नंदन बहुगुणा के मुख्यमंत्री बनने तक कांग्रेस को अपनी सरकार बनाने में कभी कठिनाई नहीं आई, क्योंकि मुस्लिमों के एकमुश्त वोट कांग्रेस की झोली में सरलता से गिर जाते थे। उत्तरप्रदेश में यद्यपि जातिवाद का हमेशा बोलबाला रहा है। किसी समय यहां अजगर और मजगर की बात हुआ करती थी। अहीर, जाट, गूजर व राजपूत इस समीकरण के सबसे बड़े आधार होते थे। मुस्लिम वोट लंबे समय तक कांग्रेस के माने जाते थे, पर बाद में जब समाजवादियों के कारण उनका वोट बैंक बना, तो उसमें मुस्लिमों को शामिल कर उसे मजगर कहा जाने लगा।

दलित और पिछड़े वोटों को भुनाने के लिए जब प्रतिस्पर्धा होने लगी, तो यह नारा भी लोगों ने दीवारों पर लिखा देखा-तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार। पिछड़े व अशिक्षित उत्तरप्रदेश से जब उत्तराखंड को अलग कर दिया गया, तब से यह बात भी राजनीतिज्ञों के मानस में बैठ गई कि आने वाले समय में उत्तरप्रदेश का और भी विभाजन हो सकता है। इसीलिए मायावती ने प्रदेश को चार भागों में बांट देने की कवायद शुरू कर दी। समय का प्रवाह बदलता भी रहा है, पर मुस्लिम वोट बैंक में बिखराव नहीं के बराबर हुआ। आपातकाल के बाद मुस्लिम वोट भले ही कांग्रेस की झोली से निकल गए हों, पर वे जिसको भी मिले, एकमुश्त मिले, इसलिए इस बार हर पार्टी इनको लुभाने के दांव चल रही है।

यह संभव है कि मुस्लिमों के 16 प्रतिशत वोटों में से चार-पांच प्रतिशत वोट इधर-उधर हो जाएं, लेकिन उनका अधिकतम मतदान तो कांग्रेस के पक्ष में ही होता दिखाई देता है। केंद्र सरकार ने पिछले दिनों इसके लिए अनेक प्रयास किए हैं। उसने उन्हें पिछड़ों के कोटे में से साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण देकर यह सिद्ध कर दिया कि कांग्रेस मुस्लिमों के वोटों के लिए कुछ भी कर सकती है। चुनाव से ठीक कुछ दिन पहले सलमान रुश्दी को भारत नहीं आने देकर उसने एक और बहुत बड़ा कारनामा कर दिया। इस मामले में देवबंद मदरसा, जो उत्तरप्रदेश में ही स्थित है, उसे खुश करके कांग्रेस ने अपना घोड़ा आगे बढ़ा लिया है। पिछले कुछ वर्षो से कानून-कायदे और संसद में पास होने वाले बिलों में भी इस स्वर को अधिक बुलंद किया गया कि कांग्रेस मुस्लिमों के प्रति समर्पित है। आतंकवाद के आरोपियों को विभिन्न जेलों से छोड़े जाने और उन पर लगे आरोपों को निरस्त कराने की कवायद भी कांग्रेस करती रही है। इसका लाभ कांग्रेस को मिलेगा, लेकिन यह बात इतनी सरल भी नहीं है। एक समय था कि मुस्लिम मतदाताओं पर उनके नेताओं की जोर-जबर्दस्ती चलती थी, पर पिछले वर्षो में भारतीय मतदाता परिपक्व हुआ है। नेता तो ठीक, अब तो मौलानाओं के फतवों की भी चिंता वह नहीं करता है।

दरअसल, वर्तमान पीढ़ी की सोच बदली है। वह धमकी और लालच से परे है, इसलिए कोई यह नहीं कह सकता कि कांग्रेस जो सोच रही है, उसी के अनुरूप सब कुछ होगा ही। केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने अपनी ईसाई पत्नी लुईस को जिस तरह से मैदान में उतारा है, वह इस बात का सबूत है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में मुस्लिमों को विश्वास में लेने के लिए खुर्शीद को मुख्यमंत्री का पद दिए जाने की रणनीति बना ली गई है। पत्नी की सीट से पति को चुनाव लड़ाकर विधानसभा में प्रवेश कराने में कोई कठिनाई नहीं होने वाली। कांग्रेस को विश्वास है कि इस बार मुस्लिम वोटों का बंटवारा नहीं होगा, इसलिए उसे ही बहुमत मिलेगा। भारत में इस समय केवल और केवल मुस्लिम ही संगठित हैं। मुसलमानों का गढ़ प्रारंभ से उत्तरप्रदेश ही रहा है। उसी की विशाल जनसंख्या के बल पर पाकिस्तान बना है। उत्तरप्रदेश में यह एक परंपरा रही है कि चुनाव निकट आते ही वहां स्थानीय मुस्लिम पार्टियां सक्रिय हो जाती हैं।

मुस्लिम लीग से लेकर इंसाफ पार्टी तक इनकी संख्या आधा दर्जन से कम नहीं है। जन मोर्चा और यूनाइटेड फ्रंट जैसे मोर्चे भी बन जाते हैं, पर उत्तरप्रदेश के पिछले चुनाव का जायजा यदि लिया जाए, तो पीस पार्टी ऑफ इंडिया और 2009 के संसदीय चुनाव से पूर्व बनी राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल और उसी समय अस्तित्व में आने वाली वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया परंपरा से चली आ रही मुस्लिम राजनीति से दूर हटकर जमीनी सोच लेकर राजनीति करती हुई दिखाई पड़ती हैं। डॉ. मोहम्मद अयूब और उनकी पीस पार्टी ने विधानसभा चुनाव में एकला चलो रे की नीति को अपनाया है। इसी प्रकार आजमगढ़ क्षेत्र में उलेमा काउंसिल का दबदबा है।

स्थानीय मुसलमानों पर मौलाना आमिर की जो पकड़ है, वह यह सिद्ध करती है कि राज्य और राष्ट्र स्तर की पार्टियों का खेल वह बिगाड़ सकते हैं। उत्तरप्रदेश में जब मुस्लिम वोट बैंक की चर्चा करते हैं, तब यह भी विचार करना आवश्यक है कि कुल 16 प्रतिशत वोटों में 11 प्रतिशत वोट सुन्नियों के हैं, जबकि पांच प्रतिशत शिया वोट हैं। यदि विधानसभा की दृष्टि से देखें, तो 23 विधानसभाओं में शिया निर्णायक हैं। उत्तरप्रदेश की 106 विधानसभाओं में शिया मतदाता हैं, पर दुर्भाग्य से न तो उनकी कोई पार्टी है और न ही कोई नेता। शिया समुदाय सुन्नियों की तुलना में अधिक पढ़ा-लिखा है। वहां की सरकारी नौकरशाही में भी उसका वर्चस्व है।

मुस्लिमों की धार्मिक संस्था पर्सनल लॉ बोर्ड में जब शियाओं की नहीं सुनी गई, तो उन्होंने जाने माने विद्वान मौलाना अतहर के नेतृत्व में शिया पर्सनल लॉ बोर्ड अलग बना लिया। भारत के मुस्लिम अल्पसंख्यकों में शिया लघु अल्पसंख्यक हैं, पर भारत के हर राज्य की सरकारें और केंद्र सरकार मुस्लिमों के नाम पर सारे लाभ सुन्नियों को देती हैं। वास्तविकता तो यह है कि भारत के नेताओं को भी इसका ज्ञान नहीं है कि मुस्लिमों का सारा लाभ सुन्नी उठाते हैं। बेचारे शियाओं को कोई नहीं पूछता। इसीलिए पिछले कुछ समय से मौलाना जफरूल हसन ने शिया समाज नाम का एक संगठन बनाया है, जिसके तहत शियाओं की आवाज को बुलंद करने का प्रयास किया जा रहा है।  शियाओं की लाचारी को जनता के समक्ष पेश करने का प्रयास किया जा रहा  हैं। शियाओं का प्रतिनिधित्व न तो हज कमेटी में होता है और न ही उर्दू अकादमी, फाइनेंस कॉरपोरेशन जैसी सरकारी संस्थाओं में। अत: शियाओं को जनसंख्या के अनुसार प्रत्येक स्थान पर प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। चुनाव में भी उनको अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। मुस्लिम वोट किस दिशा में गए हैं, इसका सही अनुमान तो परिणाम आने के बाद ही हो सकेगा, पर फिलहाल सभी पाटियों के कुल मिलाकर 216 उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें