बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

!! बहुजन समाज पार्टी में मायावती जी का राजनैतिक सफ़र !!

यह लेख हमने टीवी पत्रकार पूजा शुक्ला जी के फेसबुक पेज से लिया है। बकौल पूजा जी...............

बहुजन समाज पार्टी के पिछले 28 वर्षो के सफ़र पर नज़र डाले तो ये जानने में ज्यादा समय नहीं लगेगा की बसपा के संस्थापक कांशीराम की तरह ही मायावाती पार्टी की उन्नती की प्रमुख वजह रही है. इस बसपा रूपी वट वृक्ष की मुख्य शाखा अनुसूचित जातियां हैं जिन्हें बसपा समर्थित बुद्धजीवी दलित नाम से बुलाते हैं. ये दलित कोई दले हुए लोग नहीं जैसी के आम मान्यता है बल्कि ये वर्ग तो पूना अवार्ड के समय से ही भारत की विभिन्न अनुसूचित जातियों की सामाजिक क्रान्ति के फलस्वरूप उभरी अनुसूचित जाति का मध्यवर्ग है. जिस प्रकार हिन्दू धर्मं का राजनीतीकरण 'हिंदुत्व' है उसी तरह अनुसूचित जातियों का राजनैतिक मंथन दलित नाम से एकीकृत हुआ है.

आंबेडकर का मानना था की आरक्षण की सुविधा प्राप्त करते ही दलित अधिकारी अपने लोगों को छोड़ जाते हैं पर उनकी यह बात ज्यादा दिन तक कायम नहीं रही. सामाजिक-आर्थिक रूप से मजबूत हुए अनुसूचित जाति का मध्यवर्ग, जो की ज्यादातर सरकारी अधिकारी वाला शासक समूह था, आंबेडकर की मृत्यु के कुछ दशकों के बाद ही अगड़ी जातियों के सत्ता के एकाधिकार से कुपित होकर संगठित रूप से राजनैतिक भागीदारिता के अवसर ढूंढ़ने लगा. महाराष्ट्र की अपेक्षा उत्तर प्रदेश के प्रशासन में ब्राह्मण कायस्थ के बाद, अनुसूचित जाति के आई ए एस अधिकारियों की संख्या अच्छी खासी थी. अगड़ी जातियों के ब्राह्मण कायस्थों के रहते इन लोगों को वो स्थान नहीं मिला पाता था जो उन्हें मिल सकता बस इसी गुस्से को केन्द्रित कर आंबेडकर के लगभग निर्जीव हो चुके संघर्ष को कांशीराम ने बामसेफ नाम से मूर्त रूप दे दिया.बामसेफ ने इन्हीं दलित अधिकारी वर्ग को संगठित होने के लिए प्रेरित कर सवर्ण समाज से नौकरियों में छोटे फायदे की अपेक्षा स्वयं सत्ता पाकर बड़े फायदे के सपने दिखाए. बुरी तरह खीजी हुई यूपी की दलित ब्युरोक्रेसी ने इस खवाब को हकीकत में तब्दील करने का बीड़ा उठा लिया,तो कांशीराम ने भी बामसेफ को कर्मचारी यूनियन से आगे बढकर दलितों की बौद्धिक, धन व योग्यता को निखारने वाली संगठन बना डाला.

अधिकारियों के इस संगठन के पास अपना फंड, साहित्य पदाधिकारी तो थे पर नौकरी छोड़कर नेता बनाने वाले लोग नहीं थे जिसको पूरा करने के लिए कांशीराम ने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4) का गठन किया जोकि शुद्ध रूप से दलित राजनैतिक संगठन था. इन सब के बावाजूद भी 25% दलितों के पास लोकशाही में सफलता के लिए वो संख्याबल नहीं था, जिससे वे सत्ता में आ पाते, पर अगर दलितों के साथ करीबन 50% पिछड़ों जो की ज्यादातर कृषक या सेवा करने वाले समाज को मिला दिया जाए तो राज करने की जरूरी संख्याबल तैयार हो जाता है. कांशीराम ने इसी 25 जमा 50 के कम्बिनेशन को बहुजन (85% फीसदी ) नाम देकर दलितवाद को पसारते हुए उसे बहुजन शब्द में ढाल दिया. ये बहुजन अब डीएस-4 को वो संख्याबल दे सकते थे जो चुनावी राजनीती में अत्यंत आवश्यक होती है. 1984 में इसे योजना के तहत कांशीराम ने डीएस-4 को विलय कर बहुजन समाज पार्टी का गठन कर दिया.

बहुसंख्यक राजनैतिक शक्ति का नवसृजन करने के अपने शुरुआती दौर में जैसा हर संगठन में होता है वही यहाँ भी हुआ कुछ अधिकारी व नेता छोटे लालच में फंसकर 1986 में बामसेफ से अलग हो गए, पर कांशीराम लगे रहे. आंबेडकर की तरह बुद्ध धर्म के प्रसार या जोतिबा फुले के बहुजन आन्दोलन की तरह समाज सेवा में भी नहीं लगे ना ही लोगों की प्रचलित मान्यताओं व अंधविश्वास में जकड़े दलित समाज को पेरियार की तरह अनिश्वरवाद व् वैज्ञानिक तार्किक युद्ध में फंसे, उन्होंने तो अपनी सारी उर्जा दलितों को राजनैतिक पटल पर स्थापित कर सत्ता पर काबिज करने में लगा दिया. उनकी इसी हठधर्मिता से दलित सरकारी बाबुओ को भी उम्मीद बंधने लगी और कांग्रेस के करिश्माई नेतृत्व के आभाव में तुरंत अपना स्थान सुनिश्चित कर व्यक्तिवादी राजनीति को बहुजन अस्मिता की राजनीति में तब्दील कर दिया.

सन 77 में जब दिल्ली करोलबाग में रहकर कांशीराम अपनी नेतागिरी को आगे बढ़ा रहे थे तब उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय की एक छात्रा ने बहुत ही प्रभावित किया, ला फैकल्टी की 21 वर्षीय छात्र, अनुसूचित जाति के अधिकारों व सम्मान की लड़ाई की सोच वाली एक ऐसी युवा थी जिसे कांशीराम के आन्दोलन के लिए धार मिली, ये युवा छात्रा ही मायावती थी. माया की जीवनी लिखने वाले अजॉय बोस लिखतें है की 'कांशीराम मायावती के साथ बहुत अच्छी भावनात्मक जुड़ाव रखते थे, कांशीराम का गुस्सैल स्वभाव, खरी खरी भाषा व जरूरत पड़ने पर हाथ का इस्तेमाल पर मायावती की तर्कपूर्ण खरी खरी बातें भारी पड़ती थी. समान आक्रामक स्वभाव वाले दलित चेतना के लिए समर्पित इन दोनों लोगो के काम का अंदाज़ जुदा होते हुए भी एक दुसरे का पूरक था जहां कांशीराम लोगो से घुलना मिलना, राजनैतिक गपशप में यकीन रखते थे वही मायावती अंतर्मुखी रहते हुए राजनैतिक बहसों को समय की बर्बादी मानती थीं.'मायावती का ये अंदाज़ अब भी बरकरार है वे आज भी अपना काम करती हैं राजनैतिक लब्बोलुआब में ना तो वो खुद, ना ही उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं को वे शामिल होने देती है.

1984 में बसपा के गठन के बाद से ही मायावती ने कैराना से चुनावी सफ़र शुरू किया जहां पर कांग्रेस के प्रत्याशी जीते पर माया ने भी 44,445 वोटो के साथ तीसरा स्थान प्राप्त किया. तत्पश्चात 1985 बिजनौर के उपचुनावों में तीसरे स्थान के साथ 61,504 वोट मिले फिर 1987 में हरिद्वार सीट से 1,25,399 वोटो के साथ दुसरे स्थान पर रही. 1988 के महत्वपूर्ण इलाहाबाद की लोकसभा सीट के उपचुनाव में वी पी सिंह व् कांग्रेस के अनिल शाश्त्री के एतिहासिक मुकाबले में तीसरा बड़ी दावेदारी कांशीराम के नेतृत्व में इसी बहुजन समाज पार्टी ने दी. इतने प्रयासों के बाद सन 1989 में बिजनौर से 1,83,189 वोटो के साथ वे पहली बार संसद के लिए चुन ली गयी.

अस्सी के दशक में जब वे आम अध्यापिका थी तब भी वे अपनी शख्शियत के मुताबिक़ वे पूछा करती थी "अगर हम हरिजन की औलाद है तो क्या गांधी शैतान की औलाद थे" अपनी इसी तेजतर्रारी व खरी तेजाबी जुबान से जब उन्होंने वर्णवादी व्यवस्था को मनुवादी कह कह कर हिंदी क्षेत्रो में लताड़ना शुरू किया तो वर्षो से दबे हुए दलितों ने उन्हें अपनी आवाज़ और अपने लिए युद्धरत एक सिपाही पाया. कांग्रेस में वोटबैंक की मानिंद सिमटे रहने वाले दलित अधिकारी नेता अब आज़ाद महसूस करने लगे और अस्सी के दशक का हरिजन कब राजनैतिक व्यक्तित्व को प्राप्त कर 'दलित' बन गया ये पता ही नहीं चला.

1992 में पिछड़ों ने संगठित हो आरक्षण मांग कर सरकारी नौकरियों सवर्णों के दबदबे वाले गढ़ को ढहा दिया, उसके बाद के बाद पिछड़ों में भी सत्ता में भागीदारी का स्वप्न जागा, जिसके कारण सपा ने 15% मुस्लिमों और 9 फीसदी यादवों के साथ 'माई' नाम के गठजोड़ से सत्ता प्राप्त भी कर ली, तब गैर यादव पिछड़े और दलितों ने भी कांशीराम की बसपा की और रुख किया और सन 1993 में मुलायम के साथ बसपा यूपी में सरकार बनाने में सफल रही.अपनी अधिक संख्या के कारण खुद पिछड़ें समाज में भी ज्यादा विकल्प होने लगे मुलायम, शरद, लालू , नितीश, कल्याणसिंह वाला ये वर्ग हर छोटी बड़ी पार्टी में बंट गया पर दलितों ने सीधी राह पकड़ी व् मायावती को ही अपना नेता माना. मायावती ने चार चार बार उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री बन दलितों के सत्तापरिवर्तन के सपने को हकीकत में तब्दील कर दिखाया.

1984 में 'बीएसपी की पहचान, नीला झंडा हाथी निशान' व बाबा तेरा मिशन अधूरा मायावती करेगी पूरा, के नारों के साथ बसपा ने 1993 में सपा (पिछड़े मुस्लिम) व बसपा (अति पीछड़े व दलित) की युती कर मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम लगा भाजपा के पूरे राम मंदिर आन्दोलन को धुल चटा सवर्णों के धर्म व राजनैतिक आन्दोलन की रीढ़ ही तोड़ दी. कांशीराम की तरह वे उत्तरप्रदेश से बाहर की नहीं थी वे यूपी की बेटी थी वे दलित के बेटी थी. मायावती की इसी ज़मीने पकड़ के साथ आक्रामकता के चलते 1989 में महज 2 लोकसभा की सीटो पर 9.93 फीसदी मत मिले तो वहीं 1999 आते आते ये बढ़कर 14 सीटो के 22.8 per फीसदी मत हो गए.

1993 के बाद से तो पूरा एक दशक भाजपा और कांग्रेस को नागनाथ और सांपनाथ कह कह कहकर राजनैतिक मौकापरस्ती से बसपा ताकतवर होती गयी इस मौका परस्ती को कांशी राम नैचुरल जस्टिस मानते थे. अगर 1993 में मुलायम के साथ जाना बसपा का एतिहासिक फैसला था तब 1995 में भाजपा के साथ हाथ मिला दलित के ये बेटी पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बन गयी. भाजपा (सवर्ण, पिछड़ों) के साथ बसपा ( दलित अति पिछड़ों) का यह गठजोड़ विशुद्ध मौकापरस्ती थी. कई साथी इस दौर में बसपा त्याग गए, जिनमें प्रमुख नाम बामसेफ व डीएस-4 से लेकर फिर बसपा अध्यक्ष रहे राज बहादुर व मुस्लिम नेता मंत्री वे नेलोपा के संस्थापक मसूद अहमद हो, ये लोग भाजपा के अगड़ों व बसपा के दलित पिछडो के गठजोड़ के खिलाफ रहे. हालांकी राजनीति के गिरते स्तर के कारण ये मानना मुश्किल है की मात्र 1995 में भारतीय जनता पार्टी से समझौते के कारण, बीएसपी के मूल सिद्धांतों से भटकने की वजह से बसपा छोड़ दी.बसपा की पहली बार मुख्यमंत्री बंटी ही मायावती ने अम्बेडकर ग्राम की योजना को लाकर अनुसूचित जाति बहुल गांव में सरकारी निवेश को बढ़ा दिया, थानों में दलित अधिकारियों की नियुक्ती कर दलित उत्पीडन पर रोक लगा दी व दलित महापुरुषों के नाम पर नए जिले घोषित कर दलितों को मोह लिया.

भाजपा के गठजोड़ से बसपा तो बढ़ती चली गयी पर भाजपा का लगातार ह्वास हुआ 1995 से लेकर 2003 तक माया को भाजपा ने कुल तीन बार मुख्यमंत्री बनवाया बदले में 1999 में माया ने वाजपेयी सरकार गिराकर भाजपा की कमर तोड़ डी, साथ ही 52 लोकसभा सीटो में 33 फीसदी मत पाने वाली भाजपा 2009 में महज 10 सीट पर 22 फीसदी मतों के साथ सिकुड़ गयी साथ ही यूपी पर राज करने वाली भाजपा,1996 में जीती 176 सीटों से घट कर 2007 में महज 51 सीटो पर सिकुड़ गयी.अपने अनुभव से मायावती ये जान गयी की पिछड़ें-दलितों के साथी तो हैं पर उनकी संख्या बल उनमें राजनैतिक भागीदारिता की चाह रखता है, ये पिछड़ों की उत्कंठा दलितों की बसपा को समाप्त कर देगी, इसी बात को लेकर वे यादवों के बाद सबसे सशक्त पिछड़ी जाति कुर्मी से सावधान रहती हैं. इस जाति के बड़े नेता सोनेलाल पटेल(अपना दल),जंग बहादुर पटेल (बसद), राज बहादुर (बसपा-र) बाहर कर दिए गए, कांशीराम तो एक बार कह भी चुके थे के दलित की बेटी के बाद बसपा जल्दी ही कुर्मी मुख्यमंत्री बनायेगी.बसपा कभी भी दलितों की ही पार्टी नहीं रही, सी एस डी अस की माने तो सन 1996 में बसपा को 27% कुर्मी 24.7% कोईरी वोट मिले तो वही 1999 में मात्र 13% पिछड़ों के वोट कुर्मियों के कद्दावरों के बसपा को छोड़ जाने पर मिले भाजपा की सवर्ण जातियों के साथ आने से वे सवर्णों की सामाजिक राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्र में उपयोगिता समझ चुकी थीं, साथ ही वे ये भी जान गयी थीं की ये सवर्ण मौका पड़ने पर बसपा का साथ भी दे देंगे. मुलायम की पार्टी के कुछ लोगों द्वारा गेस्ट हॉउस में मायावती के साथ किये गए जानलेवा हमले में सवर्ण नेताओं खासकर ब्रह्मदत्त द्विवेदी द्वारा बचाई गयी मायावती ने भाजपा के सवर्ण की जगह सन 2005 में बसपा ने अपनी पार्टी में ही सवर्ण नेतृत्व उभारना शुरू किया. जिसको वकील से यूपी के महाधिवक्ता बनाये गए सतीश चन्द्र मिश्र ने मूर्त रूप दे डाला. मायावती ने सवर्ण और ब्राह्मण नेताओं को ज्यादा महत्त्व देना कांशीराम द्वारा बनाया गया 15 बनाम 85 फीसदी का बहुजन सामाजिक समीकरण को 25 दलित, 9% ब्राह्मण+20% अतिपिछड़ों का समीकरण कर दिया जिससे पिछड़ी जातियों और मुस्लिम समुदाय की भागीदारी कमतर होती गयी. कांग्रेस के जाते ही जो ब्राह्मण नेतृत्व विहीन हो गए थे वे सतीशचंद्र के नेतृत्व में 2007 में बड़ी संख्या में बसपा से जुड़े यहां तक की 42 ब्राह्मण जीतकर बसपा की पहली बार बने पूर्ण बहुमत सरकार का हिस्सा बने.

2007 के चुनावों के बाद नए गेटअप में नज़र आने वाली मायावती ने उत्तर प्रदेश को खुशाल प्रदेश का वादा किया, पर सबसे पहले फैसला उन्होंने लखनऊ के आंबेडकर स्मारक के रख रखाव में कोताही करने के कारण कुछ अधिकारियों को निलंबित करके लिया. मायावती ने उसके बाद कुछ दिनों तक अपनी कड़क प्रशासक की छवि के अनुरूप ही काम किया गुंडों के लगातार धरपकड़ की गयी, कुछ समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं पर भी पुलिस कार्यवाही की गयी, मुलायम राज के पुलिस भर्तियां रद्द कर उनकी जगह दुबारा भर्तियां शुरू कर सर्वसमाज (दलित व ब्राह्मण) को खुश करने का प्रयास किया. अपने मंत्रियों को भ्रष्टाचार से सचेत रहने को कहकर पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को बिना किसी दबाव के माफियाराज के खात्मे का हुक्म दे दिया. सर्वजन की विचारधारा के चलते, आम तौर पर अपनी बेलौस टिप्पणियां के लिए मशहुर मायावती ने नौकरशाहों से भली भांती समीक्षा किया हुआ भाषण पढ़ा, यहां तक की विपक्ष के हमलों का जवाब भी भाषा पर पकड़ वाले मझे हुए वकील सतीश मिश्र व सरकार के कैबिनेट सचिव शशांक शेखर ने ही दिया.

मायावती के पीछे साए की तरह खड़े रहने वाले नामों में कांशीराम के सेक्रेट्री अम्बेथ राजन व पार्टी के बिहार प्रभारी गांधी आज़ाद जैसे प्रतीबंध दलित कार्यकर्ता हैं. अम्बेथ राजन का संगठन कांशीराम व अन्य दलितों को दिल्ली में मूलभूत सुविधाएं देता था आज वे उसी प्रकार की सेवाएं बसपा के खजांची बन कर दे रहे हैं. मायावाती ने उन्हें तमिलनाडु में बसपा के प्रचार प्रसार की जिम्मेवारी दी है. आजमगढ़ के ग्रामीण आंचल से आने वाले गांधी आज़ाद तो एक बार तो मायावाती की जगह भी लेने वाले थे. सिद्ध्रत जो मायावती के भाई हैं उनकी निजी ज़िंदगी में मदद करते हैं. पुराने सहयोगी स्वामी प्रसाद मौर्य व इन्द्रजीत सरोज क्रमश यूपी व अन्य उत्तर के राज्यों का संगठन संभाले हुए है तो वही माया के दिल्ली के दिनों के साथी दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक सुधीर गोयल भी ख़ास म ख़ास बने हुए हैं. कभी उनके करीबी रहे पी एल पुनिया जी ताज कोरीडोर काण्ड में सी बी आई की तपन ना झेल पाए, और अपने बयान में कह दिया की इस मामले में सी एम को अवगत कराए थे तब लगा के मायावती का राजनैतिक जीवन ख़त्म हुआ पर किसी तरह वे बच गयी उसके बाद से मायावती सरकारी अधिकारियों से एक अच्छी दूरी बनाती है. उसका ही परिणाम है की जहा इस कार्यकाल में एनएचआरएम घोटाले में लुकी-छुपी जुबान में उनके कार्यालय के सचिव नवनीत सहगल का तो नाम आ रहा है पर उन्हें कोई दोष नहीं दे सकता.

सर्वजन हिताय व ब्राह्मण भाईचारे पर काम कर रही बसपा सुप्रीमो को 2009 के लोकसभा चुनावो में चोट लगी. बसपा 2004 लोकसभा चुनावों में जीती 19 सीटों में से 13 पर हार गई. मायावती के द्वारा चार बार जीती गयी अकबरपुर की प्रतिष्ठित सीट तो पूर्व बसपा नेता राजाराम पाल से हार गयी वहा पार्टी का उसका वोट प्रतिशत भी 2004 की तुलना में 18.84% घट गया. उसी तरह बाराबंकी 15%,उन्नाव में 13%,फैजाबाद में 12%, मुस्लिम बहुल मेरठ और डुमरियागंज में 11%, सुल्तानपुर, फतेहपुर, आजमगढ़ में 8%, मछलीशहर में साढे सात प्रतिशत वोट घट गया. वहीं कुशवाहा के रेत खनन के लायसेंस व अनुसूचित जाति में शामिल किये जाने से नाराज़ मल्लाह बहुल मिर्जापुर चंदौली और राबर्ट्सगंज में बसपा सपा से मामूली अंतर से हार गयी. लोकसभा में यूपी की 80 सीटों में से 21 पर वो जीतीं तथा 51 अन्य पर दुसरे स्थान पर रहीं, मनमाफिक नतीजे नहीं आने से मायावती काफी आहत दिखीं. मायावती का पूरा ध्यान दलितों के हित साधने में रहा। उनके द्वारा बैकलाग की भर्तियों पर बार-बार पूछताछ जारी रही.दलित कोटे का पूरा करना और महत्वपूर्ण पदों पर उन्हीं के लोगों की तैनाती इस बात को दर्शाती रही कि वे केवल उनके लिए ही शासन कर रही हैं.

दलितों का बसपा के प्रति गुस्सा और दलित नेताओ को बाहर का रास्ता दिखाना मायाराज में आम बात हो गयी है. कई कई साल बसपा को देने वाले सलेमपुर के पूर्व सांसद बब्बन राजभर हो, बलिया से ही कांशीराम के साथी पूर्व सांसद बलिहारी बाबू हो, इलाहबाद से इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष कालीचरण सोनकर हो, आजमगढ़ के सगड़ी के नेता मल्लिक मसूद हो, देवरिया जिले से वरिष्ठ नेता व 1993 में मंत्री शाकिर अली हो, कानपुर शहर से मंत्री डा. रघुनाथ संखवार हो, आर्य नगर के पूर्व बसपा विधायक महेश बाल्मीकि हो ,उन्नाव के मोहान से पूर्व विधायक राम खेलावन पासी हो,अमरोहा से रशीद अल्वी हो, अकबरपुर से राजाराम पाल हो, राम लखन वर्मा, भगवत पाल,रामाधीन, मेवा लाल बागी हो, मोहनलाल गंज से कांशीराम की बसपा के नंबर दो नेता रहे व अब राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी (रास्वपा) के संस्थापक पासियो के एकछत्र नेता रामकेवल उर्फ आरके चौधरी हो सबको बाहर कर दिया गया है.राजाराम पाल,राम खेलावन पासी, डा. रघुनाथ संखवार, राजबहादुर, महेश बाल्मीकि,बलिहारी बाबू,रामाधीन, मेवा लाल बागी, बब्बन राजभार आज कांग्रेस के शोभा बढ़ा रहे है.25 साल के बाद मायावती की अकबरपुर सीट को राजाराम पाल ने कांग्रेस को दिलवाकर मया की नींद हराम कर दी है.गांधी आजाद, महाराष्ट्र प्रभारी वीर सिंह ,बंगाल प्रभारी महेश आर्यन जैसे गिने चुने पुराने नाम शेष है.

वर्ष 2007 में डंके की चोट पर चौथी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाली मायावती का आगाज जितना अच्छा था, अंजाम उतना ही खराब हो गया, कभी ‘पत्थरों से प्रेम‘ तो कभी दौलत की बेटी‘ जैसी उपमाओं से नवाजी जाने वाली मुख्यमंत्री मायावती का पिछला पूरा साल भ्रष्टाचार, बिगड़ती कानून व्यवस्था और किसान आन्दोलन पर लगे आरोपों का जबाव देते हुए गुजर गया. लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर माया हावी होने लगी, शहरों में गैर बसपा पार्टियों के पकड़ के मद्देनज़र निकाय चुनाव एक्ट संशोधन कर पार्टी सिम्बल पर चुनाव लड़ाने पर रोक लगा दी जिसे इलाहबाद हाईकोर्ट ने निरस्त कर दिया. राज्य के छात्रसंघों पर सपा की पकड़ देखते हुए विश्विद्यालयो में चुनाव बैन कर दिए. टीम अन्ना, राहुल समेत राष्ट्रीय नेताओ ने किसानो के मुद्दे व नरेगा पर भ्रष्टाचार की बात की तो धारा 144 लगवा दी. लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के वरूण गांधी के उतेजित भाषण के बाद उन पर रासुका लगाने का फैसला मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने के लिए लिया तो यूपी कांग्रेसाध्यक्षा रीता बहुगुणा ने मायावती की बलात्कार पर मुआवजे पर उंगली उठाई तो उनके ऊपर मुकदमों की झड़ी लगा दी गई.

बरेली और मेरठ सहित कुछ अन्य जगह हुए साम्प्रदायिक दंगों की आग ने भी सरकार की छवि को ठेस पहुंचाई तो वही गोरखपुर मंडल में जापानी एन्सेफ्लाईटिस में हज़ारों बच्चों की मौतों को सरकार रोकने में पूरी तरह विफल रही. माया ने जहां बसपा के दलित पुरोधाओं की पत्थर की कीमती मूर्तियों में जनता के करीब 2500 करोड़ खर्च कर दिए, वहीं चुनाव के मुहाने पर आबकारी नीति से माल बनाने वाले व्यवसायी ने भी माया सरकार की मिटटी पलीद कर दी.

जुर्म और बाहुबलियों के खिलाफ 2007 में मिले जनसमर्थन पर शुरुवाती दिनों में अच्छा काम करने के बाद मायावती ने बाहुबलियों-अपराधियों को धीरे धीरे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने लगी. बाहुबली आनंद सेन, शेखर तिवारी, गुडडू पंडित,अरूण कुमार शुक्ला उर्फ अन्ना, अफजाल अंसारी और मुख्तार अंसारी से साठगांठ इसी बात को बताती है. सन 2010 में आंबेडकर जयन्ती समारोह के दौरान गोंडा जिला पंचायत सदस्य हनुमान शरण शुक्ल को भरे मंच पर ठीक कलेक्ट्रेट के मुख्यद्वार के सामने गोली मारकर गुंडों ने हत्या कर दी, वहीं इलाहबाद में मंत्री नंद गोपाल नंदी पर जानलेवा हमले ने प्रदेश की कानून व्यवस्था हश्र उजागर कर दिया, रही सही कसर मंत्रियो की अपराध संलिप्तता ने पुरी कर दी. एटा के सुनारों की दूकान लूट,तिहरे हत्याकांड में राज्यमंत्री अवधपाल सिंह यादव और उनके एमएलसी भाई हत्यारोपी बने,बाबू सिंह कुशवाहा और अनंत कुमार मिश्र दो सीएमओ की हत्याओं में फंसे, कैबिनेट मंत्री वेदराम भाटी पर गाजियाबाद में तिहरे हत्याकांड में फंसे, गईबांदा के बसपा विधायक पुरूषोतम पर भी एक लड़की को बंधक बनाकर उसके साथ रेप करने का मामले फंसे,बाहुबली आनंदसेन, दलित बसपा कार्यकर्ता की पुत्री के रेप व उसकी हत्या की साजिश में फंसे, माया के जन्मदिन पर धन उगाही के चाक्कर में बसपा विधायक शेखर तिवारी का इंजीनियर मनोज हत्याकांड में फंसे, संलिप्तता जाहिर हुई,रीता बहुगुणा का घर फूंक कर विधायक जीतेन्द्र सिंह फंसे. साथ ही राज्यमंत्री जयवीर सिंह पर एक अभियंता की पत्नी ने अपने पति की हत्या का आरोप लगाया, स्वास्थ्य मंत्री रहे अनंत कुमार मिश्र पर एक शिक्षिका ने अपने पति को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित करने का आरोप लगाया,राज्यमंत्री रहे हरिओम उपाध्याय पर अगवा हुए एक इंजीनियर ने रिहा होने के बाद उन पर आरोप लगाया, जिससे सरकार में जुर्म पर लगाम के दावे कमजोर हुए.

जुर्म और अपराधियों को संरक्षण ना देने की छवि को प्रस्तुत करने के लिए मायावती ने 2012 चुनावों के मद्देनज़र ऑपरेशन क्लीन के तहत 206 विधायको में से 110 विधायकों का पत्ता काट दिया. बसपा से वह बाहुबली ही बाहर किए गए जो थोड़ा निर्बल थे,जिनको पार्टी से कोई खास फायदा ना होके बदनामी मिल रही थी. आपराधिक मामलों वाले रायबरेली सदर के बसपा प्रत्याशी पुष्पेन्द्र सिंह, बहराइच की कैसरगंज से खालिद खान को पार्टी ने टिकट देकर इस बात को पुष्ट भी किया. अमेठी में स्टेडीयम निर्माण में हुई अनियमितता पर लोकायुक्त की शिकयात के बावजूद फतेहपुर के अयाहशाह से अयोध्या पाल, धर्माथ एवं होम्योपैथिक चिकित्सा राज्यमंत्री राजेश त्रिपाठी को गोरखपुर से,मंत्री ठाकुर जयवीर सिंह अलीगढ़ की बरौली से, बाहुबली इन्द्र प्रताप सिंह को गोसाईगंज से उतारकर व एनआरएचएम घोटाले में लिप्त स्वास्थ्य मंत्री अनंत कुमार मिश्र की जगह उनकी पत्नी शिखा मिश्र को महाराजपुर से,टिकट देकर बसपा की क्लीनिंग की गवाही खुद ही कर दी कर दी.

नौकरशाही पर इस बार ज्यादा विश्वास करने के कारन माया की जनता से दूरियां बढ़ गयी, सांसद और विधायक तक मुख्यमंत्री से नहीं मिल पाते थे. पहले कद्दावर नेताओ की वजह से नौकरशाही सहमी रहती थी जिससे सांसदों और विधायकों का रसूख कायम रहता था. पर इस बार मुख्यमंत्री की ओर से कैबनेट सचिव शशांक शेखर ही आदेश देने लगे, फिर चाहे वो सचिवालय के वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक हो या कानून व्यवस्था की समीक्षा या मंत्रियों को आदेश देना, कैबिनेट सचिव के द्वारा ही उन्हें मुख्यमंत्री के निर्देशों अथवा मंशा से अवगत कराया जाने का सिलसिला शुरू हुआ. आलम तो यह हुआ की मंत्रीयों समेत विधयक सब माया से मिलने के लिए उनसे ही समय लेने लेगे जिसकी वजह से लोग लिए शशांक शेखर को कैबिनेट सचिव के बजाय कार्यवाहक मुख्यमंत्री तक कहने लगे.पूर्ण बहुमत होने के कारण सरकार पूरी तरह से निरंकुश और नौकरशाही बेलगाम हुई तो परिणाम भ्रष्टाचार के रूप में बाहर आने लगे.ताज कोरिडोर घोटाले में फंसने के बाद सीख लेते हुए मुख्यमंत्री मायावती ने भविष्य में किसी भी तरह की जांच से बचने के लिए फ़ाइलों पर हस्ताक्षर न करने के इरादे को नौकरशाहों ने खूब भुनाया.

2009-10 में मनरेगा के तहत दिए 750 करोड़ रूपये, 2008-09 में 5500 करोड़ रूपये 2007-08 में 4800 करोड़ रूपये में आडिट गड़बड़ी सामने आयी, 2009-10 में 1600 करोड़ रूपये खर्च करके महीने भर में बुन्देलखंड में 10 करोड़ पेड़ लग गए, 5000 करोड़ का एनएचआरएम घोटाला हुआ. बात घोटालों तक ही सीमित नहीं हुई, अफसरशाही में भी मायावती सरकार ने अपने चहेतों को रेवड़ियों की तरह पद बांटे हैं, विभिन्न आयोगों में अपने खास सिपहसलारों को अध्यक्ष बनाकर अप्रत्यक्ष रूप से उस पर अपना कब्जा कर लिया है हद तो जब हुई जब उन्होंने अपनी पसंदीदा ब्यूटी पार्लर की पूनम सागर को महिला आयोग का अध्यक्ष बनवा दिया. बसपा का स्थायी वोट बैंक कहलाने वाला दलित,जिसने लम्बे समय से एकजुट होकर बसपा को एक बड़ी ताकत के रूप में खड़ा किया उसका भी मोह माया से भंग होता दिख रहा है। इसकी मुख्य वजह है कि उसकी कहीं पर भी सुनवाई नहीं हो रही है। उस पर अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं लेकिन सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही है। महज अधिकारियों के तबादले कर व समय-समय पर अधिकारियों की जिम्मेदारी तय करके मुख्यमंत्री अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती हैं।खैर, इतना तो तय है कि मायावती के शासनकाल में विपक्ष और प्रदेश की जनता को लाखों खामियां दिख रहीं हो लेकिन बसपा के वोटर के लिए तो यही खुशी की बात है कि ‘बहनजी’ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं। उनके समाज के महापुरूषों को पहचान दिलाने का काम भी बसपा सुप्रीमों ने बखूबी किया। यही वजह है , उनका वोटर बहनजी को पांचवी बार भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन होता देखना चाहता है।

!! उत्तरप्रदेश में लुट तंत्र ,खसोट तंत्र की मुखिया .........?

http://www.helloraipur.com/chhattisgarh/raipur/left_Utility.php?pid=2104&cat=blogs&head=&pg=2भारतीय जनता पार्टी में सिर्फ बाबूसिंह कुशवाहा के आनेमात्र से देशभर में भाजपा में भ्रष्टों को संरक्षण देने की गंभीर बहस शुरू हो गई है और हम भूल गये हैं कि ये बाबूसिंह कुशवाहा कहां थे और किन आरोपों के कारण ये भ्रष्ट शिरोमणि करार दिये गये. उत्तर प्रदेश में लोकायुक्त नामक संस्था की रपटों पर शासन के आखिरी चंद लम्हों में माया मेमसाहब को दर्जन भर मंत्री भ्रष्ट नजर आने लगे और एक एक करके उन्होंने उन मंत्रियों को दरवाजा दिखा दिया. यही दर दर भटकते मंत्री अब दूसरों दलों की शरण ले रहे हैं.

इन भ्रष्ट मंत्रियों पर बहस के बीच क्या उस सरकार की मुखिया पर बात नहीं होनी चाहिए जो इन भ्रष्टों को अपने दामन में लपेटे पांच साल प्रदेश में लूट का कारोबार करती रही? लोकआयुक्त की जिन रिर्पोटों के आधार पर मुख्यमंत्री मायावती ने अपनें कुख्यात मंत्रिमण्डल के भ्रष्ट एवं बे-इमान मंत्रियों के मंत्रिमण्डल से बर्खास्तगी का एक अभियान सा छेड़ दिया है। क्या इतने से मायावती ईमानदारी का तमगा हासिल कर लेंगी? पाँच सालों तक एक महाभ्रष्ट एवं बे-इमान सरकार चलानें का उन पर लगा बदनुमा दाग मिट सकता है�? अगर नहीं तो फिर यह राजनीति नौटंकी क्यों?
 यहाँ यह काबिलेगौर है कि, मंत्रिमण्डल के भ्रष्ट एवं बे-इमान मंत्रियों की बर्खास्तगी का स्वंाग तब रचा गया जब चुनाव सर पर आ गया इतना ही नहीं मैडम माया नें भ्रष्ट मंत्रियों की बर्खास्तगी के लिए रफ्तार तब पकड़ा जब चुनावी आचार संहित लागू हो गई। यानि कि अपने मंत्रिमण्डल के भ्रष्ट एवं बे-इमान सहयोगियों को आखिरी समय तक माया मेम साहब ने लूटने खाने की पूरी आजादी दे रखी थी।

सच तो यह है कि, प्रदेश में भ्रष्टों बे-इमानों एवं अपराधियों की सरकार बनने का सहज अंदाज उसी दिन हो गया था जब 2007 की बसपा सरकार का शपथ ग्रहण समारोह ही अपराधियों को मंत्री बनानें के श्री गणेश से हुआ था। प्रदेश के इतिहास में यह पहला अवसर था कि जेल में बंद किसी विधायक (आनंद सेन यादव) का नाम शपथ ग्रहण वाले मंत्रियों की सूची में था। यह जानते हुए भी कि वह विधायक शपथ लेनें ततक नहीं आ सकता। बहरहाल, पाँच साल माया सरकार नें इन्हीं भ्रष्ट एवं अपराधी विधायकों-मंत्रियों के साथ प्रदेश में लूट-खसोट का एक कीर्तिमान स्थापित किया है। और अब जब चुनाव सर पर है तो वह संदेश देनें का ढोंग किया जा रहा है

खुद मुख्यमंत्री मायावती के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति के आरोप में सी0बी0आई0 जाँच और कार्यवाही को लेकर मामला सुप्रीमकोर्ट में लम्बित है। मायावती के भाई आनंद पर तीन सौ फर्जी कम्पनियाँ बनाकर अरबों रूपयों की लूट का आरोप लोकआयुक्त के यहाँ भाजपा के किरोट सोमैय्या नें लखा रखा है। इसी तरह फर्जी कम्पनियाँ बनाकर पिछले करीब पौने पाँच सालों मतें चर्चित शराब माफिया पोंटी चड्ढा और मायावती के भाई आनंद पर आबकारी की कमाई लूटने का आरोप है। बसपा में ब्राह्मण चेहरे के सबसे कद्दावर नेता पं. सतीशचन्द्र मिश्र के विरूद्ध भी करोड़ों-अरबों रूपयों के घोटाले का आरोप लग रहा है।

एक गैर सरकारी रिर्पोट के मुताबिक, मायावती के इस राज में बसपा के नाम पर सत्ता के इर्द-गिर्द मंडराने वाले छुटभैय्ये नेता व कार्यकर्ता तक तखपति नहीं करोडपति हो चुके हैं। और जो ठीक-ठाक कद के हैं उनकी गिनती अब अरबपतियों में होनं लगी है। करीब एक लाख से ज्यादा नए अमीर मायावती के इस राज में पैदा हो चुके हैं, जिनमें मंत्री से लेकर संतरी, चपरासी से लेकर अफसर और बसपा नेता तक शामिल हैं। राज्य के अस्सी प्रतिशत ठेकों पर बसपा विधायकों के परिवार वालो या फिर रिश्तेदारों के कब्जे हैं। नब्बे प्रतिशत विधायक एवं उनके लगुए-भगुए बीते इन साढ़े चार सालों में �रियल स्टेट� में घुस गए। जहाँ जमीनें हाथ लगी, कब्जा जमाया। राज्य में ऐसा कोई धंधा नहीं बचा, जहाँ से हाथी की सवारी करनें वालों नें दोनों हाथों से पैसा न कमाया हो या फिर धंधे में पैसा न लगाया हो। राज्य का स्वास्थ्य विभाग तो सिर्फ नाम के लिए बदनाम रहा है। उससे कहीं ज्यादा लूट तो दूसरे विभागों में जारी है।

देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में पिछले लगभग पाँ सालों तक किए गए लूट-खसोट पर यह कहना संभवतः अनुचित नहीं होगा कि - �यहाँ दाल में काला नहीं� बल्कि पूरी दाल ही काली नजर आ रही है। राज्य की मुख्यमंत्री सहित शायद ही ऐसा कोई अभागा मंत्री बचा हो जिसके दामन पर भ्रष्टाचार के दाग न लगे हों। बावजूद इसके भय-मूख और भ्रष्टाचार के विरूद्ध हाथी की तरह चिघाड़ने वाली मुख्यमंत्री मायावती चुनाव से पहले यह संदेश देने की कोशिश कर रही हैं कि - �उनकी सरकार में भ्रष्टचार किसी भी कीमत पर बर्दास्त नहीं है। हालांकि, मुख्यमंत्री मायावती का यह संदेश राज्य की जनता के गले नहीं उतर रहा है। अब ओर जहाँ �पकड़� में आए भ्रष्ट मंत्रियों एवं विधायकों के टिकट काट रही हैं मायावती तो वही, दूसरी ओर उन्ही भ्रष्ट मंत्रियों-विधायकों के परिजनों को विधानसभा चुनाव के टिकट दिए जा रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में चुनाव की तिथियाँ घोषित होनें के एक दिन बाद ही मुख्यमंी मायावती नें भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण लोक आयुक्त की जांच में धिरे सरकार के चार मंत्रियों को एक साथ बर्खास्त कर दिया। सरकार से बर्खास्त हुए मंत्रियों में उच्च शिक्षा मंत्री राकेश धर त्रिपाठी, कृषि शिक्षा एवं कृषि अनुसंधान मंत्री राजपाल त्यागी, पिछड़ा वर्ग कल्याण राज्य मंत्री अवधेश कुमार वर्मा और होमगार्ड्स एवं प्रान्तीय रक्षा दल राज्यमंत्री हरिओ शामिल हैं। इन सभी पर भ्रष्टाचार समेत अन्य आरोप भी हैं। परिवहन मंत्री रामअचल राजभर तथा आयुर्वेद चिकित्सा मंत्री ददन मिश्र के भी लोकआयुक्त की सिफारिश पर धमार्थ कार्य राजय मंत्री राजेश त्रिपाठी, पशुधन एवं दुग्धविकास राज्यमंत्री अवध पाल सिंह यादव, माध्यमिक शिक्षा मंत्री रतनलाल अहिरवार को लाल बत्ती सुख से हाथ धोना पड़ा था। इसके अलावा राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में अरबों रूपयों के घोटाले एवं तीन-तीन हत्याओं के कारण मायावती के किचन कैबिनेट मंत्री रहे परिवार कल्याण मंत्री रहे बाबू सिंह कुशवाहा और स्वास्थ्य मंत्री अनंत कुमार मिश्र को भी पद से हाथ धोना पड़ा है। मायावती के खास मानें जाने वाले काबीना मंत्री नसीमुद्दीन एवं उनकी एमएलसी पत्नी हुश्ना सिद्दीकी लोक आयुक्त की जाँच के घेरे में हैं। बावजूद इसके मायावती नें नसीमुद्दीन के खिलाफ किसी तरह की कार्यवाही करनें की कोई जहमत नहीं उठाई है, बल्कि उन्हें अन्य विभागों का भी कार्यभार सौंप दिया गया है। प्रदेश के उच्च शिक्षामंत्री रहे राकेशधर त्रिपाठी के खिलाफ लोक आयुक्त के यहाँ शिकायतें दर्ज हुई थी। इसके अलावा भी उनकी कई शिकायतें थीं। इसी वजह से उनका टिकट काटकर पहले उनके भतीजे पंकज त्रिपाठी को हण्डिया से टिकट दिया गया बाद में पंकज त्रिपाठी का भी टिकट काटते हुए राकेशधर त्रिपाठी को मंत्रिमण्डल से बर्खास्त करनें का फरमान जारी कर दिया गया।

प्रदेश के कृषि शिक्षा मंत्री राजपाल त्यागी का नाम तब उभरा, जब इलाहाबाद उच्चन्यायालय नें 2009 में हुए रविन्द्र त्यागी मुठभेड़ कांड की सीबीआई जाँच के आदेश दिए थे। इस मामले में रविन्द्र त्यागी की पत्नि नें राजपाल पर हत्या का आरोप लगाया था। पिछड़ा वर्ग कल्याण राज्य मंत्री अवधेश कुमार वर्मा और होमगार्डस एवं प्रान्तीय रक्षादल मंत्री हरिओम के खिलाफ लोकआयुक्त की शिकायतों के अलावा अन्य कई आरोप है। कैबिनेट मंत्री चन्द्रदेव राम यादव नें लोकआयुक्त को दिए अपनें बयान में स्वीकार किया कि उन्होंने मंत्री रहते हुए हेडमास्टर का वेतन लिया है।

मयावती मंत्रिमण्डल के परिवहन मंत्री रामअचल राजभर के विरूद्ध एक परिवाद दाखिल हुआ है। जो कि अपनें आप में हास्यप्रद एंव हैरतअंगेज भी है। परिवाद के अनुसार-परिवाहन मंत्री रामअचल राजभर राजनीति में आनें से पहले अपनें गृह जनपद अम्बेडकर नगर एवं आस-पास के कस्बों में नि सिर्फ चूहा मार दवा बेचकर ही बल्कि �भांड मण्डली� में नाच-गा कर अपनें परिवार का जीविको पार्जन किया करते थे। लेकिन बसपाई राजनीति में पैर पसारते ही रामअचल राजभर की आर्थिक स्थिति में दिन दूनी-रात चौगुनी की रफ्तार से इजाफा होता गया। परिवाद में परिवहन मंत्री रामअचल राजभर के आर्थिक साम्राज्य का जो दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत किया गया तो भी उक्त रामअचल की �अचल� सम्पत्तियाँ पचासों करोड़ से ऊपर की साबित होती है। बावजूद इसके मुख्यमंत्री मायावती की कृपादृष्टि रामअचल पर अब तक बनी हुई है।

मुख्मंत्री मायावती के कथित �आपरेशनक्लीन� के बावजूद माया मंत्रिमण्डल में अभी भी जयबीर सिंह, बेदराम भाटी, दद्दू प्रसाद, धर्म सिंह सैनी अयोध्यापाल, और राज्यमंत्री जयबीर सिंह जैसे स्वनामधन्य कुख्यात मंत्री मायावती मंत्रिमण्डल की शोभा बढ़ा रहे हैं। यहाँ यह जानना दिलचस्प होगा कि मुख्यमंत्री मायावती द्वारा पिछले दिनों चलाए जा रहे �औचक निरीक्षण� के दौरान एक महिला नें स्वयं मुख्यमंत्री से मिलकर मंत्री जयबीर सिंह के खिलाफ पंचायत चुनाव में पैसे लेने का आरोप लगाया। शिकायत के बाद इस मंत्री पर कार्यवाही करनें की बजाए उसी शिकयतकर्ता महिला को जेल भिजवा दिया गया। इसी प्रकार राज्यमंत्री जयबीर सिंह पर एक युवती नें अपनें पिता के अपहरण और हत्या का आरोप लगाया उस महिला को इंसाफ मिलने को कौन कहे उल्टे उसी के विरूद्ध एफआईआर दर्ज करवा कर उसे जेल भिजवा दिया गया।

प्रदेश के खेलमंत्री अयोध्यापाल का �बहाशीयाना खेल� तो किसी भी सभ्य समाज को शर्मशार कर देने वाला है बावजूद इसके अयोध्यापाल �माननीय मंत्री� की कुर्सी पर विराजमान है। वेदराम भाटी के खिलाफ भी �तिहरे हत्याकाण्ड� का मामला था लेकिन प्रदेश के डीजीपी से जाँच करा कर वेदराम भाटी को क्लीनचिट दे दी गई। ग्राम्य विकास मंत्री दद्दू प्रसाद पर कमला नामक एक लड़की नें आरोप लगाया कि �नौकरी दिलानें के नाम पर� मंत्री दद्दू प्रसाद उसका शारिरिक शोषण करते रहे लेकिन उसे नौकरी नहीं दिलवाये। कमला बनाम दद्दू प्रसाद का यह प्रकरण मीडिया की सुर्खियों में छाया रहा पर दद्दू प्रसाद की इस �दादागिरी� पर �माया की गाज� नही गिरी।

मायावती मंत्रिमण्डल में उर्जामंत्री रामबीर उपाध्याय बसपाई राजनीति में महत्वपूर्ण ब्राह्मण चेहरा हैं। उर्जामंत्री रामबीर उपाध्याय के विरूद्ध लोकआयुक्त के यहाँ निजी क्षेत्र से महंगी बिजली खरीदनें, आय से अधिक सम्पत्ति इकठ्ठा करनें, विधायक निधि का दुरूपयोग करनें और सरकारी जमीन पर बलात् कब्जा करनें जैसी कई गंभीर शिकायतों का परिवाद दाखिल हुआ। जिस पर लोकआयुक्त कार्यालय से उर्जामंत्री रामबीर उपाध्याय को नोटिस भी जारी कर दी गई। बाद में सारे मामले अदालत में विचाराधीन होनें के कारण लोकआयुक्त नें रामबीर उपाध्याय की जांच बंद कर दी। जिस पर 31 दिसम्बर को अपनें गृहजनपद हाथरस में एक आमसभा में माया के उर्जा मंत्री रामबीर उपाध्याय नें लोकआयुक्त को मंच से सार्वजनिक रूप से धमकानें में गुरेज नहीं किया।

उपरोक्त तमाम तथ्यों के बाद भी अगर मुख्यमंत्री मायावती यह दावा करते नहीं थक रही हैं कि - भ्रष्ट एवं भ्रष्टाचारियों को बर्दास्त नहीं किया जाएगा तो फिर मायावती को सार्वजनिक रूप से स्पष्ट करना चाहिए कि वे किस सीमा तक होने वाली लूट को भ्रष्टाचार मानेगी।

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

! जातीय गणना कितना उचित या अनुचित ?

 संसद के पिछले सत्र् में लगभग सभी दलों ने फैसला कर लिया था कि 2011 की जनगणना में जातीय गणना अवश्य होनी चाहिए लेकिन पिछले सप्ताह दस मंत्रियों के समूह ने सिर्फ इस बंद पिटारे को दुबारा खोल दिया बल्कि अगले एक माह तक इस मुद्दे पर खुली बहस चलाने की घोषणा की है| यह कैसे हुआ ? क्यों हुआ ?
संसद में सर्वसम्मति बहुत हड़बड़ में हुई| बिना किसी गंभीर बहस के हुई| मई के प्रथम सप्ताह में यह फैसला होते ही मैंने इसके विरूद्घ एक लेख लिखा और तत्काल देश के सभी प्रमुख दलों के नेताओं से बात की, प्रधानमंत्री से भी ! जातीय जनगणना के दुष्परिणाम कितने भयंकर हो सकते हैं, इसे समझने में हमारे नेताओं को ज़रा भी देर नहीं लगी| चक्र उलटा घूमने लगा| पुनर्विचार शुरू हो गया| देश के कुछ प्रसिद्घ नेताओं, विधिशास्त्रियों और विद्वानों ने मुझसे आग्रह किया कि मेरी जाति हिंदुस्तानीलेख लिख देना ही काफी नहीं है| यह 21 वीं सदी के भारत का सबसे महत्वपूर्ण एजेंडा है| आप इस पर आंदोलन चलाइए|
बिना चलाए ही यह आंदोलन चल पड़ा| देश के लगभग सभी प्रमुख धर्माचार्य इससे जुड़ गए| सबने जातीय जनगणना को जातिवाद बढ़ानेवाली बताया| इस्लामी और ईसाई धर्माचार्यों ने इसे अपने धार्मिक सिद्घांतों के विरूद्घ बताया| राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर्वोच्च नेता श्री मोहन भागवत ने कहा कि भाजपा का रवैया चाहे जो भी हो, हम आपका समर्थन करेंगे| सिखों की शिरेामणि सभा ने जातीय जनगणना का विरोध कर दिया| आर्य समाज ने किया| शिवसेना के श्री बाल ठाकरे ने जातीय गणना को राष्ट्रविरोधी घोषित किया| श्री अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग पर लिखा, ‘मेरी जाति भारतीय‘ ! इतना ही नहीं पूर्व चीफ जस्टिस जे.एस. वर्मा, श्री राम जेठमलानी, श्री फली नारीमन, श्री बलराम जाखड़, श्री वसंत साठे, श्री जॉर्ज वर्गीज़, डॉ. नामवर सिंह जैसे लोग इस आंदोलन के संरक्षक बन गए| श्री स. ना. गोयंका (विपश्यना), बाबा रामदेव, डॉ. प्रणव पंड्रय जैसे विश्व-विश्रुत आचार्यगण इस आंदोलन से जुड़ गए| इस आंदोलन के संचालक मंडल में पूर्व मंत्र्ी श्री आरिफ खान, पूर्व राजदूत श्री जे.सी शर्मा, पूर्व लोकसभा महासचिव डॉ. सुभाष कश्यप, श्री वीरेशप्रताप चौधरी, डॉ. लवलीन थडानी और श्रीमती अलका मधोक आदि सकि्रय भूमिका अदा कर रहे है| अमजद अली खान, श्याम बेनेगल, दिलीप पडगांवकर, रजत शर्मा, रूद्रसेन आर्य, जैसे देश के अनेक नामी-गिरामी विद्वान, पत्र्कार, कलाकार, व्यावसायी और नौजवान इस आंदोलन से जुड़ते चले जा रहे हैं| कई शहरों में इसकी शाखाएं खुल गई हैं|
इस आंदोलन का उद्देश्य देश के किसी भी तबके या नागरिक को नुकसान पहुंचाना नहीं है| यह सोचना कि यह आंदोलन देश के पिछड़ों का विरोधी है, बहुत ही गलत होगा| यह कहना घोर असत्य है कि यह आंदोलन ब्राहम्णवाद या सवर्णवाद का शंखनाद है| इस आंदोलन के साथ देश के लगभग सभी वर्गों के लोग जुड़े हुए हैं| वास्तव में यह आंदोलन हमारे देश के वंचित भाइयों का सबसे प्रबल पक्षधर है| वंचितों के लिए विशेष अवसर, विशेष सुविधा और विशेष अधिकार के हम सुद्दढ़ समर्थक हैं| हमारी मान्यता है कि जनगणना में जाति को जोड़ने से वंचित वर्गों का लाभ होना तो दूर रहा, उनका नुकसान ही ज्यादा होगा|
देश के अनुसूचितों, आदिवासियों और पिछड़ों को इस समय सरकारी नौकरियों में 49.5 प्रतिशत आरक्षण मिल रहा है| उच्चतम न्यायालय 50 प्रतिशत से अधिक की अनुमति किसी भी हालत में नहीं देता| यदि जातीय जनगणना में आरिक्षतों की संख्या मान लें कि 10 करोड़ ज्यादा निकली तो क्या आरक्षण 50 से बढ़ाकर 60 प्रतिशत किया जा सकता है ? नहीं| मान लें कि 10 करोड़ कम निकली तो क्या देश में कोई ऐसा दल या नेता है, जो 50 को घटवाकर 40 प्रतिशत करवा सके ? तो जातीय जनगणना करके हम फिजूल में क्यों थूक बिलोना चाहते हैं ?
पिछड़ी जातियों को जो 27.5 प्रतिशत आरक्षण दिया गया था, वह 1931 की जन-गणना के आधार पर दिया गया था| उस समय उनकी संख्या 52 प्रतिशत मान ली गई थी लेकिन अब नेशनल कौंसिल ऑफ एप्लाइड इकनॉमिक रिसर्चके ताज़ातरीन अध्ययन के अनुसार वह 41 प्रतिशत के आस-पास है याने यदि 2011 में जातीय गणना हुई तो उन्हें आरक्षण में 11 प्रतिशत का घाटा उठाना पड़ेगा|
इसके अलावा पिछड़ी जातियों की मलाईदार पर्तोंके विरूद्घ उन्हीं की अति पिछड़ी और अतीव पिछड़ी जातियों ने बगावत के नारे बुलंद कर दिए हैं| जो पिछड़े नेता जातीय गणना के पक्ष में शोर मचा रहे हैं, उन्हीं की जातियों को सबसे ज्यादा नुकसान होगा| आरक्षण में आरक्षण की बंदर-बाँट शुरू हो जाएगी|
यों भी जातीय गणना सर्वथा अवैज्ञानिक है| यह गणना यदि गरीबी दूर करने के लिए की जा रही है तो फिर गरीबी और उसके कारणों की ही सीधी खोज क्यों नहीं की जाती ? हाथ घुमाकर नाक पकड़ने में कौनसी तुक हैं ? क्या देश में एक भी जाति ऐसी है, जिसका हर सदस्य गरीब है या अमीर है ? फिर गरीबी हटाने का आधार जाति को कैसे बनाया जा सकता है ? काका कालेकर और मंडल आयोग के समय भी जातियों के आंकड़े इकट्रठे नहीं किए गए| ऐसा करना संभव नहीं था| इसीलिए जातियों को कामचलाऊ आधार बना लिया गया| स्वयं कालेलकर ने जातीय आधार को अपूर्ण और अवैज्ञानिक कहा है|
1931 की जनगणना के अंग्रेज कमिश्नर डॉ. जे एच हट्रटन ने दो-टूक शब्दों में लिखा है कि सही-सही जातीय गणना असंभव है, क्योंकि लोग अपनी-अपनी हैसियत ऊंची उठाने के लिए अपनी जाति कुछ भी लिखवा देते हैं| एक प्रदेश में जो शूद्र हैं, वे दूसरे प्रदेश में ब्राह्र्रमण हैं| एक जनगणना में जो वैश्य हैं, दूसरी जनगणना में वे शूद्र हैं| जाति-प्रथाके प्राण ऊँच-नीच में बसे हैं| एक ही जाति में ऊँच-नीच के कई स्तर होते हैं| उनमें रोटी-बेटी का व्यवहार नहीं होता| देश में जानी-मानी लगभग छह हजार जातियाँ हैं और उनमें भी हजारों छोटी-मोटी जातियाँ हैं| उनकी वैज्ञानिक गणना नहीं हो सकती, इसीलिए डॉ. हट्रटन ने उसका विरोध किया था और इसीलिए पिछले 80 साल से ज़हर का यह पिटारा बंद पड़ा रहा|
हमारे कुछ नेता इस ज़हर के पिटारे को दुबारा क्यों खोलना चाहते हैं ? उन्हें भ्रम है कि उन्हें नए वोट-बैंक मिल जाएंगे| उनका वोट-बैंक उन्हीं की जाति और उप-जातियों के उम्मीदवार चौपट कर देंगे| इसके अलावा यदि वे जातिवाद चलाएंगे तो क्या दलित, आदिवासी, ईसाई, मुसलमान, सिख और सवर्ण भी जातिवाद नहीं चलाएंगे ? यदि सभी चलाएंगे तो इस देश का क्या होगा ? यह देश एक राष्ट्र नहीं रहेगा, हजारों जातियों का अखाड़ा बन जाएगा| 1857 के स्वाधीनता संग्राम की राष्ट्रीय एकता को भंग करने के लिए अंग्रेज ने 1871 में जो जातीय गणना का विष-बीज बोया था, उसे हम दुबारा पुष्पित-पल्लवित क्यों करना चाहते हैं ?
डॉ. आंबेडकर और नेहरू जैसे संविधान-निर्माताओं ने जातिविहीन समाज का सपना देखा था| आंबेडकरजी ने जाति का समूल नाशपुस्तक लिखी थी और डॉ. लोहिया ने जात तोड़ोका नारा दिया था| हमारे कुछ नेता वोट-बैंक के लालच में अपने इन महान नेताओं को शीर्षासन कराने पर उतारू क्या हो गए हैं ? संविधान में जाति के आधार को कहीं भी स्वीकार नहीं किया गया है| उसने पिछड़े वर्गोंके नागरिकोंको विशेष सुविधा देने की बात कहीं है (देखिए धारा 16 (4))| जातियों को थोकबंद रेवाडि़याँ बांटने की बात कहीं नहीं कही है| सिर्फ नेतागण रेवाडि़या बांटना चाहते हैं| इसीलिए राजनीति में आज भी जाति दनदना रही है लेकिन पिछले 63 साल में भारतीय समाज में से जाति का प्रभाव घटता चला जा रहा है| रोटी-बेटी के संबंध धीरे-धीरे खुले चले जा रहे हैं| जातीय गणना करवाकर करोड़ों भारतीय नागरिकों को हम भेड़-बकरियों की तरह जातीय बाड़ों में बंद क्यों कर देना चाहते हैं ?
(लेखक, ‘सबल भारतके मेरी जाति हिंदुस्तानी आंदोलनके सूत्र्धार हैं)

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

!! क्या भौतिकता में ही सब कुछ है ?!


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामय.
आइये मित्रो, इस राजनीतिक उठा पटक, खून खराबे की दुनिया से थोड़ी देर के लिए मेरे साथ एकांत में चलें. अपने कीमती समय से बहुत थोडा सा मेरे साथ बांटे. शीर्षक पंक्ति तो अमीर खुसरो साहब बहुत पहले ही लिख गए थे पर बाद में न जाने कितने लोगों ने इसे अपने भिन्न भिन्न उद्देश्यों के लिए प्रयोग किया. ये लाइन आपने बहुत बार सुनी और शायद पढ़ी भी होगी. बहुत से सूफी संतों ने इसे गाया और बजाया है लेकिन क्या हमने कभी इस पर गौर करने की थोड़ी भी कोशिश की है? यदि नहीं तो आपसे आग्रह करूंगा कि एक बार ऐसा जरूर करें. चंद लाइनें है जो आपको याद दिलानी है.
बहुत कठिन है डगर पनघट की....

चार अंधे घूमने फिरने चले बाज़ार में.. और उनमे से हर ये समझता था के हूँ सरदार मैं..

घूमते जाते थे वो रस्ते पे मस्तों की तरह.. खुद को भी न जानते थे खुद्परस्तों की तरह..

सामने से गुल हुआ हट जाइए हट जाइए.. इस तरफ आता है हाथी इस तरफ मत आइये..

सुनके अंधे रुक गए बोले हमें दिखलाइये.. हम भी देखेंगे जरा हाथी यहाँ पर लाइए..

सुनके अंधों की सदा लोगों ने हाथी रोककर.. ले गए अंधों को बोले देखलो ऐ दीदावर..

फिर तो चारो संत से हाथी उन्होंने घेरकर.. खूब जी भर कर टटोला पुश्त पाओं सर कमर..

भर गया जी तब कहा अच्छा इसे ले जाइए.. काबिले तारीफ क्या है ये जरा फरमाइए..

गिर गया कितना मजाके हुस्न अब इंसान का.. इतने घटिया जानवर का नाम हाथी रख दिया..

पहला बोला हाथी कैसा पुश्त-ऐ-दीवार है.. इसके बारे में ज्यादा बहस ही बेकार है.

दूसरा बोला गलत बिलकुल गलत तुमने कहा.. हाथी था के जैसे हो पेड़ का कोई तना..

तीसरा बोला दोनों की गलत बकवास है.. हो खजूरों का सा टहना हमको ये अहसास है..

सर से लेकर सूंड तक हाथ था जिसका फिर.. बोला हाथी है के परनाला किसी दीवार का..

मुख़्तसर ये के फिर एक को एक ने झूठा कहा.. बात आगे बढ़ गयी बेबात का झगडा बढ़ा..

नीम पुरियां हो गए वो जिस्म के कपडे फटे.. उनकी इस हरकत पे सारे लोग बस्ती के हँसे..

इन अन्धो की तरह इस अहले दुनिया में भी बीनाई नहीं.. कैसे देखें ताकते दीदार तो पाई नहीं ..

कोई कहता है खुदाबंदा हरम के दर में है.. कोई कहता है के भगवन सूरते पत्थर में है..

कोई पानी में बुलाये कोई आतिश में कहे.. आखिर इन अंधों की तरह अहले दुनिया बन गए..

अभी भी वक़्त है ऐ इंसान तू मन की आँखें खोल ले.. वरना बहुत कठिन है डगर पनघट की.

तो देखा आपने किस तरह से मजहबी फसाद होते है क्योंकि हमारे पास उनके बारे में सोचने का समय नहीं है. मेरा विनम्र निवेदन है कि इस मुद्दे पर भी गौर किया जाए ताकि हमारी पनघट कि डगर भी आसन हो जाए. क्या भौतिकता में ही सब कुछ है ? थोडा इससे हटकर भी सोचकर देखिये, नुकसान में नहीं रहेंगे. शायद इसी को आत्मसाक्षात्कार कहते है.

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामय..सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माँ कश्चिद् दुःख भागभवेत.

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

!क्या आप लोगो की टोका - टाकी से डरते है !!

"अरे भाई लोग क्या कहेंगे?" कितना दिलचस्प है ये डायलोग. हममे से शायद हर कोई इसे दिन भर में कुछ बार तो बोल ही लेता है, चाहते हुए या न चाहते हुए. ये हमारी जुबान पर इस तरह चस्पा हो गया है के छूटता ही नहीं. ..बहुत साल पहले रीवा में दोस्तों के साथ  शाम को सोचा चलो एक मूवी देखते है. दोस्त  तैयार हो गए. मैं पायजामा में ही चल पड़ा तो दोस्त  बोले अरे यार  ये क्या करते हो "लोग" क्या कहेंगे. मैंने कहा मैं तो पायजामे में ही जाउगा जिसको जो कहना है कहे फिर भी दोस्तों ने जिद करके पैंट सर्ट पहनावा ही दिया !एक दिन  पत्नी के साथ देवास में भी बाज़ार के लिए पायजामे में चल पड़ा तो वो बोली "ढंग के कपडे पहन कर क्यों नहीं चलते "लोग" क्या कहेंगे.? मेरे एक मित्र श्री मुद्रिका प्रसाद तिवारी जी भी कवि सम्मलेन में साथ जाने लगे तो मैं थोडा फ्री स्टाइल में चल पड़ा. फिर वही चिर परिचित वाक्य से सामना हुआ, "अरे यार ढंग से कपडे तो पहन लो "लोग" क्या कहेंगे. मैंने कहा भाई पांच छः घंटे बैठना है जरा आराम रहेगा ऐसे ही चलते है. उन्होंने मुझे बड़ी हिकारत से देखा और बोले "ठीक है जैसे मर्ज़ी करो".!
कहने का मतलब ये की हम लोगो की परवाह करके कब तक चले ? यदि हम संबिधान से मिले मौलिक अधिकारों का सदु -उपयोग करते हुए  चलते है ,संबिधान के नियम को बिना उलंघन करते हुए कुछ भी करे फिर नही लोग कहेगे तो हम "लोगो को कहने " के डर से डर जाए क्या ?

आप सभी की राय चाहिए ..........

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

!! भगवान् हमें बनाता है या हम खुद ही भगवान् को बनाते है ?

मित्रो अभी तक आप ये ही सुनते और समझाते आये है के "भगवान्" ने हम सबको बनाया है लेकिन शायद आपकी इस भावना को थोडा झटका लग जाए ये जानकर के "भगवान्" ने हमें नहीं बल्कि हमने "भगवान्" को बनाया है. "भगवान्" शब्द की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ये तो शोध का विषय है परन्तु वैदिक काल तक न तो ये शब्द चलन में था न ही मंदिर अस्तित्व में आये थे. हमारे पूर्वज केवल प्राकृतिक शक्तियों की ही उपासना किया करते थे. ये वही भौतिक शक्तिया थी जिनसे हम अस्तित्व में आये जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश. अग्नि के प्रतीक सूर्य पूजा प्रमुख तौर पर की जाती थी.जब सामाजिक ढांचा खड़ा हुआ और कालांतर में लोगों को एक जगह एकत्रित करने के प्रयास किये जाने लगे तो सवाल ये खड़ा हो गया की ऐसा कैसे किया जाए? किसी एक ऐसी चीज़ की तलाश जो लोगों को एक जगह इकठे होने की प्रेरणा दे और लोग स्वयं ही वहां आये ताकि उन्हें समाज से सम्बंधित विविध विषयों पर जानकारी दी जा सके और विचार विमर्श किया जा सके. तब कल्पना शक्ति का प्रयोग कर कुछ देवी देवताओं की रचना की गयी. सभी भौतिक शक्तियों को स्थूल देवी देवताओं में परिवर्तित कर दिया गया. जब अदृश्य शक्तियां लोगों को आकर्षित नहीं कर पाई तो एक दूसरा तरीका उन शक्तियों की मूर्ति बना कर किया गया. अब काम बन गया. लोगों में उनके प्रति श्रधा और विश्वास जगाया गया. उन्हें समाज में एक विशेष स्थान दिया गया. ऐसे स्थानों के रख रखाव के लिए लोगों में दान का विचार डाला गया और उसे पाप पुण्य से जोड़ दिया गया. अब सब कुछ ठीक हो चला था. काफी लोगों की आजीविका का साधन बन चूका था.परन्तु अब भी एक समस्या आड़े आ रही थी. मूर्ति रूप अदृश्य शक्तियां लोगों से वार्तालाप नहीं कर सकती थी. लोगों को अब कुछ अतिरिक्त चाहिए था तब मंदिरों में पुजारी उत्पन्न किया गया जो देवी देवताओं के सन्देश लोगों को दे सके और एक माध्यम का काम कर सके. अब लोगों को ज्यादा आनद आने लगा. पुजारी उपदेशों को विभिन्न प्रकार से लोगों में बाटने लगे. आकर्षण बढ़ने के लिए मंदिरों में संगीत का प्रयोग किया जाने लगा. भजनों और गीतों के माध्यम से दिव्या सन्देश दिए जाने लगे. अब दिव्या सन्देश देने वाले की समाज में अति विशेष जगह बन चुकी थी. वो धर्म गुरु के नाम से जाने जाने लगे. उनमे से भी कुछ अति विशिष्ट धर्म गुरुओं को तभी "भगवान्" नाम से संबोधित किया जाने लगा.
गुजरते समय के साथ ऐसे "भगवानो" को भावी पीढ़ियों को स्थानांतरित कर दिया गया. "भगवान्" बनाने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते रहा गया. इसके बाद दौर शुरू हुआ वीर साहसी और धनवान लोगों को "भगवान्" बनाने का जिस क्रम में राम, कृष्ण, महावीर और भी बहुत से नाम जुड़ते चले गए. ये सभी सामाजिक दृष्टि से ऊँचे थे. अधिकतर राजपरिवार से थे जो राजा या राजकुमार थे. उन्हें "भगवान्" उपाधि से सुशोभित किया गया ताकि समाज में उनकी ऊंची हसियत का आम आदमीं को लाभ मिल सके. उनके चरित्र चित्रण किये गए. गीत नाटको, संगीत सभाओ के द्वारा उन्हें पूरे समाज में प्रचारित किया गया.! अगर हम आधुनिक समय की बात करें तो ये परंपरा अभी भी जोर शोर से जारी है. लोगों को "भगवान्" बनाने का क्रम रुका नहीं है. आये दिन हम बहुत से "भगवानो" को देखते, सुनते और समझते है लेकिन शायद ही हम कभी इस प्रथा की पृष्ठभूमि में जाने का प्रयास करते है. इंसानों द्वारा इंसान को "भगवान्" बनाने की होड़ में असली "भगवान्" या "ईश्वर" तो कही हो ही गया है. मंदिरों की महत्ता उनके द्वारा इकठे किये गए खजानों से होती है के अमुक मंदिर सबसे बड़ा है !  क्योकि कि वहां सबसे ज्यादा चढ़ावा आता है. उस मंदिर का देवी देवता का नाम काफी बाद में आता है. ये मंदिरों का सबसे निम्नतर स्तर है. अब मंदिर आध्यात्म की बाते नहीं करते वहां के भगवान् कुछ जादुई करतब सीखकर उन्हें चमत्कार कह कर लोगों को प्रभावित करते है और लोग होते भी है. बड़े बड़े मंदिर, आश्रम जो तथाकथित "भगवानो" ने अपने भक्तों के लिए बनाये है उनमे जाकर भक्त गद गद होते है. भौतिक सुख में आध्यात्मिक शांति प्राप्त करते है.!  हे इंसानों, विवेक का प्रयोग करो. अब भी समय है चेत जाओ, जाग जाओ, "भगवान्" बनाना बंद करो और "ईश्वर" के साक्षात्कार का प्रयास करो इसी में तुम्हारा कल्याण है. बहुत "भगवान्" बन चुके क्या अभी और चाहिए ?
नोट --इस ब्लॉग से किसी को भी ठेस लगे तो माफ़ करना मित्रो .....

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

।। वासना - रावण के द्वारा सीता का हरण है और प्रेम - गोपियों का कृष्ण के प्रति समर्पण है।।



ये प्रेम है 
 आम तौर पर वासना का तात्पर्य इच्छासमझा जाता है। इच्छा किसी भी रुप मे व्यक्त हो सकती है। अतः वासनाशब्द का प्रयोग हम किसी भी प्रकार की इच्छा के लिए कर सकते हैं। ज्ञान मंडल, बनारस द्वारा प्रकाशित बृहत हिन्दी कोश मे वासना शब्द का अन्य अर्थों के साथ एक अर्थ इच्छा भी दिया गया है। अन्य अर्थों मे कामना, भ्रम आदि अर्थ भी शामिल है। यहां हम जिस अर्थ मे वासना की चर्चा कर रहे हैं वह साधारण अर्थ मे नही बल्कि एक विशेष इच्छा यानि सेक्सके संदर्भ मे है। आज कल कम्युटर के फेस बुक पर युवक युवतियों के बीच दोस्ती का जो सम्पर्क स्थापित होता है वह इसी वासना से प्रेरित होता है। काफी संदेशों के आदान प्रदान के पश्चात यह इच्छा धीरे धीरे कितनी बलवत्ति हो उठती है यह जानने के लिए एक अवलोकन (ऑबजरवेशन) पर गौर करें। एक गृहस्थ अपनी गाय, बकरी, भैंस अथवा अन्य पालतु पशुओं को सुबह चरने के लिए खोलता है तो शाम को ये पशु अपने आप घर लौट आते ङैं। तीन चार साल तक लगातार एक गृहस्थ की गुहाल मे रह लेने के बाद यदि इनको किसी दूसरे के हाथ बेचा जाये तो ये पशु अपनी पहली गुहाल को आसानी से नहीं भुला पाते। खरीददार की गुहाल से छुटने के बाद काफी दिनों तक ये पशु बार बार लौट कर चले आते हैं। यदि इनके साथ ज्यादती न की जाये यानि बल पूर्वक बांध कर न रखा जाये तो लौट कर आने का सिलसिला बना ही रहता है। बेटियों को परिवार मे विशेष लाड प्यार और स्नेह के साथ पाला पौषा और पढ़ाया लिखाया जाता है और यह सोच कर कि बेटियां पराया धन होती हैं परिवार मे इनको कोई डांटता डपता भी नहीं। अपने भाइयों के साथ किसी बात को लेकर उलझने से मां बाप बेटियों का पक्ष लेकर बेटों को ही डांटते हैं बेटियों को नहीं। यही बेटियां फेस बुक पर अनजान युवकों सें इतनी गहरी दोस्ती कर बैठती हैं कि इस दोस्ती को प्रेम का नाम दे कर अपने मां बाप को चिंता और शौक मे डुबा कर घर से निकल आती है। कितना फर्क है सीधे साधे पालतु पशुओं और बेटियों की संवेदनशीलता मे। यह प्रेम नहीं बल्कि वासना प्रेरित या यों कहा जाये काम वासना प्रेरित सामाजिक ब्याधि है। कवि प्रवर गोपाल दास नीरज ने वासना और प्रेम को परिभाषित करते हुए एक जगह लिखा है वासना रावण के द्वारा सीता का हरण है और प्रेम गोपियों का कृष्ण के प्रति समर्पण है।आज के परिवेश और सामाजिक संदर्भ मे वासना और प्रेम को इससे बेहत्तर किसी भी रुप मे परिभाषित नहीं किया जा सकता। संत-महात्माओं और विद्वान लेखकों ने वासना और प्रेम के अन्तर को अपने अपने चिंतन के आधार पर अलग अलग ढ़ंग से स्पष्ट किया है। इनके अनुसार वासना तनाव लाती है, प्रेम विश्वास लाता है। वासना मे मांग है, प्रेम मे अधिकार। वासना एक अँग पर केन्द्रित होती है, प्रेम पूरे अस्तित्व पर। वासना हिंसा की ओर प्रेरित करती है, प्रेम बलिदान की ओर….. इत्यादि।इस तरह यदि गंभीरता पूर्वक विचार करें तो एक तरफ जहां वासना और प्रेम मे बड़ा अँतर है। इस अंतर को वर्तमान पीढ़ी तैयार नहीं। आज के युग मे जो युवक युवतियां प्रेम की दुहाई दे कर अपने मां बाप को मानसिक यंत्रणा देते हैं वह काम वासना युक्त प्रेम है। इस प्रकार के प्रेम के मूर्त रुप का दर्शन शाम के समय गुवाहाटी स्थित शील पुखरी वाले बगीचे मे सहज ही मे किया जा सकता है। गोलाघाट मे भी नगरपालिका उद्यान ( स्थानीय विवेकानन्द विद्यालय के सामने) मे कामयुक्त प्रेम का बिल्कुल खुला प्रदर्शन देखा जा सकता है। केवल गुवाहाटी अथवा गोलाघाट ही नही बल्कि हर सार्वजनिक बाग बगीचों मे युवक युवतियों की उपस्थिति का मानो एक ही मकसद रहता है।
ये वासना है

उपरोक्त विचारों का एक दुसरा पक्ष भी है जिसको भी अनदेखा करना उचित नहीं होगा। आज के युग मे वासना के बिना प्रेम सम्भव भी नही है। कृष्ण और गोपियों की बात अलग है। वह युग और कालक्रम अलग था। उनके प्रेम मे सात्विकता थी काम वासना का उसमे कहीं स्थान नहीं था। लेकिन वर्तमान के समाज-तत्ववेताओं की वासना और प्रेम की विचार धारा कुछ अलग है। उनके अनुसार वासना के बिना प्रेम की कोई गति नहीं लेकिन उनकी दृष्टि मे यह वासना काम प्रेरित वासना नहीं। वस्तुनिष्ठ चिंतकों का मानना है कि वासना और प्रेम एक ही अग्नि की दो चिनगारियां है। जब वह चिनगारी शरीर पर पड़ती है और केवल शरीर को ही जलाती है, मन को आलोकित नहीं करती तब वह वासना कहलाती है। यह रुपाकार्षण मात्र ही है जिसे अंग्रेजी मे लष्टकह सकते हैं। लेकिन शरीर को ताप देने के साथ साथ जब वह मन को भी ताप और प्रकाश देती तब वह वासना प्रेम बन जाती है। वासना केवल शरीर को लेकर जीती है, लेकिन प्रेम शरीर के साथ साथ हृदय की मांग करता है। दूसरे वासना जातिनिष्ट और प्रेम ब्यक्तिनिष्ट होता है। एक युवक का किसी भी युवती पर अनुरक्त होना वासना है। लेकिन एक युवक का किसी विशिष्ट युवती के प्रति आकर्षण और आकुलता का अनुभव करना प्रेम है। प्रेमी युवक के लिए हर युवती, युवती नहीं होती उसके लिए एक ही युवती, युवती होती है। लेकिन वासनाग्रस्त युवक हर युवती को अपनी प्रेमिका मान लेता है। संक्षेप मे हम यह कह सकते हैं कि वासना काम साधारणीकरण है और प्रेम काम का असाधारीकरण है। वासना को छल कपट का आश्रय लेकर छुपाया जा सकता है लेकिन प्रेम अब्यक्त नहीं रह सकता। इस संदर्भ मे कवि गंग का कहना हैः- सूरजतारो के तेज में चन्द छिपे नहीं
छिपे नहीं बादल छायो
चंचल नार के नैन छिपे नहीं
प्रीत छिपे नहीं पीठ दिखायो
रण पड़े राजपूत छिपे नहीं
दाता छिपे नहीं मंगन आयो
कवि गंग कहे सुनो शाह अकबर
कर्म छिपे नहीं भभूत लगायो।“ (गंगगगगग गंग पदावली)
अफसोस तो यह है कि फेसबुक पर विचरण करने वाले तथाकथित प्रेमी वासना और प्रेम दोनो की गहराइयों को नहीं समझते। यह एक ऐसी सामाजिक ब्याधि है जो धीरे धीरे महामारी का रुप धारण करती जा रही है। इससे त्राण पाने के लिए परिवार मे आधायात्मिक वातावरण बनाये रखने की आवश्यकता है।



बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

क्या बाबासाहब ने कभी मायावती जी को आशीर्वाद दिया था ?

गौरतलब है लखनऊ में मायावती की डेढ़ करोड़ रुपये की लागत वाली 24 फीट की मूर्ति प्रतिबिंब स्थल में, वहीं की गैलरी में 47.25 लाख रुपये की लागत से 18 फीट ऊंची कांस्य प्रतिमा, परिवर्तन स्थल में ही 20.25 लाख रुपये की लागत से 12 फीट ऊंची कांस्य प्रतिमा, नौ लाख की लागत वाली सात फीट उंची प्रतीमा, मान्यवर कांशीराम स्मारक स्थल पर 47 लाख की लागत वाली 18 फीट ऊंची कांस्य प्रतिमा, डॉ. बी आर अम्बेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल पर पौन करोड़ की लागत वाली तीन प्रतिमायें, कानपुर रोड योजना में 47.25 लाख रुपये की लागत से 15 फीट ऊंची कांस्य प्रतिमा लगी हुई हैं. राज्य के अलग-अलग इलाकों में मायावती की मूर्तियों की संख्या हजारों में है. ......
"गलत समझे यह बुद्धिमान गौतम की बसारत को, बलाए-बुत-परस्ती ने किया बर्बाद भारत को".- हफिज जालंधरी. धम्म यानि अनीश्वर, अनात्मा, अनित्य, प्रतीत्य सम्मुत्पाद, सम्यक अष्टांगिक मार्ग और जनतंत्र है, यही बुद्ध की देशना है.

बाबासाहब आम्बेडकर ने इन्ही बिचारों के रास्ते को आगे जानेवाला कल्याणकारी रास्ता समझा. इसमें कही पर बुत=पुतले का उल्लेख नहीं है. पुतले बनाकर उनकी पूजा सुरु करने की बात नहीं है. अब अगर पुतले बनाए गए है तो कल उन्हें पूजनेवाले मिलेंगे. क्या पूजापाठ से भुख मिट जायेगी? क्या इसे बुद्ध का कल्याणकारी मार्ग कहेंगे?

सम्राट अशोक ने बुद्ध की मुर्तिया और बुद्ध उपदेशों के शिलालेख बनवाए थे लेकिन पूजने के लिए नहीं. उन्होंने खुद की मुर्तिया बनाने का मोह नहीं किया.वह पुतले पूजने के लिए नहीं थे, यादों के लिए थे. फिर भी लोगों ने उन्हें पूजना सुरु किया.उसका क्या फायदा हुआ? सद्दाम हुसैन और गद्दाफी ...नामक तानाशाह ने अपने पुतले बनवाए थे, क्या अब वे है?

क्या बाबासाहब ने कभी मायावती को आशीर्वाद दिया था? बाबासाहब ने कभी भी मायावती के तानाशाही का समर्थन नहीं किया था, मगर तानाशाह मायावती के सर पर आशीर्वाद देनेवाला बाबासाहब आम्बेडकर का पुतला क्यों बनवाया गया? क्या आशीर्वाद देनेवाले बाबासाहब आम्बेडकर के पुतले कही पर देखे गए है? यह तो बाबासाहब को ईश्वर बनाकर उनके विचारों पर ताला लगाने का प्रयास है.

यह बाबासाहब ने बनाए क्रन्तिकारी इतिहास को बदलने का कपटी प्रयास है. कांशीराम और मायावती कोई मिया-बीबी नहीं थे, मगर जोड़ी से ही पुतले क्यों बनवाए? जैसे की सावित्रीबाई-जोतिराव फुले और रमाबाई-बाबासाहब आम्बेडकर के पुतले जोड़ी से इस "दलित स्मारक पार्क" में जोड़ी से है. हफिज जालंधरी के अनुसार पुतले पूजनेवाली परंपरा से बुद्धिमान तथागत बुद्ध के भी विचार लोग भूल गए और भारतीय लोगों को बर्बादी का मुहं देखना पड़ा. वे हमेशा गुलाम बनते गए और उन्हें दूसरों द्वारा लुटा गया.

क्या पूजापाठ से नए जनकल्याणकारी क्रांति की अपेक्षा की जा सकती है? फिर क्यों माने की पुतले बनाने का कार्य बाबासाहब के मिशन का महान कार्य है? सिद्धार्थ पाटिल भी बीएसपी के महान कार्यकर्ता है तो उनका भी एक पुतला उस दलित पार्क में क्यों नहीं बनवाया? क्या बुद्ध-आम्बेडकर मूर्ति पूजक थे? लोगों के पेट की फिकिर नहीं, महंगाई से निपटने की फिकिर नहीं और पुतले बनवाने और उन्हें पुजवाने की जरुरत आ गिरी. मेरे नजरों में यह बाबासाहब आम्बेडकर के मिशन का कार्य कदापि नहीं हो सकता, यह सिर्फ तानाशाह कांशीराम के मनुवादी मिशन का कार्य है..........

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

!! जिहाद क्या है !!

जिहाद" के बारे मे बात करने से पहले हम दहश्तगर्दों के बारे में बात करेंगे क्यौंकी लोगो के "जिहाद" के बारे मे इन लोगो की वजह से पता लगा है। आप लोगो की नज़र में दहश्तगर्द कौन है? दहश्तगर्द का मतलब क्या है?

मेरे हिसाब से हर
मुस्लमान दहश्तगर्द होना चाहिये। दहश्तगर्द का क्या मतलब है? दहश्तगर्द का मतलब है की "अगर कोई भी इन्सान दुसरे इन्सान के दिल मे दहशत पैदा करता है उसे कहते है दहश्तगर्द"। मिसाल के तौर पर जब कोई चोर किसी पुलिसवाले को देखता है तो उसके दिल में दहशत पैदा होती है तो उस चोर के लिये वो पुलिसवाला दहश्तगर्द है। तो इस हिसाब से हर असामाजिक तत्व, एन्टी-सोशल एलीमेन्ट, किसी मुस्लमान को देखे तो उसके दिल में दहशत पैदा होनी चाहिये। जब भी कोई चोर किसी मुसलमान को देखें तो उसके दिल में दहशत पैदा होनी चाहिये, जब भी कोई बलात्कारी किसी मुसलमान को देखें तो उसके दिल में दहशत पैदा होनी चाहिये। हर मुसलमान का फ़र्ज़ है कि वो लोग जो हक के खिलाफ़ है उनके दिल में दहशत पैदा करें और अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह अनफ़ाल सु. ८ : आ. ६० में कि "जो लोग हक के खिलाफ़ है उनके दिल में मुसलमानों को दहशत पैदा करनी चाहिये"। एक मासुम के दिल मे कभी भी दहशत पैदा नही करनी चाहिये उसे उनके दिल में दहशत पैदा करनी चाहिये जो खुसुसन हक के खिलाफ़ हैं, समाज के खिलाफ़ हैं, इन्सानियत के खिलाफ़ है। <p><br /> </p>
हम अकसर देखते है की इन्सान को उसके किसी काम के लिये दो नाम दिये जाते है मिसाल के तौर पर हमारे देश के कुछ लोग आज़ादी के लिये अंग्रेज़ो से झगड रहे थे इन लोगो को अंग्रेज़ो ने कहा कि ये लोग दहश्तगर्द है और उन्ही लोगो वो आम हिन्दुस्तानी देशभक्त कहते थे यानी वही लोग, वही काम लेकिन दो अलग-अलग नाम। अगर आप अंग्रेज़ो के नज़रिये से सहमत है की अंग्रेज़ो को हिन्दुस्तान पर हुकुमत करनी चाहिये तो आप उन्हे दहश्तगर्द कहोगें और अगर आप आम हिन्दुस्तानी के नज़रिये से सहमत है की अंग्रेज़ यहां कारोबार करने आये थे, हुकुमत करने नही तो आप उन्हे देशभक्त कहेंगें, अच्छे हिन्दुस्तानी है वगैरह वगैरह, वही इन्सान वही अमाल (कर्म) दो अलग नाम। तो एक नाम देने से पहले फ़र्ज़ है की हम ये जाने की वो इन्सान किस वजह के लिये झगड रहा है? किस वजह के लिये जद्दोजह्द कर रहा है?

दुनिया में ऐसी सैकडों मिसाले है जैसे साउथ अफ़्रीका को आज़ादी मिलने से पहले सफ़ेद लोग साउथ अफ़्रीका पर हुकुमत कर रही थी और ये सफ़ेद हुकुमत
नेल्सन मंडेला को सबसे बडा दहश्तगर्द कहती थी और इस नेल्सन मंडेला को पच्चीस साल से ज़्यादा रोबिन आयलैंड में कैद रखा गया था। सफ़ेद हुकुमत नेल्सन मंडेला को दहश्तगर्द कहती थी और आम अफ़्रीकी नेल्सन मंडेला को कहती थी की वो बहुत अच्छा इन्सान है। वही इन्सान, वही अमाल लेकिन दो अलग-अलग नाम। अगर आप सफ़ेद हुकुमत के नज़रिये से सहमत है तो नेल्सन मंडेला आपके लिये दहश्तगर्द है लेकिन अगर आप आम अफ़्रीकी से सहमत है की चमडी का रंग इन्सान को ऊंचा या नीचा नहीं कर पाता जिस तरह अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह हुजुरात सु. ४९ : आ. १३"ऎ इन्सानों, हमनें तुम्हे एक जोडें से पैदा किया है आदमी और औरत के, और आप लोगों को कबीलों में बांटा है ताकि आप एक दुसरों को पहचान सको ना कि आप एक दुसरे से नफ़रत करें और आप लोगो में से सबसे बेहतर इन्सान वो है जिसके पास तकवा है"। तो इस्लाम के नज़रिये से कोई भी इन्सान ऊंचा-नीचा जात-पात से नही होता, चमडी के रंग से नहीं होता, माल से नही होता लेकिन होता है तो सिर्फ़ "तकवे" के साथ, खुदा के खौफ़ के साथ, अच्छे अमाल के साथ। अगर आप इस्लाम और आम अफ़्रीकी के नज़रिये से सहमत है तो ये मानना होगा की नेल्सन मंडेला दहश्तगर्द नही था और एक अच्छा इन्सान था। में
साउथ अफ़्रीका की आज़ादी के चन्द साल बाद उस नेल्सन मंडेला को अमन के लिये नोबेल पुरस्कार मिलता है वो ही शख्स जिसको पच्चीस साल तक कैद किया गया और पच्चीस साल तक उसे दहश्तगर्द कहा गया था उसे चन्द साल बाद उसे दुनिया का सबसे बडा पुरस्कार मिलता है अमन के लिये। तो वही शख्स, वही अमाल लेकिन दो अलग-अलग नाम इसीलिये नाम देने से पहले हमें ये जानना ज़रुरी है की किस वजह से वो इन्सान जद्दोजह्द कर रहा है।


आज सबसे ज़्यादा गलतफ़हमी जो इस्लाम के मुताल्लिक है वो है लफ़्ज़
"जिहाद"इस लफ़्ज़ को लेकर सबसे ज़्यादा गलफ़हमियां है और ये गलफ़हमियां गैर-मुस्लिमों के बीच ही नही, मुसलमानों के बीच मे भी है। गैर-मुस्लिम और कुछ मुस्लमान ये समझते है की कोई भी जंग कोई मुस्लमान लडं रहा है चाहे वो ज़्यादती फ़ायदे के लिये हो, चाहे अपने नाम के लिये हो, चाहे माल के लिये हो, चाहे ताकत के लिये हो। अगर कोई भी जंग कोई भी मुस्लमान लडं रहा है तो उसे कहते है "जिहाद"। इसे "जिहाद" नही कहते

"जिहाद" लफ़्ज़ आता है अरबी लफ़्ज़ "जहादा" से जिसको अंग्रेज़ी में कहेंगे "To strive to struggle" उर्दु मे इसका मतलब हुआ "जद्दोजहद"।
और इस्लाम के हिसाब से अगर कोई इन्सान अपने नफ़्ज़ (इंद्रियों) को काबु करने की कोशिश कर रहा है सही रास्ते पर आने के लिये तो उसे कहते है "जिहाद"। अगर कोई इन्सान जद्दोजहद कर रहा है समाज को सुधारने के लिये तो उसे कहते है "जिहाद"। अगर कोई सिपाही जंग के मैदान मे अपने आप को बचाने के जद्दोजह्द कर रहा है तो उसे कहते है "जिहाद"। अगर कोई इन्सान जुल्म के खिलाफ़ आवाज़ उठा रहा है तो उसे कहते है "जिहाद"। "जिहाद" के मायने है जद्दोजहद सिर्फ़ जद्दोजहद।

लोगो को गलतफ़हमी है गैर-मुसलमानों को भी और मुसलमानों को भी की "जिहाद" सिर्फ़ मुसलमान ही कर सकते है।
अल्लाह तआला कुरआन मजीद मे कई जगह ज़िक्र करते है कि गैर-मुसलमानों ने भी "जिहाद" किया। अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह लुकमान सु. ३१ : आ. १४ में "ऎ इन्सानों, हमनें तुम पर फ़र्ज़ किया है की आप अपने वालदेन की खिदमत करों और आपकी वालदा ने आपको तकलीफ़ के साथ आपको पेट मे रखा और तकलीफ़ के साथ आपको पैदा किया और दुध पिलाया"। इसके फ़ौरन बाद अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह लुकमान सु. ३१ : आ. १५ में "लेकिन अगर आपके वालदेन आपके साथ जिहाद करे, जद्दोजहद करें, आपको अल्लाह के अलावा उसकी इबादत करने के लिये जिसका आपको इल्म नहीं है तो आप उनकी बात नही मानों लेकिन तब भी उनके साथ अच्छा सुलुक करों"। यहां अल्लाह तआला फ़र्माते है की गैर-मुसलमान वालदेन जिहाद कर रहें है अपने बच्चों से उसकी इबादत करने लिये अल्लाह के अलावा जिसका उन्हें इल्म नही है, उन्हे शिर्क करने पर मजबुर कर रहें है। यही चीज़ अल्लाह तआला दोहराते है सुरह अनकबुत सु. २९ : आ. ८ में की "अल्लाह तआला ने सारे इन्सानों पर फ़र्ज़ कराया है की वो अपने वालदेन की अच्छी देखभाल करें लेकिन अगर वालदेन जिहाद के, जद्दोजहद करें, आपको अल्लाह के अलावा उसकी इबादत करने के लिये जिसका आपको इल्म नहीं है तो आप उनकी बात नही मानों लेकिन तब भी उनके साथ अच्छा सुलुक करों"। यहां भी अल्लाह तआला ने वही फ़र्माया है गैर-मुसलमान वालदेन जिहाद कर रहें है, उन्हे शिर्क करने पर मजबुर कर रहें है तो आप उनकी बात नही मानों लेकिन उनके साथ अच्छा सुलुक करों।

तो इन आयतों से हमें ये पता लगता है की जिहाद गैर-मुसलमान भी कर सकते है। अल्लाह तआला फ़र्मातें हैं
सुरह निसा सु. ४ : आ. ७६ में "की मोमिन वो इन्सान है जो अल्लाह की राह में हक के लिये जद्दोजहद करता है और वो इन्सान जो हक के खिलाफ़ है वो लोग जद्दोजहद गलत रास्ते पर करते है, शैतान के रास्ते पर करते है"। अल्लाह तआला फ़रमाते है की मोमिन और मुसलमान "जिहाद-फ़ी-सबीलिल्लाह" करते हैं और जो लोग हक के खिलाफ़ है वो करते है "जिहाद-फ़ी-सबीशैतान" इसका मतलब जद्दोजहद कर रहे हैं शैतान के रास्ते पर, तो जिहाद की कई किस्में है लेकिन आमतौर जब भी ये लफ़्ज़ "जिहाद" का इस्तेमाल होता है तो ये माना जाता है की ये "जिहाद-फ़ी-सबीलिल्लाह" हैं, "जिहाद" अल्लाह की राह में हैं। अगर खुसुसन कोई चीज़ का ज़िक्र है अल्लाह के खिलाफ़ तो पता लगता है "जिहाद" नही है लेकीन आमतौर पर जब भी ये लफ़्ज़ "जिहाद" इस्तेमाल होता है इस्लाम को लेकर तो इसके माईने है "जिहाद-फ़ी-सबीलिल्लाह" यानी जद्दोजहद करना अल्लाह की राह में।

और
अकसर गैर-मुस्लिम इस लफ़्ज़ "जिहाद" का तर्जुमा अंग्रेज़ीं मे करते है "होली वार" "HOLY WAR" "पाक जंग" "जंगे मुक्द्द्स"। ये लफ़्ज़ "होली वार" सबसे पहले इस्तेमाल किया गया था "क्रुसेड्र्स" (Crusaders) को डिस्क्राइब करने के लिये। सैकडों साल पहले जब ईसाई ताकत के बल के ऊपर अपना धर्म फ़ैला रहे थे तो उसे कहते थे "होली वार"। अफ़सोस की बात है की वही नाम आज मुसलमानों के लिये इस्तेमाल होता है और बहुत अफ़सोस की बात है कुछ मुस्लिम उलमा जो अपने आपको आलिम कहते है वो भी "जिहाद" का तर्जुमा अंग्रेज़ी में "होली वार" करते है।

"जिहाद" के मायने Holy War है ही नही, "Holy War" का तर्जुमा अरबी में
होता है "हर्बो्मुक्द्द्सा" और अगर हम कुरआन मजीद मे देखें तो "हर्बोमुक्द्द्सा" मौजुद ही नही है। इसीलिये "जिहाद" के मायने "Holy War", "हर्बोमुक्द्द्सा", "पाक जंग" नही है, "जिहाद" के मायने है "जद्दोजहद"।

!! रहीम दोहावली !!

अब्दुल रहीम खान सर्वगुण सम्पन्न ऐतिहासिक पुरूष अब्दुल रहीम खान खाना

अकबर के दरबार में नवरत्नों में से एक थे। वे अकबर के सिपहा सलाह बैरम खाँ के बेटे थे। बैरम खाँ ने कम उम्र के बादशाह अकबर के राज्य को मजबूत बनाने में पूरा सहयोग दिया। उनमें मतभेद होने पर बैरम खाँ अकबर की अनुमति से हज जाने निकले पर रास्ते में गुजरात में बैरम खाँ की हत्या कर दी गई। बैरम खाँ की विधवा सुलताना और बेटा रहीम अकबर के पास पनाह लेने पहुंचे। अकबर ने रहीम की परवरिस की और बाद में सुलताना बेगम से निकाह किया। जिससे रहीम उनके सौतेले बेटे भी बन गये। रहीम की शिक्षा- दीक्षा अकबर की उदार धर्मनिरपेक्ष नीति के अनुकुल हुई। रहीम जन्म से ही विलक्षण प्रतिभा के मालिक थे। उनके अंदर कई ऐसी विशेषताएं थी जिनके कारण वह बहुत जल्दी अकबर के दरबार के नवरत्नों में शामिल हो गये।

अकबर ने उन्हें कम उम्र से ही ऐसे-ऐसे काम सौंपे कि बाकी दरबारी आश्चर्य चकित हो जाया करते थे। मात्र सत्तरह वर्ष की आयु में 1573 ई. में गुजरातियों की बगावत को दबाने के लिए जब सम्राट अकबर गुजरात पहुँचा तो पहली बार मध्य भाग की कमान रहीम को सौप दिया। इस समय उनकी उम्र सिर्फ 17 वर्ष की थी। विद्रोह को रहीम की अगुवाई में अकबर की सेना ने प्रबल पराक्रम के साथ दबा दिया।

गुजरात विजय के कुछ दिनों पशचात, अकबर ने वहाँ के शासक खान आजम को दरबार में बुलाया। खान आजम के दरबार में आ जाने के कारण वहाँ उसका स्थान रिक्त हो गया। गुजरात प्रांत धन-जन की दृष्टि से बहुत ही अहम था। राजा टोडरमल की राजनीति के कारण वहाँ से पचास लाख रुपया वार्षिक दरबार को मिलता था। ऐसे प्रांत में अकबर अपने को नजदीकी व विश्वासपात्र एवं होशियार व्यक्ति को प्रशासक बनाकर भेजना चाहता था। ऐसी सूरत में अकबर ने सभी लोगों में सबसे ज्यादा उपयुक्त रहीम (मिर्जा खाँ) को चुना और काफी सोच विचार करके मिर्जा खाँ को गुजरात प्रांत की सूबेदारी सौंपी गई।

ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार रहीम जैसा कवियों का आश्रयदाता एशिया तथा यूरोप में कोई न था। रहीम के आश्रयदायित्व देश- विदेशों मे इतनी धूम मच गई थी कि किसी भी दरबार में कवियों को अपने सम्मान में जरा भी कमी महसूस होती थी, वह फौरन ही रहीम के आश्रय में आ जाने की धूमकी दे डालते थे।

अकबर के दरबार को प्रमुख पदों में से एक मिरअर्ज का पद था। यह पद पाकर कोई भी व्यक्ति रातों रात अमीर हो जाता था, क्योंकि यह पद ऐसा था जिससे पहुँचकर ही जनता की फरियाद सम्राट तक पहुँचती थी और सम्राट के द्वारा लिए गए फैसले भी इसी पद के जरिये जनता तक पहुँचाए जाते थे। इस पद पर हर दो- तीन दिनों में नए लोगों को नियुक्त किया जाता था। सम्राट अकबर ने इस पद का काम- काज सुचारु रुप से चलाने के लिए अपने सच्चे तथा विश्वास पात्र अमीर रहीम को मुस्तकिल मीर अर्ज नियुक्त किया।

मशहूर हल्दी घाटी लड़ाई में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। रहीम एक ऐतिहासिक पुरूष थे। वे ऐसे व्यक्तित्व थे जो अपने अंदर कवि का गुण, वीर सैनिक का गुण, कुशल सेनापति, सफल प्रसक, अद्वितीय आश्रयदाता, गरीबदाता, विशसपात्र मुसाहिब, नीति कुाल नेता, महान कवि, विविध भाशाविद, उदार कला पारखी जैसे अनेकानेक गुणों के मालिक थे।
 


देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन ।
लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन ॥ 1 ॥

बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस ।
महिमा घटी समुन्द्र की, रावन बस्यो परोस ॥ 2 ॥

रहिमन कुटिल कुठार ज्यों, कटि डारत द्वै टूक ।
चतुरन को कसकत रहे, समय चूक की हूक ॥ 3 ॥

अच्युत चरन तरंगिनी, शिव सिर मालति माल ।
हरि न बनायो सुरसरी, कीजो इंदव भाल ॥ 4 ॥

अमर बेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि ।
रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि ॥ 5 ॥

अधम बचन ते को फल्यो, बैठि ताड़ की छाह ।
रहिमन काम न आइहै, ये नीरस जग मांह ॥ 6 ॥

अनुचित बचन न मानिए, जदपि गुराइसु गाढ़ि ।
है रहीम रघुनाथ ते, सुजस भरत को बाढ़ि ॥ 7 ॥

अनुचित उचित रहीम लघु, करहि बड़ेन के जोर ।
ज्यों ससि के संयोग से, पचवत आगि चकोर ॥ 8 ॥

अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम ।
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम ॥ 9 ॥

ऊगत जाही किरण सों, अथवत ताही कांति ।
त्यों रहीम सुख दुख सबै, बढ़त एक ही भांति ॥ 10 ॥

आप न काहू काम के, डार पात फल फूल ।
औरन को रोकत फिरैं, रहिमन पेड़ बबूल ॥ 11 ॥

आदर घटे नरेस ढिग, बसे रहे कछु नाहिं ।
जो रहीम कोटिन मिले, धिक जीवन जग माहिं ॥ 12 ॥

आवत काज रहीम कहि, गाढ़े बंधे सनेह ।
जीरन होत न पेड़ ज्यों, थामें बरै बरेह ॥ 13 ॥

अरज गरज मानै नहीं, रहिमन ये जन चारि ।
रिनियां राजा मांगता, काम आतुरी नारि ॥ 14 ॥

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय ।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय ॥ 15 ॥

अंजन दियो तो किरकिरी, सुरमा दियो न जाय ।
जिन आंखिन सों हरि लख्यो, रहिमन बलि बलि जाय ॥ 16 ॥

अंतर दाव लगी रहै, धुआं न प्रगटै सोय ।
कै जिय जाने आपुनो, जा सिर बीती होय ॥ 17 ॥

असमय परे रहीम कहि, मांगि जात तजि लाज ।
ज्यों लछमन मांगन गए, पारसार के नाज ॥ 18 ॥

अंड न बौड़ रहीम कहि, देखि सचिककन पान ।
हस्ती ढकका कुल्हड़िन, सहैं ते तरुवर आन ॥ 19 ॥

उरग तुरग नारी नृपति, नीच जाति हथियार ।
रहिमन इन्हें संभारिए, पलटत लगै न बार ॥ 20 ॥

करत निपुनई, गुण बिना, रहिमन निपुन हजीर ।
मानहु टेरत बिटप चढ़ि, मोहिं समान को कूर ॥ 21 ॥

ओछो काम बड़ो करैं, तो न बड़ाई होय ।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहै न कोय ॥ 22 ॥

कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय ।
पुरूष पुरातन की बधू, क्यों न चंचला होय ॥ 23 ॥

कमला थिर न रहीम कहि, लखत अधम जे कोय ।
प्रभु की सो अपनी कहै, क्यों न फजीहत होय ॥ 24 ॥

करमहीन रहिमन लखो, धसो बड़े घर चोर ।
चिंतत ही बड़ लाभ के, जगत ह्रैगो भोर ॥ 25 ॥

कहि रहीम धन बढ़ि घटे, जात धनिन की बात ।
घटै बढ़े उनको कहा, घास बेचि जे खात ॥ 26 ॥

कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत ।
बिपति कसौटी जे कसे, तेई सांचे मीत ॥ 27 ॥

कहि रहीम या जगत तें, प्रीति गई दै टेर ।
रहि रहीम नर नीच में, स्वारथ स्वारथ टेर ॥ 28 ॥

कहु रहीम केतिक रही, केतिक गई बिहाय ।
माया ममता मोह परि, अन्त चले पछिताय ॥ 29 ॥

कहि रहीम इक दीप तें, प्रगट सबै दुति होय ।
तन सनेह कैसे दुरै, दूग दीपक जरु होय ॥ 30 ॥

कहु रहीम कैसे बनै, अनहोनी ह्रै जाय ।
मिला रहै औ ना मिलै, तासों कहा बसाय ॥ 31 ॥

काज परे कछु और है, काज सरे कछु और ।
रहिमन भंवरी के भए, नदी सिरावत मौर ॥ 32 ॥

कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग ।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ॥ 33 ॥

कागद को सो पूतरा, सहजहि में घुलि जाय ।
रहिमन यह अचरज लखो, सोऊ खैंचत बाय ॥ 34 ॥

काम न काहू आवई, मोल रहीम न लेई ।
बाजू टूटे बाज को, साहब चारा देई ॥ 35 ॥

कैसे निबहैं निबल जन, करि सबलन सों गैर ।
रहिमन बसि सागर बिषे, करत मगस सों बैर ॥ 36 ॥

काह कामरी पागरी, जाड़ गए से काज ।
रहिमन भूख बुताइए, कैस्यो मिलै अनाज ॥ 37 ॥

कहा करौं बैकुंठ लै, कल्प बृच्छ की छांह ।
रहिमन ढाक सुहावनै, जो गल पीतम बांह ॥ 38 ॥

कुटिलत संग रहीम कहि, साधू बचते नांहि ।
ज्यों नैना सैना करें, उरज उमेठे जाहि ॥ 39 ॥

को रहीम पर द्वार पै, जात न जिय सकुचात ।
संपति के सब जात हैं, बिपति सबै लै जात ॥ 40 ॥

गगन चढ़े फरक्यो फिरै, रहिमन बहरी बाज ।
फेरि आई बंधन परै, अधम पेट के काज ॥ 41 ॥

खरच बढ़यो उद्द्म घटयो, नृपति निठुर मन कीन ।
कहु रहीम कैसे जिए, थोरे जल की मीन ॥ 42 ॥

खैर खून खासी खुसी, बैर प्रीति मदपान ।
रहिमन दाबे न दबैं, जानत सकल जहान ॥ 43 ॥

खीरा को मुंह काटि के, मलियत लोन लगाय ।
रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय ॥ 44 ॥

गति रहीम बड़ नरन की, ज्यों तुरंग व्यवहार ।
दाग दिवावत आप तन, सही होत असवार ॥ 45 ॥

गहि सरनागत राम की, भव सागर की नाव ।
रहिमन जगत उधार कर, और न कछु उपाव ॥ 46 ॥

गुरुता फबै रहीम कहि, फबि आई है जाहि ।
उर पर कुच नीके लगैं, अनत बतौरी आहिं ॥ 47 ॥

गुनते लेत रहीम जन, सलिल कूपते काढ़ि ।
कूपहु ते कहुं होत है, मन काहू के बाढ़ि ॥ 48 ॥

गरज आपनी आप सों, रहिमन कही न जाय ।
जैसे कुल की कुलवधु, पर घर जात लजाय ॥ 49 ॥

चढ़िबो मोम तुरंग पर, चलिबो पावक मांहि ।
प्रेम पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं ॥ 50 ॥

चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेस ।
जापर विपदा पड़त है, सो आवत यहि देस ॥ 51 ॥

छोटेन सों सोहैं बड़े, कहि रहीम यह लेख ।
सहसन को हय बांधियत, लै दमरी की मेख ॥ 52 ॥

चरन छुए मस्तक छुए, तेहु नहिं छांड़ति पानि ।
हियो छुवत प्रभु छोड़ि दै, कहु रहीम का जानि ॥ 53 ॥

चारा प्यारा जगत में, छाल हित कर लेइ ।
ज्यों रहीम आटा लगे, त्यों मृदंग सुर देह ॥ 54 ॥

छमा बड़ेन को चाहिए, छोटेन को उत्पात ।
का रहीम हरि जो घट्यो, जो भृगु मारी लात ॥ 55 ॥

जलहिं मिलाइ रहीम ज्यों, कियों आपु सग छीर ।
अगवहिं आपुहि आप त्यों, सकल आंच की भीर ॥ 56 ॥

जब लगि जीवन जगत में, सुख-दु:ख मिलन अगोट ।
रहिमन फूटे गोट ज्यों, परत दुहुन सिर चोट ॥ 57 ॥

जहां गांठ तहं रस नहीं, यह रहीम जग जोय ।
मंडप तर की गांठ में, गांठ गांठ रस होय ॥ 58 ॥

जब लगि विपुने न आपनु, तब लगि मित्त न कोय ।
रहिमन अंबुज अंबु बिन, रवि ताकर रिपु होय ॥ 59 ॥

जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह ।
रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छांड़ति छोह ॥ 60 ॥

जे अनुचितकारी तिन्हे, लगे अंक परिनाम ।
लखे उरज उर बेधिए, क्यों न होहि मुख स्याम ॥ 61 ॥

जे गरीब सों हित करै, धनि रहीम वे लोग ।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग ॥ 62 ॥

जेहि रहीम तन मन लियो, कियो हिय बिचमौन ।
तासों सुख-दुख कहन की, रही बात अब कौन ॥ 63 ॥

जेहि अंचल दीपक दुरयो, हन्यो सो ताही गात ।
रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु है जात ॥ 64 ॥

जे रहीम विधि बड़ किए, को कहि दूषन काढ़ि ।
चन्द्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत ते बाढ़ि ॥ 65 ॥

जैसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह ।
धरती ही पर परत हैं, सीत घाम और मेह ॥ 66 ॥

जो पुरुषारथ ते कहूं, संपति मिलत रहीम ।
पेट लागि बैराट घर, तपत रसोई भीम ॥ 67 ॥

जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे तो सुलगे नाहिं ।
रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि बुझि के सुलगाहिं ॥ 68 ॥

जो घर ही में घुसि रहै, कदली सुपत सुडील ।
तो रहीम तिन ते भले, पथ के अपत करील ॥ 69 ॥

जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जांहि ।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नांहि ॥ 70 ॥

जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को यही हवाल ।
तो काहे कर पर धरयो, गोबर्धन गोपाल ॥ 71 ॥

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग ।
चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ॥ 72 ॥

जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ ही इतराय ।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय ॥ 73 ॥

जो मरजाद चली सदा, सोइ तो ठहराय ।
जो जल उमगें पार तें, सो रहीम बहि जाय ॥ 74 ॥

जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।
बारे उजियारे लगै, बढ़े अंधेरो होय ॥ 75 ॥

जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट ।
समय परे ते होत है, वाही पट की चोट ॥ 76 ॥

जो रहीम भावी कतहुं, होति आपने हाथ ।
राम न जाते हरिन संग, सीय न रावण साथ ॥ 77 ॥

जो रहीम मन हाथ है, तो मन कहुं किन जाहि ।
ज्यों जल में छाया परे, काया भीजत नाहिं ॥ 78 ॥

जो रहीम होती कहूं, प्रभु गति अपने हाथ ।
तो काधों केहि मानतो, आप बढ़ाई साथ ॥ 79 ॥

जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरु सीस ।
निठुरा आगे रोयबो, आंसु गारिबो खीस ॥ 80 ॥

जो विषया संतन तजो, मूढ़ ताहि लपटात ।
ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सो खात ॥ 81 ॥

टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार ।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार ॥ 82 ॥

जो रहीम रहिबो चहो, कहौ वही को ताउ ।
जो नृप वासर निशि कहे, तो कचपची दिखाउ ॥ 83 ॥

ज्यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात ।
अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपने हाथ ॥ 84 ॥

तरुवर फल नहीं खात है, सरवर पियत न पान ।
कहि रहीम परकाज हित, संपति-सचहिं सुजान ॥ 85 ॥

तैं रहीम मन आपनो, कीन्हो चारु चकोर ।
निसि वासर लाग्यो रहै, कृष्ण्चन्द्र की ओर ॥ 86 ॥

तन रहीम है करम बस, मन राखौ वहि ओर ।
जल में उलटी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर ॥ 87 ॥

तै रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय ।
खस काजद को पूतरा, नमी मांहि खुल जाय ॥ 88 ॥

तबहीं लो जीबो भलो, दीबो होय न धीम ।
जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम ॥ 89 ॥

तासो ही कछु पाइए, कीजे जाकी आस ।
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास ॥ 90 ॥

दादुर, मोर, किसान मन, लग्यौ रहै धन मांहि ।
पै रहीम चाकत रटनि, सरवर को कोउ नाहि ॥ 91 ॥

थोथे बादर क्वार के, ज्यों रहीम घहरात ।
धनी पुरुष निर्धन भए, करे पाछिली बात ॥ 92 ॥

दिव्य दीनता के रसहिं, का जाने जग अन्धु ।
भली विचारी दीनता, दीनबन्धु से बन्धु ॥ 93 ॥

दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय ।
जो रहीम दीनहिं लखत, दीबन्धु सम होय ॥ 94 ॥

दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि ।
सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि ॥ 95 ॥

दीरघ दोहा अरथ के, आरवर थोरे आहिं ।
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहि ॥ 96 ॥

दुरदिन परे रहीम कहि, दुश्थल जैयत भागि ।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागति आगि ॥ 97 ॥

दु:ख नर सुनि हांसि करैं, धरत रहीम न धीर ।
कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर ॥ 98 ॥

धनि रहीम जलपंक को, लघु जिय पियत अघाय ।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय ॥ 99 ॥

धन थोरो इज्जत बड़ी, कह रहीम का बात ।
जैसे कुल की कुलवधु, चिथड़न माहि समात ॥ 100 ॥

धनि रहीम गति मीन की, जल बिछुरत जिय जाय ।
जियत कंज तजि अनत बसि, कहा भौंर को भाय ॥ 101 ॥

धन दारा अरु सुतन सों, लग्यों रहै नित चित्त ।
नहि रहीम कोऊ लख्यो, गाढ़े दिन को मित्त ॥ 102 ॥

दोनों रहिमन एक से, जौलों बोलत नाहिं ।
जान परत है काक पिक, ॠतु बसन्त के भांहि ॥ 103 ॥

नात नेह दूरी भली, जो रहीम जिय जानि ।
निकट निरादर होत है, ज्यों गड़ही को पानि ॥ 104 ॥

धूर धरत नित सीस पर, कहु रहीम केहि काज ।
जेहि रज मुनि पतनी तरी, सो ढ़ूंढ़त गजराज ॥ 105 ॥

नाद रीझि तन देत मृग, नर धन देत समेत ।
ते रहिमन पसु ते अधिक, रीझेहुं कछु न देत ॥ 106 ॥

नहिं रहीम कछु रूप गुन, नहिं मृगया अनुराग ।
देसी स्वान जो राखिए, भ्रमत भूख ही लाग ॥ 107 ॥

निज कर क्रिया रहीम कहि, सिधि भावी के हाथ ।
पांसे अपने हाथ में, दांव न अपने हाथ ॥ 108 ॥

परि रहिबो मरिबो भलो, सहिबो कठिन कलेम ।
बामन हवैं बलि को छल्लो, दियो भलो उपदेश ॥ 109 ॥

नैन सलोने अधर मधु, कहु रहीम घटि कौन ।
मीठो भावे लोन पर, अरु मीठे पर लौन ॥ 110 ॥

पन्नगबेलि पतिव्रता, रति सम सुनो सुजान ।
हिम रहीम बेली दही, सत जोजन दहियान ॥ 111 ॥

पसिर पत्र झंपहि पिटहिं, सकुचि देत ससि सीत ।
कहु रहीम कुल कमल के, को बेरी को मीत ॥ 112 ॥

पात-पात को सीचिबों, बरी बरी को लौन ।
रहिमन ऐसी बुद्धि को, कहो बैरगो कौन ॥ 113 ॥

बड़ माया को दोष यह, जो कबहूं घटि जाय ।
तो रहीम गरिबो भलो, दुख सहि जिए बलाय ॥ 114 ॥

पुरुष पूजै देवरा, तिय पूजै रघूनाथ ।
कहि रहीम दोउन बने, पड़ो बैल के साथ ॥ 115 ॥

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन ।
अब दादुर वक्ता भए, हम को पूछत कौन ॥ 116 ॥

प्रीतम छवि नैनन बसि, पर छवि कहां समाय ।
भरी सराय रहीम लखि, आपु पथिक फिरि जाय ॥ 117 ॥

बड़े दीन को दुख सुने, लेत दया उर आनि ।
हरि हाथी सों कब हुती, कहु रहीम पहिचानि ॥ 118 ॥

बड़े बड़ाई नहिं तजैं, लघु रहीम इतराइ ।
राइ करौंदा होत है, कटहर होत न राइ ॥ 119 ॥

बड़े पेट के भरन को, है रहीम दुख बाढ़ि ।
यातें हाथी हहरि कै, दयो दांत द्वै काढ़ि ॥ 120 ॥

बढ़त रहीम धनाढय धन, धनौं धनी को जाई ।
धटै बढ़ै वाको कहा, भीख मांगि जो खाई ॥ 121 ॥

बड़े बड़ाई ना करें, बड़ो न बोलें बोल ।
रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका है मोल ॥ 122 ॥

बरू रहीम कानन बसिय, असन करिय फल तोय ।
बन्धु मध्य गति दीन हवै, बसिबो उचित न होय ॥ 123 ॥

बिपति भए धन ना रहै, रहै जो लाख करोर ।
नभ तारे छिपि जात हैं, ज्यों रहीम ये भोर ॥ 124 ॥

बांकी चितवनि चित चढ़ी, सूधी तौ कछु धीम ।
गांसी ते बढ़ि होत दुख, काढ़ि न कढ़त रहीम ॥ 125 ॥

विरह रूप धन तम भए, अवधि आस उधोत ।
ज्यों रहीम भादों निसा, चमकि जात खद्दोत ॥ 126 ॥

बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस ।
महिमा घटी समुन्द्र की, रावन बस्यो परोस ॥ 127 ॥

बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय ।
रहिमन बिगरै दूध को, मथे न माखन होय ॥ 128 ॥

भावी काहू न दही, दही एक भगवान ।
भावी ऐसा प्रबल है, कहि रहीम यह जानि ॥ 129 ॥

भीत गिरी पाखान की, अररानी वहि ठाम ।
अब रहीम धोखो यहै, को लागै केहि काम ॥ 130 ॥

भजौं तो काको मैं भजौं, तजौं तो काको आन ।
भजन तजन ते बिलग हैं, तेहिं रहीम जू जान ॥ 131 ॥

भावी या उनमान की, पांडव बनहिं रहीम ।
तदपि गौरि सुनि बांझ, बरू है संभु अजीम ॥ 132 ॥

भलो भयो घर ते छुटयो, हस्यो सीस परिखेत ।
काके काके नवत हम, अपत पेट के हेत ॥ 133 ॥

भूप गनत लघु गुनिन को, गुनी गुनत लघु भुप ।
रहिमन गिरि ते भूमि लौं, लखौ तौ एकै रुप ॥ 134 ॥

महि नभ सर पंजर कियो, रहिमन बल अवसेष ।
सो अर्जुन बैराट घर, रहे नारि के भेष ॥ 135 ॥

मनसिज माली कै उपज, कहि रहीम नहिं जाय ।
फल श्यामा के उर लगे, फूल श्याम उर जाय ॥ 136 ॥

मथत मथत माखन रहै, दही मही विलगाय ।
रहिमन सोई मीत है, भीत परे ठहराय ॥ 137 ॥

मन से कहां रहीम प्रभु, दृग सों कहा दिवान ।
देखि दृगन जो आदरैं, मन तोहि हाथ बिकान ॥ 138 ॥

माह मास लहि टेसुआ, मीन परे थल और ।
त्यों रहीम जग जानिए, छुटे आपने ठौर ॥ 139 ॥

मांगे मुकरिन को गयो, केहि न त्यागियो साथ ।
मांगत आगे सुख लहयो, ते रहीम रघुनाथ ॥ 140 ॥

मान सरोवर ही मिलैं, हंसनि मुक्ता भोग ।
सफरिन भरे रहीम सर, बक बालक नहिं जोग ॥ 141 ॥

मान सहित विष खाय के, संभु भए जगदीस ।
बिना मान अमृत पिए, राहु कटायो सीस ॥ 142 ॥

मांगे घटत रहीम पद, कितौ करो बड़ काम ।
तीन पैग वसुधा करी, तऊ बावने नाम ॥ 143 ॥

मूढ़ मंडली में सुजन, ठहरत नहीं विसेख ।
स्याम कंचन में सेत ज्यों, दूरि कीजिअत देख ॥ 144 ॥

यद्धपि अवनि अनेक हैं, कूपवन्त सर ताल ।
रहिमन मान सरोवरहिं, मनसा करत मराल ॥ 145 ॥

मुनि नारी पाषान ही, कपि पसु गुह मातंग ।
तीनों तारे रामजु तीनो मेरे अंग ॥ 146 ॥

मंदन के मरिहू, अवगुन गुन न सराहि ।
ज्यों रहीम बांधहू बंधै, मरवा हवै अधिकाहि ॥ 147 ॥

मुक्ता कर करपूर कर, चातक-जीवन जोय ।
एतो बड़ो रहीम जल, ब्याल बदन बिस होय ॥ 148 ॥

यह रहीम मानै नहीं, दिन से नवा जो होय ।
चीता चोर कमान के, नए ते अवगुन होय ॥ 149 ॥

यों रहीम सुख दु:ख सहत, बड़े लोग सह सांति ।
उदत चंद चोहि भांति सों, अथवत ताहि भांति ॥ 150 ॥

यह रहीम निज संग लै, जनमत जगत न कोय ।
बैर प्रीति अभ्यास जस, होत होत ही होय ॥ 151 ॥

ये रहीम फीके दुवौ, जानि महा संतापु ।
ज्यों तिय कुच आपन गहे, आपु बड़ाई आपु ॥ 152 ॥

याते जान्यो मन भयो, जरि बरि भसम बनाय ।
रहिमन जाहि लगाइए, सोइ रूखो है जाय ॥ 153 ॥

रन बन व्याधि विपत्ति में, रहिमन मरै न रोय ।
जो रच्छक जननी जठर, सो हरि गए कि सोय ॥ 154 ॥

रहिमन अपने पेट सों, बहुत कह्यो समुझाय ।
जो तू अनखाए रहे, तो सों को अनखाय ॥ 155 ॥

रहिमन अति न कीजिए, गहि रहिए निज कानि ।
सैंजन अति फूलै तऊ, डार पात की हानि ॥ 156 ॥

वहै प्रति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत ।
घटत घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत ॥ 157 ॥

रहिमन अपने गोत को, सबै चहत उत्साय ।
मृग उछरत आकास को, भूमी खनत बराह ॥ 158 ॥

रहिमन अब वे विरिछ कहं, जिनकी छांह गंभीर ।
बागन बिच बिच देखियत, सेहुड़ कंज करीर ॥ 159 ॥

रहिमन सूधी चाल तें, प्यादा होत उजीर ।
फरजी मीर न है सके, टेढ़े की तासीर ॥ 160 ॥

रहिमन खोटि आदि की, सो परिनाम लखाय ।
जैसे दीपक तम भरवै, कज्जल वमन कराय ॥ 161 ॥

रहिमन राज सराहिए, ससि सुखद जो होय ।
कहा बापुरो भानु है, तपै तरैयन खोय ॥ 162 ॥

रहिमन आंटा के लगे, बाजत है दिन रात ।
घिउ शक्कर जे खात हैं, तिनकी कहां बिसात ॥ 163 ॥

रहिमन एक दिन वे रहे, बीच न सोहत हार ।
वायु जो ऐसी बस गई, बीचन परे पहार ॥ 164 ॥

रहिमन रिति सराहिए, जो घत गुन सम होय ।
भीति आप पै डारि कै, सबै मियावे तोय ॥ 165 ॥

रीति प्रीति सबसों भली, बैर न हित मित गोत ।
रहिमन याही जनम की, बहुरि न संगति होत ॥ 166 ॥

रहिमन नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि ।
दूध कलारी कर गहे, मद समुझैं सब ताहि ॥ 167 ॥

समय लाभ समय लाभ नहिं, समय चूक सम चूक ।
चतुरन चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक ॥ 168 ॥

रहिमन नीच प्रसंग ते, नित प्रति लाभ विकार ।
नीर चोरावै संपुटी, भारू सहे धारिआर ॥ 169 ॥

रहिमन दानि दरिद्रतर, तऊ जांचिबे योग ।
ज्यों सरितन सूखा करे, कुआं खनावत लोग ॥ 170 ॥

रहिमन तीर की चोट ते, चोट परे बचि जाय ।
नैन बान की चोट तैं, चोट परे मरि जाय ॥ 171 ॥

रुप बिलोकि रहीम तहं, जहं तहं मन लगि जाय ।
याके ताकहिं आप बहु, लेत छुड़ाय, छुड़ाय ॥ 172 ॥

सदा नगारा कूच का, बाजत आठो जाम ।
रहिमन या जग आइकै, का करि रहा मुकाम ॥ 173 ॥

समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जात ।
सदा रहै नहीं एक सी, का रहीम पछितात ॥ 174 ॥

रहिमन आलस भजन में, विषय सुखहिं लपटाय ।
घास चरै पसु स्वाद तै, गुरु गुलिलाएं खाय ॥ 175 ॥

रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागै बार ।
चोरी करि होरी रची, भई तनिक में छार ॥ 176 ॥

रहिमन जो तुम कहत थे, संगति ही गुन होय ।
बीच उखारी रसभरा, रह काहै ना होय ॥ 177 ॥

रहिमन रिस को छांड़ि कै, करो गरीबी भेस ।
मीठो बोलो, नै चलो, सबै तुम्हारो देस ॥ 178 ॥

रहिमन मारगा प्रेम को, मर्मत हीत मझाव ।
जो डिरिहै ते फिर कहूं, नहिं धरने को पांव ॥ 179 ॥

रहिमन सुधि सब ते भली, लगै जो बारंबार ।
बिछुरे मानुष फिर मिलें, यहै जान अवतार ॥ 180 ॥

रहिमन चाक कुम्हार को, मांगे दिया न देई ।
छेद में ड़डा डारि कै, चहै नांद लै लेई ॥ 181 ॥

रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय ।
हित अनहित मा जगत में, जानि परत सब कोय ॥ 182 ॥

रहिमन रजनी ही भली, पिय सों होय मिलाप ।
खरो दिवस केहि काम जो, रहिबो आपुहि आप ॥ 183 ॥

रहिमन बात अगम्य की, कहन सुनन की नाहिं ।
जो जानत सो कहत नहिं, कहत ते जानत नाहिं ॥ 184 ॥

रहिमन अंसुवा नैन ढरि, जिय दुख प्रगट करेइ ।
जाहि निकारो गेह तें, कस न भेद कहि देइ ॥ 185 ॥

रहिमन मंदत बड़ेन की, लघुता होत अनूप ।
बलि मरद मोचन को गए, धरि बावन को रूप ॥ 186 ॥

रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट है जात ।
नारायण हू को भयो, बावन अंगूर गात ॥ 187 ॥

समय दसा कुल देखिकै, सबै करत सनमान ।
रहिमन दीन अनाथ को, तुम बिन को भगवान ॥ 188 ॥

सरवर के खग एक से, बाढ़त प्रीति न धीम ।
पै मराल को मानसर, एकै ठौर रहीम ॥ 189 ॥

रहिमन ठठरी धूर की, रही पवन ते पूरि ।
गांठ युक्ति की खुलि गई, अन्त धूरि की धूरि ॥ 190 ॥

राम राम जान्यो नहीं, भइ पूजा में हानि ।
कहि रहीम क्यों मानिहैं, जम के किंकरकानि ॥ 191 ॥

रहिमन सो न कछू गनै, जासों लागो नैन ।
सहि के सोच बेसाहियो, गयो हाथ को चैन ॥ 192 ॥

रूप कथा पद चारू पट, कंचन दोहा लाल ।
ज्यों ज्यों निरखत सूक्ष्म गति, मोल रहीम बिसाल ॥ 193 ॥

लिखी रहीम लिलार में, भई आन की आन ।
पद कर काटि बनारसी, पहुंचे मगहर थान ॥ 194 ॥

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय ।
टूटे से फिर न मिले, मिले तो गांठ पड़ जाय ॥ 195 ॥

रहिमन धरिया रहंट की, त्यों ओछे की डीठ ।
रीतेहि सन्मुख होत है, भरी दुखावै पीठ ॥ 196 ॥

रहिमन लाख भली करो, अगुने अपुन न जाय ।
राग सुनत पय पुअत हूं, सांप सहज धरि खाय ॥ 197 ॥

रहिमन तुम हमसों करी, करी करी जो तीर ।
बाढ़े दिन के मीत हो, गाढ़े दिन रघुबीर ॥ 198 ॥

रहिमन बिगरी आदि की, बनै न खरचे दाम ।
हरि बाढ़े आकास लौं, तऊ बावने नाम ॥ 199 ॥

रहिमन पर उपकार के, करत न यारी बीच ।
मांस दियो शिवि भूप ने, दीन्हो हाड़ दधीच ॥ 200 ॥

रहिमन थोरे दिनन को, कौन करे मुंह स्याह ।
नहीं छनन को परतिया, नहीं करन को ब्याह ॥ 201 ॥

रहिमन रहिबो व भलो जौ लौं सील समूच ।
सील ढील जब देखिए, तुरन्त कीजिए कूच ॥ 202 ॥

रहिमन पैंडा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल ।
बिछलत पांव पिपीलिका, लोग लदावत बैल ॥ 203 ॥

रहिमन ब्याह बियाधि है, सकहु तो जाहु बचाय ।
पायन बेड़ी पड़त है, ढोल बजाय बजाय ॥ 204 ॥

रहिमन प्रिति सराहिए, मिले होत रंग दून ।
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून ॥ 205 ॥

रहिमन तब लगि ठहरिए, दान मान, सम्मान ।
घटत मान देखिए जबहि, तुरतहिं करिय पयान ॥ 206 ॥

राम नाम जान्या नहीं, जान्या सदा उपाधि ।
कहि रहीम तिहि आपनो, जनम गंवायो बादि ॥ 207 ॥

रहिमन जगत बड़ाई की, कूकुर की पहिचानि ।
प्रीति कैर मुख चाटई, बैर करे नत हानि ॥ 208 ॥

सबै कहावै लसकरी सब लसकर कहं जाय ।
रहिमन सेल्ह जोई सहै, सो जागीरें खाय ॥ 209 ॥

रहिमन करि सम बल नहीं, मानत प्रभु की थाक ।
दांत दिखावत दीन है, चलत घिसावत नाक ॥ 210 ॥

रहिमन छोटे नरन सों, होत बड़ों नहिं काम ।
मढ़ो दमामो ना बने, सौ चूहे के चाम ॥ 211 ॥

रहिमन प्रीत न कीजिए, जस खीरा ने कीन ।
ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांके तीन ॥ 212 ॥

रहिमन धोखे भाव से, मुख से निकसे राम ।
पावत मूरन परम गति, कामादिक कौ धाम ॥ 213 ॥

रहिमन मनहि लगई कै, देखि लेहु किन कोय ।
नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय ॥ 214 ॥

रहिमन असमय के परे, हित अनहित है जाय ।
बधिक बधै भृग बान सों, रुधिरै देत बताय ॥ 215 ॥

लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार ।
जो हानि मारै सीस में, ताही की तलवार ॥ 216 ॥

रहिमन जिह्वा बावरी, कहिगै सरग पाताल ।
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल ॥ 217 ॥

रहिमन निज मन की विथा, मन ही राखो गोय ।
सुनि अठिलै है लोग सब, बांटि न लैहे कोय ॥ 218 ॥

रहिमन जाके बाप को, पानी पिअत न कोय ।
ताकी गैर अकास लौ, क्यों न कालिमा होय ॥ 219 ॥

रहिमन उजली प्रकृति को, नहीं नीच को संग ।
करिया वासन कर गहे, कालिख लागत अंग ॥ 220 ॥

रहिमन कठिन चितान ते, चिंता को चित चेत ।
चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत ॥ 221 ॥

रहिमन विद्या बुद्धि नहीं, नहीं धरम जस दान ।
भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिन पूंछ विषान ॥ 222 ॥

रहिमन चुप ह्वै बैठिए, देखि दिनन को फेर ।
जब नीकै दिन आइहैं, बनत न लगिहैं बेर ॥ 223 ॥

रहिमन खोजे ऊख में, जहां रसनि की खानि ।
जहां गांठ तहं रस नहीं, यही प्रीति में हानि ॥ 224 ॥

रहिमन को कोउ का करै, ज्वारी चोर लबार ।
जो पत राखन हार, माखन चाखन हार ॥ 225 ॥

रहिमन वे नर मर चुके, जो कहुं मांगन जांहि ।
उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं ॥ 226 ॥

रहिमन कबहुं बड़ेन के, नाहिं गरब को लेस ।
भार धरे संसार को, तऊ कहावत सेस ॥ 227 ॥

रहिमन वहां न जाइए, जहां कपट को हेत ।
हम तन ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत ॥ 228 ॥

रहिमन रिस सहि तजत नहिं, बड़े प्रीति की पौरि ।
मूकन भारत आवई, नींद बिचारी दौरि ॥ 229 ॥

रहिमन ओछे नरन सों, बैर भलो न प्रीति ।
काटे चाटे स्वान के, दुहूं भांति विपरीति ॥ 230 ॥

रहिमन भेषज के किए, काल जीति जो जात ।
बड़े-बड़े समरथ भये, तौ न कोउ मरि जात ॥ 231 ॥

रहिमन जग जीवन बड़े, काहु न देखे नैन ।
जाय दसानन अछत ही, कपि लागे गथ लैन ॥ 232 ॥

रहिमन पानी राखिए, बिनु पानी सब सून ।
पानी भए न ऊबरैं, मोती मानुष चून ॥ 233 ॥

रहिमन बहु भेषज करत, ब्याधि न छांड़त साज ।
खग मृग बसत अरोग बन, हरि अनाथ के नाथ ॥ 234 ॥

रहिमन तीन प्रकार ते, हित अनहित पहिचानि ।
पर बस परे, परोस बस, परे मामिला जानि ॥ 235 ॥

पांच रूप पांडव भए, रथ बाहक नलराज ।
दुरदिन परे रहीम कहि, बड़े किए घटि काज ॥ 236 ॥

समय परे ओछे वचन, सबके सहै रहीम ।
सभा दुसासन पट गहै, गदा लिए रहे भीम ॥ 237 ॥

रहिमन जा डर निसि पैर, ता दिन डर सब कोय ।
पल पल करके लागते, देखु कहां धौ होय ॥ 238 ॥

रहिमन रहिला की भले, जो परसै चितलाय ।
परसत मन मैला करे सो मैदा जरि जाय ॥ 239 ॥

रहिमन यह तन सूप है, लीजै जगत पछोर ।
हलुकन को उड़ि जान है, गुरुए राखि बटोर ॥ 240 ॥

रहिमन गली है साकरी, दूजो ना ठहराहिं ।
आपु अहै तो हरि नहिं, हरि तो आपुन नाहिं ॥ 241 ॥

स्वारथ रचत रहीम सब, औगुनहूं जग मांहि ।
बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ पथ कूबर छांहि ॥ 242 ॥

संपति भरम गंवाइ कै, हाथ रहत कछु नाहिं ।
ज्यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहुं मांहि ॥ 243 ॥

सर सूखै पंछी उड़ै, औरे सरन समाहिं ।
दीन मीन बिन पंख के, कहु रहीम कहं जाहिं ॥ 244 ॥

स्वासह तुरिय जो उच्चरै, तिय है निश्चल चित्त ।
पूत परा घर जानिए, रहिमन तीन पवित्त ॥ 245 ॥

साधु सराहै साधुता, जती जोखिता जान ।
रहिमन सांचे सूर को, बैरी करे बखान ॥ 246 ॥

संतत संपति जानि कै, सबको सब कुछ देत ।
दीन बन्धु बिन दीन की, को रहीम सुधि लेत ॥ 247 ॥

ससि की शीतल चांदनी, सुन्दर सबहिं सुहाय ।
लगे चोर चित में लटी, घटि रहीम मन आय ॥ 248 ॥

सीत हरत तम हरत नित, भुवन भरत नहि चूक ।
रहिमन तेहि रवि को कहा, जो घटि लखै उलूक ॥ 249 ॥

ससि सुकेस साहस सलिल, मान सनेह रहीम ।
बढ़त बड़त बढ़ि जात है, घटत घटत घटि सीम ॥ 250 ॥

यह न रहीम सराहिए, लेन देन की प्रीति ।
प्रानन बाजी राखिए, हार होय कै जीति ॥ 251 ॥

ये रहीम दर दर फिरहिं, मांगि मधुकरी खाहिं ।
यारो यारी छोड़िए, वे रहीम अब नाहिं ॥ 252 ॥

यों रहीम तन हाट में, मनुआ गयो बिकाय ।
ज्यों जल में छाया परे, काया भीतर नाय ॥ 253 ॥

रजपूती चांवर भरी, जो कदाच घटि जाय ।
कै रहीम मरिबो भलो, कै स्वदेस तजि जाय ॥ 254 ॥

यों रहीम सुख होत है, बढ़त देखि निज गोत ।
ज्यों बड़री अंखियां निरखि अंखियन को सुख होत ॥ 255 ॥

हित रहीम इतनैं करैं, जाकी जिती बिसात ।
नहिं यह रहै न व रहे, रहै कहन को बात ॥ 256 ॥

सबको सब कोऊ करैं, कै सलाम कै राम ।
हित रहीम तब जानिए, जब कछु अटकै काम ॥ 257 ॥

रौल बिगाड़े राज नैं, मौल बिगाड़े माल ।
सनै सनै सरदार की, चुगल बिगाड़े चाल ॥ 258 ॥

रहिमन कहत स्वपेट सों, क्यों न भयो तू पीठ ।
रीते अनरीतैं करैं, भरै बिगारैं दीठ ॥ 259 ॥

होत कृपा जो बड़ेन की, सो कदापि घट जाय ।
तो रहीम मरिबो भलो, यह दुख सहो न जाय ॥ 260 ॥

वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग ।
बाटन वारे को लगे, ज्यों मेहंदी को रंग ॥ 261 ॥

होय न जाकी छांह ढिग, फल रहीम अति दूर ।
बढ़िहू सो बिन काज की, तैसे तार खजूर ॥ 262 ॥

हरी हरी करुना करी, सुनी जो सब ना टेर ।
जग डग भरी उतावरी, हरी करी की बेर ॥ 263 ॥

अनकिन्ही बातें करै, सोवत जागै जोय ।
ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय ॥ 264 ॥

बिधना यह जिय जानिकै, सेसहि दिए न कान ।
धरा मेरु सब डोलिहैं, तानसेन के तान ॥ 265 ॥

एक उदर दो चोंच है, पंछी एक कुरंड ।
कहि रहीम कैसे जिए, जुदे जुदे दो पिंड ॥ 266 ॥

जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय ।
बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अंधेरो होय ॥ 267 ॥

चिंता बुद्धि परखिए, टोटे परख त्रियाहि ।
सगे कुबेला परखिए, ठाकुर गुनो किआहि ॥ 268 ॥

चाह गई चिन्ता मिटी, मनुआ बेपरवाह ।
जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह ॥ 269 ॥

जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय ।
ताको बुरा न मानिए, लेन कहां सो जाय ॥ 270 ॥

खैंचि चढ़नि ढीली ढरनि, कहहु कौन यह प्रीति ।
आजकाल मोहन गही, बसंदिया की रीति ॥ 271 ॥

कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम ।
काकी महिमा नहीं घटी, पर घर गए रहीम ॥ 272 ॥

जो रहीम जग मारियो, नैन बान की चोट ।
भगत भगत कोउ बचि गए, चरन कमल की ओट ॥ 273 ॥

कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन ।
जैसी संगती बैठिए, तैसोई फल दीन ॥ 274 ॥

पिय वियोग ते दुसह दुख, सुने दुख ते अन्त ।
होत अन्त ते फल मिलन, तोरि सिधाए कन्त ॥ 275 ॥

आदि रूप की परम दुति, घट घट रही समाई ।
लघु मति ते मो मन रमन, अस्तुति कही न जाई ॥ 276 ॥

नैन तृप्ति कछु होत है, निरखि जगत की भांति ।
जाहि ताहि में पाइयत, आदि रूप की कांति ॥ 277 ॥

उत्तम जाती ब्राह्ममी, देखत चित्त लुभाय ।
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय ॥ 278 ॥

परजापति परमेशवरी, गंगा रूप समान ।
जाके अंग तरंग में, करत नैन अस्नान ॥ 279 ॥

रूप रंग रति राज में, खत रानी इतरान ।
मानो रची बिरंचि पचि, कुसुम कनक में सान ॥ 280 ॥

परस पाहन की मनो, धरे पूतरी अंग ।
क्यों न होय कंचन बहू, जे बिलसै तिहि संग ॥ 281 ॥

कबहुं देखावै जौहरनि, हंसि हंसि मानकलाल ।
कबहुं चखते च्वै परै, टूटि मुकुत की माल ॥ 282 ॥

जद्यपि नैननि ओट है, बिरह चोट बिन घाई ।
पिय उर पीरा न करै, हीरा-सी गड़ि जाई ॥ 283 ॥

कैथिनि कथन न पारई, प्रेम कथा मुख बैन ।
छाती ही पाती मनों, लिखै मैन की सैन ॥ 284 ॥

बरूनि बार लेखिनि करै, मसि का जरि भरि लेई ।
प्रेमाक्षर लिखि नैन ते, पिये बांचन को देई ॥ 285 ॥

पलक म टारै बदन ते, पलक न मारै मित्र ।
नेकु न चित ते ऊतरै, ज्यों कागद में चित्र ॥ 286 ॥

सोभित मुख ऊपर धरै, सदा सुरत मैदान ।
छूरी लरै बंदूकची, भौहें रूप कमान ॥ 287 ॥

कामेश्वर नैननि धरै, करत प्रेम की केलि ।
नैन माहिं चोवा मटे, छोरन माहि फुलेलि ॥ 288 ॥

करै न काहू की सका, सकिकन जोबन रूप ।
सदा सरम जल ते मरी, रहे चिबुक कै रूप ॥ 289 ॥

करै गुमान कमागरी, भौंह कमान चढ़ाइ ।
पिय कर महि जब खैंचई, फिर कमान सी जाइ ॥ 290 ॥

सीस चूंदरी निरख मन, परत प्रेम के जार ।
प्रान इजारै लेत है, वाकी लाल इजार ॥ 291 ॥

जोगनि जोग न जानई, परै प्रेम रस माहिं ।
डोलत मुख ऊपर लिए, प्रेम जटा की छांहि ॥ 292 ॥

भाटिन भटकी प्रेम की, हर की रहै न गेह ।
जोवन पर लटकी फिरै, जोरत वरह सनेह ॥ 293 ॥

भटियारी उर मुंह करै, प्रेम पथिक की ठौर ।
धौस दिखावै और की, रात दिखावै और ॥ 294 ॥

पाटम्बर पटइन पहिरि, सेंदुर भरे ललाट ।
बिरही नेकु न छाड़ही, वा पटवा की हाट ॥ 295 ॥

सजल नैन वाके निरखि, चलत प्रेम सर फूट ।
लोक लाज उर धाकते, जात समक सी छूट ॥ 296 ॥

राज करत रजपूतनी, देस रूप को दीप ।
कर घूंघट पर ओट कै, आवत पियहि समिप ॥ 297 ॥

हियरा भरै तबाखिनी, हाथ न लावन देत ।
सुखा नेक चटवाइ कै, हड़ी झाटि सब देत ॥ 298 ॥

हाथ लिए हत्या फिरे, जोबन गरब हुलास ।
धरै कसाइन रैन दिन, बिरही रकत पिपास ॥ 299 ॥

गाहक सो हंसि बिहंसि कै, करत बोल अरु कौल ।
पहिले आपुन मोल कहि, कहत दही को मोल ॥ 300 ॥

मानो मूरत मोम की, धरै रंग सुर तंग ।
नैन रंगीले होते हैं, देखत बाको रंग ॥ 301 ॥

भाटा बरन सु कौजरी, बेचै सोवा साग ।
निलजु भई खेलत सदा, गारी दै दै फाग ॥ 302 ॥

बर बांके माटी भरे, कौरी बैस कुम्हारी ।
द्वै उलटे सखा मनौ, दीसत कुच उनहारि ॥ 303 ॥

कुच भाटा गाजर अधर, मुरा से भुज पाई ।
बैठी लौकी बेचई, लेटी खीरा खाई ॥ 304 ॥

राखत मो मन लोह-सम, पारि प्रेम घन टोरि ।
बिरह अगिन में ताइकै, नैन नीर में बोरि ॥ 305 ॥

परम ऊजरी गूजरी, दह्यो सीस पै लेई ।
गोरस के मिसि डोलही, सो रस नेक न देई ॥ 306 ॥

रस रेसम बेचत रहै, नैन सैन की सात ।
फूंदी पर को फौंदना, करै कोटि जिम घात ॥ 307 ॥

छीपिन छापो अधर को, सुरंग पीक मटि लेई ।
हंसि-हंसि काम कलोल के, पिय मुख ऊपर देई ॥ 308 ॥

नैन कतरनी साजि कै, पलक सैन जब देइ ।
बरुनी की टेढ़ी छुरी, लेह छुरी सों टेइ ॥ 309 ॥

सुरंग बदन तन गंधिनी, देखत दृग न अघाय ।
कुच माजू, कुटली अधर, मोचत चरन न आय ॥ 310 ॥

मुख पै बैरागी अलक, कुच सिंगी विष बैन ।
मुदरा धारै अधर कै, मूंदि ध्यान सों नैन ॥ 311 ॥

सकल अंग सिकलीगरनि, करत प्रेम औसेर ।
करैं बदन दर्पन मनो, नैन मुसकला फेरि ॥ 312 ॥

घरो भरो धरि सीस पर, बिरही देखि लजाई ।
कूक कंठ तै बांधि कै, लेजूं लै ज्यों जाई ॥ 313 ॥

बनजारी झुमकत चलत, जेहरि पहिरै पाइ ।
वाके जेहरि के सबद, बिरही हर जिय जाइ ॥ 314 ॥

रहसनि बहसनि मन रहै, घोर घोर तन लेहि ।
औरत को चित चोरि कै, आपुनि चित्त न देहि ॥ 315 ॥

निरखि प्रान घट ज्यौं रहै, क्यों मुख आवे वाक ।
उर मानौं आबाद है, चित्त भ्रमैं जिमि चाक ॥ 316 ॥

हंसि-हंसि मारै नैन सर, बारत जिय बहुपीर ।
बोझा ह्वै उर जात है, तीर गहन को तीर ॥ 317 ॥

गति गरुर गमन्द जिमि, गोरे बरन गंवार ।
जाके परसत पाइयै, धनवा की उनहार ॥ 318 ॥

बिरह अगिनि निसिदिन धवै, उठै चित्त चिनगारि ।
बिरही जियहिं जराई कै, करत लुहारि लुहारि ॥ 319 ॥

चुतर चपल कोमल विमल, पग परसत सतराइ ।
रस ही रस बस कीजियै, तुरकिन तरकि न जाइ ॥ 320 ॥

सुरंग बरन बरइन बनी, नैन खवाए पान ।
निस दिन फेरै पान ज्यों, बिरही जन के प्रान ॥ 321 ॥

मारत नैन कुरंग ते, मौ मन भार मरोर ।
आपन अधर सुरंग ते, कामी काढ़त बोर ॥ 322 ॥

रंगरेजनी के संग में, उठत अनंग तरंग ।
आनन ऊपर पाइयतु, सुरत अन्त के रंग ॥ 323 ॥

नैन प्याला फेरि कै, अधर गजक जब देत ।
मतवारे की मति हरै, जो चाहै सो लेती ॥ 324 ॥

जोगति है पिय रस परस, रहै रोस जिय टेक ।
सूधी करत कमान ज्यों, बिरह अगिन में सेक ॥ 325 ॥

बेलन तिली सुवाय के, तेलिन करै फुलैल ।
बिरही दृष्टि कियौ फिरै, ज्यों तेली को बैल ॥ 326 ॥

भटियारी अरु लच्छमी, दोऊ एकै घात ।
आवत बहु आदर करे, जान न पूछै बात ॥ 327 ॥

अधर सुधर चख चीखने, वै मरहैं तन गात ।
वाको परसो खात ही, बिरही नहिन अघात ॥ 328 ॥

हरी भरी डलिया निरखि, जो कोई नियरात ।
झूठे हू गारी सुनत, सोचेहू ललचात ॥ 329 ॥

गरब तराजू करत चरव, भौह भोरि मुसकयात ।
डांडी मारत विरह की, चित चिन्ता घटि जात ॥ 330 ॥

परम रूप कंचन बरन, सोभित नारि सुनारि ।
मानो सांचे ढारि कै, बिधिमा गढ़ी सुनारि ॥ 331 ॥

और बनज व्यौपार को, भाव बिचारै कौन ।
लोइन लोने होत है, देखत वाको लौन ॥ 332 ॥

बनियांइन बनि आइकै, बैठि रूप की हाट ।
पेम पेक तन हेरि कै, गरुवे टारत वाट ॥ 333 ॥

कबहू मुख रूखौ किए, कहै जीभ की बात ।
वाको करूओ वचन सुनि, मुख मीठो ह्वौ जात ॥ 334 ॥

रीझी रहै डफालिनी, अपने पिय के राग ।
न जानै संजोग रस, न जानै बैराग ॥ 335 ॥

चीता वानी देखि कै, बिरही रहै लुभाय ।
गाड़ी को चिंता मनो, चलै न अपने पाय ॥ 336 ॥

मन दल मलै दलालनी, रूप अंग के भाई ।
नैन मटकि मुख की चटकि, गांहक रूप दिखाई ॥ 337 ॥

घेरत नगर नगारचिन, बदन रूप तन साजि ।
घर घर वाके रूप को, रह्यो नगारा बाजि ॥ 338 ॥

जो वाके अंग संग में, धरै प्रीत की आस ।
वाके लागे महि महि, बसन बसेधी बास ॥ 339 ॥

सोभा अंग भंगेरिनी, सोभित माल गुलाल ।
पना पीसि पानी करे, चखन दिखावै लाल ॥ 340 ॥

जाहि-जाहि के उर गड़ै, कुंदी बसन मलीन ।
निस दिन वाके जाल में, परत फंसत मनमीन ॥ 341 ॥

बिरह विथा कोई कहै, समझै कछू न ताहि ।
वाके जोबन रूप की, अकथ कछु आहि ॥ 342 ॥

पान पूतरी पातुरी, पातुर कला निधान ।
सुरत अंग चित चोरई, काय पांच रस बान ॥ 343 ॥

कुन्दन-सी कुन्दीगरिन, कामिनी कठिन कठोर ।
और न काहू की सुनै, अपने पिय के सोर ॥ 344 ॥

कोरिन कूर न जानई, पेम नेम के भाइ ।
बिरही वाकै भौन में, ताना तनत भजाइ ॥ 345 ॥

बिरह विथा मन की हरै, महा विमल ह्वै जाई ।
मन मलीन जो धोवई, वाकौ साबुन लाई ॥ 346 ॥

निस दिन रहै ठठेरनी, झाजे माजे गात ।
मुकता वाके रूप को, थारी पै ठहरात ॥ 347 ॥

सबै अंग सबनीगरनि, दीसत मन न कलंक ।
सेत बसन कीने मनो, साबुन लाई मतंक ॥ 348 ॥

नैननि भीतर नृत्य कै, सैन देत सतराय ।
छबि ते चित्त छुड़ावही, नट के भई दिखाय ॥ 349 ॥

बांस चढ़ी नट बंदनी, मन बांधत लै बांस ।
नैन बैन की सैन ते, कटत कटाछन सांस ॥ 350 ॥

लटकि लेई कर दाइरौ, गावत अपनी ढाल ।
सेत लाल छवि दीसियतु, ज्यों गुलाल की माल ॥ 351 ॥

कंचन से तन कंचनी, स्याम कंचुकी अंग ।
भाना भामै भोर ही, रहै घटा के संग ॥ 352 ॥

काम पराक्रम जब करै, धुवत नरम हो जाइ ।
रोम रोम पिय के बदन, रुई सी लपटाइ ॥ 353 ॥

बहु पतंग जारत रहै, दीपक बारैं देह ।
फिर तन गेह न आवही, मन जु चेटुवा लेह ॥ 354 ॥

नेकु न सूधे मुख रहै, झुकि हंसि मुरि मुसक्याइ ।
उपपति की सुनि जात है, सरबस लेइ रिझाइ ॥ 355 ॥

बोलन पै पिय मन बिमल, चितवति चित्त समाय ।
निस बासर हिन्दू तुरकि, कौतुक देखि लुभाय ॥ 356 ॥

प्रेम अहेरी साजि कै, बांध परयौ रस तान ।
मन मृग ज्यों रीझै नहीं, तोहि नैन के बान ॥ 357 ॥

अलबेली अदभुत कला, सुध बुध ले बरजोर ।
चोरी चोरी मन लेत है, ठौर-ठौर तन तोर ॥ 358 ॥

कहै आन की आन कछु, विरह पीर तन ताप ।
औरे गाइ सुनावई, और कछू अलाप ॥ 359 ॥

लेत चुराये डोमनी, मोहन रूप सुजान ।
गाइ गाइ कुछ लेत है, बांकी तिरछी तान ॥ 360 ॥

मुक्त माल उर दोहरा, चौपाई मुख लौन ।
आपुन जोबन रूप की, अस्तुति करे न कौन ॥ 361 ॥

मिलत अंग सब मांगना, प्रथम माँन मन लेई ।
घेरि घेरि उर राखही, फेरि फेरि नहिं देई ॥ 362 ॥

विरह विथा खटकिन कहै, पलक न लावै रैन ।
करत कोप बहुत भांत ही, धाइ मैन की सैन ॥ 363 ॥

अपनी बैसि गरुर ते, गिनै न काहू भित्त ।
लाक दिखावत ही हरै, चीता हू को चित्त ॥ 364 ॥

धासिनी थोड़े दिनन की, बैठी जोबन त्यागि ।
थोरे ही बुझ जात है, घास जराई आग ॥ 365 ॥

चेरी मांति मैन की, नैन सैन के भाइ ।
संक-भरी जंभुवाई कै, भुज उठाय अंगराइ ॥ 366 ॥

रंग-रंग राती फिरै, चित्त न लावै गेह ।
सब काहू तें कहि फिरै, आपुन सुरत सनेह ॥ 367 ॥

बिरही के उर में गड़ै, स्याम अलक की नोक ।
बिरह पीर पर लावई, रकत पियासी जोंक ॥ 368 ॥

नालबे दिनी रैन दिन, रहै सखिन के नाल ।
जोबन अंग तुरंग की, बांधन देह न नाल ॥ 369 ॥

बिरह भाव पहुंचै नहीं, तानी बहै न पैन ।
जोबन पानी मुख घटै, खैंचे पिय को नैन ॥ 370 ॥

धुनियाइन धुनि रैन दिन, धरै सुर्राते की भांति ।
वाको राग न बूझही, कहा बजावै तांति ॥ 371 ॥

मानो कागद की गुड़ी, चढ़ी सु प्रेम अकास ।
सुरत दूर चित्त खैंचई, आइ रहै उर पास ॥ 372 ॥

थोरे थोरे कुच उठी, थोपिन की उर सीव ।
रूप नगर में देत है, मैन मंदिर की नीव ॥ 373 ॥

पहनै जो बिछुवा-खरी, पिय के संग अंगरात ।
रति पति की नौबत मनौ, बाजत आधी रात ॥ 374 ॥

जाके सिर अस भार, सो कस झोंकत भार अस ।
रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में ॥ 375 ॥

ओछे की सतसंग रहिमन तजहु अंगार ज्यों ।
तातो जारै अंग, सीरो पै करो लगै ॥ 376 ॥

रहिमन बहरी बाज, गगन चढ़ै फिर क्यों तिरै ।
पेट अधम के काज, फेरि आय बंधन परै ॥ 377 ॥

रहिमन नीर पखान, बूड़ै पै सीझै नहीं ।
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं ॥ 378 ॥

बिंदु मो सिंघु समान को अचरज कासों कहैं ।
हेरनहार हेरान, रहिमन अपुने आप तें ॥ 379 ॥

अहमद तजै अंगार ज्यों, छोटे को संग साथ ।
सीरोकर कारो करै, तासो जारै हाथ ॥

रहिमन कीन्हीं प्रीति, साहब को भावै नहीं ।
जिनके अगनित मीत, हमैं गरीबन को गनै ॥ 380 ॥

रहिमन मोहि न सुहाय, अमी पिआवै मान बिनु ।
बरू विष बुलाय, मान सहित मरिबो भलो ॥ 381 ॥

रहिमन पुतरी स्याम, मनहुं मधुकर लसै ।
कैंधों शालिग्राम, रूप के अरधा धरै ॥ 382 ॥

रहिमन जग की रीति, मैं देख्यो इस ऊख में ।
ताहू में परतीति, जहां गांठ तहं रस नहीं ॥ 383 ॥

चूल्हा दीन्हो बार, नात रह्यो सो जरि गयो ।
रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में ॥ 384 ॥

घर डर गुरु डर बंस डर, डर लज्जा डर मान ।
डर जेहि के जिह में बसै, तिन पाया रहिमान ॥ 385 ॥

बन्दौं विधन-बिनासन, ॠधि-सिधि-ईस ।
निर्म्ल बुद्धि प्रकासन, सिसु ससि-सीस ॥ 386 ॥

सुमिरौं मन दृढ़ करिकै, नन्द कुमार ।
जो वृषभान-कुँवरि कै, प्रान – अधार ॥ 387 ॥

भजहु चराचर-नायक सूरज देव ।
दीन जनन-सुखदायक, तारत एव ॥ 388 ॥

ध्यावौं सोच-बिमोचन, गिरिजा-ईस ।
नगर भरन त्रिलोचन, सुरसरि-सीस ॥ 389 ॥

ध्यावौं बिपद-बिदारन, सुवन समीर ।
खल-दानव-बन-जारन, प्रिय रघुवीर ॥ 390 ॥

पुन पुन बन्दौं गुरु के, पद-जलजात ।
जिहि प्रताप तैं मनके, तिमिर बिलात ॥ 391 ॥

करत घुमड़ि घन-घुरवा, मुरवा सोर ।
लगि रह विकसि अंकुरवा, नन्दकिसोर ॥ 392 ॥

बरसत मेघ चहूँ दिसि, मूसरा धार ।
सावन आवन कीजत, नन्दकिसोर ॥ 393 ॥

अजौं न आये सुधि कै, सखि घनश्याम ।
राख लिये कहूँ बसिकै, काहू बाम ॥ 394 ॥

कबलौं रहि है सजनी, मन में धीर ।
सावन हूं नहिं आवन, कित बलबीर ॥ 395 ॥

घन घुमड़े चहुँ ओरन, चमकत बीज ।
पिय प्यारी मिलि झूलत, सावन-तीज ॥ 396 ॥

पीव पीव कहि चातक, सठ अहरात ।
अजहूँ न आये सजनी, तरफत प्रान ॥ 397 ॥

मोहन लेउ मया करि, मो सुधि आय ।
तुम बिन मीत अहर-निसि, तरफत जाय ॥ 398 ॥

बढ़त जात चित दिन-दिन, चौगुन चाव ।
मनमोहन तैं मिलबो, सखि कहँ दाँव ॥ 399 ॥

मनमोहन बिन देखे, दिन न सुहाय ।
गुन न भूलिहों सजनी, तनक मिलाय ॥ 400 ॥


उमड़ि-उमड़ि घन घुमड़े, दिसि बिदिसान ।
सावन दिन मनभावन, करत पयान ॥ 401 ॥
समुझति सुमुखि सयानी, बादर झूम ।
बिरहिन के हिय भभतक, तिनकी धूम ॥ 402 ॥

उलहे नये अंकुरवा, बिन बलवीर ।
मानहु मदन महिप के, बिन पर तीर ॥ 403 ॥

सुगमहि गातहि गारन, जारन देह ।
अगम महा अति पारन, सुघर सनेह ॥ 404 ॥

मनमोहन तुव मुरति, बेरिझबार ।
बिन पियान मुहि बनिहै, सकल विचार ॥ 405 ॥

झूमि-झूमि चहुँ ओरन, बरसत मेह ।
त्यों त्यों पिय बिन सजनी, तरसत देह ॥ 406 ॥

झूँठी झूँठी सौंहे, हरि नित खात ।
फिर जब मिलत मरू के, उतर बतात ॥ 407 ॥

डोलत त्रिबिध मरुतवा, सुखद सुढार ।
हरि बिन लागब सजनी, जिमि तरवार ॥ 408 ॥

कहियो पथिक संदेसवा, गहि के पाय ।
मोहन तुम बिन तनिकहु रह्यौ न जाय ॥ 409 ॥

जबते आयौ सजनी, मास असाढ़ ।
जानी सखि वा तिन के, हिम की गाढ़ ॥ 410 ॥

मनमोहन बिन तिय के, हिय दुख बाढ़ ।
आये नन्द दिठनवा, लगत असाढ़ ॥ 411 ॥

वेद पुरान बखानत, अधम उधार ।
केहि कारन करूनानिधि, करत विचार ॥ 412 ॥

लगत असाढ़ कहत हो, चलन किसोंर ।
घन घुमड़े चहुँ औरन, नाचत मोर ॥ 413 ॥

लखि पावस ॠतु सजनी, पिय परदेस ।
गहन लग्यौ अबलनि पै, धनुष सुरेस ॥ 414 ॥

बिरह बढ्यौ सखि अंगन, बढ्यौ चवाव ।
करयो निठुर नन्दनन्दन, कौन कुदाव ॥ 415 ॥

भज्यो कितौ न जनम भरि, कितनी जाग ।
संग रहत या तन की, छाँही भाग ॥ 416 ॥

भज र मन नन्दनन्दन, विपति बिदार ।
गोपी-जन-मन-रंजन, परम उदार ॥ 417 ॥

जदपि बसत हैं सजनी, लाखन लोग ।
हरि बिन कित यह चित को, सुख संजोग ॥ 418 ॥

जदपि भई जल पूरित, छितव सुआस ।
स्वाति बूँद बिन चातक, मरत-पियास ॥ 419 ॥

देखन ही को निसदिन, तरफत देह ।
यही होत मधुसूदन, पूरन नेह ॥ 420 ॥

कब तें देखत सजनी, बरसत मेह ।
गनत न चढ़े अटन पै, सने सनेह ॥ 421 ॥

विरह विथा तें लखियत, मरिबौं झूरि ।
जो नहिं मिलिहै मोहन, जीवन मूरि ॥ 422 ॥

उधौं भलौ न कहनौ, कछु पर पूठि ।
साँचे ते भे झूठे, साँची झूठि ॥ 423 ॥

भादों निस अँधियरिया, घर अँधियार ।
बिसरयो सुघर बटोही, शिव आगार ॥ 424 ॥

हौं लखिहौ री सजनी, चौथ मयंक ।
देखों केहि बिधि हरि सों, लगत कलंक ॥ 425 ॥

इन बातन कछु होत न, कहो हजार ।
सबही तैं हँसि बोलत, नन्दकुमार ॥ 426 ॥

कहा छलत को ऊधौ, दै परतीति ।
सपनेहूं नहिं बिसरै, मोहनि-मीति ॥ 427 ॥

बन उपवन गिरि सरिता, जिती कठोर ।
लगत देह से बिछुरे, नन्द किसोर ॥ 428 ॥

भलि भलि दरसन दीनहु, सब निसि टारि ।
कैसे आवन कीनहु, हौं बलिहारि ॥ 429 ॥

अदिहि-ते सब छुटगो, जग व्यौहार ।
ऊधो अब न तिनौं भरि, रही उधार ॥ 430 ॥

घेर रह्यौ दिन रतियाँ, विरह बलाय ।
मोहन की वह बतियाँ, ऊधो हाय ॥ 431 ॥

नर नारी मतवारी, अचरज नाहिं ।
होत विटपहू नागौ, फागुन माहि ॥ 432 ॥

सहज हँसोई बातें, होत चवाइ ।
मोहन कों तन सजनी, दै समुझाइ ॥ 433 ॥

ज्यों चौरसी लख में, मानुष देह ।
त्योंही दुर्लभ जग में, सहज सनेह ॥ 434 ॥

मानुष तन अति दुर्लभ, सहजहि पाय ।
हरि-भजि कर संत संगति, कह्यौ जताय ॥ 435 ॥

अति अदभुत छबि- सागर, मोहन-गात ।
देखत ही सखि बूड़त, दृग-जलजात ॥ 436 ॥

निरमोंही अति झूँठौ, साँवर गात ।
चुभ्यौ रहत चित कौधौं, जानि न जात ॥ 437 ॥

बिन देखें कल नाहिन, यह अखियान ।
पल-पल कटत कलप सों, अहो सुजान ॥ 438 ॥

जब तब मोहन झूठी, सौंहें खात ।
इन बातन ही प्यारे, चतुर कहात ॥ 439 ॥

ब्रज-बासिन के मोहन, जीवन प्रान ।
ऊधो यह संदेसवा, अहक कहान ॥ 440 ॥

मोहि मीत बिन देखें, छिन न सुहात ।
पल पल भरि भरि उलझत, दृग जल जात ॥ 441 ॥

जब तें बिछरे मितवा, कहु कस चैन ।
रहत भरयौ हिय साँसन, आँसुन नैन ॥ 442 ॥

कैसे जावत कोऊ, दूरि बसाय ।
पल अन्तरहूं सजनी, रह्यो न जाय ॥ 443 ॥

जान कहत हो ऊधौ, अवधि बताइ ।
अवधि अवधि-लौं दुस्तर, परत लखाइ ॥ 444 ॥

मिलनि न बनि है भाखत, इन इक टूक ।
भये सुनत ही हिय के, अगनित टूक ॥ 445 ॥

गये हरि हरि सजनी, बिहँसि कछूक ।
तबते लगनि अगनि की, उठत भभूक ॥ 446 ॥

होरी पूजत सजनी, जुर नर नारि ।
जरि-बिन जानहु जिय में, दई दवारि ॥ 447 ॥

दिस बिदसान करत ज्यों, कोयल कू ।
चतुर उठत है त्यों त्यों, हिय में हूक ॥ 448 ॥

जबते मोहन बिछुरे, कछु सुधि नाहिं ।
रहे प्रान परि पलकनि, दृग मग माहिं ॥ 449 ॥

उझिक उझिक चित दिन दिन, हेरत द्वार ।
जब ते बिछुरे सजनी, नेन्द्कुमार ॥ 450 ॥

मनमोहन की सजनी, हँसि बतरान ।
हिय कठोर कीजत पै, खटकत आन ॥ 451 ॥

जक न परत बिन हेरे, सखिन सरोस ।
हरि न मिलत बसि नेरे, यह अफसोस ॥ 452 ॥

चतुर मया करि मिलिहौं, तुरतहिं आय ।
बिन देखे निस बासर, तरफत जाय ॥ 453 ॥

तुम सब भाँतिन चतुरे, यह कल बात ।
होरि के त्यौहारन, पीहर जात ॥ 454 ॥

और कहा हरि कहिये, चनि यह नेह ।
देखन ही को निसदिन, तरफत देह ॥ 455 ॥

जब तें बिछुरे मोहन, भूख न प्यास ।
बेरि बेरि बढ़ि आवत, बड़े उसास ॥ 456 ॥

अन्तरग्त हिय बेधत, छेदत प्रान ।
विष सम परम सबन तें, लोचन बान ॥ 457 ॥

गली अँधेदी मिल कै, रहि चुपचाप ।
बरजोरी मनमोहन, करत मिलाप ॥ 458 ॥

सास ननद गुरु पुरजन, रहे रिसाय ।
मोहन हू अस निसरे, हे सखि हाय ॥ 459 ॥

उन बिन कौन निबाहै, हित की लाज ।
ऊधो तुमहू कहियो, धनि बृजराज ॥ 460 ॥

जिहिके लिये जगत में, बजै निसान ।
तिहिं-ते करे अबोलन, कौन सयान ॥ 461 ॥

रे मन भज निस वासर, श्री बलवीर ।
जो बिन जाँचे टारत, जन की पीर ॥ 462 ॥

विरहिन को सब भाखत, अब जनि रोय ।
पीर पराई जानै, तब कहु कोय ॥ 463 ॥

सबै कहत हरि बिछुरे, उर धर धीर ।
बौरी बाँझ न जानै, ब्यावर पीर ॥ 464 ॥

लखि मोहन की बंसी, बंसी जान ।
लागत मधुर प्रथम पै, बेधत प्रान ॥ 465 ॥

तै चंचल चित हरि कौ, लियौ चुराइ ।
याहीं तें दुचती सी, परत लखाई ॥ 466 ॥

मी गुजरद है दिलरा, बे दिलदार ।
इक इक साअत हमचूँ, साल हजार ॥ 467 ॥

नव नागर पद परसी, फूलत जौन ।
मेटत सोक असोक सु, अचरज कौन ॥ 468 ॥

समुझि मधुप कोकिल की, यह रस रीति ।
सुनहू श्याम की सजनी, का परतीति ॥ 469 ॥

नृप जोगी सब जानत, होत बयार ।
संदेसन तौ राखत, हरि ब्यौहार ॥ 470 ॥

मोहन जीवन प्यारे, कस हित कीन ।
दरसन ही कों तरफत, ये दृग मीन ॥ 471 ॥

भजि मन राम सियापति, रघुकुल ईस ।
दीनबन्धु दुख टारन, कौसलधीस ॥ 472 ॥

गर्क अज मैं शुद आलम, चन्द हजार ।
बे दिलदार कै गीरद, दिलम करार ॥ 473 ॥

दिलबर जद बर जिगरम, तीर निगाह ।
तपीदा जाँ भी आयद, हरदम आह ॥ 474 ॥

लोग लुगाई हिलमिल, खेतल फाग ।
परयौ उड़ावन मौकौं, सब दिन काग ॥ 475 ॥

मो जिय कोरी सिगरी, ननद जिठानि ।
भई स्याम सों तब तें, तनक पिछानि ॥ 476 ॥

होत विकल अनलेखै, सुधर कहाय ।
को सुख पावत सजनी, नेह लगाय ॥ 477 ॥

अहो सुधाधर प्यारे, नेह निचोर ।
देखन ही कों तरसे, नैन चकोर ॥ 478 ॥

आँखिन देखत सबही, कहत सुधारि ।
पै जग साँची प्रीत न, चातक टारि ॥ 479 ॥

पथिक आय पनघटवा, कहता पियाव ।
पैया परों ननदिया, फेरि कहाव ॥ 480 ॥

या झर में घर घर में, मदन हिलोर ।
पिय नहिं अपने कर में, करमैं खोर ॥ 481 ॥

बालम अस मन मिलयउँ, जस पय पानि ।
हंसनि भइल सवतिया, लई बिलगानि ॥ 482 ॥

रहीमन पानी राखिए, बिन पानी सब सुन।
पानी रहे ना उबरे, मोती मानस चुन।।
अब रहीम मुसकिल परि, गाढ़े दोऊ काल।
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलै न राम ।।
आप न काहू काम के, डार पात फल फूल।
औरन को रोकत फिरै, रहिमन के पेड़ बबूल।।
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सीचिबो, फूलै फलै अघाय।।
बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोउ |
रहिमन बिगरे दूध को, मथे न माख्नन होय ||
कहि रहिम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत।
विपति कसौटी जे कसे, तेई सांचे मीत।।
जो बड़ेन को लधु कहे, नहिं रहीम घटी जांहि।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कुछ दुख मानत नांहि।।
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चन्दन विश व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग।।
तरूवर फल नहीं खात है, सरवर पियत न पान।
कहि रहीम पर काज हित संपति सचहिं सुजान ।।
छामा बड़न को चाहियेए छोटन को उतपात।
कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात।।
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय।।
आब गई आदर गया, नैनन गया सनेहि।
ये तीनों तब ही गये, जबहि कहा कछु देहि।।
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तलवारि।।
मन मोती अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय।
फट जाये तो ना मिले, कोटिन करो उपाय।।
रुठे सुजन मनाइए, जो रुठै सौ बार।
रहिमन फिरि-फिरि पोहि टूटे मुक्ताहार ।।