बुधवार, 4 जनवरी 2012

!!आस्था की आड़ में देवी -देवताओं का अपमान क्यों ?

विश्वविद्यालय  अच्छी से अच्छी सिक्षा का एक केंद्र है और हम बड़े गर्व से कहते है की मैं अमुक विश्वविद्यालय में पढ़ता हु पर इन्ही में से एक है ""जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय ""!मैं वहां नहीं पढ़ा इसकी कसक हमेशा थी लेकिन अब नहीं है। अब तक हमें पता था कि ये लीक से अलग हटकर सोचने वाले युवाओं का बौद्धिक तीर्थस्थल है अब मै ये कह सकता हूँ ये हिन्दुस्तान में तालिबानियों की एक पूरी जमात पैदा कर रहा है।
एक ऐसी जमात जिसने ब्राह्मणवाद के विरोध की आड़ में हिन्दू धर्म में आस्था रखने वालों के खिलाफ जेहाद छेड़ रखा है अगर ये सब सिर्फ धार्मिक वितंडावाद और धर्मजनित शोषण उत्पीडन और गैर बराबरी के खिलाफ होता तो निस्संदेह इसका स्वागत किया जाना चाहिए था लेकिन ऐसा न करके आल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंस फोरम (एआइबीएसएफ)और यूनाईटेड दलित स्टूडेंटस फोरम (यूडीएसएफ) जैसे तथाकथित छात्र संगठनों ने न सिर्फ हिन्दू देवी देवताओं का अपमान शुरू कर दिया बल्कि हिंदी और हिन्दुस्तान के घोर विरोधी मैकाले की जयंती भी मनाई। इस विरोध में दलितों पिछड़ों के ये तथाकथित विचारक ये भूल गए कि आज देश में सवर्णों और एलिटों की धार्मिक आस्था तो पूरी तरह से उपभोग और मध्यमवर्गीय कुंठा में विलीन हो गयी है ,ये धर्म का इस्तेमाल भी फैशन की तरह करते है ,असली आस्था और आस्थाओं से जुडी जीवन शैली तो हमारे गाँवों, देहातों में दलितों, आदिवासियों -गिरिजनों ने अपना रखी है। अभी कुछ समय पहले  उड़ीसा में आदिवासियों ने अपने हाथों से अपनी झोपडियों में आग लगा दिया है, वजह ये थी कि पुलिस के जवान माओवादियों की तलाश में उनके घरों में घुस आये थे। इस दौरान जूते पहनकर वो उनके रसोईघर में भी चले गए जहाँ वो आमतौर पर अपने देवी-देवताओं की तस्वीरें रखते हैं, इसलिए उन्होंने पुलिस के घर में घुसने के बाद पवित्रता के लिए घर को भी जलाने में कोई संकोच नहीं किया शर्मनाक स्थिति ये है कि आज देश में दलितवाद के पुरोधाओं और दलितों के तथाकथित मसीहाओं ने दलितों, आदिवासियों को देखा ही नहीं है, उनके विचार युद्ध भी उन दलितों -पिछडों के लिए होते हैं जिसके पेट भरे हुए हैं। ये विचारक या तो इस दम पर सत्ता हासिल करना चाहते हैं या खुद को जबरिया बुद्धिजीवी मनवाने पर तुले हुए हैं। हम इसे धोखाधड़ी कहते हैं। शायद बात अजीबोगरीब लगे लेकिन ये सच है कि वो लोग जो जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में महिसाषुर की जयंती मना रहे हैं अगर किसी बैगा या धरकार आदिवासी के घर जाकर उनको अपने उद्देश्यों के बारे में बताएं तो वो अगले ही पल घर में रखी कुल्हाड़ी से उनकी गर्दन अलग कर देगा। वो भी इसे वध कहना कहते हैं। धर्म से जुड़े मिथकों से दलितों-आदिवासियों ने अपने अपने किस्से गढ़ लिए हैं, जो कहीं भी किसी भी किताब में पढऩे को नहीं मिलते। जिरही, अमिला जैसे दुर्गा के नाम आपको किसी भी हिंदू धर्म के ग्रंथों में नहीं मिलेंगे। वो उन्हें अपनी खेती किसानी और अपनी संस्थाओं से जोड़ कर देखता हैं। मजे की बात ये है कि आदिवासियों को हिन्दू धर्म से कोई मतलब नहीं है। मध्य प्रदेश पूर्वी उत्तर प्रदेश और छतीसगढ़ की कई जनजातियाँ तो जानती ही नहीं उनका धर्म क्या है। हाँ उनके आस्था के प्रतीक वही हैं जो हिन्दुओं के है ,लेकिन उनकी पूजा शैली भी बिलकुल भिन्न है। वो नवरात्र में महिसाषुर के नाम पर अमिला देवी के मंदिर पर हजारों पशुओं की बलि चढ़ा देगा और उन्हें खायेगा भी ,जबकि कोई भी हिन्दू धर्म का अनुयायी नवरात्र में मांस को हाँथ तक नहीं लगाएगा। आप और हम मिथकों को नए तरीकों से परिभाषित कर अपनी अपनी कुंठाओं को शांत कर सकते हैं ,वो उन्हें परिभाषित हरगिज नहीं करेगा ,क्यूंकि उसे लगता है कि वो इन्ही की बदौलत वो सरकार ,सवर्णवादी समाज और प्रकृति से लड़ सकता है। हमारे कहने का मतलब ये हरगिज नहीं है कि मिथकों को परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए ,लेकिन मिथक दूसरे मिथक को ही जन्म देंगे, ये सच है।
शायद हममे से कुछ लोगों ने ने इतिहासकार डॉ युगेश्वर को पढ़ा हो उन्होंने कई किताबें लिखी है जिनमे एक किताब है रावण एक जीवन  उनकी ये किताब पढ़ते वक्त मुमकिन है आपकी आस्था रावण में हो जाए ,इतिहास से जुड़े पात्रों का चुनाव हमें व्यक्तिगत तौर पर करना है ,लेकिन इसे किसी समूह पर कैसे अध्यारोपित किया जा सकता है ?
फेसबुक और ब्लागिंग के इस शानदार युग में जब विचारों का बेरोक टोक आदान प्रदान संभव है ,शहरी एलिट वर्ग को ये स्वतंत्रता बर्दाश्त नहीं हो पा रही है। ये कुछ ऐसा है कि बढिय़ा पकवान को अति खाना और शर्मनाक तरीके से उलटी कर देना। उन्हे यूँ लगता है कि इन माध्यमों का उपयोग करके वो किसी भी व्यक्ति या समुदाय पर पूरी ताकत से हमला बोल सकते हैं ,नतीजा ये है कि ये हमले वेब से निकलकर विश्वविद्यालाओं के गलियारों तक पहुँच चुके हैं। एक ऐसे समय में जब सत्ता ने विश्वविद्यालयों के लोकतंत्र को अपने पैरों से रौंद डाला हैं। छात्र संघ चुनावों को ख़त्म करके छात्रों से विरोध का एक आखिरी हथियार भी छिन्न लिया गया हो ,जहाँ नहीं तहां छात्र लतियाए जा रहे हों ,लठीयाये जा रहे हों ,मेस में दलित छात्रों का सबके साथ भोजन करना अभी तक वर्जित हो ,इस तरह की कोई भी कोशिश बेहद खेदपूर्ण है। आस्था और अनास्था हमें खुद तय करनी है ,लेकिन किसी भी व्यक्ति या वर्ग की आस्था को अवैज्ञानिक और अतार्किक आधार पर चोट पहुंचाने का अधिकार किसी को नहीं है। याद रखें ये वही जेएनयु है जहाँ अश्लील एम्एम्एस बनाने कों भी एक किस्म की बुद्धिजीविता माना जाता है ,ये वही जेएनयु है जहाँ के छात्र ,किताबों और जनांदोलनों की राह छोड़कर गांजे और चरस के अँधेरे में गुम हैं। ये वही विश्वविद्यालय है जो दुनिया भर के लाखों छात्रों का निर्माण करने वाले काशी हिन्दु विश्वविद्यालय के कुलगीत का अपमान करता है। अतिवादिता हमेशा खतरनाक होती है ,मुमकिन है आगे देवी देवताओं के चित्र जलाये जाएँ,केम्पस जंग के मैदान में तब्दील हो जाए और कुछ  ब्लाग्स और वेबसाइट्स इसे भुनाए भी। जो भी हो ये तय है महिषासुर और मैकाले कों पूजने वाले इस विश्वविद्यालय ने अब वो अधिकार खो दिया है, जिससे वो देश भर के छात्रों और छात्र आन्दोलनों का नेतृत्व कर सके।और अब इन विश्वविद्यालय में गुंडा तत्वों का आतंक्गाह बनता जा रहा है ,,,,,,,,,,,,,,,,,क्या यह देश हित में है क्या समाज को इसी दिशा में ले जाना चाहते है ,,,,,

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