मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

पाप और पुन्य

होते सिक्के के दो पहलू
एक पाप और एक पुण्य
बाध्य करते सोचने को
है पाप क्या और पुण्य क्या
है यह अवधारणा
विकसित मस्तिष्क की |
निजी स्वार्थ हित धन देना
क्या पाप नहीं होता ?
पर मंदिर में दिया दान
कैसे पुण्य हो जाता |
जहाँ किसी का हित होता
वही पुण्य निहित होता
जब पश्चाताप किसी को होता
उसके लिए वही पाप होता
आवश्यकता से अधिक संचय
आता पाप की श्रेणी में
लोक हित के लिए संचय
महान कार्य कहा जाता |
यदि पशु की बलि देते हैं
कहलाता देवी का प्रसाद
पर है पशु वध हिंसा ही
यह पाप भी कहलाती है |
है दोनों में अंतर क्या
यह कठिन प्रश्न सा लगता है |
पाप है क्या व पुण्य क्या ?
दृष्टिकोण है सब का अपना
जो जैसा सोचता है
वैसा ही उसको लगता |

महात्मा गौतम बुद्ध कौन थे ??

सिद्धार्थ नगर (उ. प्र.) में कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन और मायावती के पुत्र सिद्धार्थ का जन्म ५५९ ई. पू. वैशाख पूर्णिमा को हुआ था। २५ वर्ष की उम्र में राजकुमारी यशोधरा से विवाह हुआ। २८ वर्ष की उम्र में नगर में जरा, रोग, मृत्यु और सन्यासी को देख गृह त्याग दिया और शांति की खोज में चले। घोर तप किया, ध्यानावस्था में बोधि प्राप्त होने पर काशी के समीप सारनाथ में प्रथम पाँच शिष्य बनाए, पहला प्रवचन (धर्मचक्र प्रवर्तन) किया। कुशी नगर में ४७८ ई.पू. में उन्होंने देहोत्सर्ग (महापरिनिर्वाण) किया।

सिंहली अनुश्रुति, खारवेल के अभिलेख, अशोक में सिंहासनारोहण की तिथि, कैण्टन अभिलेख आदि के आधार पर महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि ५६३ ई.पूर्व स्वीकार की गयी है। इनका जन्म शाक्यवंश के राजा शुद्धोदन की रानी महामाया के गर्भ से लुम्बिनी में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था।

यह विधाता की लीला ही थी कि लुम्बिनी में जन्म लेने वाले बुद्ध को काशी में धर्मप्रवर्तन करना पड़ा। त्रिपिटक तथा जातकों से काशी के तत्कालीन राजनैतिक महत्व की सहज ही कल्पना हो जाती है। प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में बुद्ध काल में (कम से कम पाँचवी शताब्दि ई.पूर्व) काशी का गणना चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत एवं कौशाम्बी जैसे प्रसिद्ध नगरों में होती थी।

पुत्रजन्म से पहले उनकी माता ने विचित्र सपने देखे थे। पिता शुद्धोदन ने ‘आठ’ भविष्य वक्ताओं से उनका अर्थ पूछा तो सभी ने कहा कि महामाया को अद्भुत पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी।

यदि वह घर में रहा तो चक्रवर्ती सम्राट् बनेगा और यदि उसने गृहत्याग किया तो सन्यासी बन जाएगा और अपने ज्ञान के प्रकाश से समस्त विश्व को आलोकित कर देगा। शुद्धोदन ने सिद्धार्थ को चक्रवर्ती सम्राट बनाना चाहा, उसमें क्षत्रियोचित गुण उत्पन्न करने के लिये समुचित शिक्षा का प्रबंध किया, किंतु सिद्धार्थ सदा किसी चिंता में डूबा दिखायी देता था। अंत में पिता ने उसे विवाह बंधन में बांध दिया। एक दिन जब सिद्धार्थ रथ पर शहर भ्रमण के लिये निकले थे तो उन्होंने मार्ग में जो कुछ भी देखा उसने उनके जीवन की दिशा ही बदल डाली। एक बार एक दुर्बल बुद्ध व्यक्ति को, एक बार एक रोगी को और एक बार एक शव को देख कर वे संसार से और भी अधिक विरक्त तथा उदासीन हो गये। पर एक अन्य अवसर पर उन्होंने एक प्रसन्नचित्त संन्यासी को देखा। उसके चेहरे पर शांति और तेज की अपूर्व चमक विराजमान् थी। सिद्धार्थ उस दृश्य को देख कर अत्यधिक प्रभावित हुए।

उनके मने में निवृत्ति मार्ग के प्रति नि:सारता तथा निवृति मर्ण की ओर संतोष भावना उत्पन्न हो गयी। जीवन के यह सत्य सिद्धार्थ के जीवन का दर्शन बन गया।

विवाह के दस वर्ष के उपरान्त उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पुत्र जन्म का समाचार मिलते ही उनके मुँह से सहसा ही निकल पड़ा-’राहु’-अर्थात बंधन। उन्होंने पुत्र का नाम राहुल रखा। इससे पहले कि सांसरिक बंधन उन्हें छिन्न-विच्छिन्न करें, उन्होंने सांसारिक बंधनों को छिन्न-भिन्न करना प्रारंभ कर दिया और गृहत्याग करने का निश्चय किया। एक महान् रात्रि को २९ वर्ष के युवक सिद्धार्थ ज्ञान प्रकाश की तृष्णा को तृप्त करने के लिये घर से बाहर निकल पड़े। कुछ विद्धानों का मत है कि गौतम ने यज्ञों में हो रही हिंसा के कारण गृहत्याग किया

कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार गौतम ने दूसरों के दुख को न सह सकने के कारण घर छोड़ था। गृहत्याग के बाद सिद्धार्थ ज्ञान की खोज में भटकने लगे। बिंबिसार, उद्रक, आलार, कालाम नामक सांख्योपदेशकों मे मिल कर वे उरुवेला की रमणीय वनस्थली में जा पहुँचे। वहाँ उन्हें कौडिल्य आदि पाँच साधक मिले। उन्होंने ज्ञान-प्राप्ति के लिये घोर साधना प्रारंभ कर दी। किंतु उसमें असफल होने पर वे गया के निकट एक वटवृक्ष के नीचे आसन लगा कर बैठ गये और निश्चय कर लिया कि भले ही प्राण निकल जाए, मैं तब तक समाधिस्त रहूँगा, जब तक ज्ञान न प्राप्त कर लूँ। सात दिन और सात रात्रि व्यतीत होने के बाद, आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उसी दिन वे तथागत हो गये। जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ वह आज भी ‘बोधिवृक्ष’ के नाम से विख्यात है। ज्ञान प्राप्ति के समय उनकी अवस्था ३५ वर्ष थी। ज्ञान प्राप्ति के बाद तपस्सु तथा काल्लिक नामक दो शूद्र उनके पास आये। महात्मा बुद्ध ने उन्हें ज्ञान दिया और बौद्ध धर्म का प्रथम अनुयायी बनाया।

बोधगया से चल कर वे सारनाथ पहुँचे तथा वहाँ अपने पूर्वकाल के पाँच साथियों को उपदेश दे कर अपना शिष्य बना दिया। बौद्ध परंपरा में यह उपदेश ‘धर्मचक्र प्रवर्त्तन’ नाम से विख्यात है। महात्मा बुद्ध ने कहा कि इन दो अतियों से बचना चाहिये -

१. कामसुखों में अदिक लिप्त होना तथा

२. शरीर से कठोर साधना करना। उन्हें छोड़ कर जो मध्यम मार्ग मैंने खोजा है, उसका सेवन करना चाहिये। - (विन्य पिटक १, १०) यही ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ के रुप में पहला उपदेश था। अपने पाँच अनुयाइयों के साथ वे वाराणसी पहुँचे। यहाँ उन्होंने एक श्रेष्ठिपुत्र को अपना अनुयायी बनाया तथा पूर्णरुप से ‘धर्म प्रवर्त्तन’ में जुट गये। अब तक उत्तर भारत में इनका काफी नाम हो गया था और अनेक अनुयायी बन गये थे। कई बाद महाराज शुद्धोदन ने इन्हें देखने के लिये कपिलवस्तु बुलवाना चाहा लेकनि जो भी इन्हें बुलाने आता वह स्वयं इनके उपदेश सुन कर इनका अनुयायी बना जाता था।

इनके शिष्य घूम-घूम कर इनका प्रचार करते थे। इनके धर्म का इनके जीवन काल में ही काफी प्रचार हो गया था क्योंकि उन दिनों कर्मकांड को जोर काफी बढ़ चुका था और पशुओं की हत्या बड़ी संख्या में हो रही थी। इन्होंने इस निरर्थक हत्या को रोकने तथा जीवमात्र पर दया करने का उपदेश दिया। प्राय: ४४ वर्ष तक बिहार तथा काशी के निकटवर्ती प्रांतों में धर्म प्रचार करने के उपरांत अंत में कुशी नगर के निकट एक वन में शाल वृक्ष के नीचे वृद्धावस्था में इनका परिनिर्वाण अर्थात शरीरांत हुआ। मृत्यु से पूर्व उन्होंने कुशीनारा के परिव्राजक सुभच्छ को अपना अन्तिम उपदेश दिया। उनके मुख से निकले अंतिम शब्द थे, ‘हे भिक्षुओं, इस समय आज तुमसे इतना ही कहता हूँ कि जितने भी संस्कार हैं, सब नाश होने वाले हैं, प्रमाद रहित हो कर कल्याण करो।’ यह ४८५ ई. पू. की घटना है। वे अस्सी वर्ष के थे।
“हदं हानि भिक्ख्ये, आमंतयामि वो, वयध्म्मा संखारा, अप्पमादेन सम्पादेया”

!!भारत वर्ष में बौध धर्म क्या दलित धर्म बन जायेगा ??

दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म (कंवल भारती )

प्रस्तुत आलेख दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म दलित समाज की लोकप्रिय पुस्तिका का एक अंश है, जिसमें बौद्ध धर्म को दलितों का मूल धर्म बताते हुए उससे उनके रिश्ते को आकस्मिक नहीं बल्कि इसके पीछे विकास की पूरी श्रृंखला स्वीकार किया गया कदम (सेण्टर फार अल्टरनेटिव दलित मीडिया) शालीमार बाग, दिल्ली, सन्‌ 2002 में प्रकाशित, इस कृति के लेखक कंवल भारती हैं, जिन्होंने अनेक लोकप्रिय पुस्तिकाएं लिखी हैं, इनकी चर्चित पुस्तकें हैंᄉईश्वर और आत्मा, धम्म विजय, संत रैदास, दलित विमर्श की भूमिका, जाति धर्म और राष्ट्र।
बौद्ध धर्म से दलितों का रिश्ता सिर्फ इस कारण नहीं हो सकता कि उसे डॉ. आम्बेडकर ने स्वीकार किया था। डॉ. आम्बेडकर का बुद्धानुराग भी सिर्फ एक धर्म की तलाश के रूप में नहीं हो सकता था। यदि ऐसा होता, तो ईसाई, इस्लाम या सिक्ख धर्म भी दलित मानस से अपना रिश्ता बना सकते थे। पर, ऐसा नहीं हुआ। ईसाई, इस्लाम और सिक्ख धमोर्ं में दलितों का सामूहिक धर्मान्तरण भी इन धमोर्ं से दलितों का रिश्ता नहीं बना सका। इसके विपरीत बौद्ध धर्म के प्रति वे दलित भी अनुराग रखते हैं या उदारवादी दिखाई देते हैं और उसका समर्थन भी करते हैं, जो बौद्ध धर्म के अनुयायी नहीं हैं। एक प्रश्न यह भी विचारणीय है कि दलित जातियों में ईसाई और इस्लाम धमोर्ं का व्यापक मिशनरी प्रचार भी उनके प्रति अपनत्व क्यों नहीं पैदा कर सका, जबकि यही अपनत्व बौद्ध धर्म के प्रति पागलपन की हद तक दलितों में पैदा हो गया ? यह एक ऐसा सवाल है, जिस पर गम्भीर विचार करने की जरूरत है, क्योंकि इसी सवाल पर दलित धर्म की मौलिक अवधारणा निर्भर करती है।
मैंने दलित धर्म का सवाल इसलिए उठाया, क्योंकि इसके बिना न तो बौद्ध धर्म से दलितों के रिश्ते को समझा जा सकता है और न अन्य धमोर्ं के प्रति दलितों के अलगाव को। यहां एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी विचारणीय है कि कबीर और रैदास की विरासत भी दलितों को बौद्ध धर्म से जोड़ने में एक मजबूत कड़ी बन जाती है। सम्भवतः इसी आधार पर डॉ. धर्मवीर एक पृथक दलित धर्म को मान्यता देते हैं। इस अवधारणा पर वे काम भी कर रहे हैं, जिसे कुछ हद तक उनके कबीर विषयक रचनाकर्म में देखा भी जा सकता है।
यदि हम इस अवधारणा को लेकर चलें, तो हम कह सकते हैं कि डॉ. आम्बेडकर भी इस दलित धर्म की परम्परा से ही बौद्ध धर्म तक पहुंचे थे। बौद्ध धर्म उनका कोई आविष्कार नहीं है। वह उनकी एक मौलिक खोज है, जो दलितों को उनके धर्म और उनकी सांस्कृतिक विरासत से जोड़ती है। एक गैर हिन्दू राष्ट्र के रूप में दलितों को विकसित करने की दिशा में उनकी इस खोज ने क्रांतिकारी भूमिका निभायी है।
अब हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि इस दलित धर्म की अवधारणा क्या है और इसका बौद्ध धर्म तथा कबीर आदि दलित संतों की सम्पूर्ण विरासत से किस तरह का सम्बंध बनता है? इस धार्मिक विरासत में हम गोरखनाथ और सिक्खों के प्रथम गुरु नानकदेव को भी पाते हैं। उत्तर भारत के दलितों में गोरखनाथ बाबा और गुरु नानकदेव के प्रति असीम श्रद्धा और उनकी पूजा आज भी मौजूद हैं। दलितों में गुरु नानकदेव की प्रतिष्ठा सिक्ख धर्म के अस्तित्व में आने के काफी पहले हो चुकी थी, जो सिक्ख धर्म स्थापित होने के बाद भी कायम रही। मतलब स्पष्ट है कि नानकदेव दलित धर्म से जुड़े बिना दलितों की श्रद्धा के पात्रा नहीं बन सकते थे। यह जुड़ाव या समर्थन इतना प्रबल रहा होगा कि बाद में जब वे गुरु गोविन्द सिंह द्वारा स्थापित सिक्ख धर्म में पहले गुरु के रूप में शामिल कर लिए गये, तब भी वे दलितों के देव बने रहे।
इस दलित धर्म को समझने के लिए हमें पहले उसके सिद्धांतों की खोज करनी होगी। इन सिद्धांतों को खोजने का तरीका क्या होना चाहिए? ऐसे केवल दो तरीके हो सकते हैं। पहला तरीका दलित जातियों की सामाजिक समस्या या उनके रीति रिवाजों, परम्पराओं और सांस्कृतिक मूल्यों के अध्ययन का है। इस अध्ययन में हम यह देखेंगे कि दलितों की जो मान्यताएं हैं, उनकी समता दलित धर्म की विरासत से कितनी है? और यह भी कि उनका बौद्ध धर्म से भी क्या कोई रिश्ता बनता है? दूसरा तरीका यह हो सकता है कि हम, दलित धर्म के जितने भी गुरु हुए हैं या दूसरे शब्दों में दलित अस्मिता के जितने भी महानायक हुए हैं, उनमें से किसी एक को चुन कर उसकी प्रवृत्तियां का अध्ययन करें और उसके आधार पर दलित धर्म की अवधारणा का एक पैमाना बनायें। इस पैमाने से न सिर्फ हम मौलिक दलित धर्म को खोज सकते हैं, बल्कि बौद्ध धर्म से उसके रिश्ते का भी मूल्यांकन कर सकते हैं।
हम दोनों या कोई एक तरीका अपना सकते हैं। हम यहां दोनों तरीकों से सिद्धांत खोजने का प्रयास करते हैं। पहले तरीके को अपनाते हुए हम यह देखेंगे कि दलितों की सामाजिक समस्या क्या है और उनके धार्मिक सांस्कृतिक मूल्य क्या हैं?
दलितों की सामाजिक समस्या
1911 की जनगणना में अछूतों की गणना बाकी लोगों से अलग करने के लिए दस मानदंड अपनाये गये थे, जिसके आधार पर उन जातियों और कबीलों की अलग अलग गणना की गयी। डॉ. आम्बेडकर ने अपने एक लेख ÷अछूत और उनकी संख्या' में इन मानदंडों का इस प्रकार उल्लेख किया हैᄉ
(1) ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को नहीं मानते।
(2) किसी ब्राह्मण या अन्य मान्यता प्राप्त हिन्दू से गुरुदीक्षा नहीं लेते।
(3) वेदों की सत्ता को नहीं मानते।
(4) बड़े बड़े हिन्दू देवी देवताओं की पूजा नहीं करते।
(5) ब्राह्मण जिनकी यजमानी नहीं करते।
(6) जो किसी ब्राह्मण को पुरोहित बिल्कुल भी नहीं बनाते।
(7) जो साधारण हिन्दू मंदिरों के गर्भगृह में भी प्रवेश नहीं कर सकते।
(8) जिनसे छूत लगती है।
(9) जो अपने मुदोर्ं को दफनाते हैं।
(10) जो गोमांस खाते हैं और गाय की पूजा नहीं करते।1
इन मानदंडों से की गयी 1911 की जनगणना में दलितों को गैर हिन्दू वर्ग माना गया। ये मानदंड आज भी प्रासंगिक हैं। आज भी दलित जातियां न तो वेदों की सत्ता को मानती हैं और न ब्राह्मण के प्रभुत्व को स्वीकार करती हैं। वे हिन्दू नहीं हैं, सिर्फ एक सेवक श्रेणी के रूप में उन्हें हिन्दू फोल्ड या हिन्दू व्यवस्था में रखा गया है।
ब्रिटिश स्कालर जी. डब्ल्यू. ब्रिग्स ने अपनी प्रख्यात पुस्तक ÷चमार' में लिखा हैᄉ''मनु के अनुसार संसार की वे सभी जातियां, जो उस समुदाय से अलग हैं, जो (ब्रह्मा के) मुख, भुजा, उदर और पैर से पैदा हुई हैं, दस्यु कहलाती हैं, भले ही वे गंवारू भाषा बोलती हों या आयोर्ं द्वारा बोली जाने वाली भाषा।''2 ब्रिग्स आगे लिखते हैंᄉ ''वैदिक काल में भी दस्यु लोगों को हीन और अस्वच्छ मान कर उनसे घृणा की जाती थी। उनको कभी भी आर्य समुदाय में शामिल नहीं किया गया।3 ब्रिग्स के अनुसार ये लोग गांव के बाहर रहते थे और चामड़ तथा चर्मकार इन दो समूहों में विभक्त थे।4 वह लिखते हैं कि आज वे लोग ही चमार कहलाते हैं।5
दलित जातियों में चमारों की जनसंख्या सबसे अधिक है। 1911 की जनगणना के पूरे भारत के आंकड़ों से पता चलता है कि संख्या की दृष्टि से ब्राह्मण जाति पहले स्थान पर है और चमार दूसरे स्थान पर हैं। चमार हिन्दू होने की किसी भी अपेक्षा को पूरा नहीं करते हैं।6 अन्य दलित जातियां भी इस स्थिति से बाहर नहीं हैं। इसलिए सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से यह निर्विवाद है कि दलित हिन्दू नहीं हैं।
दलितों की सामाजिक समस्या क्या है? निश्चित रूप से यह समस्या समानता और स्वाधीनता की है, जो हिन्दू समाज व्यवस्था में उनको प्राप्त नहीं है। इस समस्या को हम इन दो घटनाओं से समझ सकते हैं। पहली घटना ब्रिटिश भारत के समय की है, जो 1938 में घटी थी। इस घटना का उल्लेख डॉ. आम्बेडकर ने अपने लेख ÷अस्पृश्यता और अन्याय' में इस प्रकार किया है, जिसे उन्होंने ÷जीवन' नामक पत्रिाका से लिया थाᄉ''आगरा जिले की तहसील फतेहगढ़ के गांव दोर्रा में मोतीराम जाटव के यहां रामपुर गांव से बारात आयी। दूल्हे ने चमकीला मौर पहन रखा था और बारात के साथ बैंड बाजा चल रहा था। साथ ही आतिशबाजी भी हो रही थी। इस पर सवर्ण हिन्दुओं ने एतराज किया कि बारात के साथ बाजा नहीं बज सकता और आतिशबाजी नहीं हो सकती। मोतीराम ने इसका विरोध किया। उसने कहा कि हम भी उसी तरह के इनसान हैं, जैसे और दूसरे लोग हैं। इस पर सवर्ण हिन्दुओं ने मोतीराम को पकड़ लिया और उसकी पिटाई की तथा बारात पर भी हमला किया। मोतीराम की पगड़ी में पंद्रह रुपये और एक आना बंधा हुआ था, वह भी छीन लिया गया।''7
इस घटना में मोतीराम के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं कि ÷हम भी उसी तरह के इंसान हैं जैसे और लोग हैं।' समता और स्वतंत्राता के लिए संघर्ष इस घटना का मूलाधार है।
अब दूसरी घटना को लेते हैं, जो स्वतंत्रा भारत में घटी है। यह 1995 की घटना है, जिसे सभी राष्ट्रीय अखबारों ने प्रकाशित किया था। घटना इस प्रकार हैᄉ तमिलनाडु के सलेम जिले के करनी चनपट्टी गांव में, एक विद्यालय में एक ब्राह्मण अध्यापक ने एक दलित छात्राा थन्नम की इसलिए आंख फोड़ दी, क्योंकि उसने उस बर्तन से पानी पी लिया था जो सवर्ण छात्राों के लिए था।
इस घटना में दलित छात्राा अस्पृश्यता की शिकार हुई है। यह अस्पृश्यता भी असमानता से जन्म लेती है, जिस पर हिन्दू धर्म टिका है।
इस प्रकार हम दलितों की सामाजिक समस्या और उनके सांस्कृतिक धार्मिक विश्वासों के अध्ययन से जिस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, उसके आधार पर निम्नलिखित सिद्धांत तय किये जा सकते हैंᄉ
1. दलित हिन्दू नहीं है।
2. दलित वेदों की सत्ता को नहीं मानते हैं।
3. दलित ब्राह्मणों के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं करते हैं।
4. वे समता, स्वतंत्राता और मानवीय गौरव की प्रतिष्ठा के आकांक्षी हैं।
5. वे अस्पृश्यता रहित समता मूलक समाज का निर्माण चाहते हैं।
6. वे श्रमजीवी हैं।
स्पष्ट है कि दलित धर्म की अवधारणा इन्हीं सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए। यह हम आगे देखेंगे।
अब हम दूसरे तरीके से यानि दलित मुक्ति के नायकों की प्रवृत्तियों के अध्ययन से उन सिद्धांतों की खोज करेंगे, जिनसे धर्म की अवधारणा को समझा जा सकता है।
दलित नायकों का धर्म
यदि हम मनु के इस कथन को दलित नायकों का धर्म मान कर चलें कि जो लोग ब्रह्मा के मुख, भुजा, उदर और पैर से पैदा नहीं हुए हैं, वे सभी दस्यु हैं, चाहे वे आर्य भाषा बोलते हों या गंवारू भाषा।8 तो दलित अपने नायकों की तलाश वैदिक काल से पूर्व के अनायोर्ं तक में कर सकते हैं। मनु वैदिक काल के दस्यु आदि अनायोर्ं को वर्ण व्यवस्था से बाहर की जातियां मानता है। दलित भी, जो अतिशूद्र है, वर्ण व्यवस्था से बाहर के हैं। क्योंकि मनु का कहना है कि सिर्फ चार वर्ण हैं, पांचवा कोई वर्ण नहीं है।9 इस स्मृति की व्याख्या करते हुए डॉ. आम्बेडकर ने लिखा है कि इसका अर्थ यह है कि मनु चातुर्वर्ण का विस्तार नहीं चाहता था। वह उन समुदायों को मिला कर पांचवें वर्ण की व्यवस्था के पक्ष में नहीं था, जो चारों वणोर्ं से बाहर थे। वह यह कह कर कि पांचवां वर्ण नहीं है, यह बताना चाहता है कि जो चातुर्वर्ण से बाहर है, उन्हें वह पांचवां वर्ण बना कर हिन्दू समाज में शामिल नहीं करना चाहता था।10
अतः हमें यह मानना होगा कि सारी अछूत और दलित जातियां वर्ण व्यवस्था से बाहर की जातियां हैं, वे सभी अनार्य हैं, और कदाचित हिन्दू नहीं हैं। उनके नायकों की एक लम्बी सूची तैयार की जा सकती है, जिनकी प्रवृत्तियों का अध्ययन करके हम एक मौलिक धर्म और संस्कृति की खोज कर सकते हैं, जो पूर्व वैदिक काल से लेकर अब तक के दलितों के आचरण में हैं। यहां हम कुछ प्रमुख नायकों की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करेंगे।
वैदिक काल के दस्यु जाति की धर्म संस्कृति क्या थी, इसे हम ऋग्वेद की इस ऋचा में देखते हैंᄉ
अकर्मा दस्युरयिनो अमंतुरन्यव्रति अमानुषः।
त्वं तस्या मित्राहन्वधदसिस्य दंभय।11
अर्थᄉ हम चारों ओर दस्यु जाति से घिरे हैं। वे यज्ञ नहीं करते, उनके कर्मकांड भिन्न हैं, वे मनुष्य नहीं हैं। हे शत्राुहंता, उन्हें मारो।
इससे पता चलता है कि दस्यु जाति के लोगों की आबादी ज्यादा थी। उनकी धर्म संस्कृति वह नहीं थी, जो आयोर्ं की थी। वे यज्ञ नहीं करते थे। इस कारण उनके धार्मिक विश्वास दूसरी तरह के थे। आर्य उनसे भयभीत थे।
डॉ. धर्मानंद कोसम्बी ने अपनी पुस्तक ÷भारतीय संस्कृति और अहिंसा' में बड़ी मार्के की बात लिखी है कि ''दास लोग राजपूतों की तरह शूर थे। पर एकता और अश्वारोही सेना के अभाव के कारण उनके लिए आयोर्ं के सामने ठहरना असम्भव था। नमुचि दास ने तो अपने राज्य की स्त्रिायों तक को इंद्र से लड़ने के लिए खड़ा कर दिया था। इसका उल्लेख ऋग्वेद (5-30-9) में मिलता है। ÷स्त्रिायो हि दास आयुधानि चक्रे किम करन्नबला अस्य सेनाः' (दास ने स्त्रिायों तक को युद्ध में खड़ा किया। पर ऐसी दुर्बल सेना क्या कर सकती थी) फलतः नमुचि इस लड़ाई में मारा गया।''12
इससे पता चलता है कि उनकी स्त्रिायां सिर्फ घर की चहारदीवारी में ही कैद नहीं रहती थीं, वे सेना में भी भरती होती थीं। स्त्राी पुरुषों में समानता थी।
दैत्यरज बलि के सम्बंध में ÷ब्रह्मपुराण' के अध्याय 73 में लिखा हैᄉ
गुरुभक्त्वा च सत्येन वीर्येण च बलेन च ।
त्यागेन क्षमया चैव त्रौलोक्ये नोपमीयते ॥(3)
अर्थᄉ गुरु भक्ति, सत्य, वीर्य, बल, त्याग और क्षमा में उसके समान तीनों लोकों में कोई नहीं था।
अन्य दलित नायकों में कबीर और रैदास का प्रभाव सभी दलित वगर्ोें पर है। अतः हमें यह देखना चाहिए कि मध्यकाल के ये दोनों संत किस धर्म के व्याख्याता थे। पहले हम कबीर की प्रवृत्तियां देखते हैं। वे कहते हैंᄉ
हरि के रूठे ठौर हैं, गुरु रूठे नहि ठौर।13
अर्थातᄉ हरि नाराज हो जाये, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। पर यदि गुरु नाराज हो गया तो फिर कोई बचत नहीं।
कबीर गुरुभक्त थे। वह हरिभक्त नहीं थे। उनकी दृष्टि में हरि का कोई महत्व नहीं था। गुरु को कबीर ÷साहब' भी कहते हैं। यह कौन है, इसका पता उनके इस पद से चलता हैᄉ
मोको कहां ढूंढे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में॥
खोजी होय तो तुरते मिलिहों, पल भर की तालास में।
कहें कबीर सुनो भई साधो, सब स्वासों की स्वांस में॥14
इस पद में कबीर ने साम्प्रदायिक ईश्वर का पूरी तरह खंडन किया है। ऐसा ईश्वर उनका न आराध्य है, न गुरु है। उनका गुरु ÷आतम राम' है। अर्थात, अपनी स्मृति, अपने को खोजना।
कबीर की अन्य प्रवृत्तियां इन पदों में हैंᄉ
सिरजन हार न ब्याही सीता, जल पषाण नहि बंधा।
दशरथ कुल अवतार नहि आया, नहि लंका के राव सताया॥
नही देवकी गर्भहि आया, नही यशोदा गोद खिलाया।15
अर्थातᄉ सिरजनहार (सृष्टा) ने सीता से विवाह नहीं किया था और न उसने समुद्र के उ+पर पत्थरों का पुल बांधा था। दशरथकुल में कोई अवतार नहीं हुआ और न उसने लंका के रावण को मारा। वह देवकी के गर्भ से भी पैदा नहीं हुआ और न उसे यशोदा ने गोद में खिलाया। इस प्रकार कबीर अवतारवाद का खंडन करते हैं।
हिन्दू कहूं तो मैं नही, मुसलमान भी नाहि।
पांच तत्व का पुतला, गैबी खेले माहि॥16
अर्थातᄉ कबीर कहते हैं कि वह न हिन्दू है और न मुसलमान है। वह पांच तत्वों का जीव है, जिसमें आत्मा क्रीड़ा करता है।
काहे को कीजै पांडे छोति विचार।
छोति हि ते उपजा सब संसार॥
हमारे कैसे लोहू तुम्हारे कैसे दूध।
तुम कैसे बांभन पांडे हम कैसे सूद॥17
अर्थातᄉ कबीर छुआछूत और जातिभेद के विरोधी हैं। वह मानव मानव के बीच जाति के भेद को नहीं मानते हैं। उनका धर्म समतावादी है।
संसकिरत है कूप जल, भाषा बहता नीर।18
अर्थातᄉ कबीर संस्कृत को कुंए के पानी की तरह मानते थे और बोलचाल की लोकभाषा को बहता नीर। इसलिए कबीर संस्कृत के नहीं, लोकभाषा के पक्षधर थे।
इस प्रकार हम देखते हैं कबीर की मुख्य प्रवृत्तियों में गुरु को मानना, आतम राम को मानना, अवतारवाद का विरोध, छुआछूत और जातिभेद का खंडन तथा हिन्दू मुसलमान से परे मानव धर्म का समर्थन है।
देखते हैं कि रैदास की प्रवृत्तियां क्या हैं? रैदास शुरू में ही कहते हैंᄉ चारों वेद करै खंडौति, जन रैदास करै दंडौति,19 यानि रैदास को दंडवत वही करे, जो वेदों का खंडन करे। वेदों को नकार कर ही रैदास को स्वीकार किया जा सकता है। वे राम के भक्त भी नहीं हैं और न सेवक। वे योग यज्ञ भी नहीं करते हैं। वे उदास हैं, अर्थात, दास रहित स्वयं अपने स्वामी।
राम भगत को जन न कहाउ+ं सेवा करूं न दासा।
जोग जग्य गुन कछू न जानूं ताते रहूं उदासा॥20
रैदास वर्णव्यवस्था और उससे उत्पन्न जातिभेद तथा अस्पृस्यता का खंडन करते हैंᄉ
रैदास जनम के कारने होत न कोई नीच।
नर कूं नीच कर डारि है, ओछे करम की कीच॥21
रैदास बांभन मत पूजिए जो होवे गुन हीन।
पूजिए चरन चंडाल के जो हो ज्ञान प्रवीन॥22
रैदास का धर्म जातिविहीन है, वह मनुष्य को महत्व देता हैᄉ
धर्म की कोई जात नहीं न जात धर्म के माह।
रैदास चले जो धर्म पे करेंगे धर्म सहाय॥
जातपात के फेर मह उरझि रहे सब लोग।
मानुषता को खात है रैदास जात का रोग॥23
रैदास के धर्म में श्रम का महत्व हैᄉ
श्रम को ईश्वर जान के जो पूजहि दिन रैन।
रैदास तिनहि संसार मह सदा मिलहि सुख चैन॥24
रैदास को न मस्जिद से कुछ लेना है, न मंदिर से कोई प्यार है। वह न अल्लाह को मानते हैं ओर न हरि को। स्पष्ट है कि वह न हिन्दू हैं, न मुसलमान। यथा
मस्जिद सो कछु घिन नहि, मंदिर सो नहि प्यार।
दोउ अल्ला हरि नहि, कह रैदास उचार॥25
कबीर की तरह रैदास भी सतगुरु साहब को मानते हैंᄉ
सतगुरु साहिब अति बड़ा पावत ना कोई पार।
सतगुरु साहिब अति बड़ा जानत विरला सार॥
सतगुरु साहिब अति बड़ा अंधियारे में दीप।
सतगुरु साहिब अति बड़ा सुंदर मोती सीप॥26
इस प्रकार हम रैदास को भी एक ऐसे धर्म के व्याख्याता के रूप में देखते हैं, जो हिन्दू मुसलमान के धमोर्ं से पृथक है, समतावादी है और मानववादी है। उनके आराध्य सतगुरु साहब हैं। कबीर और रैदास की ही तरह दादू भी इसी धर्म के अनुयायी हैं। उनका मत भी यही है कि वे न हिन्दू हैं और न मुसलमान। उन्होंने हिन्दुओं के षट् दर्शन का भी खंडन किया है। यथाᄉ
न हम हिन्दू होहिगे, न हम मुसलमान।
षट दरशन में हम नहीं, हम राते रहिमान॥27
दलित धर्म के सिद्धांत
उपरोक्त दोनों तरीकों, अर्थात्‌ दलितों की सामाजिक समस्या तथा दलित नायकों की प्रवृत्तियों के अध्ययन के आधार पर दलित धर्म की अवधारणा को समझने के लिए निम्नलिखित सिद्धांत तय किये जा सकते हैं। (उल्लेखनीय है कि सामाजिक मान्यताएं हमने पीछे स्पष्ट की हैं, जिनसे दलित नायकों की धार्मिक प्रवृत्तियां पूरी तरह मेल खाती हैं)ᄉ
1. दलित हिन्दू नहीं हैं।
2. वे वेदों के ज्ञान में आस्था नहीं रखते हैं।
3. वे यज्ञ नहीं करते हैं।
4. वे गुरु को मानते हैं।
5. वे समतावादी हैं।
6. वे वर्ण व्यवस्था और जातिभेद का खंडन करते हैं।
7. वे स्त्रिायों की स्वतंत्राता के पक्षधर हैं।
8. वे एक निर्गुण, निराकार ईश्वर को मानते हैं।
9. वे जन्म जन्मांतरवाद, अवतारवाद और स्वर्ग नर्क की धारणाओं को अस्वीकार करते हैं।
10. ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को नहीं मानते और न उनसे गुरुदीक्षा लेते हैं।
11. वे हिन्दू देवी देवताओं की पूजा नहीं करते।
12. वे श्रमजीवी हैं, भीख मांग कर नहीं खाते हैं।
13. वे संस्कृत को नहीं, लोकभाषा को अपनाते हैं।
दलित धर्म की विशेषताएं
इन सिद्धांतों के प्रकाश में एक सार्वभौमिक दलित धर्म की खोज सहज ही की जा सकती है। यदि हम सम्पूर्ण दलित वर्गों के धार्मिक विश्वासों और कर्मकांडों का अध्ययन करें तो हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वे विश्वास दलितों के एक पृथक धर्म का पता देते हैं। उपरोक्त सभी मान्यताएं उनके समाजों में मौजूद मिलती हैं। वे वर्णव्यवस्था से बाहर के लोग हैं, इसलिए हिन्दू व्यवस्था से भी बाहर के लोग हैं। हिन्दू व्यवस्था उनको गुलाम बना कर रखे हुए हैं। इस व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह करने और उससे निकल भागने के कारण ही हिन्दू उन पर अत्याचार करते हैं।
दलित श्रमजीवी हैं, कठोर श्रम करके जीविका कमाते हैं। इसी श्रम का हिन्दू व्यवस्था ने शोषण और दोहन किया है। उन्हें सामाजिक हीनता का शिकार बनाया है तथा उनको आर्थिक रूप से परतंत्रा बना कर उनके विकास को रोका है।
दलित यज्ञ नहीं करते हैं और न वेदों के ज्ञान में आस्था रखते हैंं। वे ब्राह्मण को श्रेष्ठ नहीं मानते, वरन्‌ मनुष्य को श्रेष्ठ मानते हैं और उसका सम्मान उसके गुणों से करते हैं।
कालांतर में हिन्दुत्व के धार्मिक आंदोलनों ने दलितों को हिन्दू व्यवस्था में बनाये रखने के लिए इस दलित धर्म को तमाम प्रकार से विकृत किया और नाना प्रकार के मिथ्या प्रचार से उनमें हिन्दू देवी देवताओं की पूजा तथा जन्म जन्मांतरवाद, पुनर्जन्म और स्वर्ग नर्क की धारणाएं विकसित की हैं। उन्हें शिक्षा से वंचित करके भी इसी साजिश के तहत रखा गया है कि उनमें विवेक का विकास न हो सके और वे मूल धर्म से न जुड़ सकें। वे गुरु को मानते हैं, पर इस बात से अंजान हैं कि विवेक ही उनका गुरु है। वे ईश्वरवादी हैं, पर राम, कृष्ण की साम्प्रदायिक धारणाएं भी उनमें मौजूद हैं, जो हिन्दू व्यवस्था के प्रभाव के कारण हैं। लेकिन भीतर से वे मूलतः निर्गुण के ही उपासक हैं।
दलित हिन्दू नहीं हैं, इसका प्रमाण है कि वे गाय का मांस खाते हैं और गाय को पूज्य नहीं मानते हैं। वे मुसलमान भी नहीं हैं, क्योंकि वे सुअर का मांस भी खाते हैं।
यह सार्वभौमिक सत्य है कि भारत के किसी कोने में रहने वाला दलित हिन्दू नहीं है, भले ही वह हिन्दू व्यवस्था में रह रहा है। वह आज भी सत्ता से वंचित है, धन से वंचित है, सम्पत्ति से वंचित है, शस्त्रा से वंचित है, शिक्षा से वंचित हैं और सामाजिक सम्मान से वंचित एक पृथक राष्ट्र के रूप में इस देश में रह रहा है। उसका इतिहास नष्ट कर दिया गया, उसके देवता नष्ट कर दिये गये, उसका धर्म नष्ट कर दिया गया, उसकी संस्कृति नष्ट कर दी गयी, वे तमाम प्रतीक खत्म कर दिये गये, जो उसकी पृथक पहचान स्थापित कर सकते थे। सिर्फ इसलिए कि एक सेवक श्रेणी के रूप में वह हिन्दू व्यवस्था में बना रह सके।
लेकिन दलित धर्म की विशेषताएं और उसके सिद्धांत दलितों की मान्यताओं, विश्वासों और उनकी संस्कृति में आज भी जीवित हैं। इसका प्रमाण है हिन्दू व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह और समता मूलक समाज के लिए उनका संघर्ष।
दलित और अन्य धर्म
इसका एक प्रमाण और भी है जो काफी गौर करने लायक है। वह यह है कि यह पूरी दलित आबादी ईसाई या मुसलमान क्यों नहीं हो गयी, जबकि इसका भरपूर अवसर उनको मिला था? क्या कारण है कि ईसाई और मुस्लिम मिशनरी भी इस गैर हिन्दू आबादी को अपने अपने धमोर्ं में तब्दील नहीं करा सके? उनके पास भी इसके पर्याप्त अवसर थे, जिसका वे लाभ उठा सकते थे। यदि मुस्लिम शासन में मुस्लिम मिशनरी या ब्रिटिश शासन में ईसाई मिशनरी इस गैर हिन्दू आबादी को मुस्लिम या ईसाई बना लेते, तो लाभ उनको ही होता। ऐसा क्यों नहीं किया जा सका? क्या ईसाई या मुस्लिम मिशनरियों ने प्रयास नहीं किया या फिर दलित जातियों ने उनके धमोर्ं में रुचि नहीं ली? सही कारण कौन सा हो सकता है? मुझे लगता है कि दूसरा कारण ही सही प्रतीत होता है। मुस्लिम और ईसाई मिशनरियों ने दलितों में धर्मांतरण के प्रयास न किये हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इन धमोर्ं में जिन दलित जातियों के लोगों ने धमार्ंतरण किया था, वह इस प्रयास के कारण ही था। लेकिन वे मिशनरी पूरी दलित आबादी का धर्मांतरण कराने में सफल नहीं हो सके। इसका एक कारण यह बताया जाता है कि मुस्लिम शासकों ने ब्राह्मणवाद से यह समझौता कर लिया था कि वे हिन्दू समाज व्यवस्था को ध्वस्त नहीं करेंगे। उन्हें भी सेवकों की जरूरत थी, जो उन्हें हिन्दू व्यवस्था में गुलाम बना कर रखे गये दलितों में से ही मिल सकते थे। सम्भवतः इसीलिए लम्बे मुस्लिम शासन में भी दलितों को गुलामी से मुक्ति नहीं मिल सकी और धर्मांतरण के बाद भी नव मुस्लिम दलित, दलित ही बन कर जिये और दलित ही रह कर मरे। लेकिन, सिर्फ यही एक कारण नहीं हो सकता। यदि मात्रा इसी कारण से मुस्लिम मिशनरी अपने मिशन में सफल नहीं हो सके, तो सवाल यह है कि ईसाई मिशनरी भी सफल क्यों नहीं हो सके, जबकि ब्रिटिश सरकार दलितों की मुक्ति के पक्ष में थी?
वास्तव में मुख्य कारण यही है कि दलितों ने ही इस्लाम और ईसाई धमोर्ं में रुचि नहीं ली। लेकिन, इससे कोई यह भ्रम न पाल ले कि कबीर और रैदास आदि ने एकेश्वरवाद की धारा चला कर दलितों को इस्लाम में जाने से रोक कर हिन्दुत्व की रक्षा की थी और दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना कर दलितों को ईसाई धर्म में जाने से रोक कर हिन्दुत्व की रक्षा की थी। ये दोनों ही ऐतिहासिक सत्य नहीं है। दयानंद ने समाज सुधार के नाम पर वैदिक व्यवस्था की नयी व्याख्या करके वर्ण व्यवस्था की रक्षा की थी तथा कबीर और रैदास आदि ने दलित धर्म की स्थापना करके हिन्दुत्व और इस्लाम दोनों से दलितों को बचाया था।
यह सच है कि कबीर और रैदास के कारण ही दलित जातियों के लोगों ने इस्लाम नहीं अपनाया था। पर, इसलिए नही कि उन्हें हिन्दुत्व से प्रेम था। जिस हिन्दू व्यवस्था में वे अस्पृश्यता और अपमान के शिकार थे, उससे उन्हें पे्रम हो ही नहीं सकता था। ऐसे धर्म को वे क्यों बचाना चाहेंगे, जिसमें उनकी कोई इज्जत नहीं है? उन्होंने यदि इस्लाम नहीं अपनाया था, तो इसलिए कि वे अपने ही धर्म के अनुयायी थे, जिसके गुरु कबीर और रैदास आदि दलित संत थे। उनके लिए उनका अपना धर्म ही मुक्तिदायक था। उनके लिए इस्लाम और हिन्दुत्व में अंतर नहीं था। दोनों में भाग्यवाद, कर्मवाद, स्वर्ग नर्क और पूजा पाठ के समान पाखंड थे। उनका धर्म जिसके गुरु और व्याख्याता कबीर और रैदास थे, इस पाखंडवाद से मुक्त था।
इस अंतर को मैं कुछ विस्तार से स्पष्ट करना चाहूंगा, ताकि इस बात को अच्छी तरह से समझा जा सके कि क्यों कबीर आदि दलित संतों का धर्म हिन्दुत्व और इस्लाम दोनों से अलग था। ये अंतर संक्षेप में इस प्रकार हैᄉ
पहला अंतर यह है कि कबीर आंखों देखी में विश्वास करते थे, जबकि हिन्दुत्व और इस्लाम के अनुयायी किताब की लिखी बात मानते हैं। वे वेद और कुरआन से परे नहीं जाना चाहते। हिन्दू वेद को ईश्वर की रचना मानते हैं, वैसे ही मुसलमान कहते हैं कि कुरआन अल्लाह की किताब है। दलित धर्म ऐसी किसी किताब को मान्यता नहीं देता, जिसे ईश्वर की रचना माना जाता हो। ईश्वर की किताब का अर्थ है, उस किताब की व्यवस्था ईश्वरीय है। वह अपरिवर्तनीय है, उसके सिद्धांतों में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। कबीर सामाजिक परिवर्तन के समर्थक हैं, जबकि हिन्दू और मुसलमान दोनों अपने धर्मशास्त्राों के विरुद्ध सामाजिक परिवर्तन नहीं चाहते। इसलिए कबीर चीजों को सुलझाते हैं, जबकि हिन्दू मुसलमान उलझनें पैदा करते हैं। कबीर जागने की बात करते हैं, जबकि हिन्दू मुसलमान शास्त्राों में विश्वास सिखा कर लोगों को सुलाते हैं। यथाᄉ
मेरा तेरा मनुआ कैसे इक होइ रे।
मैं कहता हूं आंखन देखी तू कागद की लेखी रे॥
मैं कहता सुरझावन हारी तू राख्यों उरुझाई रे।
मैं कहता तू जागत रहियो तू रहता है सोई रे॥28
दूसरा अंतर यह है कि कबीर का धर्म भाग्यवाद, अवतारवाद और पुनर्जन्म, पूर्वजन्म की धारणा का खंडन करता है, जबकि हिन्दू मुसलमान इस धारणा में विश्वास करते हैं, अलबत्ता मुसलमानों की धारणा में कुछ परिवर्तन है। भाग्यवाद की धारणा दोनों में समान है। हिन्दुत्व की धारणा में हिन्दू की गरीबी और उसके कष्ट उसके भाग्य के कारण हैं। वह उसे पूर्वजन्म का फल भी बताता है। मुसलमान भी तकदीर में अटूट विश्वास करते हैं। तकदीर पर ईमान मुसलमानों के लिए जरूरी है, क्योंकि यह हदीस है। जब तकदीर में ही दुःख है, गरीबी है तो उसके विरुद्ध संघर्ष भी क्यों? हिन्दुत्व और इस्लाम लोगों को ऐसी ही शिक्षा देते हैं। अवतारवाद की हिन्दू धारणा में ईश्वर मनुष्य रूप में धरती पर जन्म लेते हैं और गौओं तथा ब्राह्मणों की रक्षा के लिए लड़ाइयां लड़ते हैं। मुस्लिम धारणा में अल्लाह मनुष्य रूप में जन्म नहीं लेता है, बल्कि वह धरती पर अपने दूत भेजता है। यद्यपि इस्लाम में पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत नहीं है, पर वह यह कहता है कि मृतकों की सारी आत्माएं कयामत के दिन पुनर्जीवित होंगी।
तीसरा अंतर ईश्वरवाद की अवधारणा को लेकर है। हिन्दू एकेश्वरवादी भी है और बहुदेववादी भी है। वह मूर्तिपूजक है और तीर्थ करने में विश्वास करता है। हिन्दू मानता है कि इस संसार का रचयिता ईश्वर (ब्रह्मा) है। इसके विपरीत मुसलमान एकेश्वरवादी हैं। वह यह मानता है कि अल्लाह एक है, उसका कोई रूप रंग नहीं है और न उसके साथ किसी को शरीक किया जा सकता है। इस सारे संसार को अल्लाह ने ही पैदा किया है। वही पालनहार और कयामत लाने वाला है। वह सातवें अर्श पर है और कयामत के दिन लोगों का हिसाब करता है। उन्हें उनके कमोर्ं के आधार पर जन्नत और जहन्नुम भेजता है। इसलिए, इस बिना पर अल्लाह एक सगुण सत्ता भी है। दलित धर्म ईश्वरवाद की इस अवधारणा का खंडन करता है। कबीर और रैदास निर्गुण के उपासक हैं। उसका वास न मंदिर में है, न तीर्थ में हैं और न काबा में है। वह मनुष्य के भीतर ही रहता है। कबीर कहते हैंᄉ ÷ज्यों तिल माही तेल है चकमक माही आग। तेरा साईं तुज्झ में, जागि सकै तो जाग॥'29 कबीर का ईश्वर किसी आसमान पर नहीं रहता है और न कयामत के दिन हिसाब करता है। उसका न कोई स्वर्ग है और न नर्क। वह संसार का रचयिता नहीं है। मानव का जन्म कबीर स्त्राी पुरुष के नैसर्गिक मिलन से ही मानते हैं। ÷एक बूंद से जग उत्पन्ना' कबीर की यह सोच वैज्ञानिक है। कबीर कहते हैं, हम अपनी ही राह चलेंगे। हिन्दू मुसलमान में कोई अंतर नहीं है। दोनों का कर्ता एक है। यथाᄉ
कहै कबीरा दास फकीरा, अपनी राह चलि भाई।
हिन्दू तुरक का करता एकै ता गति लखी न जाई॥30
चौथा अंतर सामाजिक व्यवस्था को लेकर है। कबीर और रैदास का दलित धर्म वर्णव्यवस्था का विरोधी है और समतामूलक समाज चाहता है। हिन्दू धर्म वर्णव्यवस्था का समर्थक है और सामाजिक भेदभाव में विश्वास करने की शिक्षा देता है। हिन्दू धर्म में ब्राह्मण को सबसे ज्यादा अधिकार प्राप्त है। उसे सबका गुरु माना जाता है, शूद्र सेवक वर्ग है, उसे कोई अधिकार प्राप्त नहीं है, न पढ़ने लिखने का, न शस्त्रा रखने का, न धन अर्जित करने का और न सम्मानित जीविका अपनाने का। हिन्दू समाज की वर्णव्यवस्था जन्म पर आधारित है। ब्राह्मण जन्म से होता है, वह कितना ही कुकर्मी हो, पर ब्राह्मण ही रहेगा। शूद्र कितना ही विद्वान और सुकर्मी हो, पर शूद्र ही रहेगा। कबीर ने इसे नहीं माना। उन्होंने कहाᄉ ÷ब्राह्मण गुरु जगत का, पर साधू का गुरु नाहि।'31 इस्लाम में यद्यपि ऐसी कोई वर्णव्यवस्था नहीं है, पर दलित धर्म जिस समता मूलक और वैज्ञानिक विचारधारा वाले समाज की बात कर रहा था, वह इस्लाम में भी नहीं है; क्योंकि इस्लाम में सब कुछ अल्लाह ही करता है, इंसान कुछ नहीं करता। अल्लाह की व्यवस्था में कुछ भी परिवर्तन करने का हक इंसान को नहीं है। ÷ऐसा भेद बिगूचन भारी' कबीर के लिए यह भारी भेद था, इसलिए वह न हिन्दुत्व के पक्ष में रहे और न इस्लाम के।
पांचवां अंतर उपासना को लेकर है। चूंकि कबीर और रैदास निर्गुणवादी हैं, इसलिए उनका ईश्वर ऐसी उपासना का कायल नहीं है, जो मंदिर और मस्जिद में की जाती है। उनकी उपासना में प्रसाद, भोग और दान दक्षिणा (चढ़ावे) का नियम नहीं है और न मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ने और ÷तिलावत' करने का नियम है। उनका ईश्वर न किसी की मनौतियां पूरी करता है और न जानवर की कुर्बानी से प्रसन्न होता है। हिन्दू और मुस्लिम दोनों धमोर्ं में ईश्वर को प्रसन्न किया जाता है, जबकि दलितों का निर्गुण ईश्वर उसके अंदर ही रहता है और इसे पाने के लिए किसी अनुष्ठान की जरूरत नहीं पड़ती है।
छठा अंतर धार्मिक ज्ञान का है। कबीर ज्ञानवादी हैं, जबकि हिन्दू और इस्लाम दोनों मायावादी हैं। दोनों अज्ञान के शिकार हैं। एक अंतर यहां पर यह भी है कि कबीर जिसे माया कहते हैं, हिन्दू उसी को ज्ञान कहते हैं। हिन्दू और मुसलमान दोनों का ज्ञान शास्त्राों का ज्ञान है, जबकि कबीर विवेकवादी हैं। कबीर की इन पंक्तियों से इस बात को आसानी से समझा जा सकता हैᄉ
हौं तौ तुरक किया करि सुन्नति औरति सौं का कहिए।
अरध सरीरी नारि न छूटै आधा हिन्दू रहिए॥
पहिरि जनेउ जो ब्राह्मण होना मेहरि क्या पहिराया।
वो तो जनम की सूद्रिन परसै तुम पांडे क्यों खाया॥33
कबीर यहां काजी और ब्राह्मण को सम्बोधित करते हैं कि कोई मुसलमान यदि सुन्नत (खतना) करवाने से ही होता है, तो उसकी स्त्राी की सुन्नत क्यों नहीं होती? तब, क्या वह आधा हिन्दू ही नहीं रह गया? इसी तरह यदि सिर्फ जनेउ पहनने से ही ब्राह्मण होता है, तो वह अपनी स्त्राी को जनेउ क्यों नहीं पहनाता? तब जनेउ के अभाव में उसकी स्त्राी शूद्र ही हुुई। फिर एक शूद्र का परोसा गया खाना पांडे क्यों खाता है?
कबीर के धर्म की यह वैज्ञानिक तर्क क्षमता न हिन्दुत्व में है और न इस्लाम में।
सातवां अंतर यह है कि कबीर और रैदास का धर्म, करुणा, मैत्राी और अहिंसा का है, जबकि हिन्दू मुसलमान दोनों में ही जीव मात्रा के प्रति दया नहीं हैं। हिन्दू मुसलमान दोनों ही हिंसावादी हैं। दोनों जानवरों की बलि चढ़ाते हैं और उसे अपने धर्म में जायज मानते हैं। कबीर जीव हिंसा के विरुद्ध हैं। वे कहते हैंᄉ
कुकड़ी मारै बकरी मारै हक हक हक करि बोले।
सबै जीव साईं के प्यारे उबरहुगे किस बोले॥34
आठवां अंतर नारी विषयक धारणा है। हिन्दुत्व स्त्राी को भी शूद्र मानता है और तमाम हिन्दू शास्त्रा स्त्राी को पढ़ने के अधिकार का निषेध करते हैं। शंकराचार्य ने स्त्राी को नरक का द्वार कहा है, तो तुलसीदास जैसे ब्राह्मण उसे अवगुणों की खान कहते हैं तथा उसे ताड़ना देने की शिक्षा देते हैं। हिन्दू स्त्राी के लिए उसका पति ही उसका परमेश्वर है और उसकी सेवा में ही उसकी मुक्ति है। पति चाहे रोग ग्रस्त हो, स्त्राी के अयोग्य हो, कैसा भी हो, स्त्राी उसे छोड़ नहीं सकती। मुस्लिम स्त्राी भी स्वतंत्रा नहीं है। इस्लाम ने भी उसे पुरुष के बराबर अधिकार अदा नहीं किये हैं। मुस्लिम स्त्राी पर्दानशीन है। उसे बुरके में रहने का हुक्म है। यद्यपि हिन्दू स्त्राी के मुकाबले मुस्लिम स्त्राी को धर्मग्रंथ पढ़ने से नहीं रोका गया है। परंतु दोनों की सामाजिक वर्जनाओं में कोई अंतर नहीं है।
इसके विपरीत कबीर स्त्राी स्वतंत्राता के समर्थक हैं और पुरुष के साथ जीवन संघर्ष में समान भागीदारी निभाने की शिक्षा देते हैं। ब्राह्मण लेखकों ने कबीर के नाम से कुछ पदों को लिख कर उन्हें स्त्राी विरोधी साबित करने का षडयंत्रा किया है। ऐसे सभी पद प्रक्षिप्त हैं, जिनका कबीर की विचारधारा से कोई मेल नहीं बैठता है। वैज्ञानिक ज्ञान की आंधी ला देने वाले दलित संत स्त्राी विरोधी हो ही नहीं सकते थे। इसका एक प्रबल प्रमाण यह है कि मीरा को स्त्राी होने के नाते किसी भी ब्राह्मण संत ने अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया था। अंततः वह दलित संत रैदास की शरण में गयी थी।
बौद्ध धर्म से सम्बंध
अतः कहना न होगा कि दलित धर्म की अवधारणा हिन्दुत्व और इस्लाम से मेल नहीं खाती है। इस अंतर के कारण ही दलितों ने न सिर्फ अपने को हिन्दू धर्म से अलग रखा, बल्कि इस्लाम और ईसाई धर्म में भी कोई रुचि नहीं ली। ईसाई धर्म भी हिन्दुत्व और इस्लाम से अलग नहीं है उसमें भी वही सब चीजें हैं, जो हिन्दुत्व और इस्लाम में हैं। इन धमोर्ं में जाकर दलित जातियों के लोग न सिर्फ अपना और अपने धर्म का अस्तित्व समाप्त कर लेते, बल्कि उन धमोर्ं के अंधविश्वासों और पाखंडों का ही शिकार होकर रह जाते। उनके बल पर उच्च वगोर्ं के ईसाई और मुसलमान उसी तरह शासक वर्र्ग बने रहते, जिस प्रकार उनके बल पर हिन्दू उच्च वर्ग शासक वर्ग बना हुआ है।
अब हम इस सवाल पर विचार करेंगे कि फिर बौद्ध धर्म के प्रति दलितों के आकर्षण का कारण क्या है? क्यों दलित लोग प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में बौद्ध बनते जा रहे हैं? दलित बस्तियों में बुद्ध मंदिरों की संख्या बढ़ती जा रही है। यही नहीं, तमाम कबीरपंथी और रैदासपंथी तथा आदि धर्मों के साधु भी बौद्ध भिक्षु बन गये हैं। और सवाल यह भी है कि क्यों हिन्दुओं ने बौद्ध धर्म को भी हिन्दुत्व के ही एक अंग के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया है?
एक एक करके इन सभी सवालों पर हम विचार करेंगे। पहले यह प्रश्न लें कि बौद्ध धर्म के प्रति दलितों का आकर्षण किन कारणों से है? सामान्यतः इसका कारण यह दिखाई दे सकता है कि डॉ. आम्बेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया था, इसलिए उनके अनुयायी उनका अनुकरण कर रहे हैं। लेकिन यह बहुत ही सतही उत्तर है और सवाल को काफी छोटा और हल्का करके देखना है। अगर यह एक कारण है भी, (और सचमुच यह अंशतः है) तो सवाल यह भी पैदा होता है कि डॉ. आम्बेडकर भी बौद्ध धर्म के प्रति ही क्यों आकर्षित हुए थे, जबकि वे स्वयं कबीरपंथी थे और कबीर रैदास दोनों से प्रभावित थे?
यदि डॉ. आम्बेडकर ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया होता, तो क्या इस्लाम के प्रति भी दलितों का आकर्षण यही हो सकता था, जो आज बौद्ध धर्म के प्रति है? अर्थात क्या इस्लाम दलित धर्म का रूप ले सकता था?
मेरा उत्तर नकारात्मक है। डॉ. आम्बेडकर द्वारा इस्लाम धर्म अपनाने का अनुकरण दलितों में इतना तीव्र नहीं हो सकता था, जितना कि बौद्ध धर्म के अनुकरण को लेकर है। निस्संदेह अनुकरण का प्रभाव होता है, खासतौर से नायक के अनुकरण का। लेकिन ईसाई या इस्लाम के मामले में यह अनुकरण ज्यादा दूर तक नहीं जा सकता था। इसका कारण क्या हो सकता है? मेरी दृष्टि में इसका कारण दलित धर्म के मूल्यों के सिवा कुछ नहीं हो सकता। दलित अपनी मौलिकता में जिस धर्म संस्कृति के अनुयायी हैं, उसके विरुद्ध वे नहीं जा सकते। यह उनके लिए आत्मघाती हो सकता है।
डॉ. आम्बेडकर इस तथ्य से परिचित थे। वह स्वयं भी कबीर और रैदास के धार्मिक मूल्यों के अनुयायी थे। इस मूल धार्मिक विरासत ने ही उन्हें प्रतिरोध की संस्कृति दी थी। यही उनके समग्र जीवन संघर्ष और उनकी नयी रचनाशीलता की ऊर्जा थी। यह ऊर्जा उन्हें इस्लाम और ईसाई धर्म से नहीं मिल सकती थी। वे दूरदर्शी थे, साथ ही नये समाज के निर्माण की परिकल्पना उनके रचना संघर्ष में थी। वे इस बात से अवगत थे कि इस्लाम उनकी परिकल्पना को मूर्त रूप नहीं दे सकता और दलित भी उसे स्वीकार नहीं कर सकेंगे। यही कारण था कि उन्होंने इस्लाम को स्वीकार नहीं किया, हालांकि वे उसके सामाजिक दर्शन को पसंद करते थे। पर इस्लाम की ईश्वरवादी अवधारणा उनको पसंद नहीं थी, उसे स्वीकार करने का मतलब था, नियतिवादी बनना जो दलितों के लिए अत्यधिक आत्मघाती होता।
इसके मूल में, वास्तव में निर्गुण ईश्वर की अवधारणा थी, जो दलितों की सांस्कृतिक विरासत है। डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर के लिए यह एक क्रांतिकारी अवधारणा थी। यह दलितों के जीवन संघर्ष को आगे बढ़ा सकती थी। प्रतिरोध की संस्कृति को भी विकसित कर सकती थी। लेकिन, इस दलित धर्म की पुनः स्थापना एक कठिन समस्या थी। दलित संतों की मूल वाणी में ब्राह्मणों द्वारा कालांतर में तमाम प्रक्षिप्त पद जोड़ दिये गये और उसे ब्राह्मणवादी रंग दे दिया गया। संतों के चरित्राों के बारे में ऐसी ऐसी भ्रामक गल्पें जोड़ दी गयीं कि उनके ब्राह्मण भक्त होने का अहसास आसानी से किया जा सकता था। निःसंदेह इस विषय पर खोज पर काम किया जाना चाहिए और दलित संतों के सम्यक स्वरूप को सामने लाना चाहिए। पर एक अन्य समस्या यह भी है कि दलित संतों के नाम से ब्राह्मणों द्वारा अलग अलग जातीय पंथ या सम्प्रदाय बना दिये गये, जैसे कबीरपंथ, रैदासपंथ, दादूपंथ इत्यादि। ये पंथ विभिन्न दलित जातियों के बीच एकता स्थापित करने की दिशा में कोई काम नहीं कर सके, वरन उन्होंने जाति को और भी मजबूत किया। डॉ. आम्बेडकर जाति का विनाश चाहते थे। भले ही हिन्दू अपनी जाति को बना कर रखें, पर दलितों में जाति विहीन समाज की स्थापना जरूरी थी।
1935 में डॉ. आम्बेडकर ने धर्मान्तरण की घोषणा की थी। उन्होंने कहा था कि वे एक हिन्दू के रूप में मरना नहीं चाहते। क्या वे स्वयं को हिन्दू मानते थे? निश्चित रूप से नहीं, क्योंकि हम देखते हैं कि दलितों के राजनैतिक अधिकारों के मामले में वे दलित वर्ग को एक गैर हिन्दू अल्पसंख्यक वर्ग के रूप में अपनी अकाट्य दलीलों से ÷कम्यूनल अवार्ड' में स्थापित करा चुके थे। पर, इस जीती हुई लड़ाई को वे ÷पूना पैक्ट' में 1932 में हार चुके थे, जिसका एक मुख्य कारण यह था कि उस समय दलित वर्ग अत्यंत कमजोर था और उनके पक्ष में, उनकी सहायता करने वाला कोई नहीं था। अन्य धर्म वालों की दृष्टि में वह हिन्दुओं की ÷घरेलू लड़ाई' थी। ऐसी स्थिति में कम्यूनल अवार्ड के परिणामस्वरूप दलितों को पूरे देश में हिन्दुओं की भारी हिंसा का शिकार होने से बचाने के लिए पूना पैक्ट जरूरी हो गया था।
हिन्दू व्यवस्था में बलपूर्वक रखे जाने की यही पीड़ा डॉ. आम्बेडकर की इस घोषणा में अभिव्यक्त हुई थी कि यह उनके वश में है कि वे हिन्दू रह कर मरेंगे नहीं। इस घोषणा के बाद ही ईसाई और मुस्लिम प्रतिनिधियों ने अपने अपने धमोर्ं में आने के प्रस्ताव डॉ. आम्बेडकर के पास भेजे थे। इन धमोर्ं के कुछ मिशनरियों ने उनसे बातचीत भी की थी। तब डॉ. आम्बेडकर ने धमोर्ं का तुलनात्मक अध्ययन भी किया। राष्ट्रीयता का सवाल इस मामले में कोई समस्या नहीं था, जैसा कि कुछ हिन्दू लेखकों ने प्रचारित किया है। निश्चित रूप से उन्होंने धर्मों का अध्ययन भी दलितों की दृष्टि से किया। यह ÷दृष्टि' राजनैतिक नहीं थी, जैसा कि प्रायः कुछ लोगों द्वारा माना जाता है। राजनैतिक सत्ता का सवाल उनके मस्तिष्क में जरूर था, पर वह धर्मान्तरण का मूल सवाल नहीं था। मूल सवाल था सामाजिक समता और सम्मान प्राप्त करने का। इसी सामाजिक दृष्टि से उन्होंने धमोर्ं का तुलनात्मक अध्ययन किया।
इस अध्ययन का आधार क्या था? निश्चित रूप से वही धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्य थे, जो दलित संतों की परम्परा के रूप में दलितों में मौजूद थे। इस अध्ययन से उनके विचारबिन्दु निम्नलिखित थेᄉ
पहला, ईश्वरवाद से मुक्ति, क्योंकि इसी की आड़ में दलितों का सारा शोषण हुआ है। इसी के कारण आत्मा, भाग्य, पूर्व कर्म, पुनर्जन्म और स्वर्ग नर्क की अंधी धारणाएं पैदा हुई हैं।
दूसरा, वर्णव्यवस्था और जातिभेद से पूर्ण मुक्ति।
तीसरा, देवी देवताओं, अनुष्ठानों, तप तीर्थों, पूजा पाठ आदि से मुक्ति।
चौथा, स्वतंत्राता, समता और बंधुत्व के सामाजिक मूल्य।
पांचवां, सामाजिक परिवर्तन की स्वीकृति।
छठा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण।
सातवां, परम्परा की सुरक्षा
इन विचारबिन्दुओं में हम पहले परम्परा की सुरक्षा को लेते हैं। परम्परा की सुरक्षा से तात्पर्य दलित धर्म की मौलिक अवधारणा की सुरक्षा से है। डॉ. आम्बेडकर की दृष्टि में स्थापनाएं महत्वपूर्ण थीं, जो दलित धर्म के विशिष्ट तत्व हैं। इनको हम दलित धर्म के सिद्धांतों में व्यक्त कर चुके हैं, जो क्रमांक एक से तेरह तक हैं। इस परम्परा की सुरक्षा न ईसाइयत में थी और न इस्लाम में थी। डॉ. आम्बेडकर ने देखा कि बौद्ध धर्म इस परम्परा को सुरक्षित रखता है। बुद्ध वेदों का खंडन करते हैं, ब्राह्मण की श्रेष्ठता को नहीं मानते हैं। वे समतावादी हैं, स्त्रिायों की स्वतंत्राता के समर्थक हैं। वे शास्ता (गुरु) है, पथ प्रदर्शक हैं और वे संस्कृत को नहीं, लोक भाषा को महत्व देते हैं।
बुद्ध अनीश्वरवादी हैं, आत्मा और ब्रह्म को भी नहीं मानते हैं। इस तरह बौद्ध धर्म में परलोकवाद, भाग्यवाद, जन्म जन्मांतरवाद, अवतारवाद, स्वर्ग नर्क और अलौकिक सत्ता के सारे पाखंडों से मुक्ति मिल जाती है। यहां यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि दलित धर्म की परम्परा ईश्वरवादी है, फिर अनीश्वरवादी बुद्ध के धर्म को क्यों स्वीकार किया गया? इसे समझना कठिन नहीं है, यदि हम दर्शन की इस पूरी परम्परा को समझ लें। अनायोर्ं (मूल निवासियों) के दर्शन का विकास ÷लोकायत' में हुआ। लोकायत का विकास बौद्ध धर्म में हुआ तथा बौद्ध धर्म का विकास सिद्धों से होता हुआ कबीर, रैदास के दलित धर्म में हुआ। ÷लोकायत' (जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे) और बौद्ध धर्म दोनों अनीश्वरवादी हैं। पर लोकायत भौतिकवाद है जबकि बुद्ध का धर्म मध्यममार्गी है। दलित संतों ने भौतिकवाद और मध्यम मार्ग दोनों को स्वीकार किया है। किन्तु बुद्ध के अनीश्वरवाद का विकास दलित संतों के धर्म में ÷निर्गुणवाद' के रूप में हुआ है। दर्शन की दृष्टि से निर्गुणवाद अनीश्वरवाद का ही पर्याय है। यह किसी ऐसे ईश्वर को नहीं मानता जिसका गुण जन्म देना, मृत्यु देना, निर्माण और ध्वंस करना, दंड देना, स्वर्ग नर्क में लोगों को भेजना, अवतार लेना, किसी को अपना दूत बनाना और अपना शासन कायम करना हो। इसे संतों ने ÷आतम राम' कहा है, जो मनुष्य के भीतर ही है।
लेकिन दलित संतों की निर्गुणवादी धारा आगे चल कर विकृत हो गयी। उसका ब्राह्मणीकरण हो गया। कुछ ब्राह्मणों ने कबीरपंथी बन कर पूरे कबीर दर्शन को हिन्दू दर्शन में बदल दिया। इसलिए अनीश्वरवादी धर्म की जरूरत थी, जो बौद्ध धर्म के रूप में डॉ. आम्बेडकर को मिला।
बुद्ध जाति भेद के विरोधी थे। यह बुद्ध ही थे, जिन्होंने वर्ण व्यवस्था का खंडन करके सामाजिक क्षेत्रा में सबसे बड़ी क्रांति की थी। यह बुद्ध ही थे, जिन्होंने दलित जातियों के लोगों को भिक्षु संघ में दीक्षा देकर ब्राह्मणों की वर्णव्यवस्था को तोड़ा था। जाति भेद की व्यवस्था का समर्थन ईसाई और इस्लाम धर्म भी नहीं करते हैं, पर हिन्दुत्व के प्रभाव से भारत के ईसाई और इस्लाम समाज भी जाति भेद से मुक्त नहीं है। यद्यपि डॉ. आम्बेडकर यह मानते थे कि यदि ईसाइयों और मुसलमानों ने अपने आपस के जाति भेद को नष्ट करने का प्रयास किया, तो उनका धर्म उसमें बाधक नहीं बनेगा।35 लेकिन यह काम कब शुरू होगा, कुछ नहीं पता। सम्भवतः डॉ. आम्बेडकर यह जान गये थे कि ईसाई और मुस्लिम समाज अपना जाति भेद बनाये रखना चाहते हैं।
बुद्ध की सोच वैज्ञानिक थी। वे किसी बात को इसलिए मान लेने का निषेध करते थे कि वह किसी धर्मग्रंथ में लिखी है या किसी आचार्य, महापुरुष अथवा धर्मगुरु ने कही है, या परम्परा से मानी जाती रही है या उसे बहुत से लोग मानते हैं। उनकी शिक्षा थी कि किसी बात को तभी माना जाये, जब वह तर्क और अनुभव से सही साबित हो जाये। कबीर भी अनुभव को ही महत्व देते थे। यही उनका ÷आतम राम' था, यही विवेक था, यही सद्गुरु था।
अतः कहना न होगा कि डॉ. आम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति इसलिए आकृष्ट हुए थे, क्योंकि दलित धर्म के सिद्धांतों से उसकी पूर्ण संगति बैठती थी। वे अपने अध्ययन से इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि केवल बौद्ध धर्म ही दलित धर्म का नया रूप ले सकता है। नागपुर में, 1956 में अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म को स्वीकार करने पर उन्होंने कहा भी था कि ऐसा हो सकता है कि दूसरे लोग बौद्ध धर्म को दलितों का धर्म कहें। किसी समय ईसाई धर्म की आलोचना भी यही कह कर की जाती थी कि वह मछुआरों और गुलामों का धर्म है। पर, आज ईसाइयों की संख्या विश्व में सबसे अधिक है। बौद्ध धर्म यदि दलित धर्म बन जाता है तो भारत में यह एक महान सामाजिक क्रांति होगी।
बौद्ध धर्म के प्रति दलितों के आकर्षण का मुख्य कारण भी यही है कि उनमें कबीर रैदास आदि दलित संतों के दलित धर्म की परम्परा जीवित है, जो उन्हें बौद्ध धर्म से जोड़ती है। इसी परम्परा के कारण डॉ. आम्बेडकर ने दीक्षा कार्यक्रम में बाईस प्रतिज्ञाओं को भी शामिल किया। ये प्रतिज्ञाएं दलितों के लिए अनिवार्य कर दी गयीं। सवाल यह है कि ये प्रतिज्ञाएं क्यों अनिवार्य की गयीं? इसका कारण यह है कि ये प्रतिज्ञाएं नये बौद्धों को दलित धर्म के निर्गुणवाद से जोड़ती हैं। सम्भवतः यह इन बाईस प्रतिज्ञाओं का ही परिणाम है कि बड़ी संख्या में कबीर और रैदासपंथी साधु भी बौद्ध भिक्षु बन गये हैं। इन बाईस प्रतिज्ञाओं में आरम्भ की दस प्रतिज्ञाओं में यही निर्गुणवाद है, जो इस प्रकार हैंᄉ
1. मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश को कभी ईश्वर नहीं मानूंगा और न उनकी पूजा करूंगा।
2. मैं राम और कृष्ण को ईश्वर नहीं मानूंगा और न उनकी पूजा करूंगा।
3. मैं गौरी गणपति इत्यादि हिन्दू धर्म के किसी भी देवी देवता को नहीं मानूंगा और न उनकी पूजा करूंगा।
4. मैं इस पर विश्वास नहीं करूंगा कि ईश्वर ने कभी अवतार लिया है।
5. मैं इस बात पर विश्वास नहीं करूंगा कि भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार हैं। मैं ऐसे प्रचार को पागलपन का प्रचार समझूंगा।
6. मैं कभी श्राद्ध नहीं करूंगा और न कभी पिण्डदान करूंगा।
7. मैं बौद्ध धर्म के विरुद्ध किसी भी बात को नहीं मानूंगा।
8. मैं कोई क्रिया कर्म (संस्कार) ब्राह्मण के हाथ से नहीं कराऊंगा।
9. मैं इस सिद्धांत को नहीं मानूंगा कि सभी मनुष्य एक हैं।
10. मैं समानता की स्थापना के लिए प्रयत्न करूंगा।
ये प्रतिज्ञाएं न सिर्फ कबीर और रैदास के निर्गुण को व्यावहारिक रूप प्रदान करती हैं, बल्कि नव बौद्धों को हिन्दुत्व से भी अलग करती हैं। यदि यह कहा जाये तो कदाचित गलत न होगा कि डॉ. आम्बेडकर ने इन प्रतिज्ञाओं को सीधे कबीर रैदास के दर्शन से ही लिया है।
अब इस सवाल को आसानी से समझा जा सकता है कि ब्राह्मण चिन्तन यह प्रचार क्यों कर रहा है कि बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म का ही एक अंग है? बौद्ध धर्म जिस तेजी से दलित धर्म का रूप ले रहा है और सामाजिक क्रांति की आंधी पैदा कर रहा है, उसे रोकने के लिए ब्राह्मण चिन्तन भी पूरी तेजी से सक्रिय है। अतः वह बौद्ध धर्म का हिन्दूकरण करने की साजिश यह प्रचार करके कर रहा है कि बुद्ध हिन्दू देवता विष्णु के अवतार थे। लेकिन डॉ. आम्बेडकर ने नव बौद्धों को बाईस प्रतिज्ञाएं करा कर ब्राह्मणों की इस साजिश को नाकाम कर दिया है।

संदर्भ
1. डॉ. आम्बेडकर सम्पूर्ण वांड्मय, हिन्दी, खंड-9 पृष्ठ 22-23
2,3. चमार, जी. डब्ल्यू. ब्रिग्गस, हिन्दी अनुवाद, जयप्रकाश ÷कर्दम', पृष्ठ-10-11
4.5.6. वही
7. डॉ. आम्बेडकर सम्पूर्ण वांड्मय,(हिन्दी) खंड-9 पृष्ठ 89
8,9. मनुस्मृति 10/45 पृष्ठ 349
10. डॉ. आम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्मय खंड-9 पृष्ठ 157-58
11. ऋग्वेद 10/22/8
12. भारतीय संस्कृति और अहिंसा, धर्मानंद कोसम्बी, पृष्ठ 43
13. भारत में अंग्रेजी राज, सुंदरलाल, पृष्ठ 58
14. कबीर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, (कबीरवाणी) पृष्ठ 179
15. भारत में अंग्रेजी राज, सुंदरलाल, पृष्ठ 58 16. वही, पृष्ठ 56
17. कबीर ग्रंथावली, श्यामसुंदर दास, पद 40 पृष्ठ 79
18. भारत में अंग्रेजी राज, सुंदरलाल, पृष्ठ 56
19. संत रैदास एक विश्लेषण, कंवल भारती, पृष्ठ 138
20. संत प्रवर रैदास, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, पृष्ठ 154
21. संत रैदास एक विश्लेषण, कंवल भारती, पृष्ठ 169
22. वही 23. वही, पृष्ठ 167 24. वही, पृष्ठ 162 25. वही, पृष्ठ 167 26. वही, पृष्ठ 186
27. भारत में अंग्रेजी राज, सुंदरलाल पृष्ठ 64
28. कबीर ग्रंथावली श्यामसुंदर दास, पद 163, पृष्ठ 247
29. तेरा साईं तुज्झ में (कबीरवाणी) भगवान श्री रजनीश, पृष्ठ 131
30. कबीर ग्रंथावली, श्यामसुंदर दास, पद 58, पृष्ठ 83
31. वही, चांणक कौ अंग-10 पृष्ठ 28 32. वही, पद 59, पृष्ठ 83
33. आलोचना, सं. नामवर सिंह, अप्रैल जून 2000, लेख कबीर को भगवा, पृष्ठ 312
34. कबीर ग्रंथावली, श्यामसुंदर दास, पद 62, पृष्ठ 84
35. पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, डॉ. आम्बेडकर, हिन्दी अनुवादक दयाराम जैन, पृष्ठ 46-47 
नोट -यह लेख हो सकता है की मेरे बहुत से भाइयो के गले नहीं उतरे पर मुझे लगा की यह सभी को पढ़ाना चाहिए इस कारण कोपी पेस्ट कर दिया सभी के लिए ,,लेख के एक भी सब्द मेरे नहीं है ....

!! वर्तमान को जियो !!

"जो हो गया सो गया," अब चिंता करना व्यर्थ है।’ जो गुजर चुका, उसे तो लौटाया नहीं जा सकता, लेकिन हम अपने वर्तमान को अपने हिसाब से जीकर अपने भविष्य को अवश्य संवार सकते हैं। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि जिन लोगों को वर्तमान को जीने का सलीका नहीं आता, उनका भविष्य निश्चय ही अन्धकारमय है। वहीं जिन लोगों ने वर्तमान को सम्पूर्णता से जीना सीख लिया है, वे इस बात की आशा अवश्य कर सकते हैं कि उनका भविष्य सुन्दर और सुखद ही होगा।
मित्रों, सब कुछ भूलकर अपने वर्तमान को जियो। वर्तमान ही सत्य है। एक क्षण बाद क्या होने वाला है, कुछ नहीं कहा जा सकता। यद्यपि वर्तमान को पूर्णता से जीने के बाद इस बात की उम्मीद एवं आशा अवश्य की जा सकती है कि हमारा आने वाला कल भी सुन्दर और सुखद होगा। अतः वर्तमान को सम्पूर्णता से जियें। आज से और इसी क्षण से अपने वर्तमान में रस लेना शुरू करें। वर्तमान को पूर्णता और सम्पूर्णता से जीने के लिये अपने दैनिक जीवन में कुछ परिवर्तन लाने होंगे:
  • सबसे महत्वपूर्ण है, खुद के प्रति, अपनों के प्रति और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रति सकारात्मक विचार और सोच रखें।
  • आशावादी बनें। निराशाओं को त्यागें। दुनिया अच्छी है और उम्मीद करें कि और अधिक अच्छी बन सकती है।
  • दूसरों की बातों को सुनें। दूसरों के अनुभवों से सीखें। जरूरी नहीं कि आप स्वयं ही हर बात को सिद्ध करें। लोगों ने जिन बातों को अपने अनुभव से बार-बार सिद्ध किया है, उनमें आस्था पैदा करें।
  • चीजों या परिस्थितियों को कोसना छोडें और उन्हें जैसी हैं, वैसी ही स्वीकारना शुरू करें। अस्वीकार, नकारात्मकता और स्वीकार, सकारात्मकता है।
  • निराशा- असमय मृत्यु और आशा- जीवन की वीणा है।
  • निराशा और नकारात्मकता दोनों ही चिन्ता, तनाव, क्लेश और बीमारियों की जननी हैं, जबकि आशा और सकारात्मकता जीवन में आनन्द, प्रगति, सुख, समृद्धि और शान्ति का द्वार खोलती हैं, जिससे जीवन जीने का असली मकसद पूरा होता है।
अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम किसका चुनाव करते हैं? निराशा के सन्नाटे का या आशा की वीणा की झंकार का? चुनाव हमारे अपने हाथ में है।