सोमवार, 12 दिसंबर 2011

भारतीय संबिधान के निर्माता कौन ?

संविधान सभा का निर्माण भारतीय संविधान की रचना कि लिए किया गया था। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद जुलाई १९४५ में ब्रिटेन में एक नयी सरकार बनी। इस नयी सरकार ने भारत संबन्धी अपनी नई नीति की घोषणा की तथा एक संविधान निर्माण करने वाली समिति बनाने का निर्णय लिया। भारत की आज़ादी के सवाल का हल निकालने के लिये ब्रिटिश कैबिनेट के तीन मंत्री भारत भेजे गये। मंत्रियों के इस दल को कैबिनेट मिशन के नाम से जाना जाता है। १५ अगस्त, १९४७ को भारत के आज़ाद हो जाने के बाद यह संविधान सभा पूर्णतः प्रभुतासंपन्न हो गयी। इस सभा ने अपना कार्य ९ दिसम्बर १९४७ से आरम्भ कर दिया। संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे। जवाहरलाल नेहरूजी, डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी, सरदार वल्लभ भाई पटेल जी , श्यामा प्रसाद मुखर्जीजी, मौलाना अबुल कलाम आजाद जी आदि इस सभा के प्रमुख सदस्य थे। अनुसूचित वर्गों से ३० से ज्यादा सदस्य इस सभा में शामिल थे। श्री सच्चिदानन्द सिन्हा जीइस सभा के प्रथम सभापति थे | किन्तु बाद में डॉ राजेन्द्र प्रसाद को सभापति निर्वाचित किया गया। भीमराव रामजी आंबेडकर जी  को निर्मात्री सिमित का अध्यक्ष चुना गया था। संविधान सभा ने २ वर्ष, ११ माह, १८ दिन मे कुल १६६ दिन बैठक की। इसकी बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी।संबिधान के निर्माण में हमेसा से ही बिवाद होते रहते है की यह संबिधान सिर्फ बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर जी ने ही रचना किया है ,तो यह एक मात्र भ्रम है ,संबिधान का निर्माण किसी एक ब्यक्ति के बस की बात नहीं थी ,बल्कि संबिधान सभा के सभी सदस्यों के सहयोग से बना है ,यह भारतीय संबिधान !
  • Sanjay Phakey, Jawaharlal Nehru, C. Rajagopalachari, Rajendra Prasad, Sardar Vallabhbhai Patel, Sandipkumar Patel, Dr Ambedkar, Maulana Abul Kalam Azad, Shyama Prasad Mukherjee, Nalini Ranjan Ghosh, and Balwantrai Mehta were some important figures in the Assembly. There were more than 30 members of the scheduled classes. Frank Anthony represented the Anglo-Indian community, and the Parsis were represented by H. P. Modi. The Chairman of the Minorities Committee was Harendra Coomar Mookerjee, a distinguished Christian who represented all Christians other than Anglo-Indians. Ari Bahadur Gururng represented the Gorkha Community. Prominent jurists like Alladi Krishnaswamy Iyer, B. R. Ambedkar, Benegal Narsing Rau and K. M. Munshi, Ganesh Mavlankar were also members of the Assembly. Sarojini Naidu, Hansa Mehta, Durgabai Deshmukh, Rajkumari Amrit Kaur and Vijayalakshmi Pandit were important women members. The first president of the Constituent Assembly was Dr Sachidanand Sinha. Later, Rajendra Prasad was elected president of the Constituent Assembly.[7] The members of the Constituent Assembly met for the first time on 9 December 1946.[7]
संविधान बनाने में आंबेडकर का योगदान ..........................( हसना मना हँ).... :))by dinesh Triphati

संविधान सभा की प्रमुख 13 समितियां :-

... समिति ----------------------अध्यक्ष
...
नियम समिति -------------------डॉ. राजेंद्र प्रसाद
संघ शक्ति समिति --------------- पं जवाहर लाल नेहरू
संघ संविधान समिति------------ पं जवाहर लाल नेहरू
प्रांतीय संविधान समिति ---------सरदार वल्लभ भाई पटेल
संचालन समिति------------------ डॉ. राजेंद्र प्रसाद
प्रारूप समिति --------------------डॉ. भीमराव अम्बेडकर
झण्डा समिति --------------------जे. बी. कृपलानी
राज्य समिति--------------------- पं जवाहर लाल नेहरू
परामर्श समिति ------------------सरदार वल्लभ भाई पटेल
सर्वोच्च न्यायालय समिति -------एस. वारदाचारियार
मूल अधिकार उपसमिति---------- जे. बी. कृपलानी
अल्पसंख्यक उपसमिति -----------एच. सी. मुखर्जी

संविधान सभा के प्रमुख सदस्य:-

कांग्रेसी सदस्य -- पं जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, के. एम. मुंशी ,टी. टी. कृष्णामाचारी, बालगोविंद खेर, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन , मौलाना अबुलकलाम आज़ाद, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, आचार्य जे.बी. कृपलानी, पं. गोविंद बल्लभ पंत, डॉ. राजेंद्र प्रसाद

ग़ैर कांग्रेसी सदस्य ------- डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी , एन. गोपालास्वामी आयंगर, पं. हृदयनाथ कुंजरू , सर अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर ,टेकचंद बख्शी ,प्रो. के. टी. शाह, डॉ. भीमराव अम्बेडकर ,डॉ. जयकर

महिला सदस्य ------------सरोजिनी नायडू , श्रीमती हंसा मेहता ,

सदस्यता अस्वीकार करने वाले व्यक्ति ---- जयप्रकाश नारायण, तेजबहादुर सप्रू

उम्मीद हँ आप लोग सारी असलियत समझ गए होंगे ...................:)

उम्मीद हँ बाबा साहब के बहुत भारी योगदान को देखते हुए आप सभी उनके आगे नतमस्तक हुए जा रहे होंगे
अभी भी नहीं हो रहे हँ तो एक बात और जान लीजिये '''' तथाकथित ''' और स्वयंभू मूलनिवासी , कपोल कल्पित मूलनिवासी की पटकथा लिखने वाले एक जाती वेशेष के तथाकथित भगवान् और प्रातः स्मरणीय श्रीमान बाबा जी ने मूल संविधान ''''' अंग्रेजी में''''' लिखा था
जिसमे भारत के लिए भारत और इंडिया इन दोनों ही शब्दों का प्रयोग किया गया | ......................:))
अगर अब भी आप उनके सामने नतमस्तक नहीं होते हँ तो आपका दुर्भाग्य ..... :(
फिर तो बौद्धों के सबसे बड़े अवतार दलाई लामा और उनका सहयोगी अवतारी स्टाफ '' उग्येन त्रिन्ले दोरजी '' आदि जो की उनके साथ ही साथ हमेशा अवतार लेते रहते हँ , वे लोग भी आपके लिए कुछ नहीं कर पाएंगे
अपने दुर्भाग्य के जिम्मेदार आप स्वयं हँ .......

नोट --अभी लेख पूर्ण नहीं हुआ है

क्या मायावती जी मनुवादी नहीं है ?

आप को कांशीराम और मायावती द्वारा कभी उछाला गया एक नारा शायद आज भी भूला ना हो। “तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार।” याद आया ना? यह वो समय था जब मा0 कांशीराम और आदरणीय मायावती हाशिए पर थे। किस्मत के धनी अवश्य थे पर उस समय तक किस्मत के दरवाजे खुल नहीं पाए थे। वक्त कब करवट बदल ले कौन जानता है। और आया भी वो दिन जब वक्त ने इन्हे सिकंदर भी बना दिया, और फिर मगरूर, अब बारी है पतन की।
दुनिया का विकास ही बताता है कि हम आगे तभी जा सकते हैं जब किसी को उसके अधिकारों से वंचित कर दें और उन्हे हड़प लें। सब ने यही किया है सिवाय कुछ महापुरुषों को छोड़ कर। अब भला माया नाम होने से क्या माया मिल जाएगी और यदि वक्त मेहरबान हो गया और माया मिल गई तो क्या उससे वो संस्कार खरीदे जा सकेंगे जो महामानवों के होते हैं? माया को तो वैसे भी ॠषियों मुनियों ने ठगिनी बताया है।
मेरा मकसद अध्यात्म नहीं, बस प्रसंगवश लिख दिया, असली बात है कि किस तरह लोग अपना ध्येय भूल जाते हैं और जिसके विरोध से वे आगे बढ़ते हैं बाद में उसी का अनुसरण करने लगते हैं। मायावती जी भी गरीबों और दलितों का दुख बाँट्ने आईं थी मगर आज उनके दुख का वे खुद कारण है। अपने लिए ऐशोआराम की चीजों को जुटाना और फिर कुतर्क देना कि दलित कि बेटी को क्या यह हक़ नहीं है? किस तरह से उचित हो सकता है? अगर यह हक़ एक को है तो दूसरे को क्यों नहीं? क्या माया जी ने कभी अपनी जमात के लिए कुछ सोचा? आज समाज की समरसता को बिगाड़ने वाली बातें ही ज्यादा हो रही हैं।
मनु ने तो कर्म के आधार पर जाति बनाई थी क्या मायावती उस स्वच्छ परंपरा को लागू कर पाएँगी या फिर ब्राह्मणों से पैर छुलवाकर अपने को धन्य मानती रहेंगी। जब एक सरकारी अधिकारी से पैर की धूल झड़वाना उनके लिए गलत नहीं है तो फिर उन्हे हक़ नहीं कि वो किसी को दोष दें या मनुवाद की बात करें। एक परिवार से एक को आरक्षण लागू करें और सभी को फटाफट आरक्षण दिलाएँ मगर माया ने ऐसा कर दिया तो भला तपती धूप में कौन इनकी जैकार करेगा।
ये सब राजनीतिज्ञ हैं, जनता का खून पीनेवाले पिशाच इनसे बच गए तो ठीक वरना इनकी हवस की आग सब ख़ाक कर देगी।

'जय भीम' बोलना बंद करें दलित- अनिल चमडिया

भारत की आत्मा है हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक एकता


 ‘साझा संस्कृति’ का एक प्रमुख तत्व है- ‘हिंदू-मुस्लिम सद्भाव’ तथा संस्कृति में हिंदू-मुस्लिम संस्कृतियों का एक-दूसरे में घुल-मिल जाना और इसी आत्मसातीकरण की दुहरी प्रक्रिया में भारतीय संस्कृति की आत्मा का निर्माण हुआ है। ‘साझा संस्कृति’ की अवधारणा का यह केंद्रीय बिंदु है। ‘साझा संस्कृति’ का मतलब ‘हिंदू-मुस्लिम एकता’ भर नहीं है बल्कि इसे बृहत्तर अर्थों में ग्रहण किया जाना चाहिए। भारतीय ज्ञान-विज्ञान, रहन-सहन, खान-पान, ललितकलाएं आदि सभी में ‘साझा संस्कृति’ की परंपरा घुली-मिली है। सांप्रदायिक विचारधारा साझा संस्कृति का मुखर विरोध करती है, इसके पीछे मूल मकसद है भारतीय संस्कृति की आत्मा की ही हत्या कर देना।
भारतीय संस्कृति में से मुस्लिम अवदान या इस्लाम के अवदान को निकाल देने का मतलब है देश को सांस्कृतिक रूप से खत्म कर देना। आधुनिक दौर में फासिज्म ही एक मात्र ऐसी वियारधारा है जो संस्कृति को खत्म करती है, बर्बरता को स्थापित करती है। यूरोप में फासिस्ट विचारधारा को जैसा आधार एवं अवसर संस्कृति पर प्रत्यक्ष हमला करने का मिला था, अगर वैसा अवसर हमारे यहां सांप्रदायिकता को मिल जाए तो वह उसी भूमिका को अदा करेगी।
बाबरी मस्जिद प्रकरण के दौरान मुस्लिम विरोधी उन्माद को सबने देखा है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सांप्रदायिक शक्तियों का चुनाव जीतकर सत्तारूढ़ हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। हिटलर भी लोकतंत्र के वोटों से ही आया था। मूल बात है सांप्रदायिक विचारधारा, यह विचारधारा फासिज्म का भारतीय प्रतिरूप है। इसे सांप्रदायिक दंगों, सांप्रदायिक दलों मात्र में सीमित करके नहीं देखना चाहिए बल्कि बृहत्तर विचारधारात्मक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा जाना चाहिए।
सांप्रदायिक विचारधारा ने पिछले कुछ वर्षों में अपना जनता से सीधे संवाद बनाया है। जबकि, धर्मनिरपेक्ष विचारधारा अभी जनता में पूरी तरह पहुंची नहीं है। साझा संस्कृति के खंडित हो जाने की जो लोग बात करते हैं, वे संस्कृति को बहुत सीमित अर्थों में ग्रहण करते हैं, जबकि साझा संस्कृति हमारी सांस्कृतिक आत्मा में समा चुकी है। उसे आसानी से नष्ट करना बेहद मुश्किल है। साझा संस्कृति पर हमले की बृहत्तर योजना के तहत ही मुसलमानों को देश से बाहर चले जाने की बात उठाई गई है। इस्लाम धर्म एवं मुसलमानों के अवदान को नकारा जा रहा है। अभी इस अवदान को नकारा जा रहा है। कालांतर में सांप्रदायिक विचारधारा देश में सत्तारूढ़ होने में सफल हो जाए तो वह उन सभी बहुमूल्य तत्वों को चुन-चुनकर नष्ट भी करेगी, जिनका किसी भी रूप में इस्लाम या मुसलमान से कोई नाता रहा हो। क्या हम साझा संस्कृति में से उन तत्वों को निकाल सकते हैं जिनके निर्माण में मुसलमानों एवं इस्लाम धर्म की निर्णायक एवं आविष्कारक की भूमिका रही है। उन आविष्कारों को देश की विरासत से निकालने का मतलब होगा, बर्बरता के युग में लौटना दूसरी बात यह कि क्या साझा संस्कृति के तत्व पूरी तरह खंडित हो गए हैं, या नकारा हो गए हैं?
साझा संस्कृति के अनेक महत्वपूर्ण तत्व आज भी जिंदा हैं और जब तक सभ्यता रहेगी तब तक जिंदा रहेंगे। ये तत्व साझा संस्कृति की धुरी हैं। वे तत्व क्या हैं-
1. सूफी संत परंपरा एवं सूफी साहित्य हमारी साहित्यिक परंपरा का अभिन्न अंग हैं। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती से लेकर मलिक मुहम्मद जायसी तक सभी सूफी संतों एवं कवियों की भारतीय संस्कृति में जुडे हैं और वे घुल-मिल गए हैं। सूफी संतों-कवियों का प्रेममार्गी साहित्य हमारी साझा संस्कृति का स्फटिक है।
2. हिंदी साहित्य का पहला कवि अमीर खुसरो हमारा साहित्यिक पूर्वज है और साझा संस्कृति का जनक भी। अमीर खुसरो को बहिष्कृत कर देंगे तो हम साहित्यिक अनाथ हो जाएंगे ? हिंदी साहित्य के लिए अमीर खुसरो वैसे ही आवश्यक है जैसे कि मनुष्य के लिए वायु।
3. साझा संस्कृति में शामिल इस्लाम एवं मुस्लिम अवदान को खारिज कर देंगे तो हमारे पास बचेगा क्या? यह सच है कि भारत में कागज एवं बारूद के आविष्कारक मुसलमान थे, आज ये दोनों ही वस्तुएं देश की सुरक्षा एवं ज्ञान के लिए आवश्यक हैं। क्या साझा संस्कृति की सर्जना से कागज एवं बारूद को बहिष्कृत किया जा सकता है? क्या आधुनिक जीवन में यह संभव है?
4. मुसलमानों ने ही मीनाकारी एवं बीदरी का काम शुरू किया। धातुओं पर कलई करके चमक लाने के आविष्कारक वही थे। यह कला ईरान से भारत आई। मुगल राजकुमारों ने ही कपड़े पर कढ़ाई एवं जरी की असंख्य डिजाइनों का आविष्कार किया। इत्रों की खोज की। आज हम सबके जीवन में ये चीजें घुल-मिल गई हैं।
5. साझा संस्कृति के जनक अमीर खुसरो ने ही कव्वाली, तराना का श्रीगणेश किया था। जिलुफ, सरपदा, साजगीरी जैसे रागों को जन्म दिया। अमीर खुसरो ने नायक गोपाल के साथ मिलकर ही सितार एवं तबला का आविष्कार किया। क्या सितार और तबला को बहिष्कृत कर सकते हैं?
6. साझा संस्कृति हिंदू-मुसलमान का शारीरिक सहमेल एवं एकता का मोर्चा मात्र नहीं है बल्कि इससे बढ़कर है। वह एक विचारधारात्मक शक्ति है। हिंदू-मुस्लिम संस्कृति के सहमिलन के कारण ही अनेक अरबी एवं फारसी राग भारतीय संस्कृति में घुल-मिल गए हैं। वे साझा संस्कृति के ही अंग हैं। इनमें कुछ हैं-जिलुक, नौरोज, जांगुला, इराक, यमन, हुसैनी, जिला दरबारी, होज, खमाज ये सभी जनता एवं राजा दोनों में ही लोकप्रिय रहे हैं। भारतीय संगीत की ध्रुपद परंपरा मरणोन्मुखथी पर मुगल दरबारों के संरक्षण के कारण ही बच पाई जिसे कालांतर में तानसेन ने चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया।
7. जौनपुर के सुल्तान हुसैन ने प्रसिद्ध राग हुसैनी, कान्हडा और तोड़ी का आविष्कार किया था। उसके दरबार में हिंदू और मुसलमान दोनों समुदाय के विद्वान थे जिनमें-नायक बख्श, बैजू (बावरा), पांडवी, लोहुंग, जुजूं, ढेंढी और डालू के नाम प्रमुख हैं। अकबर के नवरत्नों में तानसेन सर्वोपरि था।
8. जहांगीर के दरबार में चतरखा, पार्विजाद, जहांगीर दाद, खुर्रम दाद, मक्कू, हमजान और विलास खां (तानसेन का बेटा) प्रमुख थे, जिनका संगीत की साझा परंपरा बनाने में बड़ा योगदान है।
9. मोहम्मद शाह रंगीला ने नादिरशाह के आक्रमण के बावजूद अदारंग, सदारंगा और शोरी आदि के जरिए संगीत की परंपरा को सुरक्षित रखा जिसमें सदारंगा ने ख्याल का आविष्कार किया। हालांकि इसके साथ हुसैन शाह सरकी को भी जोड़ा जाता है। शोरी ने पंजाबी टप्पा को दरबारी राग में रूपांतरित किया। इन सबके अलावा रेख्ता, कौल, तराना, तख्त गजल, कलबना, मर्सिया और सोज के भी गायक थे। वजीर खां ख्याली, फिदा हुसैन सरोदिया, मुहम्मद अली खां रूबाइया को क्या हम साझा संस्कृति से काट सकते हैं? इससे भी बड़ी बात यह कि क्या संस्कृति में संगीत आता है या नहीं? यदि हां तो फिर संगीत परंपरा की उपेक्षा क्यों? क्या यह हमारे संकीर्ण नजरिए का द्योतक नहीं हैं?
10. मुस्लिम संगीतकारों ने कुछ प्रमुख वाद्य यंत्रों का भी आविष्कार किया था। जिनमें कुछ हैं-सारंगी, दिलरूबा, तौस, सितार, रूबाब, सुरबीन, सुर सिंगार, तबला और अलगोजा। मुसलमानों की मदद से ही शहनाई, उन्स (रोशन चौकी) और नौबत (नगाड़ा) का आविष्कार हुआ था। तारों को झंकृत करने वाली मिजराब, मुस्लिम खोज का ही परिणाम है। क्या संगीत की इतनी लंबी परंपरा एवं अवदान को भारतीय संस्कृति और साझा संस्कृति से निकालकर हम अपने समाज को बर्बरता के युग में नहीं ले जाएंगे? संगीत हमारी साझा संस्कृति का बहुमूल्य रत्न है, वह हमारे दिलों को जोड़ता है हमें और ज्यादा मानवीय बनाता है। संगीत की परंपरा में हिंदू मुसलमान का और मुसलमान हिंदू का शिष्य बनता रहा है और दोनों अपने गुरू को देवता की तरह मान्यता देते रहे हैं।
11. ‘साझा संस्कृति’ का यह दायरा संगीत तक ही नहीं है बल्कि चित्रकला एवं स्थापत्य इसके प्रमुख रूप हैं। सांप्रदायिक विचारधारा ने बाबरी मस्जिद प्रकरण के संदर्भ में साझा संस्कृति की धरोहर ऐतिहासिक पुरातात्विक निधि को ही अपना निशाना बनाया है और इसी तरह की 3,000 मस्जिदें हैं जिनको गिराकर वे मंदिर बनाना चाहते हैं। यूरोप में फासिज्म ने सत्ता पर काबिज होने के बाद संस्कृति को नष्ट किया था। सांप्रदायिक शक्तियां जनता के नाम पर नीचे से दबाव डालकर ऐसा कर रही हैं। यह अचानक नहीं है कि वे मुगलकालीन स्थापत्य को नष्ट करना चाहती हैं बल्कि यह सोची-समझी योजना का हिस्सा है। इस बार स्थापत्य है, अगली बार समूची संस्कृति होगी। अत: इस रणनीति को विफल करना साझा संस्कृति के पक्षधरों की सबसे बड़ी जरूरत है।
12. साझा संस्कृति के एक अन्य तत्व चित्रकला को हम लोग अभी भी भूले नहीं है। चित्रकला में मुगलशैली का अवदान बेमिसाल है और गर्व की वस्तु है। मुगलदरबारों में यह अमूमन होता था कि अगर मुस्लिम चित्रकार ने खाका बनाया है तो हिंदू चित्रकार ने रंग भरे हैं। अकबरनामा में आदम खां के प्राणदंड वाले चित्र का खाका मिस्कीं ने खींचा, पर रंग शंकर ने भरे थे। एक दूसरे चित्र का खाका मिस्कीं ने खींचा रंग सरवन ने भरे, चेहरानामी तीसरे चित्रकार ने किया और सूरतें माधो ने बनाईं।
मुगल शैली का भारतीय चित्रकला पर प्रभुत्व ढाई सौ साल रहा। इस बीच हजारों चित्र बने। दरबारों में सैकड़ों चित्रकारों को संरक्षण मिलता था। स्वयं अबुल फजल ने सौ चित्रकारों का उल्लेख किया है जिनमें सत्रह प्रधान चित्रकार थे, जिनके चित्रों पर हस्ताक्षर मिलते हैं। 1600 ई. में तैयार की गई हस्तलिपि वाकियाते बाबरी में 22 चित्रकारों के हस्ताक्षर हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि इनमें हिंदू चित्रकार अधिक हैं। अबुल फजल ने जिन 17 कलाकार-चित्रकारों का जिक्र किया है, उनमें मात्र चार मुसलमान हैं और तेरह हिंदू हैं। इसी तरह रज्मनामा के हस्ताक्षरों में 21 नाम हिंदुओं के हैं, सात मुसलमानों के हैं। मुगलशैली का राजपूत शैली एवं दकनी शैली पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। क्या आज हम मुगल शैली के प्रभाव को साझा संस्कृति से बहिष्कृत कर सकते हैं? क्या चित्रकला की परंपरा इस अवदान को भूल सकती है? चित्रकला को मुगल शैली की बहुत बड़ी संपदा ब्रिटिश साम्राज्यवादी लूटकर ले गए, पर कला इतिहास की पुस्तकों में इस परंपरा का विस्तृत वर्णन मिलता है। बेहतर होता कि भारत के शासक वह कलाकृतियां किसी भी रूप में वापस लाने का प्रयास करते।
13. मुगलों के अवदान के कारण ही भारतीय पहनावे में भारी परिवर्तन आया। यहां तक कि शिवाजी और महाराणा प्रताप तक भव्य मुगल पोशाकें पहनते थे। भारतीय पोशाक अचकन और पजामा मुगलों की देन है। तुर्क, पठान और मुगलों द्वारा प्रचलित जुराब और मोजा, जोरा और जाया, कुर्त्ता और कमीज,ऐचा, चोगा और मिर्जई भारतीय वस्त्र परंपरा का अभिन्न अंग है।
14. भारतीय जीवन शैली में हिंदू वधू को मुसलमानों का सबसे महत्वपूर्ण उपहार है नथ। आज नथ हिंदू औरत की सुंदरता का प्रतीक है। इसके आविष्कारक मुसलमान ही थे। मुगलों ने ही हिंदू दूल्हें के सिर पर सेहरा और मौर बांधा। सबसे अद्भूत बात है ‘रोटी’ का भारतीय शब्द-भंडार में समा जाना, ‘रोटी’ (फुलका या चपाती) शब्द तुर्की शब्द ‘रोती’ का सहजिया है। जिस पर रोटी सेंकते हैं वह होता है ‘तवा’ यह भी मुगलों की ही देन है। क्या ये सब ‘साझा संस्कृति’ में आज भी बरकरार नहीं हैं? तब ‘कंपोजिट कल्चर’ के खत्म हो जाने की बात बेबुनियाद है। वह कंपोजिट कल्चर खत्म हुई है जिसे बुर्जुआजी नेताओं एवं नेहरू ने विशेष रूप से उछाला था और यह बुर्जुआजी की तात्कालिक रणनीति से उपजी इकहरी धारणा थी।
15. उर्दू साहित्य की परंपरा एवं अवदान को सभी जानते हैं जिसे मैं दोहराना नहीं चाहता। सांप्रदायिक विचारधारा का साझा संस्कृति पर किया गया वैचारिक हमला वस्तुत: हमें संस्कृतिहीन एवं अमानवीय दिशा में ले जाने की एक कोशिश भर है। इस बार हमला स्थापत्य पर है, सन् 1977-78 के वर्षों में इतिहास की पुस्तकों पर था। विशेषकर उन पुस्तकों पर जो सांप्रदायिक इतिहास लेखन के बजाय वैज्ञानिक इतिहास लेखन पर बल देती थीं। साझा संस्कृति को अगर कोई खतरा है तो सांप्रदायिक विचारधारा और राज्य की निष्क्रिय-कमजोर धर्मनिरपेक्षता से जिसका सांप्रदायिक संगठन लाभ उठा रहे हैं।
बुर्जुआ विचारकों एवं दलों ने साझा संस्कृति पर होने वाले हमलों को कानून एवं व्यवस्था का मसला बना दिया है, वह इस हमले की विचारधारा से टकराना नहीं चाहते और न ही साझा संस्कृति का संवर्धन करना चाहते हैं क्योंकि बुर्जुआ मूलरूप से संस्कृति का शत्रु होता है और मासकल्चर का संवर्द्धक होता है। क्लासिक रचनाओं और उस युग के अवदान को वह नापसंद करता है। उनसे घृणा करता है, इसलिए वह कभी भी साझा संस्कृति का रक्षक भी नहीं हो सकता। विभिन्न कलारूपों एवं उर्दू भाषा के प्रति उसका विद्वेषभाव जग जाहिर है। अत: नेहरू की तर्ज पर साझा संस्कृति न तो समझी जा सकती है, न उसका संवर्धन संभव है। साझा संस्कृति की शक्ति, सीमा एवं संभावनाएं मार्क्सीय दृष्टि से ही समझी जा सकती हैं।

मुसलमानों की हालत के लिये उनकी मज़हबी सोच भी ज़िम्मेदार

मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा को लेकर अकसर यह बहस होती रही है कि वे दीनी तालीम को ही असली शिक्षा क्यों समझते हैं? आजकल मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की ज़ोरशोर से वकालत की जा रही है। हम यहां इस बात पर चर्चा नहीं करना चाहते कि यह कवायद इस समय यूपी का चुनाव नज़दीक देखकर मुसलमानों को वोटों के लिये पटाने के लिये की जा रही है या वास्तव में उनका भला करने की नीयत है? अगर उनका वाक़ई कल्याण करना है तो केवल आरक्षण से काम नहीं चलेगा। यह सवाल जल्दी ही सामने आ जायेगा कि दलितों की तरह उनके लिये नौकरियां तो उपलब्ध करा दी गयीं लेकिन वे इतने पढ़े लिखे हैं ही नहीं कि उनको आरक्षित नौकरी भी दी जा सके।
एक आंकड़ें से इस बात को समझा जा सकता है। एक शिकायत यह की जाती है कि मुसलमानों की आबादी तो देश में सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 13.5 प्रतिशत है जबकि खुद मुसलमान इस प्रतिशत को सही नहीं मानते और असली आबादी 20 परसेंट से भी अधिक बताते हैं और भागीदारी सरकार की ए क्लास सेवाओं में मात्र एक से दो प्रतिशत है। इसका कारण उनके साथ पक्षपात होना बताया जाता है जबकि हमें यह बात पूरी तरह ठीक इसलिये नज़र नहीं आती क्योंकि एक तो भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिये चयन का तरीका इतना पारदर्शी और निष्पक्ष है कि उसमें भेदभाव की गुंजाइश ही नहीं है। इसका सबूत दारूलउलूम के एक मौलाना और कश्मीर का वह युवा फैसल है जिसने कुछ साल पहले आईएएस परीक्षा में टॉप किया था।
एक वजह और है। इस तरह की सेवाओं के लिये ग्रेज्युएट होना ज़रूरी है जबकि मुसलमानों में स्नातक पास लोगों की दर 3.6 प्रतिशत है। ऐसा सच्चर कमैटी की रिपोर्ट में दर्ज है। एक समय था जब सर सैयद अहमद खां ने इस ज़रूरत को समझा था और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की स्थापना की। उनको अंग्रेज़ों का एजेंट बताया गया और बाक़ायदा अंग्रेज़ी पढ़ने और उनके खिलाफ़ अरब से फ़तवा लाया गया। मुसलमानों को यह बात समझनी होगी कि आज केवल मदरसे की तालीम से वे दुनिया की दौड़ में आगे नहीं बढ़ सकते।
मैं अपने शहर नजीबाबाद ज़िला बिजनौर यूपी में देखता हूं। यहां मुसलमानों की आबादी 65 प्रतिशत से अधिक है। यहां 12 इंटर कालेज हैं जिनमें से केवल 2 मुस्लिमों के हैं। दो डिग्री कालेजों में से उनका एक भी नहीं है। इन 14 में से 4 जिनमें दोनों डिग्री कालेज भी शामिल हैं, एक और अल्पसंख्यक समाज जैन बंधुओं के बनाये हुए हैं। मात्र एक प्रतिशत आबादी वाले सिख समाज का भी एक इंटर कालेज है। ईसाई तो बेहतरीन सैंट मैरिज़ स्कूल हर नगर कस्बे की तरह यहां भी चला ही रहे हैं। मज़ेदार बात यह है कि जो दो कालेज हैं उनमें प्रबंधतंत्र में भयंकर विवाद है।
दूसरी तरफ देखिये नजीबाबाद में पिछले दिनों मस्जिदों का नवीनीकरण और नये मदरसे बनाने का बड़े पैमाने पर अभियान चल रहा है। हो सकता है यह अभियान कमोबेश और स्थानों पर भी चल रहा हो लेकिन मुझे वहां के बारे में पक्का मालूम नहीं है। नजीबाबाद की लगभग पचास मस्जिदों को सजाने संवारने में दस लाख से लेकर एक करोड़ रुपया तक ख़र्च किया जा रहा है। इस रुपये का अधिकांश हिस्सा स्थानीय मुसलमानों ने अपने खून पसीने की कमाई से चंदे की शक्ल में दिया है।
ऐसा ही कुछ मामला मदरसों के नवीनीकरण और नवनिर्माण का भी है। इन मदरसों का मौलाना सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद आध्ुानिकीकरण कर साइंस और मैथ पढ़ाने को तैयार नहीं हैं, ऐसे में मुसलमान दुनियावी, अंग्रेजी मीडियम और उच्च शिक्षा जब नहीं लेंगे तो वे आरक्षण पाकर भी कैसे आगे बढ़ सकते हैं। इस पर बहस होनी ही चाहिये कि इसी मज़हबी सोच की वजह से भी तो कहीं उनकी आज यह हालत नहीं हुई???
दूसरी तरफ देखें तो आज पूरी दुनिया में यह सवाल बहस का मुद्दा बना हुआ है कि इस्लाम इतना शांतिप्रिय धर्म होते हुए भी उसके मानने वाले यानी मुसलमान उच्च शिक्षा की बजाये आतंकवाद, मारकाट और खूनख़राबे में क्यों शामिल हो रहे हैं। विडंबना यह है कि जो मुसलमान जेहाद के नाम पर यह खून बहा रहे हैं उनके लिये गैर मुस्लिम ही नहीं बल्कि उनके अपने मज़हब से जुड़े शिया, अहमदी, और क़ादियानी तक कहे जाने वाले लोग उनके निशाने पर हैं। उनका दावा है कि उनके अलावा कोई भी पक्का सच्चा मुसलमान नहीं है। पाकिस्तान मे तो बाकायदा 1974 में अहमदी लोगों को गैर मुस्लिम घोषित किया जा चुका है। इतना ही नहीं उनकी इबादतगाहों को मस्जिद कहे जाने पर भी कानूनी तौर पर रोक लगा दी गयी है। बात यहां तक होती तो भी ख़ैर थी लेकिन अब हालत यह हो गयी है कि आयेदिन वहाबी सोच के कट्टरपंथी गैर देवबंदी लोगों पर जानलेवा हमले कर रहे हैं। अब लड़ाई बरेलवी और देवबंदी तक आ पहुंची है।

0मतभेद इतने बढ़ चुके हैं दोनों एक दूसरे पर इस्लाम की परंपरागत शिक्षाओं को न मानने का आरोप लगाकर ईमान से खारिज होने का दावा कर रहे हैं। दूसरी तरफ दुनिया के जिन अरब देशों में तेल के खेल के नाम पर तानाशाही हटाकर जम्हूरियत लाने के बहाने अमेरिका और नाटों की सेनायें क़ब्ज़ा जमा रही हैं वहां जेहाद के नाम पर मुस्लिम कट्टरपंथियों को मोर्चा खोलने और इस्लाम ख़तरे में होने का नारा बुलंद करने का सुअवसर मिल गया है। जो काम अमेरिका ने अफगानिस्तान से सोवियत फौजों को निकालने के लिये ज़िया उल हक़ जैसे तानाशाह के ज़रिये इस्लामी जेहाद के बहाने शुरू किया था आज वह पूरी दुनिया में अमेरिका और यूरूप के खिलाफ ‘आतंकवाद’ के रूप में फैलता देखा जा रहा है।

किसी भी रोग के इलाज के लिये सबसे पहले यह मानना पड़ता है कि आप बीमार हैं। अगर आप अपनी कमियों और बुराइयों के लिये किसी दूसरे की साज़िश को ज़िम्मेदार ठहराकर केवल कोसते रहेंगे तो कभी समस्या का हल नहीं हो पायेगा। यह तो मानना ही पड़ेगा कि अगर मुसलमानों का एक हिस्सा आज पूरी दुनिया में आतंकवाद और जेहाद के लिये कसूरवार ठहराया जा रहा है तो उसमें कुछ सच्चाई तो होगी ही। तिल का ही ताड़ बनता है। यह आरोप लगाना बहुत आसान है कि हमारे साथ पक्षपात होता है। अगर आज मुसलमान शिक्षा, व्यापार, राजनीति, अर्थजगत, विज्ञान, तकनीक, शोध कार्यों, सरकारी सेवाओं और उद्योग आदि क्षेत्रों में पीछे है तो इसके लिये उनको अपने गिरेबान में झांककर देखना होगा न कि दूसरे लोगों को दोष देकर इसमें कोई सुधार होगा।

समय के साथ बदलाव जो लोग स्वीकार नहीं करते उनको तरक्की की दौड़ में पीछे रहने से कोई बचा नहीं सकता। अंधविश्वास और भाग्य के भरोसे पड़े रहने से जो कुछ आपके पास मौजूद है उसके भी खो जाने की आशंका अधिक हैं। हम यह नहीं कह सकते कि प्रगति और उन्नति के लिये हम अपने मज़हब को छोड़कर आधुनिकता और भौतिकता के नंगे और स्वार्थी रास्ते पर आंखे बंद करके चल पड़ें लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि आज के दौर में जो लोग आगे बढ़कर अपना हक़ खुद हासिल करने को संगठित और परस्पर सहयोग और तालमेल का रास्ता दूसरे लोगों के साथ नहीं अपनायेंगे उनको पिछड़ने से कोई बचा नहीं सकता। मुसलमानों को यह सोचना होगा कि समाज के दूसरे वर्गों के साथ कैसे मिलजुलकर कट्टरपंथ को छोड़कर आगे बढ़ना है।
दूसरों पर जब तब्सरा किया कीजिये,आईना सामने रख लिया कीजिये ।।

बीर शिवा जी ,,

छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी 1630 में मराठा क्षत्रिय (सिसोदिया वंस)परिवार में हुआ। शिवाजी पिता शाहजी और माता जीजाबाई के पुत्र थे। राष्ट्र को विदेशी और आतताई राज्य-सत्ता से स्वाधीन करा सारे भारत में एक सार्वभौम स्वतंत्र शासन स्थापित करने का एक प्रयत्न स्वतंत्रता के अनन्य पुजारी वीर प्रवर शिवाजी महाराज ने भी किया था। इसी प्रकार उन्हें एक अग्रगण्य वीर एवं अमर स्वतंत्रता-सेनानी स्वीकार किया जाता है।

यूं तो शिवाजी पर मुस्लिम विरोधी होने का दोषारोपण किया जाता है, पर यह सत्य इसलिए नहीं कि उनकी सेना में तो अनेक मुस्लिम नायक एवं सेनानी थे ही, अनेक मुस्लिम सरदार और सूबेदारों जैसे लोग भी थे। वास्तव में शिवाजी का सारा संघर्ष उस कट्टरता और उद्दंडता के विरुद्ध था, जिसे औरंगजेब जैसे शासकों और उसकी छत्रछाया में पलने वाले लोगों ने अपना रखा था। नहीं तो वीर शिवाजी राष्ट्रीयता के जीवंत प्रतीक एवं परिचायक थे। इसी कारण निकट अतीत के राष्ट्रपुरुषों में महाराणा प्रताप के साथ-साथ इनकी भी गणना की जाती है।
माता जीजाबाई धार्मिक स्वभाव वाली होते हुए भी गुण-स्वभाव और व्यवहार में वीरंगना नारी थीं। इसी कारण उन्होंने बालक शिवा का पालन-पोषण रामायण, महाभारत तथा अन्य भारतीय वीरात्माओं की उज्ज्वल कहानियाँ सुना और शिक्षा देकर किया था। दादा कोणदेव के संरक्षण में उन्हें सभी तरह की सामयिक युद्ध आदि विधाओं में भी निपुण बनाया था। धर्म, संस्कृति और राजनीति की भी उचित शिक्षा दिलवाई थी। उस युग में परम संत रामदेव के संपर्क में आने से शिवाजी पूर्णतया राष्ट्रप्रेमी, कर्त्तव्यपरायण एवं कर्मठ योद्धा बन गए।

बचपन में शिवाजी अपनी आयु के बालक इकट्ठे कर उनके नेता बनकर युद्ध करने और किले जीतने का खेल खेला करते थे। युवावस्था में आते ही उनका खेल वास्तविक कर्म शत्रु बनकर शत्रुओं पर आक्रमण कर उनके किले आदि भी जीतने लगे। जैसे ही शिवाजी ने पुरंदर और तोरण जैसे किलों पर अपना अधिकार जमाया, वैसे ही उनके नाम और कर्म की सारे दक्षिण में धूम मच गई, यह खबर आग की तरह आगरा और दिल्ली तक जा पहुँची। अत्याचारी किस्म के यवन और उनके सहायक सभी शासक उनका नाम सुनकर ही मारे डर के बगलें झाँकने लगे।

शिवाजी के बढ़ते प्रताप से आतंकित बीजापुर के शासक आदिलशाह जब शिवाजी को बंदी न बना सके तो उन्होंने शिवाजी के पिता शाहजी को गिरफ्तार किया। पता चलने पर शिवाजी आगबबूला हो गए। उन्होंने नीति और साहस का सहारा लेकर छापामारी कर जल्द ही अपने पिता को इस कैद से आजाद कराया। तब बीजापुर के शासक ने शिवाजी को जीवित अथवा मुर्दा पकड़ लाने का आदेश देकर अपने मक्कार सेनापति अफजल खाँ को भेजा। उसने भाईचारे व सुलह का झूठा नाटक रचकर शिवाजी को अपनी बाँहों के घेरे में लेकर मारना चाहा, पर समझदार शिवाजी के हाथ में छिपे बघनखे का शिकार होकर वह स्वयं मारा गया। इससे उसकी सेनाएँ अपने सेनापति को मरा पाकर वहाँ से दुम दबाकर भाग गईं।

इसी के चलते 3 अप्रैल 1680 में उनका स्वर्गवास हो गया। उनकी इस वीरता के कारण ही उन्हें एक आदर्श एवं महान राष्ट्रपुरुष के रूप में स्वीकारा जाता है। उनकी इसी वीरता के कारण 5 मई को छत्रपति वीर शिवाजी जयंती मनाई जाती है।

स्वच्छता क्यों ?

भारतीय धर्म ग्रंथों से संदेश-स्वच्छ हवा ग्रहण करने से विचार शुद्ध होते हैं ,  वर्षा के मौसम में अक्सर अनेक प्रकार की बीमारियां फैलती हैं। इसका कारण यह है कि इस मौसम मेंएक तो मनुष्य की पाचन क्रिया इस समय अत्यंत मंद पड़ जाती है जबकि जीभ स्वादिष्ट मौसम के लिये लालायित हो उठती है। दूसरा यह है कि जल में अनेक प्रकार के विषाणु अपना निवास बना लेते हैं। इस तरह स्वाभाविक रूप से इस समय बीमारी का प्रकोप यत्र तत्र और सर्वत्र प्रकट होता है। बरसात के मौसम में जहां चिकित्सकों के द्वार पर भीड़ लगती है वहीं योग साधक अधिक सतर्कता पूर्वक प्राणायाम करने लगते हैं ताकि वह बीमारियों से बचे रहें।

            जल और वायु न केवल जीवन प्रवाह में सहायक होती है बल्कि रोगनिदान में औषधि के रूप में इनसे सहायता मिलती है। वर्षा ऋतु में दोनों का प्रवाह बाधक होता है पर नियम, समय और प्राणयाम के माध्यम से अपनी देह को उन विकारों से बचाया जा सकता है जो इस मौसम में होती है।
वेद शास्त्रों में कहा गया है कि
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वात ते गृहेऽमृतस्य निधिर्हितः।

ततो नो देहि जीवसे।।
           ‘‘इस वायु के गृह में यह अमरत्व की धरोहर स्थापित है जो हमारे जीवन के लिये आवश्यक है।’’
अ त्वागमं शन्तातिभिरथे अरिष्टतातिभिः दक्षं ते भद्रमाभार्ष परा यक्ष्मं सुवामित ते।।
        ऋग्वेद की इस ऋचा अनुसार वायु देवता कहते हैं कि ‘‘हे रोगी मनुष्य! मैं वैद्य तेरे पास सुखदायक और अहिंसाकर रक्षण लेकर आया हूं। तेरे लिये कल्याणकारी बल को शुद्ध वायु के माध्यम से लाता हूँ  और तेरे रोग दूर करता हूं।’’
वातु आ वातु भेषजं शंभु मयोभु नो हृदे।
प्र ण आयूँरिर तारिषत्।।
             ‘‘याद रखें कि शुद्ध ताजी वायु अमूल्य औषधि है जो हमारे हृदय के लिये दवा के समान उपयोगी है, आनंददायक है। वह आनंद प्राप्त करने के साथ ही आयु को बढ़ाता है।
          हमने देखा होगा कि जब कोई मरीज नाजुक हालत में अस्पताल पहुंचता है तो सबसे पहले चिकित्सक उसकी नाक में आक्सीजन का प्रवाह प्रारंभ करते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि सबसे प्रथम दवा तो वायु ही होती है। इसके अलावा जो दवायें मिलती हैं उनके जल का मिश्रण होता है या फिर उनका जल से सेवन करने की राय दी जाती है। हम यहां वायु के महत्व को समझें। हमने देखा होगा जहां जहां घनी आबादी हो गयी है वहां अधिकतर लोग चिढ़चिढ़े, तनाव ग्रस्त और हताशा जनक स्थिति में दिखते हैं। अनेक लोग घनी आबादी में इसलिये रहना चाहते हैं कि उनको वहां सुरक्षा मिलेगी दूसरा यह कि अपने लोग वहीं है पर इससे जीवन का बाकी आनंद कम हो जाता है उसका आभास नहीं होता।
           श्रीमद्भागवत गीता में ‘गुणों के गुणों में ही बरतने’ और ‘इंद्रियों के इंद्रियों मे बरतने’ का जो वैज्ञानिक सिद्धांत दिया गया है उसके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जहां प्राणवायु विषाक्त है या जहां उसकी कमी है वहां के लोगों के मानसिक रूप से स्वस्थ या सामान्य रहने की अपेक्षा करना भी व्यर्थ है। आमतौर से सामान्य बातचीत में इसका आभास नहीं होता पर विशेषज्ञ इस बात को जानते हैं कि शुद्ध और अधिक वायु के प्रवाह में रहने वाले तथा इसके विपरीत वातावरण में रहने वाले लोगों की मानसिकता में अंतर होता है। आज भी हमारे देश में अनेक  ऐसे लोग हैं जो यह मांग करते हैं जो न केवल पर्यावरण प्रदुषण रोकने और लोगों को स्वच्छ जल देने की मांग करते हैं।

!!मन की बाते मन में ही रखे !!

रहिमन निज मन की, बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैह लोग सब, बाटि न लैहैं न कोय।।

कविवर रहीम कहते हैं कि मन की व्यथा अपने मन में ही रखें उतना ही अच्छा क्योंकि लोग दूसरे का कष्ट सुनकर उसका उपहास उड़ाते हैं। यहां कोई किसी की सहायता करने वाला कोई नहीं है-न ही कोई मार्ग बताने वाला है।
रहिमन ठहरी धूरि की, रही पवन ते पूरि।
गांठ युक्ति की खुलि गई, अंत धूरि को धूरि।

कविवर रहीम कहते हैं कि जिस तरह जमीन पर पड़ी धूल हवा लगने के बाद चलायमान हो उठती है वैसे ही यदि आदमी की योजनाओं का समयपूर्व खुलासा हो जाये तो वह भी धूल हो जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दूसरे का दुःख देखकर प्रसन्न होने वालों की इस दुनियां में कमी नहीं है। पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रवृत्तियां हर मनुष्य में रहती हैं। इस संसार में भला कौन कष्ट नहीं उठाता पर अपने दिल को हल्का करने के लिये लोग दूसरों के कष्टों का उपहास उड़ाते हैं। इसलिये जहां तक हो सके अपने मन की व्यथा अपने मन में ही रखना चाहिये। सुनने वाले तो बहुत हैं पर उसका उपाय बताने वाला कोई नहीं होता। अगर सभी दुःख हरने का उपाय जानते तो अपना ही नहीं हर लेते।
अपने जीवन की योजनाओं को गुप्त रखना चाहिये। जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब हम अपने रहस्य और योजनायें दूसरों को यह कहते हुए बताते हैं कि ‘इसे गुप्त रखना’। यह हास्यास्पद है। सोचने वाली बात है कि जब हम अपने ही रहस्य और योजनायें गुप्त नहीं रख सकते तो दूसरे से क्या अपेक्षा कर सकते हैं।

परिश्रम क्यों ?

हर मानव की कुछ इच्छाएँ व आवश्यकतायें होती हैं। वह सुख शान्ति की कामना करता है, दुनियाँ में नाम की इच्छा रखता है।किन्तु कलपना से ही सब कार्य सिद्ध नहीं हो जाते। इसके लिये परिश्रम करना पड़ता है। जैसे सोये हुए शेर के मुख में पशु स्वयं ही प्रवेश नही करता उसे भी परिश्रम करना पड़ता है, वैसे ही केवल मन की इच्छा से काम सिद्ध नही होते उनके लिये परिश्रम करना पड़ता है। परिशम ही जीवन की सफलता का रहस्य है।
परिश्रम के बल पर मानव अपने लक्ष्य तक पहुँच सकता है। एक आलसी व अकर्मण्य मानव कभी अपना लक्ष्य नहीं प्राप्त कर सकता।भाग्य के सहारे बैठने से कार्य सम्पन्न नहीं होते। विद्यार्थी वर्ग को भी परीक्षा में सफलता पाने के लिये अटूट श्रम करना पड़ता है।मानव परिश्रम से अपने भाग्य को बना सकता है ,कहा जाता है कि ईश्वर भी उन्ही की मदद करता है जो अपनी मदद स्वयं करते हैं।
मानव का शारीरिक व मानसिक विकास भी परिश्रम पर निरभर करता है। आधुनिक मनुष्य वैज्ञानिक यंत्रों का पुजारी बनता जा रहा है।परिश्रम की ओर से लापरवाही इसमें घर करती जा रही हैं। नैतिक पतन हो रहा है जिससे अशांति फैलती जा रही है। फलस्वरूप समाज और रष्ट्र की प्रगति के लिये भी परिश्रम आवश्यक है।
!!सच्चे सुख व विकास के लिये परिश्रम के महत्त्व को समझना अत्यन्त आवश्यक है!!

श्रम ही ते सब होत है, जो मन सखी धीर ! श्रम ते खोदत कूप ज्यों, थल में प्रगटै नीर !!

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं किपरिश्रम करने से ही सब कार्य संपन्न होते हैं बस मन में धीरज होना चाहिए। बहुत परिश्रम करने से कुआँ खोदा जाता है तो पानी निकल ही आता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जीवन में विकास के लिए सब लोग प्रयास करते हैं पर कुछ लोग उतावले रहते हैं कि उनको जल्दी सफलता मिल जाये और नहीं मिलती तो वह निराश हो जाते हैं। इससे उनकी इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं और वह प्रयास करना छोड़ देते हैं और उससे उनको सफलता नहीं मिल पाती। उनके धीरज खोने का यह परिणाम होता है कि जो थोडा-बहुत परिश्रम उन्होने किया होता है उस पर पानी भी फिर जाता है। जो लोग अपनी सफलता में विश्वास करते हुए धीरज के साथ परिश्रम करते हैं उनको आखिर सफलती मिल ही जाती है।आजकल प्रचार माध्यमों में अच्छे भविष्य के लिए जल्दी सफलता का जो प्रचार किया जाता है वह केवल लोगों को उतेजित कर उनकी जेब से पैसे एन्ठने के लिए होता है। कई ऐसे कार्यक्रम होते हैं जिनमें तमाम तरह के लोग पुरस्कार होते हैं तो लोगों को लगता है कि हम भी ऐसी ही सफलता हासित करें, पर सबके लिए यह संभव नहीं हैं। हम इस तरह के जो कार्यक्रम देखते हैं उसमें पुरस्कार आखिर कोई अपनी जेब से नहीं देता बल्कि तमाम तरह की कंपनियां जो अपने उत्पादों को जनता में बेचकर पैसा कमाती हैं वह विज्ञापन के रूप में उन कार्यक्रमों का उपयोग करतीं हैं। इसमें चंद लोगों को पैसा तो मिल जाता है पर बाकी लोग केवल ऐसी जल्दी सफलता की कल्पना करते हैं और बाद में उनको कलपना भी पड़ता है। जीवन में आगे बढ़ने का कोई शार्टकट नहीं है। अगर कुछ लोगों को मिल जाती हैं तो उसे इतने बडे समाज को देखते हुए आदर्श नहीं माना जा सकता है। अत: जीवन में धीरज रखते हुए अपना परिश्रम जारी रखना चाहिऐ।

दलितों को गले लगा लो अन्यथा.?


                                 !!दलित महान हिन्दू हैं !!

ज़रा सोचिये मुसलमानों के राज्य में आज दलित भाइयो के पुरखो को हिन्दू होने के कारन 

मुसलमानों के कितने अत्याचार सहने पड़े होंगे ,इन दलित भाइयो ने अपमान सहन किया, साथ 
ही हिन्दू धर्म में भी अपमान सहना पड़ा !
आज के दलित कहे जाने वालो के पुरखो ने अपने धर्म की रक्षा के लिए कितनी तपस्या की होगी !
मैं उन तपस्वी महापुरषों और उनकी संतानों को महान हिन्दू कहकर करोड़ो बार प्रणाम करता हूँ ! 
इन महान हिन्दुओ के सम्मान के साथ, साथ लिए बिना हिन्दू एकता और हिन्दू रक्षा की बात 
सोचना भी मुर्खता है ! जय श्री राम ,दलित महान आर्य है !! दलितों को यदि  न्याय नहीं मिलेगा तो वे सब हिन्दू धर्म त्यागकर कोई अन्य धर्म स्वीकार कर लेंगे. संघ परिवार अपने आप को हिन्दू धर्म का संरक्षक मानता है और कहता है कि ''गर्व से कहो हम हिन्दू हैं'' तो उसे उन कारणों को दूर करना चाहिए जिनके चलते एक दलित दूल्हा घोड़ी पर सवार हो जाता है तो उसे घोड़ी से उतारकर नीचे पटक दिया जाता है, दलितों को उस कुएं से पानी नहीं लेने दिया जाता है जिससे सवर्ण पानी भरते हैं, यदि गांव का कोई नाई किसी दलित की दाढ़ी बना देता है तो गांव के सारे सवर्ण उसका बहिष्कार कर देते हैं, यदि किसी दलित को सरकारी जमीन मिल जाती है तो गांव के दादा उसे उस जमीन पर खेती नहीं करने देते, यदि वह मरे पशुओं की लाश ठिकाने नहीं लगाता तो उसके साथ मार-पीट की जाती है, दलित बच्चों को स्कूलों में सवर्ण बच्चों से अलग बैठाया जाता है, यदि किसी दलित महिला ने स्कूल में दोपहर का भोजन पका दिया तो गांव के सवर्ण बच्चे उस भोजन को खाने से इंकार कर देते हैं. इस तरह कदम-कदम पर दलितों को अपमानित एवं जलील किया जाता है.क्या यह जायज है ?
स्वामी विवेकानन्द, जिनसे बड़ा हिन्दू कोई हो ही नहीं सकता, और जिनका नाम संघ परिवार दिन-रात जपता रहता है, ने चेतावनी दी थी कि
''उठो! आगे बढ़ो! और दलितों को गले लगा लो अन्यथा वे तुम्हारी लाशों पर नाचेंगे.'' क्या हम स्वामी विवेकानंद की इस चेतावनी की आज तक उपेक्षा नहीं कर रहे हैं?
इसी तरह, देश के एक और महान महात्मा गांधी ने दलितों को समान अधिकार दिलाने के लिए हर संभव प्रयास किए. यहां तक कि उन्हें हरिजन अर्थात हरि (ईश्वर) के जन का ओहदा दिया. अनेक अन्य महान हिन्दुओं, जिनमें डॉ अम्बेडकर, ज्योतिबा फुले आदि शामिल हैं, ने भी दलितों के उन्नयन के लिए कार्य किया. जब डॉ अम्बेडकर को अपने प्रयासों में सफलता नहीं मिली तो उन्होंने अंतत: हिन्दू धर्म को त्याग दियाऔर बौध्ध धर्म अपना हजारो दलितों के साथ . हम सबको यह सोचना होगा कि कैसे इस तरह के प्रयास किए जाएं जिससे दलितों को कोई अन्य धर्म गले न लगाना पड़े एक बार सभी सोचे !
 नोट ..लेख अभी पूर्ण नहीं है ,अभी आगे लिखना है