शनिवार, 10 दिसंबर 2011

!!जो जैसा सोचता और करता है वह वैसा ही बन जाता है !!

हमारे जीवन पर सकारात्मक विचारों का बहुत प्रभाव पडता है। हम जैसा सोचते हैं, वैसा ही बन जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि विचार न केवल हमारे मन- मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं, बल्कि वे हमारे शरीर के विभिन्न अंगों को भी प्रभावित करते हैं।
यदि हम लगातार अनावश्यक रूप से अपने स्वास्थ्य को लेकर चिन्तित रहें, तो हमें अस्वस्थ होने में अधिक समय नहीं लगेगा। मान लिया जाए कि यदि हमारा कोई अंग किसी बीमारी से ग्रसित है और हम दृढतापूर्वक यह सोचें कि यह स्वस्थ हो जाएगा, तो वह स्वस्थ होकर रहेगा। यदि इस सोच के साथ हम ईश्वरीय-शक्ति को भी जोड दें, तो यह सोने पर सुहागा के समान होगा। कहने का मतलब यह है कि यदि हम सकारात्मक विचारों के साथ-साथ सच्चे मन से ईश्वर की प्रार्थना से भी जुडेरहें, तो हमें सच्चे आनंद की अनुभूति होगी।
विश्वास का प्रभाव :कभी-कभी ऐसा देखा जाता है कि असाध्य रोग भी प्रार्थना तथा अच्छे विचार के बल पर ठीक हो जाते हैं। कल्याण पत्रिका के प्रार्थना-अंक के अनुसार, चा‌र्ल्स फिल्मोरऔर उनकी पत्नी मार्टिलफिल्मोरने प्रार्थना और विश्वास के बल पर अपने और दूसरों के असाध्य रोगों को दूर करने में काफी सफलता प्राप्त की थी। चा‌र्ल्स 94वर्ष तक जीवित रहे और उन्होंने अपनी सभी बीमारियों को इसी विश्वास से दूर किया था। उनका विचार था कि हमारे जीवन में अभाव, रोग, निराशा और नीरसता को भूले-भटके भी नहीं आना चाहिए। हमें ईश्वरीय शक्ति पर विश्वास करना चाहिए। यदि ईश्वर की शक्ति पर हमारा विश्वास हो जाए, तो हम स्वास्थ्य, संपन्नता एवं प्रसन्नता सभी कुछ प्राप्त कर सकते हैं।
सुविचार हैं जरूरी :हमारे ग्रन्थों में भी इस बात का उल्लेख है कि हमारे मन में हमेशा सुविचार ही आना चाहिए। गीता में विचार के महत्त्‍‌व को कई स्थानों पर स्पष्ट किया गया है। इसके अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व उसकी श्रद्धा अथवा विश्वास पर निर्भर करता है। कहने का अर्थ यह है कि जो व्यक्ति जैसा विश्वास पालता है, वह पूरी जिंदगी वैसा ही बनकर रहता है।
गीता में ही, दूसरे स्थान पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमेशा मेरा स्मरण करते हुए जीवन रूपी युद्ध का सामना करो। उनके कहने का आशय यह है कि यदि आप अपने विश्वास का साथी भगवान को बनाएंगे, तो जीवन-रूपी युद्ध में आपकी विजय निश्चित है।
गीता से मिलती-जुलती बातें बाइबल में भी कही गई है--जो अपने मन में जैसा सोचता है, वह वैसा ही होता है (प्रोवर्स-23:7)।
विचारों का व्यक्तित्व पर प्रभाव :नेपोलियन हील ने अपनी पुस्तक थिंक एण्ड ग्रोरिच(सोचो और धनवान बनो) में स्पष्ट किया है कि विचार हवाई नहीं, बल्कि ठोस हों। उनके शब्दों में विचार वस्तु हैं-थॉट्स आर थिंग्स।इससे स्पष्ट होता है कि जिस तरह ठोस चीजों का महत्व है, उसी तरह विचारों का भी महत्व है। यदि हम वस्तु के रूप में हीरा को महत्त्‍‌व देते हैं, तो हमें हीरा मिलेगा। यदि लोहा को महत्त्‍‌व देते हैं, तो लोहा ही मिलेगा। इसी प्रकार अगर हमारे विचार सकारात्मक और हीरे की तरह चमकीले हैं, तो हमारे मन और शरीर दोनों हीरे की तरह ही तेज चमक (आभा) वाले होंगे। यदि हमारे विचार नकारात्मक हैं, तो लोहे के समान ही हमारे तन और मन दोनों बिना किसी चमक वाले होंगे।
सकारात्मक विचारों में सफलता के बीज :एक समय की बात है। लंदन के सर्वप्रमुख चर्च के पादरीनॉर्मन विसेन्टपील थे। वे न केवल बडे धर्मोपदेशक थे, बल्कि आध्यात्मिक लेखक भी थे। कुछ वर्ष पूर्व, लगभग सौ वर्ष की अवस्था में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी पुस्तकों को संसार भर के लोगों ने सराहा है। उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध पुस्तक है-पॉजिटिव थिंकिंग।इस पुस्तक में पील ने इसी बात पर जोर दिया है कि ईश्वर के अलावा, कार्य की निश्चित सफलता पर विश्वास करते हुए, जिस कार्य में भी व्यक्ति हाथ डालेगा, उसमें सफलता मिलनी निश्चित है। फिलिपियंस नामक पुस्तक में विचारों को सदा सकारात्मक रखने पर जोर दिया गया है।
सकारात्मक विचारों से व्यक्ति में साहस उत्पन्न होता है, जिसकी सहायता से वह सफलता के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को पार करता हुआ अपनी मंजिलपर पहुंच जाता है।
विश्वास पर टिका है समाज का कल्याण :भारतीय चिन्तन परंपरा में इस कथन को शामिल किया गया है- सभी सुखी हों, सभी निरोग हों, सभी कल्याण के भागी हों, कोई भी दु:ख का भागी नहीं बने..
सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणिपश्यन्तु,मा कश्चिद्दु:खभाग्भवेत्।।
इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के सकारात्मक विश्वास पर ही समूचे समाज और समूचे बिश्व का कल्याण टिका है..........

अध्यात्म रामायण के श्री राम

अखिल लोकनायक मर्यादा पुरूषोत्तम आनंदकंद दशरथ नंदन श्रीराम चरित्र को प्रकाशित करने वाले प्रधानभूत तीन ग्रंथों में प्रथम है...आदि काव्य "वाल्मीकि रामायणम्" दूसरा है... "अध्यात्म रामायण" और तीसरा है... "रामचरितमानस"। महर्षि वाल्मीकि ने भगवान् श्रीराम का अपने काव्य में जो चरित्र चित्रण किया है, उसके अनुशीलन से ज्ञात होता है कि उनका आदर्श चरित्र लोक के लिए परम-अनुकरणीय था। अध्यात्म रामायण के कतिपय स्थलों पर श्रीराम अतिमानुष कर्म करते हुए दिखाई देते हैं...इनसे उनके ईश्वर होने का स्पष्ट संकेत मिलता है...यथा अर्द्धमुहुर्त में एकाकी श्रीराम द्वारा चौदह हजार राक्षसों का नाश कर दिया जाना। जगजननी माता सीता के शब्दों में भी वे लोकनाथ प्रदर्शित किए गए हैं। किंतु, कथानक की घटनाओं को लेकर वाल्मीकि रामायण तथा अध्यात्म रामायण में भिन्नता है। रामचरितमानस व अध्यात्म रामायण के घटनाक्रम में कुछ परिवर्तन के साथ अत्यंत साम्य दिखाई देता है। ऎसा स्पष्ट प्रतीत होता है कि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस का मुख्य आधार अध्यात्म रामायण को ही बनाया है।

अध्यात्म रामायण एक आख्यान के रूप में ब्रह्मांड पुराण के उत्तराखंड के अंतर्गत माना गया है...अत: इसके रचयिता महर्षि वेदव्यास ही हैं। इस पवित्र गाथा को साक्षात् भगवान विश्वनाथ ने अपनी प्रिया आदिशक्ति माता पार्वती को सुनाया है। इसमें परम रसायन रामचरित का वर्णन करते हुए पद-पद पर प्रसंगानुसार भक्तिज्ञान, उपासना, नीति और सदाचार के दिव्य उपदेश दिए गए हैं। विधि विषयों का वर्णन होते हुए भी इसमें प्रधानता "अध्यात्मतत्व" की ही है और इसी कारण इसका "आध्यात्म रामायण" नाम सर्वथा सार्थüक है। प्रस्तुत ग्रंथ में भगवान् श्रीराम मूर्तिमान "आध्यात्मिक-तत्व" हैं शायद ही किसी कांड में कोई सर्ग हो, जिसमें श्रीराम को अनंत-कोटि -ब्रह्मांडनायक श्रीविष्णु का स्वरूप नहीं बताया हो। ग्रंथ के प्रारंभ में माता पार्वती, भगवान् शंकर से श्रीपुरूषोत्तम भगवान् के सनातनतत्व को पूछती हैं...क्योंकि वे भगवान् श्रीराम सिद्धगणों द्वारा परम अद्वितीय, आदिकारण प्रकृति के गुण-प्रवाह से परे बताए जाते हैं। किंतु, कोई कहते हैं कि श्रीराम परब्रह्म होने पर भी अपनी माया से आवृत होने के कारण अपने आत्मस्वरूप को नहीं जानते थे। अत: वसिष्ठादि के उपदेश से उन्होंने अध्यात्म तत्व को जाना...। यदि वे आत्मतत्व को जानते थे, तो उन परमात्मा ने सीता के लिए इतना विलाप क्यों किया...और यदि उन्हें आत्मज्ञान नहीं था, तो वे अन्य सामान्य जीव के समान ही हुए...फिर उनका भजन क्यों किया जाना चाहिए...? इस विषय को ऎसे वाक्यों से समझाइए कि मेरा संदेह निवृत्त हो जाए...।

तब देवादिदेव भगवान् नीलकंठ ने मां अंबिका को रामस्वरूप समझाते हुए बताया कि...भगवान् राम निस्संदेह प्रकृति से परे, परमात्मा, अनादि, आनंदघन और अद्वितीय पुरूषोत्तम हैं, जो अपनी माया से ही इस संपूर्ण जगत को रचकर इसके बाहर-भीतर सब ओर आकाश के समान व्याप्त हैं तथा जो आत्मरूप से सबके अंत:करण में स्थिर रहते हुए अपनी माया से इस विश्व को परिचालित करते हैं...।
भगवान् श्रीराम जब समस्त विघ्न-बाधाओं को पार कर राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए, तब भक्तवर हनुमान के प्रति अपने तत्व का उपदेश देने की जगजननी सीता को आज्ञा दी। माता सीता ने कहा...हे वत्स हनुमान्, तुम श्रीराम को साक्षात् अद्वितीय सच्चिदानंदघन परमब्रह्म परमेश्वर समझो...ये निर्विकार, निरंजन, सर्वव्यापक, स्वयं प्रकाशमान और पापहीन आत्मा हैं। तदंतर स्वयं भगवान् श्रीराम भी तत्वमसि वेदांत के अनुसार अपना अध्यात्म स्वरूप प्रिय भक्त हनुमान को ऎसा ही बताते हैं। ...विश्रवापुत्र रावण के अत्याचार से संतप्त होकर समस्त देवगण ब्रह्मा सहित जब श्रीहरि से अवतार हेतु प्रार्थना करते हैं, तब भगवान् नारायण स्वयं उन्हें राजा दशरथ के यहां कौशल्यादि रानियों के द्वारा पुत्र रूप से चार अंशों में प्रकट होने का आश्वासन देते हैं।...अपने चरणों की रज के स्पर्श से जब श्रीराम अहिल्या का उद्धार कर देते हैं, तब परमात्मतत्व सिद्ध हो जाता है और अहिल्या भी उन्हें पुराणपुरूष बताते हुए गुणगान करती है।...शिव धनुष भंग के पश्चात् जब श्रीराम अयोध्या लौटते हैं, तब परशुरामजी उन से अपना विष्णु धनुष चढ़वाकर उन्हें परमेश्वर रूप में स्वीकार करते हैं।...मुनिवर वामदेव भी भगवान् श्रीराम को "नारायण" और सीता को "लक्ष्मी" बताते हैं।...स्नेह और सेवा की मूर्ति भरत भी अपने को धिक्कारते हुए राम को परमात्मा बताते हैं।...यहां तक कि श्रीराम को वनवास देने वालीं माता कैकेयी भी आगे चलकर उन्हें विष्णु भगवान् बताती हैं।...और तो और राक्षसराज रावण भी उन का परम शत्रु होते हुए भी उन्हें "परमात्मा" बताता है और उनके हाथ से मर कर परम-पद प्राप्त करने के लिए ही उनसे वैर ठानता है...यहां आकर तो यह प्रसंग और भी स्पष्ट हो जाता है कि...श्रीराम साक्षात् "श्रीहरि" थे, क्योंकि रावण की मृत्यु के बाद उसके शरीर से निकला हुआ तेज श्रीराम में आकर ही समा जाता है।

इस रामायण के राम वस्तुत: आध्यात्मिकत्त्व होने के उपरांत भी अपने लौकिक चरित्र द्वारा आदर्श प्रस्तुत करते हैं कि...कुलीन बालक को किस प्रकार माता-पिता को नित्य प्रणाम करना चाहिए। पुत्र को माता-पिता का कैसा आज्ञाकारी होना चाहिए, इस बात को तो श्रीराम ने आचरण द्वारा ऎसा अनूठा प्रमाण प्रस्तुत किया है, जिसे संपूर्ण विश्व जानता है। जहां उन्हें राज सिंहासन मिलने वाला था, वहां उन्होंने वनवास को उससे भी अधिक हर्ष के साथ स्वीकार कर पिता के सत्य की रक्षा की। श्रीराम अपनी प्रजा के कितने प्रिय थे, इस बात का प्रमाण उनके वनगमन के समय प्रजा की विह्वलता से और उनके महाप्रयाण के समय उन्हीं के साथ सभी के प्रयाण करने से स्पष्ट होता है। श्रीराम के आदर्श राज्य को पुन:-पुन: स्मरण कर उसकी कल्पना में हम भारतवासी ही नहीं, अपितु समग्र विश्व का जन-जन आज भी प्राणप्रण से सचेष्ट है।

आप असफलता या नापसंद स्थिति को कैसे लेते हैं ?

हर पल आपके लिये या तो असंतोषजनक, नापसंदीदा  है या संतोषजनक, पसन्दीदा.
क्या हम यह देख सकते हैं?
मन एक बाधित ढंग से प्रतिक्रिया करता है.जैसे ---
आप अपनी असफलता या नापसंद स्थिति को कैसे लेते हैं?
 किसी संतुष्टिपूर्ण विचार से. मन नकार देता है, असफलता और नापसंद स्थिति से समझौता कर लेता है. शिकायत के द्वारा, दूसरों पर दोषारोपण कर, स्वंय को दोषी मानते हुए या भाग्य को कोसते हुए या यह सोचकर कि आने वाले कल में सफलता मिलेगी इत्यादि............
आप अपनी सफलता या पसन्दीदा स्थिति को कैसे लेते हैं?
किसी संतुष्टिपूर्ण विचार से. मन श्रेय लेने के लिये,या दूसरों को श्रेय देने के लिये,
परिश्रम की प्रशंसा करने में, अगामी सफलता की आशा में, ईष्ट का धन्यवाद करने में,
भाग्य या कर्मों का खेल मानने में उछलता है.!यह (देखना) प्रश्न करना कि मन सफलता और असफलता में किसी संतुष्टिपूर्ण विचार में,जाने के लिये बाध्य है, ऊर्जा का पूर्ण केन्द्रित हो जाना है.यह सम्पूर्णता को चलित करने का आमंत्रण है.संसार में विचरने के लिये हर पल कर्म के लिये ही दिया हुआ है. आप नहीं कह सकते के यह पल मुझे पसंद नहीं है. यह एक अडिग पर्वत की तरह है. इसे स्वीकार ना करने का अर्थ यह होगा कि आप इस पर अपना सिर मार रहें हैं कि एसा क्यों है.? क्या इसका अर्थ यह हुआ कि हम कुछ नहीं कर सकतें हैं अगर हमें कुछ पसंद नहीं है?आपकी इच्छा, आपके कर्म अगले पल के लिये हैं न कि इस पल के लिये. वास्तव में इस पल को बिना किसी किन्तु-परन्तु के स्वीकार करने से स्वंय ही ऊर्जा केन्द्रित हो जाती जो कि आपको अगले कर्म के लिये प्रेरित कर देती है.यह स्वीकृति आपको अपने मन की कार्यप्रणाली को एक आइने की तरह दिखा देती है.आप जान लेते हैं कि आपका मन एक बाधित ढंग से कार्य करता है. अब आपको एक नया मार्ग दिखने लगता है.इस पीड़ादायी पल को स्वीकार न करने का अर्थ यह है कि आप एक काल्पनिक लड़ाई लड़ रहें हैं, यह लड़ाई कभी समाप्त नहीं हो सकती कयोंकि न स्वीकार करने का अर्थ है कि इसके लिये कोई और जिम्मेदार है, वास्तव में यह विभाजन है ही नहीं. इस पल को स्वीकार करने, उस एक; जो कि जीवन का मूल है, की तरफ पहला और आखिरी कदम है.परंतु इस पल को बिना दोष लगाये, बिना शिकायत किये, बिना आत्मग्लानि के स्वीकार करना अपने आप में दुखदायी है?
अंतर यह है कि बिना स्वीकार किये, आप दुख के प्रभाव को आशावादी विचारों, मनोरंजन, और यहां तक यह सोच कर कि आने वाला पल अच्छा होगा, नकार देतें हैं.स्वीकार करने में दुख का प्रभाव सम्माहित हो जाता है, रुका हुआ मार्ग खुलने लगता है, आप स्वयं ही एक की तरफ जाने लगते हैं.
क्रोध, भय, चिंता, घृणा, तनाव, दुख, विचार की ऊहापोह जीवन की अभिव्यक्ति है.
इसी तरह सुख, प्रसन्नता, आनंद, विचार की ऊहापोह जीवन की अभिव्यक्ति है.
क्रोध इत्यादि का अर्थ है, जो है उसके साथ अस्वीकृति है.
सुख इत्यादि का अर्थ है, जो है उसके साथ स्वीकृति है.
उदासीनता का अर्थ है. जो है उसकी उपेक्षा.
यह तीनों अवस्थाएं जीवन की अभिव्यक्ति है.
जीवन इन्हीं के द्वारा चलायमान रहता है.
इसलिये जो है (उसके साथ अस्वीकृति, स्वीकृति, उदासीनता ) जीवन की अभिव्यक्ति है.
क्या होना चाहिए का विचार मन को जो है उससे परे कर देता है.
मन इस भ्रम में रहता है कि वो जीवन की अभिव्यक्ति को अपने पक्ष में या वश में कर सकता है या वह किसी अभिव्यक्ति का चुनाव कर सकता है.
ऐसा कोई उपाय नहीं है न ही बच निकलने का कोई रास्ता है.
यह निस्सहायता आपको शून्यता का स्पर्श करा देती है.
आप जीवन का खेल समझने लग जाते हैं.
अस्तित्व का रहस्य उजागर होने लगता है.
हम समझते हैं कि मन के दायरे में अच्छे-बुरे, पवित्र-अपवित्र, नैतिक-अनैतिक में चुनाव करके शांति पा सकते हैं.
द्वंद्व के दायरे में शांति खोजना व्यर्थ है.
लेकिन यह कैसे जाना जाए कि यह खोज व्यर्थ है?
चुनाव करने से मिलने वाली संतुष्टि (आराम) को नकार कर.
इस संतुष्टि को नकारना एक असाधारण घटना है.

किसी चीज़ की तरफ आकर्षित होना प्राकृतिक है और यह मन को कार्य करने के लिये प्रेरित करता है. लेकिन अपनी पसन्द को पसन्द करने के भ्रम के ऊपर मन उलझा रहता है.क्या आप इस दूसरी पसन्द से मुक्त हो सकते हैं?
क्या आप दूसरी पसन्द को देख सकतें हैं?
इस दूसरी पसन्द का आपके ध्यान में आना एक असामान्य घटना है.
सत्य को जानना सभी प्रयत्नों का अंत है.
यह ऊर्जा का केन्द्रित हो जाना है.
आप जीवन की अनंत धारा से एक हो जाते हैं.
अस्तित्व का रहस्य उजागर होने लगता है............
नोट --लेख अभी पूर्र्ण नहीं है ,............