गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

मोहर्रम क्या खुशियों का पर्व है ???

मुहर्रम इस्लाम धर्म में विश्वास करने वाले लोगों का एक प्रमुख त्यौहार है। इस माह की बहुत विशेषता और महत्व है। सन् 680 में इसी माह में कर्बला नामक स्थान मे एक धर्म युद्ध हुआ था, जो पैगम्बर हजरत मुहम्म्द स० के नाती तथा अधर्मी यजीद (पुत्र माविया पुत्र अबुसुफियान पुत्र उमेय्या)के बीच हुआ। इस धर्म युद्ध में वास्तविक जीत हज़रत इमाम हुसैन अ० की हुई। प‍र जाहिरी तौर पर यजीद ने हज़रत इमाम हुसैन अ० और उनके सभी 72 साथियों को शहीद कर दिया था। जिसमें उनके छः महीने की उम्र के पुत्र हज़रत अली असग़र भी शामिल थे। और तभी से तमाम दुनिया के  सिर्फ़ मुसलमान   क़ौमों के लोग ही इस महीने में इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत का ग़म मनाकर उनकी याद करते हैं। हजरत इमाम हुसैन (अ.स) ने अपने व अपने इकहत्तर साथियों ,रिश्तेदारों की अज़ीम , बेमिसाल अलौकिक व अदभुद क़ुरबानी पेश करके दुनिया को पैगाम दिया है की:“ए दुनिया के हक परस्तों कभी भी बातिल के आगे सर ख़म ना करना (शीश ना झुकाना ), बातिल चाहे कितना भी ताक़तवर और ज़ालिम क्यों ना हो.”  आशूरे के दिन यानी 10 मुहर्रम को एक ऐसी घटना हुई थी, जिसका विश्व इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इराक स्थित कर्बला में हुई यह घटना दरअसल सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल है। इस घटना में हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के नवासे (नाती) हजरत हुसैन को शहीद कर दिया गया था। कर्बला की घटना अपने आप में बड़ी विभत्स और निंदनीय है। बुजुर्ग कहते हैं कि इसे याद करते हुए भी हमें हजरत मुहम्मद (सल्ल.) का तरीका अपनाना चाहिए। जबकि आज आमजन को दीन की जानकारी न के बराबर है। अल्लाह के रसूल वाले तरीकोंसे लोग वाकिफ नहीं हैं। ऐसे में जरूरत है हजरत मुहम्मद (सल्ल.) की बताई बातों पर गौर करने और उन पर सही ढंग से अमल करने की जरुरत है। इमाम और उनकी शहादत के बाद सिर्फ उनके एक पुत्र हजरत इमाम जै़नुलआबेदीन, जो कि बीमारी के कारण युद्ध मे भाग न ले सके थे बचे। आज यजीद का नाम दुनिया से ख़त्म हो चुका है। कोई भी मुसलमान और इस्लाम पर आस्था रखने वाला शख्स अपने बेटे का नाम यजीद नही रखता। जबकी दुनिया मे अपने बच्चों का नाम हज़रत हुसैन और उनके शहीद साथियों के नाम पर रखने वाले अरबो मुसलमान हैं। यजीद कि नस्लो का कुछ पता नही पर इमाम हुसेन कि औलादे जो सादात कहलाती हैं दुनियाभर में फैली हुयी हैं। जो इमाम जेनुलाबेदीन  से चली।

दुनिया काएम होने से लेकर हर युग मैं हमेशा न्याय -अन्याय, सत्य -असत्य ,नेकी-बड़ी ,अच्छाई-बुराई एव हक और बातिल के दरमियान जंग होतो रही है. जिसमें जीत हमेशा न्याय, सत्य ,नेकी, अच्छाई ,एवं हक की ही हुई है. चाहे उसे ताक़त से जीता गया हो या कुर्बानियां दी गयी हों.जिसके लिए इतिहास गवाह है !

कर्बला भी धर्म और अधर्म के लिए घटित हुई थी जिसमें यजीद जैसा अधर्मी शासक ने महान धर्म परायण व पवित्र शक्सियत का क़त्ल कर के दुनिया के सामने अपनी हठधर्मिता एवं अविजेता का प्रदर्शन करना चाहता था.

ताज़िया बाँस की कमाचिय़ों पर रंग-बिरंगे कागज, पन्नी आदि चिपका कर बनाया हुआ मकबरे के आकार का वह मंडप जो मुहर्रम के दिनों में मुसलमान लोग हजरत इमाम हुसेन की कब्र के प्रतीक रूप में बनाते है,और जिसके आगे बैठकर मातम करते और मासिये पढ़ते हैं। ग्यारहवें दिन जलूस के साथ ले जाकर इसे दफन किया जाता है।
करबला की जंग :
करबला, इराक की राजधानी बगदाद से 100 किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में एक छोटा-सा कस्बा।
10 अक्टूबर 680 (10 मुहर्रम 61 हिजरी) को समाप्त हुई।
इसमें एक तरफ 72 (शिया मत के अनुसार 123 यानी 72 मर्द-औरतें और 51 बच्चे शामिल थे) और दूसरी तरफ 40,000 (प्रमाणित नहीं है )की सेना थी।
हजरत हुसैन की फौज के कमांडर अब्बास इब्ने अली थे। उधर यजीदी फौज की कमान उमर इब्ने सअद के हाथों में थी।
हुसैन इब्ने अली इब्ने अबी तालिब
(हजरत अली और पैगंबर हजरत मुहम्मद की बेटी फातिमा के पुत्र)
जन्म : 8 जनवरी 626 ईस्वी (मदीना, सऊदी अरब) 3 शाबान 4 हिजरी
शहादत : 10 अक्टूबर 680 ई. (करबला, इराक) 10 मुहर्रम 61 हिजरी।


इस सभी बातो की जानकारी होने के बाद मेरे मन में एक प्रश्न बार -बार उठ रहा है की मोहर्रम जब गम मनाने का त्यौहार है तो फिर बड़े -बड़े लाउड स्पीकर लगा कार जोर -शोर से फ़िल्मी गानों की धुन में सहादत के गीत क्यों गाते है ?जबकि गम में तो दुःख होता तो क्या दुःख को इस तरह से इजहार (प्रस्तुत) करना तर्कसंगत है क्या ? मेरे जो भी मुस्लिम मित्र है मैं उनसे मेरे मन की संकाओ का समाधान चाहता हु .....
नोट --यह ब्लॉग मैंने मेरे फेसबुक खाते से नोट्स में से लिया हुआ है  

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