गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ! अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम !!


एक समय विश्व में वैदिक धर्म की स्थिति काफी खराब थी। कई जातियाँ व उप-जातियाँ ऎसी थीं जो वेद, वेदांत और परमात्मा में कोई आस्था-विश्वास नहीं रखती थीं। एक वर्ग स्वयं को वैदिक धर्म का अनुयायी कहता था तो दूसरा जादू-टोने में विश्वास रखने वाला था। दोनों वर्ग स्वयं को परमात्मा में विश्वास रखने वाले कहते थे। लेकिन असलियत में उन्हे वैदिक धर्म से कोई वास्ता नहीं था। ऎसे ७२ अवैदिक समुदाय दुनिया में मौजूद थे।
ऎसी स्थिति में लोगों के व्यक्तिगत एवम सामाजिक जीवन में निरंतर ह्रास आ रहा था। ऎसी हालत में समाज के उत्थान के लिए तथा भले लोगों कॊ सुरक्षा प्रदान करने के लिए सर्वेश्वर का अवतार लेकर धरा पर उतरना आवश्यक हो गया था।
समाज की ऎसी दशा में प्रभु समय-समय पर इस धरती पर प्रकट होते रहे हैं। इस तरह वे धरती पर अपने विचारों का अनुपालन सुनिश्चित करते हैं। ऎसे अवतारों में से श्रीकृष्ण की शिक्षाओं की उप्योगिता सारे संसार के लिए तथा हर युग के लिए सार्थक साबित होती रही है। आज भी साधु-संत, योगी-तपस्वी उनकी शिक्षाओं में अटूट आस्था-विश्वास रखते हैं तथा समय-समय पर उनके बारे में प्रवचन करते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने उपदेशों की शुरुआत नवग्रहों में प्रथम सूर्यदेव से की। उसमें उन्होने सूर्यदेव को सनातन धर्म की शिक्षा दी। उनके बच्चों ने भी इसी धर्म को अपनाया। उसके बाद उनके वंशज भी इसी धर्म के अनुयायी बने रहे। लेकिन धीरे-धीरे इसका महत्व कम होता गया। ऎसी हालत में द्वापरयुग में भगवान कृष्ण ने पुन: अर्जुन को धर्म के पुनरुद्वर के ध्येय से फिर से सनातन धर्म की शिक्षा दी। महाभारत काल में भगवान ने नर
रूप में अर्जुन को यह शिक्षा दी। भगवान ने अर्जुन को माया के भ्रम जाल में डालकर उसको अपनी असलियत का पता चलने नहीं दिया। इससे अर्जुन को भगवान कृष्ण की शिक्षाओं के बारे में शंकायें पैदा होने लगीं। अपने संदेह को व्यक्त करते हुए वह श्रीकृष्ण से पूछता है:-

"अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वत:।
कथमेतद्विजाननीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥"
(गीता अध्याय ४ का श्लोक ४)
(अर्थाथ - हे कृष्ण! आपका जन्म तो अभी द्वापरयुग में हुआ है, जब कि सूर्यदेव तो कृतयुग से पूर्व से मौजूद हैं। फिर आप कैसे कहते हैं कि आपने सूर्यदेव को सनातन धर्म की शिक्षा दी? कृपया जन्म मरण के इस रहस्य को मुझे समझाइये।)
उनकी भ्रांति दूर करते हुए कृष्ण कहते हैं:-

" बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप॥"
(गीता अध्याय ४ श्लोक ५)
(अर्थात - हे अर्जुन ! इसके पूर्व भी हमारे अनेक जन्म हो चुके हैं। मुझे उन सभी का ज्ञान है, जब कि तुम्हे नहीं है।)
लेकिन सिर्फ इतना कहकर कृष्ण ने अपना स्पष्टीकरण पूरा नहीं किया। यदि ऎसा होता तो अर्जुन को अवतार कृष्ण साधारण इंसान लगते और उन्हे उनसे और अधिक स्पष्टीकरण लेने की आवश्यकता महसूस न होती। वे सोचते कि जैसे कि उनके खुद के पूर्व में कई जन्म हो चुके हैं, वैसे ही कृष्ण के भी अनेक जन्म हो चुके हैं। फिर दोनों में अंतर ही क्या रहा। अवतार से यह पूछने के बजाय कि ’आपको अपने पूर्व जन्मों का ज्ञान कैसे है’ उन्होने यही पूछा कि ’आपके इतने जन्म क्यों हुए? अर्जुन को श्रीकृष्ण अवतार रूप में नहीं, बल्कि अपने समान ही इंसान प्रतीत हो रहे थे। इसलिए उनको अवतार के स्वत: के पूर्व जन्मों के ज्ञान का विचार ही नहीं हुआ।
अर्जुन साधारण इंसान होने के कारण कर्म-फल के नियम के अनुसार जन्म-मृत्यु के चक्र में बँधे थे। लेकिन अवतार पर यह नियम लागू नहीं होता था। फिर अवतार भी जन्म-मृत्यु के चक्कर में क्यों पडते हैं? अवतार ने द्वापर युग में कृष्ण स्वरूप में जन्म महाभारत में अपनी भूमिका - दुष्ट दलन- हेतु लिया था। उसी तरह अन्य युगों और कालों के दौरान वे अन्य कारणों से इस धरा पर अवतरित हुए। अवतार कर्म-फल से नहीं: बल्कि अपने संकल्प से ही इस धरा पर जन्म लेते हैं और फिर अवतारी भूमिका पूरी करने पर यहाँ से चले जाते हैं।
भले ही कुरूक्षेत्र के रण में अर्जुन को यह प्रश्न न सूझा हो; तथपि अवतार को पता होगा ही कि आने वाली पीढियोँ यह सवाल पूछेंगी ही। सर्वेश्वर को पता रहा होगा कि उनके और अर्जुन के मध्य यह संवाद कालान्तर में महर्षि वेद व्यास द्वारा लेखनीबद्ध किया जायेगा, जिसको आने वाली पीढियाँ पढेंगी। इसलिए भविष्य के पाठकों की जिज्ञासा शांत करने के लिए उन्होने स्वयं ही उत्तर देना शुरू कर दिया :-

" अजो अपि सन्नव्यायात्मा भूतानामिश्वरोमपि सन ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥"
(गीता अध्याय ४ श्लोक ६)
(अर्थात - मैं अजन्मा कभी नष्ट न होने वाली आत्मा हूँ। इस सकल सृष्टि का स्वामी भी मैं ही हूँ। सभी जीव एवम प्रकृति मेरे ही नियंत्रण में हैं। मैं ’योग माया’ संकल्प से इस धरा पर प्रकट हो जाता हूँ।)
इस दिखाई पड्ने वाले जगत का अस्तित्व योग माया की भक्ति के आधार पर ही है। उसी शक्ति से सर्वेश्वर भी अवतार लेकर धरती पर प्रकट हो जाते हैं। सभी जीवों की सत्व, रजस और तमस त्रिगुणात्मक प्रकृति होती है। अपनी इस प्रकृति के अनुसार ही वे कर्म करते हैं और उनका फल आने वाले जीवन में भुगतते हैं। इसी के फलस्वरूप उन्हे अपने जन्मों के दौर से गुजरना पडता है।
सर्वेश्वर पर यह नियम लागू नही होता है। जरूरत महसूस पडने पर ही वे अपने संकल्प से धरा पर प्रकट हो जाते हैं।
(१) अवतार का जन्म
भगवान धरती पर अपने जन्म के विषय में कहते हैं:-

" यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥"
(गीता अध्याय ४ श्लोक ७ तथा ८)
(अर्थात - जब धरती पर स्थापित धर्म की हानि हो जाती है और उसके स्थान पर अधर्म और गंदी शक्तिया हावी हो जाती है तो मैं अवतार लेकर धरा पर उतर आता हूँ। मैं हर युग में अधर्म द्वारा धर्म को पहुँचाई गई हानि को दूर करने और साधु-संतों की रक्षा के लिए अवतार लेता हूँ। इस प्रकार मैं धर्म की फिर से स्थपना के साथ ही राक्षसों सरीखे दुष्टों को तहस- नहस कर देता हूँ।)
लेकिन धर्म की फिर से स्थापना का यह कार्य सिर्फ थोडे समय के लिए नहीं होना चाहिए। इस प्रकार फिर से स्थापित धर्म को कुछ समय तक चलना चाहिए, जिससे बुरी ताकतें सिर न उठा सकें तथा विश्व में सुख-शांति बनी रहे और साधुजन बिना किसी बाधा के भले कामों में लगे रहें।
अवतार द्वारा इस प्रकार धर्म को फिर से स्थापित करने के कर्म को मात्र सीमित समय के लिए नहीं समझा जाना चाहिए। धर्म की यह स्थिति बनी रहनी चाहिए; ताकि आम आदमी द्वारा किए जाने वाले भले कार्यों में कोई बाधा न पहुँचे और वे निरंतर सत्कार्य करने के लिए अनुप्ररित होते रहें।
प्रभु के धरा पर आगमन के फलस्वरूप ही अधार्मिक शक्तियों का विनाश और धार्मिक शक्तियों की ’पुनर्स्थापना’ होती है। लेकिन यह स्थिति सदा के लिए नहीं बनी रह सकती है। यह तभी तक संभव होता है, जब तक धार्मिक शक्तियाँ सबल बनी रहें तथा अधार्मिक शक्तियों को फिर से सिर न उठाने दें। दोनों विपरीत शक्तियों को फिर से सिर न उठाने दें। दोनों विपरीत शक्तियों में से धार्मिक शक्तियों के सशक्त रहने तक ही ऎसी स्थिति चल सकती है। परन्तु यह भी सही है कि काली शक्तियों में अपनी हीन स्थिति से जल्दी ही उबरने की क्षमता होती है और धार्मिक प्रवृत्तियों के जरा भी शिथिल पड जाने पर उनके ऊपर हावी हो जाती हैं। फलत: सर्वेशवर को युगे-युगे अवतरित होना पडता है।
यहाँ पर युगे-युगे का यह तात्पर्य नहीं है कि सर्वेश्वर एक युग में एक ही बार जन्म लेकर धरती पर आते हैं। उनके कथन का मंतव्य यही है कि ’धर्म संस्थापनार्थाय’ उन्हे जितनी बार जन्म लेना पडे, वे लेते हैं। इसमें उनको किसी किस्म की थकान या पीडा का बोध नहीं होता है। धर्म की फोर से स्थापना, साधु-संतों की रक्षा और दुष्टों के दलन के लिए वे कभी भी अवतरित हो सकते हैं।
’परित्राणाय साधुनाम’ से साफ है कि धर्म का पालन करने वालों की संख्या बहुधा कम ही होती है और उनको सुरक्षा प्रदान करने के लिए वे कितनी ही बार जन्म ले सकते हैं। साफ है कि कर्म-फल का नियम उन पर लागु नही होता और माया शक्ति से कभी भी और कहीं भी अवतरित हो सकते हैं।
(२) अवतार लेने के कारण :
योगमाया की अपनी क्षमता के बल पर वे प्रकृति को अपने अधीन कर लेते हैं - ’प्रकृतिम स्वामधिष्ठाय" (गीता अध्याय ४ श्लोक ६)। साथ ही गीता के नवें अध्याय के आठवें श्लोक में वे कहते हैं, "प्रकृतिम स्वामवष्ट्भ्य" । ’अधिष्ठाय’ और अवष्टभ्य’ में क्या कोई अन्तर है? कदापि नहीं। गीता के चौथे अध्याय के छ्ठे श्लोक में श्रीकृष्ण अपने जन्म के बारे में कहते हैं तो आठवे अध्याय के दसवें श्लोक में वे कहते हैं कि ’प्रलय काल में मैं योगमाया के बल पर प्रकृति को अपने वश में कर सारे जीवों की सृष्टि करता हूँ।’

"प्रकृतिम स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन: ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशम प्रकृतेर्वशात॥"
(गीता अध्याय ९ श्लोक ८)
(अर्थात - मैं प्रकृति को अपने वश में करके संपूर्ण जीवों को उनके कर्मफल के अनुसार बारम्बार रचता हूँ।)
चौथे अध्याय के श्लोक छ: में सर्वेश्वर कहते हैं कि वे धर्म की पुनर्स्थापना के लिए अवतार लेते हैं, जबकि नौवें अध्याय के आठवे श्लोक में वे कहते हैं कि प्रलय काल में अपने कर्मफल के अनुसार जिन जीवों की मृत्यु हो जाती है, वे उनको पुनर्जन्म प्रदान करते हैं। दोनों स्थितियों में अपनी योगमाया शक्ति के बल पर वे प्रकृति को अपने नियंत्रण में लेने की बात करते हैं। उन्हें ऎसा क्यों कहना पडा?
यहीं पर भगवान के अवतार लेकर धरती पर प्रकट होने के पीछे रहस्य का उदघाटन हो जाता है। वे अवतार लेने के पीछे मूल कारणों को स्पष्ट करते हैं। ऎसा करते हुए वे गीता में उल्लिखित दो शब्दों "अधिष्ठाय" तथा "अवष्ट्म्य" का इस्तेमाल करते हैं । फिर भी हमारा मन शंकाओं से मुक्त नहीं होता है। सवाल उठता है कि क्या यह सही है कि धर्म की हानि होती है या उसको दबा दिया जाता है? उसकी फिर से स्थापना करके उसको स्थायी बनाने के लिए प्रभु ने सोचा होगा - क्या यही पर्याप्त नहीं होगा कि संकल्प के आधार पर इसकी फिर से स्थापना की जाये? फिर मनुष्य देह में दुष्टों का विनाश करते हुए वह खुद भी घायल हो जाएँ। ऎसा खतरा मोल लेने की जरूरत ही क्या है? हमारी भाँति सत, चित, आनंद के स्वरूप को भी खतरों का सामना करना पडेगा। उस सर्व-शक्तिमान के लिए इसकी जरूरत ही क्या है? वे बैकुण्ठ या कैलाश में दैवी आवास में बैठे-बैठे संकल्पमात्र से यह कर सकते हैं। फिर उनको धरती पर जन्म लेकर आने की जरूरत ही कहाँ है? ऎसे अनेक सवाल मन में उठते हैं।
स्पष्ट है कि दैवी संकल्प से कोई भी चमत्कार सम्पन्न किया जा सकता है। यदि वे संकल्प मात्र से कुछ भी कर सकते हैं तो कल्प के अंत में उन्हे प्रलय के जरिए अपनी यह सारी सृष्टि समेटनी ही है तो वह संकल्प कैसा होगा? तब वे अपनी सृष्टि की इस रचना को मात्र ’किई विश्व नहीं’ के संकल्प भर से समाप्त कर देगें तथा स्वयं भी निराकार-निर्गुण बन सत-चित्त-आनंदमेम समा जायेंगे।
लेकिन प्रभु इसी निराकार स्थिति में नहीं रहना चाहते हैं। इसीलिए उन्होने ब्रह्माण्ड की सृष्टि की। शुरुआत में सत-चित-आनंद की स्थिति में परब्रह्म उस ब्रह्माण्ड में अकेले थे। इस एकांत में उन्हे आनंद नहीं मिल सकता था। इसलिए उन्होने हम सरीखे जीवों की सृष्टि की, जिनके साथ वे खिलौनों की तरह क्रीडा कर सकें।
कल्प-प्रलय के समय जिन जीवों की मृत्यु हो गई थी, सर्वेश्वर ने हजारों चतुर्युगों में उनकी यथास्थिति बनी रहने दी। अंतत: उन्होने उनको पुनर्जीवित कर द्या, जिससे वे अनेक जन्मों के दौरान अपने कर्म-फल को पूरा भुगत कर उसको शून्य बना मोक्ष के पात्र बन जायें।
इतना होने पर भी सवालों का कोई अंत नहीं। इस सृष्टि को सृजित करने में तथा प्रलयकाल में जान गँवाए प्राणियों को फिर से हजारों युगों के बाद पुनर्जीवित करने में तुक ही क्या था? कुछ नहीं कहा जा सकता। सिर्फ पुराणों में इस विषय में ’कल्पना’ तथा ’माया-जाल’ का उल्लेख का ही ध्यान आता है। इन अनुत्तरित सवालों व शंकाओं के कारण ही इसको ’प्रभु की लीला या ’दैवी महिमा’ कहकर संतोष किया जाता है।
प्रभु के क्रियाकलापों की कोई थाह नहीं ले सकता है। कभी यह देखकर भी ताज्जुब हो जाता है कि प्रभु कभी कभार आपा क्यों खो देते हैं ? फोर भी प्रशांति अंतरात्मा रूप में वे निरंतर आनंद-मग्न रहते हैं।
उन्हें न तो अपनी सृष्टि के जीवों में आपसी सामंजस्य की चाहत है और न ही वे अपने इस व्यापार को समाप्त करना चाहेगें । अपनी चाहत के कारण उन्होने इसको शुरू किया और अब उसी चाहत की संतुष्टि के लिए इसको पूरे जोरों से चला रहे हैं। ऎसी परिस्थिति में प्रलय भी इस नाटक के ऎक अंग की भाँति है जो इस सारे नाटक को कभी समाप्त न कर पायेगा।
इन सारी बातों को छोडकर भी यह जिज्ञासा तो जागृत होती ही है कि प्रभु अपने संकल्प मात्र से ही इस सृष्ति का सृजन और परिचालन क्यों नहीं करते हैं? उन्हे अवतार लेने की जरूरत ही क्या है? इस सृष्टि को उन्होने जिस प्रकार सृजित किया, उसी तरह इसका समापन भी कर सकते हैं। फिर अवतार लेने का प्रयोजन ही क्या है?
(३) अवतार लेने का प्रयोजन क्या
हम मान ले कि ’धर्म संस्थापन’प्रबु का संकल्प है। धार्मिक शक्तियाँ अधार्मिक शक्तियों पर विजय प्राप्त कर उन्हें तहस नहस कर देती हैं। क्या प्रभु ऎसा संकल्प नहीं ले सकते हैं कि धार्मिक शक्तियों की यह विजय स्थायी हो और दुष्ट प्रवृत्तियाँ फिर उन पर कभी हावी न हों? ऎसा नहीं हो सकता है। सर्वेश्वर ने सारे ब्रह्माण्ड की संरचना एक खेल के तौर पर मनोरंजन के लिय की है। खेल में हार जीत, उतार चढाव होने पर ही उसमें रस आता है; आनंद मिलता है। इसीलिए उन्होने यहाँ अनेक किस्म के जीवों को सृजित किया है, जिनकी प्रकृति और गुण भी उतने ही किस्म के होते हैं। इन जीवों में आपस में इस धरती पर बने रहने के लिए जो रस्सा-कस्सी मचती है, उसको देखना ही रोमांच और आनंददायक है। यही इस दैवी लीला का ध्येय भी है। इसमें लाभ-हानि, सुख-दुख, क्रोध-रोमांच सरीखे सभी ’नवरसों’ की प्राप्ति होती है। यदि सभी धर्म-प्राण हों तो सभी के व्यवहार में एकरूपता आ जायेगी। फिर सारा खेल ही निरस हो जायेगा। ऎसी हालत में दैवी संकल्प ही निरर्थक पड जयेगा।
उन्होने इस सृष्टि की संरचना ’मिश्र लोक’ स्वरूप में की, जिसमें भलाई-बुराई सभी मैजूद दिखते हैं। अपनी सृष्टि के विभिन्न जीवों के दिए उन्होने विभिन्न लोकों को सृजित किया है - उदाहरणत: ’असुर लोक’ (आसुरी प्रवृत्ति के लोगों के लिए), देव-गंधर्व लोक’ (जहाँ सदैव आनंद है), ’तपो लोक’ (जहाँ सदैव शांति छाई रहती है) और ’सत्य लोक" (जहाँ लोग सत्य पर ही आचरण करते हैं)।
हमारे निवास स्थल इस पृथ्वी को भगवान ने ’मिश्र लोक’ के रूप में सृजित किया है। यहाँ के निवासियों को अपने क्रियाकलापों में कुछ हद तक स्वतंत्रता दी गई है। कोई सत्य-धर्म पर आचरण करता है तो कोई जाल-फरेब से भी बाज नहीं आते हैं। इसी विविधाता के कारण यहाँ की गतिविधियों में रोचकता रहती है। विविधता के न होने पर यह ’अमिश्र लोक" ही बनकर रह जाता। फिर प्रभु के दैवी संकल्प की उपयोगिता ही क्या रहती?
सभी धर्म पर चलने का नतीजा यही होगा कि सभी के काम एक ही समान होंगें, उनमें कोई विविधता नहीं रहेगी। कर्मफल भोगने तक सभी मिश्र लोक में ही रहेंगे। कर्मफल शून्य हो जाने पर वे मोक्ष प्राप्त कर जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटकारा पा लेंगे। इस तरह सृष्टि का सृजन जीवों के द्वारा ही हो जायेगा; जब कि सर्वेश्वर ही ऎसा करना चाहेंगे। वे सोच सकते हैं कि जिन जीवों का उन्होने सृजन किया है, उन्हे सृष्टि का अंत करने का क्या अधिकार है? इस सृष्टि रूपी नाटक के निदेशक होने के नाते उसके समापन का अधिकार केवल उन्ही का है।
सर्वेश्वर ने जो दैवी लीला की है, वह स्थायी रूप से धर्म-संस्थापन हेतु नहीं है। ऎसा होने पर तो लीला आगे बढ ही नहीं पायेगा और उसको पूरी तौर पर समाप्त करना पडेगा। ऎसी हालत में दैवी क्रीडा मुमकिन न हो पायेगी। यदि ऎसा है तो वे धर्म की स्थायी रूप से स्थापना की सोचेंगे ही नहीं। आगे चलकर जब कभी स्थिति खराब हो जायेगी तो सर्वेश्वर अपने संकल्प से उसको सुधार लेंगे। फिर उनके अवतार लेने की आवश्यकता कहाँ रही?
बार-बार दैवी संकल्प के बावजूद अधार्मिक शक्तियाँ जन्म लेती रहेंगी, जिससे संकल्पों का यह सिलसिला चलता ही रहेगा। निस्सन्देह अवतार लिए बिना भी वे ऎसा कर सकते हैं। लेकिन फिर इस सृष्टि को सृजित करने के उनके संकल्प की उपयोगिता ही क्या रही? उन्होने तो अपने द्वारा सृजित जीवों की गतिविधियों की विविधता का आनंद लेने और क्ष्णिक शांति का सुख उठाने के लिए यह विश्व रूपी मंच तैयार किया था।
लेकिन सर्वेश्वर को वैसी शांति पसंद नहीं, जैसी हम समझते हैं। इसीलिए उन्होने सृष्टि का सृजन कर उसमें मौजूद प्राणियों के लालन-पालन की व्यवस्था की तथा साथ ही उनके कर्मफल का लेखा-जोखा रखने की व्यवस्था सृजित की। भले ही हम उनके दायित्व का भार स्वयं भी ग्रहण कर लें, लेकिन जिस ध्येय को लेकर उन्होने संकल्प लिया है, उस पर वे खुद ही कार्यवाही सुनिश्चित करना चाहेंगे।
इसके बजाय कि सर्वेश्वर निराकार-निर्गुण स्वरूप में ही मात्र ’संकल्प’ के जरिये ’धर्म-संस्थापन’ करते रहें; हम भली भांति जान लें कि वे इस ब्रह्माण्दीय नाटक (लीला नाटक साई) को स्वयं ही खेलना चाहेंगे। बेहतर होगा कि हम जान लें कि इस दैवी नाटक के लेखक, अभिनेता, संचालक आदि वही हैं। संचालक के तौर पर उन्होने सोचा होगा, ’मात्र संकल्प करने में ही क्या आनंद है?" इसके बजाय उन्होने अवतार लेकर खुद भी इस नाटक का मंचन करना बेहतर समझा।
भगवान कोई भी संकल्प लेते हैं तो उसके क्रियान्वयन के लिए वे इस धरा पर किसी माध्यम को भेजते हैं, जिसके जरिए यह संकल्प फलीभूत होता है। यह संकल्प भी प्रभु के स्व-निर्धारित कर्मफल के नियम से बँधा होता है। इन अधार्मिक शक्तियों का उदय भी प्रकारान्तर से उनके संकल्प का ःई प्रतिफल है। यदि साधु-संत एवम ज्ञानीजन प्रभु के भले संकल्प के माध्यम होले हैं तो चोर-डाकू, राक्षस-दैत्य उनके नकारात्मक संकल्प के ही माध्यम बाते हैं। ऎसी शक्तियों के अनाचार से पीडित-जन रक्षा की गुहार करते हैं उसी का उत्तर प्रभु अवतार लेने के संकल्प के माध्यम से देते हैं।
इस कलियुग में लोगों के मन में गंदी भावनाएँ भरी पडी हैं। ऎसी भावनाऎँ नकारात्मक विचारों को जन्म देती हैं। उनके फलस्व्रूप आदमी गंदे कामों में लिप्त रहता है। वह उन्ही में अपने जीवन की सार्थकता समझता है। फलत: वह अपने जीवन को तो नषट करता ही है, साथ ही वह अपने सम्पर्क में आने वालों का जीना भी हराम कर देता है।
इन कर्मफल जनित भले-बुरे कर्म के लिए प्रभु उसका माध्यम बनाते हैं जो ऎसे कर्मों को करने का जरिया बनता है। जिस तरह नाटक में उतार चढाव, भलाई-बुराई का मिश्रण होता है, उसी तरह लीला साईं नाटक में भी भलाई बुराई, धर्म-अधर्म का मिश्रण होता है। काली शक्तियों के अत्याचारों से प्रभावित जनता जब प्रभु से ’त्राहि-त्राहि’ की गुहार लगाती है, तभी प्रभु ’धर्म-संस्थापनार्थ’ धरा पर अवतरित होते हैं।
फलत: जब धर्म काली शक्तियों के धुष्कर्मों से तहस नहस हो जाता है तो प्रभु धर्म-संस्थापन का माधयम किसी संत-महात्म को धरा पर भेजते हैं। बही उनका संदेश-वाहक बनता है। उसके असफल होने पर ही प्रभु खुद भी अवतार लेकर धरा पर आ जाते हैं।

(४) मानवीय तथा दैवी गुण
सर्वेश्वर धर्म-संस्थापन के लिए अवतार धरा पर उतर आते हैं। लेकिन इस अवतरण के पीछे दूसरे कई कारण होते हैं, जिनके बारे में हमें कोई पता नहीं होता है। धर्म की शिक्षा देना ही पर्याप्त नहीं है। दैनिक जीवन में इस पर आचरण भी होना चाहिए। तभी जाकर धर्म-संस्थापन फलदायी बन सकता है। ’आदर्श पुरुष’ जब अपने व्यवहारिक जीवन में भी धर्म पर चलता है तो उसकी प्रतिक्रिया समाज के दूसरे लोगों पर भी होती है। वे सोचने लगते हैं, "यह भला आदमी कितना महान है जो धर्म पर चल रहा है। उसके जीवन में सुख-शांति सुख-शांति छाई है। अपने उदाहरण के जरिये वज समाज के अन्य लोगों में भी अनजाने ही भली भावनाओं को अनुप्रारित कर रहा है और इस प्रकार उन्हें भी आनंदित कर रहा है।" फिर जीवन-सुधार की एक लहर ही चल पडती है। ऎसे ’आदर्श पुरुष’ का नमूना बनकर ही भगवान अवतार लेते हैं।
क्या दैवत्व के अवतार के लिए यह घोषित करना उपयुक्त होगा कि वे सभी से श्रेष्ट हैं? क्या अवतार यह उद्घोष करे कि वह सामान्यजन की भांति इच्छाओं एवम भावनाओं से ग्र्सित महीं है? निश्चय ही वे ऎसा नहीं चाहेंगे। यदि वे स्वयं को अपनी संरचना से अलग कर देते हैं तो फिर वे खुद को शेष जीवधारियों का संरक्षक नहीं बना सकेगें । यदि वे स्वयं दीन-हीन एवम पददलित जन से अलग करने लगेंगे तो आदर्श पुरुष कैसे कहला सकेंगे? उदाहरणार्थ यदि कोई पहलवान अपने शारीरिक बल के बूते दाँतों में रखी रस्सी से वायुयान को खींचने का करिश्मा कर दिखाये तो हम बेशक इस पर प्रसन्नता जाहिर करते हुए ताली बजा सकते हैं, परन्तु क्या हम खुद भी वैसा ही चमत्कार कर दिखाने की हिम्मत कर सकते हैं? कदापि नहीं। हम मात्र इतना कहकर रह जायेंगे कि " भले ही उसके लिए यह संभव हो गया हो; लेकिन हम तो साधारण प्राणी हैं। हम दाँतों से वायुयान कैसे खींच सकते हैं?"
उसी तरह यदि दैवत्व का अवतार संसार की चोटी पर खडे रहकर अपने अवतारी संकल्प को भले ही पूरा कर दें, हम उनकी प्रशंसा के तौर पर भक्तिभाव प्रदर्शित कर ही रह जायेंगे। उनको प्रशंसा के तौर पर भक्तिभाव प्रदर्शित कर ही रह जायेंगे। उनको अपने मध्य पाने और इस तर्ह ’आदर्श पुरुष’ समझने की हम कल्पना तक न कर पायेंगे। हमारी प्रतिक्रिया होगी, वे हमारी श्रेणी में नहीं आते हैं, उनमें तो सामान्य जन में पाई जाने वाली सामाजिक भावना तक नहीं है। इसलिए हम भले ही उनको द्ण्दवत प्रणाम कर लें, लेकिन हम उनका अनुसरण कदापि नहीं करेंगे।"
इसीलिए अवतार जब धरती पर आता है तो साधारण मनुष्य रूप में ही आता है और आम आदमी की तरह ही व्यवहार करता है। हाँ, इतना जरूर है कि जब भलाई और बुराई के बीच रस्सा-कस्सी चलती है तो वह हमेशा भलाई के पाले में रहेगा। अपने व्यवहार से वह दिखला देगा कि सीधे और सच्चे मार्ग पर चलते भी जीवन की सारी समस्याओं का सामाधान किया जा सकता है। इससे मन को जो शक्ति प्राप्त होती है, उससे आत्मविश्वास की भावना पैदा होती है जो व्यक्त्ति में ऊर्जा पैदा करती है। फलत: वह उत्साह के साथ सत्य-धर्म के मार्ग पर चल सकता है। इसमें पडने वाली दिक्कतों का वह हिम्मत के साथ सामना करेगा। उसको भरोसा होगा कि शास्त्रों में की गई बातों को जीवन में अपनाना आवश्यक ही नहीं, लाभदायक भी है।
अवतार साधारण इंसान की भांति भले-बुरे हर किस्म के कामों में लगे रहें तो समाज के दूसते लोगों का उन्हें ’आदर्श पुरुष’ के तौर पर अनुकरणीय समझना संभव न होगा। वैसे दुनिया में धर्म पर आचरण करने वाले लोगों की भी कमी नहीं होगी; लेकिन हर किसी को ’आदर्ध पुरुषि की भाँति कम ही लिया जा सकता है। अपने देश में गांधी जी का ही उदाहरण ले लें। उन्होने सत्य और अहिंसा का रास्ता अपनाया और इसी रास्ते पर चलते हुए देश को परतंत्रता की बेदियों से मुक्ति भी दिलाई। उनके अनुयायी इतने अधिक लोग हो गये थे कि अंग्रेज शासकों के लिए उनकॊ बात अनसुनी करना मुमकिन न हुआ। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उनके रास्ते पर आज देश के कितने लोग चल रहे हैं ? बहुत कम। उनके उसूलों को भी लोग भूल से गये हैं।
भगवान मनुश्य देह धारण कर धरती पर आते हैं, जिससे लोग उनका अनुकरण कर धर्म के रास्ते पर चलें और आगे भी उसी तरह उच्च आदर्शों वाला जीवन बितायें। लोग उनके समीप आयें और उनके दैवत्व से प्रभावित होकर अप्ना दैवत्व भी उज्जागर करने को अनुप्रारित हो सकें। वे यदा-कदा अपने चमत्कारॊ कार्यों से भी लोगों को बुराईयों को त्यागकर धर्म-पथ पर चलने को अनुप्रेरित करते हैं।
एक पूर्व अवतार के दौरान बाल्यकाल में ही उन्होंने ताडका और सुबाहु सरीखे भयंकर राक्षसों को मार गिराया था। राज्यभिषेक के ऎन पहले उन्हे १४ साल का बनवास दिया गया तो उन्होने पिता की आज्ञा की भाँति व्यवहार करते रहे। उन्होने अपने दैवत्व का जरा भी प्रदर्शन नहीं किया। इस प्रकार वे एक ओर तो साधारण इन्सान की भाँति जीवन बिता रहे थे और उसी समय अपनी दैवत्वपूर्ण विशेषताओं का भी प्रदर्शन कर रहे थे। इस तरह वे साधारण जन को भी श्रेष्ठतापूर्ण जीवन बिताने को अनुप्रेरित कर रहे थे।
निस्सन्देह, भगवान की तुलना में साधारण व्यक्ति बहुत कम क्षमतावान है। लेकिन उसको यही महसूस करते हुए हाथ पर हाथ रख नहीं बैठे रहना चाहिए। यदि वे अपनी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को नियंत्रण में रखकर सही तरीके से जीवन बितायें तो वे भी अपनी सुषुप्त क्षमताओं को प्रकाश में लाकर चमत्कारी कार्य कर सकते हैं। विशेषतया यौगिक क्रियाओं के द्वारा वे आश्चर्यजनक शक्तियाँ प्राप्त कर सकते हैं।
लेकिन आम आदमी को अपने आत्मबल का बोध नहीं रहता है। भगवान इसीलिए अवतार लेकर धरा पर उतरते हैं, जिससे धर्म की स्थापना के साथ ही व्यक्ति को अध्यात्म के रास्ते पर चलने को प्रवृत्त किया जा सके। मात्र दैवी संकल्प से धर्म की पुनस्थार्पना संभव न हो सकेगी। इसीलिए भी भगवान मानव-देह धारण कर धरा पर उतरते हैं।
भगवान भी अपने बच्चों के साथ खेलना व हँसी -विनोद करना चाहते हैं। विश्व के सभी जीवधारी उनके बच्चों के समान ही हैं। लेकिन अपने निराकार-निर्गुण स्वरूप में उनके लिए ऎसा करना कठिन होगा। दूसरी ओर, यदि वे विषणु के विशाल स्वरूप में आते हैं तो क्या संसार के प्राणी ऎसे स्वरूप से भय नहीं खायेंगे? ऎसी हालत में क्या वे उनके समीप आने की हिम्मत भी कर पायेंगे? अधिक संभव है कि उस दैत्याकार स्वरूप को देखकर ही संसार के प्राणी भय के मारे जान ही गँवा बैठेंगे।
इसीलिए प्रभु जब धरा पर उतरते हैं तो मानव देह धारण कर ही उअतरते हैं, जिससे वे मनुष्यों के साथ हिल-मिल सकें। ऎसे सामिप्य की दशा में ही अवतार समाज के लोगों के तौर-तरीकों में सुधार ला सकेगा। उनके साथ घुल-मिलकर उनसे एकत्व स्थापित कर सकेगा। उस हालत में लोग उनसे आसानी से प्रभावित हो सकेंगे और उनकी अनुकरणिय बातों को अपनाने को अनुप्रेरित होगें। इस तरह समाज में सत्य, ज्ञान, शांति और प्रेम सरीखे सदगुणों का प्रसार हो सकेगा। यही धर्म भी सिखाता है। इस प्रार निराकार सर्वेश्वर के मनोरंजन के साथ ही प्राणियों एवम समाज का उत्थान भी संभव होगा।
मनुष्य देह में भगवान विषयक हमारी अवधारणा को सुस्पष्ट करने के लिऎ वे कहते हैं, " मैं सामान्य प्राणी की भांति रहता हूँ। इससे मुझे तुम लोगों के समान ही समझा जा सकता है। फिर भी मेरे दृष्टिकोण में तुम लोगों के नजरिये से कुछ फर्क है। तुम सभी लोग माया जाल में फँसे रहते हो; लेकिन इसके विपरीत माया मेरे नियंत्रण में रहती है। मैं प्रमात्मा परब्रह्म स्वरूप हूँ। इसीलिए माया मेरा स्पर्श तक नहीं कर सकती है। मैं ईश्वरीय रगंमंच का स्वामी हूँ। इस दैवी लीला नाटक के मंचन के लिऎ मैं माया को अपने हाथों का खिलौना बनकर उसका इस्तेमाल करता हूँ। उसके जरिये मैं ब्रहमाण्ड का सृजन करता हूँ। प्रलय के समय जो प्राणी एकत्व में समा गये थे, उनको पुनर्जीवित कर मैं उन्हे दैवी लीला नाटक्स में विभिन्न पात्रों के रूप में अभिनय करने हेतु विश्व मंच पर भेज देता हूँ। जब धर्म पूर्ण्तय तहस-नहस हो जाता है तो मैं माया को अपने नियंत्रण में करके उसका उपयोग सृजन, पालन और विनाश के त्रिगुणों को प्रकट करने के लिए करता हूँ। इस तरह मैं मनुष्य और अवतारी स्वरूप में समानता भी बनाये रखता हूँ।"
मनुष्य के बारे में वे कहते हैं कि मनुष्य माया-जाल में फँसे रहने के कारण उन पर माया हावी नहीं रहती है। फलत: उन्हे अपने अंतर्स्थित दैवत्व का बोध नहीं होता है। दूसरी ओर, अवतार माया के असर से मुक्त रहता है। वास्तव में माया उसके नियंत्रण में रहती है। इसीलिए वह अवतार के दैवत्व को प्रकाश में आने से नहीं रोक सकती है। स्वामी कहते हैं, " माया मेरी है। वह मेरी शक्ति है। उसको मैं अपने पास रखता हूँ। मेरी इच्छा के अनुसार वह मेरे पास रहति है या चली जाती है। ंऐं अंतरात्मा हूँ। मैं आत्मा का स्वामी हूँ। मुझसे बढकर कोई शक्ति नहीं है।"
इस तरह स्वामी ने मानव देह में अवतार के विषय में कई बातों को स्पष्ट कर दिया है। उन्होने दैवत्व के धरा पर अवतार लेकर आने के कारणों पर प्रकाश डाला है। साथ ही उन्होने सनातन प्राणी एवम सकल विशव के मालिक होने के बावजूद प्रभु के जन्म मरण के चक्र में होने की लीला को भी स्पष्ट किया है।
अधर्म के बढने पर भले लोगों को अनेक कष्ट झेलने पडते हैं। उनको सुरक्षा प्रदान करने के लिए भगवान बार बार अवतार लेकर धरती पर उतर आते हैं। वे कहते हैं कि अप्ने निराकार स्वारूप में उनको जब अकेलापन अखरने लगा तो उन्होने ब्रह्माण्ड की सरंचना की तथा इस सृष्टि को क्रियाशील रखा। ये सारे कार्य प्रभु के संकल्प मत्र से ही किये जा सकते हैं। कभी कभार वे ऎसे कार्यों को सम्पन्न करने के लिऎ किसी संत महात्मा को भी भेज देते हैं जो उनके संदेशवाहक के तौर पर कार्य करता है। उसके सफल न रहने पर वे स्वयं अवतार लेकर धरती पर आ जाते हैं। धर्म की पुनर्स्थापना का यह कार्य वे अपने उदाहरण अथवा उपदेशों के जरिये करते हैं। इस तरह उनका जीवन संदेश बन जाता है तथा वे आदर्श पुरूष बन जाते हैं। वे बताते हैं कि आम आदमी तो माया के वश में होता है, लेकिन अवतार पुरुष माया तो अपने वश में रखते हैं तथा उसका अपने माध्यम के समान इस्तेमाल करते हैं।
जब भगवान कहते हैं कि " अपने दैवी संकल्प से अथवा अपने माध्यम के जरिये से" वे धर्म-संस्थापन करते हैं तो यहाँ पर प्रभु के स्वयं ही अथवा उनके माध्यम में बहुत थोडा अंतर है। ऎसा माध्यम उनका संदेशवाहक होता है जो कोई दैवी संत ही होता है। ऎसे दैवी हस्ती की विशेषताएँ इस प्रकार की होती हैं:-
संत स्वरूप में भगवान
अभी तक अवतार, विशेषतया मनुष्य रूप में, के विषय मेम विचार किया जा चुका है। अब संत रूप में प्रभु के संदेशवाहक के गुणों के बारे में देखा जाये - भगवान का कथन है:-

" अनाश्रित: कर्मफलम कार्यम कर्म करोति य:
स: संन्यासी च योगी न निरग्निर्ना चाक्रिया:।"
(गीता अध्याय ६ श्लोक १)
(अर्थात - जो व्यक्ति कर्मफल की आशा के बिना कर्म करता है तथा अपना दायित्व समझ कर काम करता है, वही वास्तव में संयासी एवम योगी है। सर्म न करने वाला संत नहीं कहलाया जा सकता है।)
इसलिए मनुष्य एवम देवता सभी को कर्म करने पढ्ते हैं। कर्म किये बिना कोई नहीं रह सकता। साधारण इंसान और साधु में फर्क कर्म के पीछे भावना का है। केवल अपने स्वार्थ के लिए काम करने वाला साधारण व्यक्ति है; जब कि दूसरों के भले के लिए काम करने वाला साधु है।
आम आदमी जहाँ प्रसिद्धि और बेहतर फल की आशा से काम करता है तो दैवी भावनाओं से अनुप्रेरित साधु दूसरे के हित के लिए काम करता है, अपने फायदे के लिए नहीं। सर्वेश्वर के दैवी निर्देश पर काम करने वाला व्यक्ति अपने अंदर के सर्वेश्वर को जगाने और अंतत: उसी में लिन हो जाने के लिए काम करता है।
उस निराकार-निर्गुण सर्वेश्वर द्वारा प्रकट किये गये कुछ संस्कार हैं जिन्हे जीवधारियों को अपनाना चाहिए। उन पर चलने से ही यह ब्रह्माण्ड सचल-सक्रिय रह सकता है। कुछ संस्कार कर्म-फल सिद्धान्त मानने वालों के लिऎ हैं तो कुछ ऎसे भी हैं जो मात्र प्रभु में लीन होने की अभिलाषा रखने बालों के लिऎ हैं। वे सभी काम्य एवम निष्काम्य कर्मों को इन्ही संस्कारों का पालन करते हुऎ करते हैं।

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