गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

आस्था के नए दीपक जलाए ..

देश में जागरण के चिह्न दिखाई दे रहे हैं. यह एक अत्यंत शुभ लक्षण है, क्योंकि इसमें एक बड़े परिवर्तन की आहट सुनाई दे रही है. आवश्यकता मात्र इतनी है कि जागृति की यह लहर इतनी ऊंची उठे कि वह हमारी संकीर्णता की चहारदीवारी को छिन्न-भिन्न कर दे. क्योंकि जगे हुए तो हम अभी भी हैं. अपनी देखभाल तो हम बहुत जागरूक होकर कर रहे हैं. अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए जितने अंशों में हमें समाजोन्मुख होना पड़ता है, उतनी सामाजिकता तो हम अभी भी रखते हैं. सोये हुए हम नहीं हैं. हम खूब दौड़-धूप रहे हैं. किंतु यह जागरूकता हमारे स्वार्थ-पूर्ति के किये है. इसलिए आज प्रश्न जागने का नहीं, जागृति की दिशा का है. प्रश्न हमारी जागरूकता के भिन्न आयाम का है जिसमें वृहत्तर जीवन-संदर्भ हमारी संवेदना के हिस्से बन जाते है.
एक पशु भी अपनी और अपने बाल-बच्चों की देख-भाल कर ही लेता है. कई पशु तो अपने पूरे समुदाय की सुरक्षा ओद के प्रति भी सचेष्ट देखे जाते हैं. मनुष्य होकर भी यदि हम अपने पर-परिवार की खुशहाली में ही अपने को सीमित कर लें तो इससे पाशविकता ही पुष्ट होगी, मनुष्यता की मंजिल हमसे दूर ही रहेगी.
इसलिए प्रश्न पशुता से मनुष्यता में जागृति का है. हमें सही अर्थो में मनुष्य बनना है, अर्थात हमें समाज के प्रति, समाज की प्रगति के प्रति, सबके मंगल, सबके कल्याण, सबके सुख के प्रति जागरूक होना है. हमें ’मैं‘ से ’हम‘ में जाना है. हमने मैं..मैं बहुत कर ली और इसका परिणाम भी देख लिया. यह अंध भोगपारायणता, यह हृदयहीन बुभुक्षा, यह जघन्य परपीड़न-इन सबके जड़ में यह अत्यंत स्वार्थी ‘मैं’ ही क्रियाशील है. इस परिणाम को देख समझ कर भी इस संकुचित ’मैं‘ के खूंटे से बंधे रहना, हमारी पशुता को ही सिद्ध करेगा. इसलिए प्रश्न हमारी कायिक मनुष्यता से वास्तविक मनुष्यता में आरोहण का है.
हमें समाज के लिए सोचना है. पूरे समाज के लिए अपनी जिम्मेदारी समझनी है. समाज के लिए कुछ करना है. प्रतिदिन के जीवन का कुछ हिस्सा समाज-सेवा के लिए अर्पित हो, यह जागृति का वास्तविक अर्थ होगा. इस जागृति को हमें पूरी दुनिया में फ़ैलाना है, किंतु पहले इसे अपने घर, अपने समाज में प्रयोग कर साध लें, तो हमारी नींव मजबूत बनेगी. दुनिया की तमाम समस्याओं का समाधान इस एक सूत्र में पाया जा सकता है कि हम इनसान बनें और इनसान बनने का अर्थ है, दूसरों के लिए जीना सीखना. यह काम हम अपने परिवार में करते ही हैं. किंतु उन्हें हम ’दूसरा‘ नहीं मानते अपना मानते हैं. उसी प्रकार, जब हम सबों को अपना मानने लगेंगे, तो हम उनके लिये जीना सहज ही सीख लेंगे. उस दिन हमें अपनी खोई हुई मनुष्यता फ़िर से प्राप्त हो जायेगी. जन-चेतना में सोच का यह बिंदु दाखिल होगा तो जागृति का सही मुकाम हासिल करने में हम कामयाब हो सकेंगे.
यदि हम गौर करें तो पायेंगे कि यह विचार अब कोई नैतिक विचार या धर्म-विचार न रहकर, आज की आत्यंतिक आवश्यकता बन गयी है. यदि हमारी सीमित-संकुचित स्वार्थ-बुद्धि तिरोहित नहीं होती, हम अपने कुनबे को भरने में ही अपना परम पुरुषार्थ मानते रह गये, हमें अपना, अपनी सीमित परिधि का अहं ही घेरता-बांधता रहा तो आज के इस आणविक युग में मानव-समाज का अस्तित्व टिक नहीं सकेगा. आणविक शक्ति की बात छोड़ दीजिए, यह लोभ-लालच, यह गलाकाटू स्पर्धा, यह हिंसा और द्वेष की लपटें जो आज व्यक्ति- व्यक्ति के अंदर धधकती दिखाई देती है, मनुष्य के समाज को मटियामेट कर देने के लिए काफ़ी है. इसका नतीजा है कि आज देश और समाज ही नहीं टूट रहे, परिवार टूट रहे हैं, व्यक्ति तक टूट रहा है.
इस टूट को रोकना है, तो हमें उस शक्ति की खोज और प्रतिष्ठा करनी होगी, जो सबों को जोड़ता हो, जो हमें हमारी संकीर्णताओं से मु कर दे. इस शक्ति को हम परमात्मा नाम दें, विश्व-चेतना, विश्वात्मा नाम दें-जो भी नाम दें किंतु आज उस शक्ति को हमें अपने अंतर में प्रतिष्ठित करना होगा, अपने अनुभव का विषय बनाना होगा, जो बाहर के इस भेद-भावमूलक, सत्ता-प्रतिष्ठानमूलक व्यवस्था का उदभेदन कर एक समतामूलक, प्रेममूलक समाज निर्माण के लिए हमें प्रेरित कर सके. यहां भी हमें यह सावधानी रखनी होगी कि यह एकता-विधायक सत्ता या शक्ति की व्यापकता किसी भी स्तर पर खंडित न होनेवाली हो. जाति, भाषा, धर्म, राष्ट्र - छोटी या बड़ी सभी सीमाओं से ऊपर उठ कर पूरे विश्व को एकता के सूत्र में पिरोनेवाली शक्ति का आह्वान आज हमें अपने अंतर में करना है. इस एकता विधायक शक्ति के अधिष्ठान पर जब हम आरूढ़ होंगे तो सहज रूप में, हम ’मैं’ के तुच्छ घेरे को तोड़ कर ’सर्व‘ की व्यापकता का महान अनुभव ले सकेंगे.पुरानी चीजें टूट रही हैं. हमें आस्था के नये दीये जलाने होंगे.!

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