सोमवार, 12 दिसंबर 2011

भारत की आत्मा है हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक एकता


 ‘साझा संस्कृति’ का एक प्रमुख तत्व है- ‘हिंदू-मुस्लिम सद्भाव’ तथा संस्कृति में हिंदू-मुस्लिम संस्कृतियों का एक-दूसरे में घुल-मिल जाना और इसी आत्मसातीकरण की दुहरी प्रक्रिया में भारतीय संस्कृति की आत्मा का निर्माण हुआ है। ‘साझा संस्कृति’ की अवधारणा का यह केंद्रीय बिंदु है। ‘साझा संस्कृति’ का मतलब ‘हिंदू-मुस्लिम एकता’ भर नहीं है बल्कि इसे बृहत्तर अर्थों में ग्रहण किया जाना चाहिए। भारतीय ज्ञान-विज्ञान, रहन-सहन, खान-पान, ललितकलाएं आदि सभी में ‘साझा संस्कृति’ की परंपरा घुली-मिली है। सांप्रदायिक विचारधारा साझा संस्कृति का मुखर विरोध करती है, इसके पीछे मूल मकसद है भारतीय संस्कृति की आत्मा की ही हत्या कर देना।
भारतीय संस्कृति में से मुस्लिम अवदान या इस्लाम के अवदान को निकाल देने का मतलब है देश को सांस्कृतिक रूप से खत्म कर देना। आधुनिक दौर में फासिज्म ही एक मात्र ऐसी वियारधारा है जो संस्कृति को खत्म करती है, बर्बरता को स्थापित करती है। यूरोप में फासिस्ट विचारधारा को जैसा आधार एवं अवसर संस्कृति पर प्रत्यक्ष हमला करने का मिला था, अगर वैसा अवसर हमारे यहां सांप्रदायिकता को मिल जाए तो वह उसी भूमिका को अदा करेगी।
बाबरी मस्जिद प्रकरण के दौरान मुस्लिम विरोधी उन्माद को सबने देखा है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सांप्रदायिक शक्तियों का चुनाव जीतकर सत्तारूढ़ हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। हिटलर भी लोकतंत्र के वोटों से ही आया था। मूल बात है सांप्रदायिक विचारधारा, यह विचारधारा फासिज्म का भारतीय प्रतिरूप है। इसे सांप्रदायिक दंगों, सांप्रदायिक दलों मात्र में सीमित करके नहीं देखना चाहिए बल्कि बृहत्तर विचारधारात्मक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा जाना चाहिए।
सांप्रदायिक विचारधारा ने पिछले कुछ वर्षों में अपना जनता से सीधे संवाद बनाया है। जबकि, धर्मनिरपेक्ष विचारधारा अभी जनता में पूरी तरह पहुंची नहीं है। साझा संस्कृति के खंडित हो जाने की जो लोग बात करते हैं, वे संस्कृति को बहुत सीमित अर्थों में ग्रहण करते हैं, जबकि साझा संस्कृति हमारी सांस्कृतिक आत्मा में समा चुकी है। उसे आसानी से नष्ट करना बेहद मुश्किल है। साझा संस्कृति पर हमले की बृहत्तर योजना के तहत ही मुसलमानों को देश से बाहर चले जाने की बात उठाई गई है। इस्लाम धर्म एवं मुसलमानों के अवदान को नकारा जा रहा है। अभी इस अवदान को नकारा जा रहा है। कालांतर में सांप्रदायिक विचारधारा देश में सत्तारूढ़ होने में सफल हो जाए तो वह उन सभी बहुमूल्य तत्वों को चुन-चुनकर नष्ट भी करेगी, जिनका किसी भी रूप में इस्लाम या मुसलमान से कोई नाता रहा हो। क्या हम साझा संस्कृति में से उन तत्वों को निकाल सकते हैं जिनके निर्माण में मुसलमानों एवं इस्लाम धर्म की निर्णायक एवं आविष्कारक की भूमिका रही है। उन आविष्कारों को देश की विरासत से निकालने का मतलब होगा, बर्बरता के युग में लौटना दूसरी बात यह कि क्या साझा संस्कृति के तत्व पूरी तरह खंडित हो गए हैं, या नकारा हो गए हैं?
साझा संस्कृति के अनेक महत्वपूर्ण तत्व आज भी जिंदा हैं और जब तक सभ्यता रहेगी तब तक जिंदा रहेंगे। ये तत्व साझा संस्कृति की धुरी हैं। वे तत्व क्या हैं-
1. सूफी संत परंपरा एवं सूफी साहित्य हमारी साहित्यिक परंपरा का अभिन्न अंग हैं। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती से लेकर मलिक मुहम्मद जायसी तक सभी सूफी संतों एवं कवियों की भारतीय संस्कृति में जुडे हैं और वे घुल-मिल गए हैं। सूफी संतों-कवियों का प्रेममार्गी साहित्य हमारी साझा संस्कृति का स्फटिक है।
2. हिंदी साहित्य का पहला कवि अमीर खुसरो हमारा साहित्यिक पूर्वज है और साझा संस्कृति का जनक भी। अमीर खुसरो को बहिष्कृत कर देंगे तो हम साहित्यिक अनाथ हो जाएंगे ? हिंदी साहित्य के लिए अमीर खुसरो वैसे ही आवश्यक है जैसे कि मनुष्य के लिए वायु।
3. साझा संस्कृति में शामिल इस्लाम एवं मुस्लिम अवदान को खारिज कर देंगे तो हमारे पास बचेगा क्या? यह सच है कि भारत में कागज एवं बारूद के आविष्कारक मुसलमान थे, आज ये दोनों ही वस्तुएं देश की सुरक्षा एवं ज्ञान के लिए आवश्यक हैं। क्या साझा संस्कृति की सर्जना से कागज एवं बारूद को बहिष्कृत किया जा सकता है? क्या आधुनिक जीवन में यह संभव है?
4. मुसलमानों ने ही मीनाकारी एवं बीदरी का काम शुरू किया। धातुओं पर कलई करके चमक लाने के आविष्कारक वही थे। यह कला ईरान से भारत आई। मुगल राजकुमारों ने ही कपड़े पर कढ़ाई एवं जरी की असंख्य डिजाइनों का आविष्कार किया। इत्रों की खोज की। आज हम सबके जीवन में ये चीजें घुल-मिल गई हैं।
5. साझा संस्कृति के जनक अमीर खुसरो ने ही कव्वाली, तराना का श्रीगणेश किया था। जिलुफ, सरपदा, साजगीरी जैसे रागों को जन्म दिया। अमीर खुसरो ने नायक गोपाल के साथ मिलकर ही सितार एवं तबला का आविष्कार किया। क्या सितार और तबला को बहिष्कृत कर सकते हैं?
6. साझा संस्कृति हिंदू-मुसलमान का शारीरिक सहमेल एवं एकता का मोर्चा मात्र नहीं है बल्कि इससे बढ़कर है। वह एक विचारधारात्मक शक्ति है। हिंदू-मुस्लिम संस्कृति के सहमिलन के कारण ही अनेक अरबी एवं फारसी राग भारतीय संस्कृति में घुल-मिल गए हैं। वे साझा संस्कृति के ही अंग हैं। इनमें कुछ हैं-जिलुक, नौरोज, जांगुला, इराक, यमन, हुसैनी, जिला दरबारी, होज, खमाज ये सभी जनता एवं राजा दोनों में ही लोकप्रिय रहे हैं। भारतीय संगीत की ध्रुपद परंपरा मरणोन्मुखथी पर मुगल दरबारों के संरक्षण के कारण ही बच पाई जिसे कालांतर में तानसेन ने चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया।
7. जौनपुर के सुल्तान हुसैन ने प्रसिद्ध राग हुसैनी, कान्हडा और तोड़ी का आविष्कार किया था। उसके दरबार में हिंदू और मुसलमान दोनों समुदाय के विद्वान थे जिनमें-नायक बख्श, बैजू (बावरा), पांडवी, लोहुंग, जुजूं, ढेंढी और डालू के नाम प्रमुख हैं। अकबर के नवरत्नों में तानसेन सर्वोपरि था।
8. जहांगीर के दरबार में चतरखा, पार्विजाद, जहांगीर दाद, खुर्रम दाद, मक्कू, हमजान और विलास खां (तानसेन का बेटा) प्रमुख थे, जिनका संगीत की साझा परंपरा बनाने में बड़ा योगदान है।
9. मोहम्मद शाह रंगीला ने नादिरशाह के आक्रमण के बावजूद अदारंग, सदारंगा और शोरी आदि के जरिए संगीत की परंपरा को सुरक्षित रखा जिसमें सदारंगा ने ख्याल का आविष्कार किया। हालांकि इसके साथ हुसैन शाह सरकी को भी जोड़ा जाता है। शोरी ने पंजाबी टप्पा को दरबारी राग में रूपांतरित किया। इन सबके अलावा रेख्ता, कौल, तराना, तख्त गजल, कलबना, मर्सिया और सोज के भी गायक थे। वजीर खां ख्याली, फिदा हुसैन सरोदिया, मुहम्मद अली खां रूबाइया को क्या हम साझा संस्कृति से काट सकते हैं? इससे भी बड़ी बात यह कि क्या संस्कृति में संगीत आता है या नहीं? यदि हां तो फिर संगीत परंपरा की उपेक्षा क्यों? क्या यह हमारे संकीर्ण नजरिए का द्योतक नहीं हैं?
10. मुस्लिम संगीतकारों ने कुछ प्रमुख वाद्य यंत्रों का भी आविष्कार किया था। जिनमें कुछ हैं-सारंगी, दिलरूबा, तौस, सितार, रूबाब, सुरबीन, सुर सिंगार, तबला और अलगोजा। मुसलमानों की मदद से ही शहनाई, उन्स (रोशन चौकी) और नौबत (नगाड़ा) का आविष्कार हुआ था। तारों को झंकृत करने वाली मिजराब, मुस्लिम खोज का ही परिणाम है। क्या संगीत की इतनी लंबी परंपरा एवं अवदान को भारतीय संस्कृति और साझा संस्कृति से निकालकर हम अपने समाज को बर्बरता के युग में नहीं ले जाएंगे? संगीत हमारी साझा संस्कृति का बहुमूल्य रत्न है, वह हमारे दिलों को जोड़ता है हमें और ज्यादा मानवीय बनाता है। संगीत की परंपरा में हिंदू मुसलमान का और मुसलमान हिंदू का शिष्य बनता रहा है और दोनों अपने गुरू को देवता की तरह मान्यता देते रहे हैं।
11. ‘साझा संस्कृति’ का यह दायरा संगीत तक ही नहीं है बल्कि चित्रकला एवं स्थापत्य इसके प्रमुख रूप हैं। सांप्रदायिक विचारधारा ने बाबरी मस्जिद प्रकरण के संदर्भ में साझा संस्कृति की धरोहर ऐतिहासिक पुरातात्विक निधि को ही अपना निशाना बनाया है और इसी तरह की 3,000 मस्जिदें हैं जिनको गिराकर वे मंदिर बनाना चाहते हैं। यूरोप में फासिज्म ने सत्ता पर काबिज होने के बाद संस्कृति को नष्ट किया था। सांप्रदायिक शक्तियां जनता के नाम पर नीचे से दबाव डालकर ऐसा कर रही हैं। यह अचानक नहीं है कि वे मुगलकालीन स्थापत्य को नष्ट करना चाहती हैं बल्कि यह सोची-समझी योजना का हिस्सा है। इस बार स्थापत्य है, अगली बार समूची संस्कृति होगी। अत: इस रणनीति को विफल करना साझा संस्कृति के पक्षधरों की सबसे बड़ी जरूरत है।
12. साझा संस्कृति के एक अन्य तत्व चित्रकला को हम लोग अभी भी भूले नहीं है। चित्रकला में मुगलशैली का अवदान बेमिसाल है और गर्व की वस्तु है। मुगलदरबारों में यह अमूमन होता था कि अगर मुस्लिम चित्रकार ने खाका बनाया है तो हिंदू चित्रकार ने रंग भरे हैं। अकबरनामा में आदम खां के प्राणदंड वाले चित्र का खाका मिस्कीं ने खींचा, पर रंग शंकर ने भरे थे। एक दूसरे चित्र का खाका मिस्कीं ने खींचा रंग सरवन ने भरे, चेहरानामी तीसरे चित्रकार ने किया और सूरतें माधो ने बनाईं।
मुगल शैली का भारतीय चित्रकला पर प्रभुत्व ढाई सौ साल रहा। इस बीच हजारों चित्र बने। दरबारों में सैकड़ों चित्रकारों को संरक्षण मिलता था। स्वयं अबुल फजल ने सौ चित्रकारों का उल्लेख किया है जिनमें सत्रह प्रधान चित्रकार थे, जिनके चित्रों पर हस्ताक्षर मिलते हैं। 1600 ई. में तैयार की गई हस्तलिपि वाकियाते बाबरी में 22 चित्रकारों के हस्ताक्षर हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि इनमें हिंदू चित्रकार अधिक हैं। अबुल फजल ने जिन 17 कलाकार-चित्रकारों का जिक्र किया है, उनमें मात्र चार मुसलमान हैं और तेरह हिंदू हैं। इसी तरह रज्मनामा के हस्ताक्षरों में 21 नाम हिंदुओं के हैं, सात मुसलमानों के हैं। मुगलशैली का राजपूत शैली एवं दकनी शैली पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। क्या आज हम मुगल शैली के प्रभाव को साझा संस्कृति से बहिष्कृत कर सकते हैं? क्या चित्रकला की परंपरा इस अवदान को भूल सकती है? चित्रकला को मुगल शैली की बहुत बड़ी संपदा ब्रिटिश साम्राज्यवादी लूटकर ले गए, पर कला इतिहास की पुस्तकों में इस परंपरा का विस्तृत वर्णन मिलता है। बेहतर होता कि भारत के शासक वह कलाकृतियां किसी भी रूप में वापस लाने का प्रयास करते।
13. मुगलों के अवदान के कारण ही भारतीय पहनावे में भारी परिवर्तन आया। यहां तक कि शिवाजी और महाराणा प्रताप तक भव्य मुगल पोशाकें पहनते थे। भारतीय पोशाक अचकन और पजामा मुगलों की देन है। तुर्क, पठान और मुगलों द्वारा प्रचलित जुराब और मोजा, जोरा और जाया, कुर्त्ता और कमीज,ऐचा, चोगा और मिर्जई भारतीय वस्त्र परंपरा का अभिन्न अंग है।
14. भारतीय जीवन शैली में हिंदू वधू को मुसलमानों का सबसे महत्वपूर्ण उपहार है नथ। आज नथ हिंदू औरत की सुंदरता का प्रतीक है। इसके आविष्कारक मुसलमान ही थे। मुगलों ने ही हिंदू दूल्हें के सिर पर सेहरा और मौर बांधा। सबसे अद्भूत बात है ‘रोटी’ का भारतीय शब्द-भंडार में समा जाना, ‘रोटी’ (फुलका या चपाती) शब्द तुर्की शब्द ‘रोती’ का सहजिया है। जिस पर रोटी सेंकते हैं वह होता है ‘तवा’ यह भी मुगलों की ही देन है। क्या ये सब ‘साझा संस्कृति’ में आज भी बरकरार नहीं हैं? तब ‘कंपोजिट कल्चर’ के खत्म हो जाने की बात बेबुनियाद है। वह कंपोजिट कल्चर खत्म हुई है जिसे बुर्जुआजी नेताओं एवं नेहरू ने विशेष रूप से उछाला था और यह बुर्जुआजी की तात्कालिक रणनीति से उपजी इकहरी धारणा थी।
15. उर्दू साहित्य की परंपरा एवं अवदान को सभी जानते हैं जिसे मैं दोहराना नहीं चाहता। सांप्रदायिक विचारधारा का साझा संस्कृति पर किया गया वैचारिक हमला वस्तुत: हमें संस्कृतिहीन एवं अमानवीय दिशा में ले जाने की एक कोशिश भर है। इस बार हमला स्थापत्य पर है, सन् 1977-78 के वर्षों में इतिहास की पुस्तकों पर था। विशेषकर उन पुस्तकों पर जो सांप्रदायिक इतिहास लेखन के बजाय वैज्ञानिक इतिहास लेखन पर बल देती थीं। साझा संस्कृति को अगर कोई खतरा है तो सांप्रदायिक विचारधारा और राज्य की निष्क्रिय-कमजोर धर्मनिरपेक्षता से जिसका सांप्रदायिक संगठन लाभ उठा रहे हैं।
बुर्जुआ विचारकों एवं दलों ने साझा संस्कृति पर होने वाले हमलों को कानून एवं व्यवस्था का मसला बना दिया है, वह इस हमले की विचारधारा से टकराना नहीं चाहते और न ही साझा संस्कृति का संवर्धन करना चाहते हैं क्योंकि बुर्जुआ मूलरूप से संस्कृति का शत्रु होता है और मासकल्चर का संवर्द्धक होता है। क्लासिक रचनाओं और उस युग के अवदान को वह नापसंद करता है। उनसे घृणा करता है, इसलिए वह कभी भी साझा संस्कृति का रक्षक भी नहीं हो सकता। विभिन्न कलारूपों एवं उर्दू भाषा के प्रति उसका विद्वेषभाव जग जाहिर है। अत: नेहरू की तर्ज पर साझा संस्कृति न तो समझी जा सकती है, न उसका संवर्धन संभव है। साझा संस्कृति की शक्ति, सीमा एवं संभावनाएं मार्क्सीय दृष्टि से ही समझी जा सकती हैं।

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