गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

नक्सलवाद की सुरुआत

 आज के समय में नक्सलवाद एक बहुत बड़ी समश्या बन चुकी है पर इसकी सुरुआत  किस तरह से कहा से हुई इसी में प्रकाश डालने की कोशिस कर रहा हु !भारत के पूर्वोत्तर राज्य और प. बंगाल, झारखण्ड तथा महाराष्ट्र-आँध्रप्रदेश के कुछ इलाको में आदिवासियों द्वारा हो रहे आंदोलन कोनक्षलवाद और माओवाद के नाम से जाना जाता है. पिछले कुछ सालो में कई लोग इसका शिकार हुए, कई निर्दोष लोगो की जानेगई, करोडो रुपयों की संपत्ति का नुकशान हुआ. अब सरकार भी नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे केरूप में देखती है. कुछ बुद्धिजीवियो ने तो नक्शलवादीयो को आतंकवादी ही बताया (जिस तरह कुछ गाँधीवादी भगतसिंह को भी आतंकवादी मानते है.) आखिर सवाल ये उठता है की आदिवासियों के साथ नक्सलवाद और माओवाद जैसे विशेषण कैसे जुड़े? आदिवासी कौन है? वो आदिवासी क्यों कहलाये? कार्य कारण के सिद्धांत के अनुसार कोई भी कार्य के पीछे कोई न कोई कारणअवश्य होता है, तोनक्सलवाद और माओवाद के पीछे क्या  कारण जवाबदार रहा होगा? इसका जवाब हमें इतिहास से ही मिलशकता है.
इतिहास के जानकर भारत के आदिवासियो को विश्व की प्राचीनतम और सुआयोजित नगर रचना वाले हरप्पा और मोहें-जो-दरो जैसेनगरो को विकसित करने वाली सिन्धु सभ्यता के जनक बताते है. मतलब की आदिवासी भारत के मूलनिवासी है, और ईशापूर्व 3000 साल पहेले आदिवासी प्रजा द्रविड़ प्रजा के नाम से जानी जाती थी. बर्बर आर्यों के अचानक हुए हमले से उनको अपने मूल स्थानसे विस्थापित होना पड़ा. आर्यों ने द्रविड़ो की पहचान मिटाने के लिए कई हथकंडे अपनाये. वैदिक काल में उनको राक्षस, दानव, औरअसुर जैसी उपमाए दी गई,  आखिर में आर्यों को चातुर्वर्ण व्यवथा नाम की असामाजिक व्यवथा दाखिल करके सफलता मिली. महाभारत काल में गुरु द्रोण ने आदिवासी एकलव्य से दक्षिणा के तौर पर एकलव्य का अंगूठा ले लिया था, जब की एकलव्य ने द्रोण से शिक्षा प्राप्त ही नहीं की थी. शायद आदिवासियों के अंगूठे लेने कीशुरुआत यही से हुई थी जो आज भी चालू है. आज भी मल्टी नेशनल कंपनीओ को दी जाने वाली जमीन के कागजाद पर आदिवासी किशान के दस्तखत नहीं बल्कि उसका अंगूठा ही लिया जाता है. शायद अंगूठे लेने के लिए ही आदिवासीओ को अशिक्षित रखा गयाहो! इस तरह जो भारत के एक समय के शासक थे वो अपने ही देश में गुलाम बन गए.इस तरह सदियो से चलते आये आदिवासियो के संघर्ष में हम नक्सलवाद की बात करे तो, इसकी शुरुआत प.बंगाल के प्रसाद ज्योतगाव के संथाल आदिवासी किशान बिमल कीशन के संघर्ष से शुरू हुई. कर्ज में डूबे आदिवासी बिमल कीशन का खेत जमींदार के पासगिरवी पडा था. बिमल कीशन को अपने ही खेत में काली मजदूरी करनी पड़ती थी बदले में जमींदार मामूली वेतन देता था. मजदूरी और मारपीट से तंग आकर बिमल कीशन ने अदालत से न्याय मांगा. अदालत ने मार्च 1967 में बिमल कीशन के पक्ष में फैसलासुनाया लेकिन जमींदार की गुंडागर्दी के कारण वो अभी भी अपने खेत में खेती नहीं कर सकता था. जमींदार ने कोई पुलिस ऑफिसरको पैसे देकर खरीद लिया था. अदालत के फैसले के बावजूद पुलिस और जमींदार की तानाशाही और गुंडागर्दी से तंग आकर कुछसंथालो ने 24 मार्च 1967 के दिन हत्या कर दी. लेकिन आदिवासियो को शायद इसके अंजाम का पता नहीं था. दुसरे दिन यानि 25 मार्च 1967 के दिन पुलिस फ़ोर्स प्रसाद ज्योत में पहुच गई और उस दिन पुलिस की गोलीबारी में 11 लोगो की मौत हो गई. जिनमेमहिला, और 2 बच्चे थे.  8
पुलिस के इस अमानुषी अत्याचार के खिलाफ आसपास के गावो के लोग भी इकठ्ठे होने लगे. ये लोग भी बिमल कीशन की तरहही जिंदगी बिताते थे. प्रसाद ज्योत की तरह नक्शलबाड़ी में भी आदिवासियो की कई समस्याए थी. यहाँ पर चारू मजुमदार नाम काकम्युनिस्ट आदिवासिओ का नेतृत्व कर रहा था. चारू मजुमदार मार्क्स, लेनिन और माओ से प्रभावित थे. इस लिए वो मानते थे कीसशस्त्र संघर्ष से ही सता परिवर्तन ही आदिवासिओ की समस्या का इलाज है. 25 मार्च को प्रसाद ज्योत गाव में हुई आदिवासियो कीहत्या ने नक्शलबाड़ी में नक्सलवाद के बिज बोये. चारू मजुमदार कनु सान्याल और जंगल संथाल के साथ सडको पर निकल पड़े. 23 मई 1967 में आदिवासियो ने नक्शलबाड़ी में सरकारी एवं जमींदारो की जमीन पर कब्ज़ा कर लिया. और आदिवासियो के इसआन्दोलन को रोकने के लिए पुलिस फ़ोर्स को भेजना पड़ा. नक्शलबाड़ी में पुलिस और आदिवासियो के बिच संघर्ष हुआ. जिसमे एकअफसर घायल हुआ और अस्पताल में उसकी मौत हो गई. दुसरे दिन पुलिस की फायरिंग में 5 आदिवासी मारे गए जिनमे 2 महिलाऔर 2 बच्चे थे. इस तरह प्रसाशन और आदिवासियो के बिच दुरी बढती गयी. और संघर्ष बढ़ता ही गया, पुलिस के अमानुषी वर्तनने नक्शलवाद की आग को फ़ैलाने में पेट्रोल का काम किया. नक्षलवाद जैसी समस्या फ़ैलाने में हम किसी जिम्मेदार ठहराए?? शासन, प्रशासन, न्याय या फिर हमारी (अ)सामाजिक व्यवस्था को?? अब देखना यह भी है की कब तक आदिवासियो के अंगूठे लिए जायेंगे? और  सरकार नक्शलवाद को कैसे मिटाती है?? आदिवासियो की समस्या को मिटाकर या आदिवासियो को मिटाकर ?जहा तक मेरा सोचना है की आदिवासियों को उनकेहक़ देकर ही इस नक्सलवाद को जड़ से मिटाया जा सकता है ,पर इसके लिए आदिवासियों को भी प्रशासन का सहयोग करना होगा क्योकि इतने बड़े भारत देश की पोलिश और सेना से लड़ना आदिवासियों के बस की बात नहीं है ,यदि ओ चाहे तो भी इस तरह से लड़कर अपना हक़ नहीं ले सकते है ,...

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